लेख
स्त्री के स्वराज का सत्याग्रह
(टेक बे त टेक न त गो – नीलाक्षी सिंह)
- आशुतोष
जब युग की चेतना व्यक्ति चेतना से एकाकार होती है तब किसी विशेष रचना का सृजन होता है। एक समृद्ध रचना और रचनाकार अपने समय के दबावों और समस्त वैचारिक सरणियों, राजनैतिक, आर्थिक तथा सामाजिक परिवर्तनों में सचेत तौर पर सहभागी बनते हैं। रचना और रचनाकार का यही सहभाग उन्हें अपने समय की रचनाधर्मिता में खास स्थान दिलाता है। हिन्दी कहानी के युवा कथा आन्दोलन के इस दौर में उपर्युक्त आधारों को नीलाक्षी सिंह के रचना–कर्म में देखा जा सकता है। उनकी कहानी ‘परिन्दे का इन्तजार सा कुछ’ पाठकों–आलोचकों के बीच काफी चर्चित हुई थी। नीलाक्षी सिंह के पास विषयों की विविधता है तो वहीं ‘कहन’ की अपनी एक खास शैली है।
वैश्वीकरण के इस दौर में बाजार की व्याप्ति, प्रक्रिया और इसके दबावों पर हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में खूब चर्चा होती रही है। हिन्दी में इससे सन्दर्भित सार्थक बहसों के साथ ही कुछ महत्त्वपूर्ण कहानियाँ भी प्रकाशित हुई हैं। अपने समय की इस बहस में नीलाक्षी सिंह ने अपनी कहानी ‘टेकबे त टेक न तो गो’ के माध्यम से एक सार्थक और विश्वसनीय हस्तक्षेप किया है। वैसे यह कहानी ‘प्रतियोगी’ शीर्षक से उनके कहानी–संग्रह में शामिल है। लेकिन कहानी का कथ्य और टोन ‘टेकबे त टेक न तो गो’ शीर्षक के साथ जितना खुलता और खिलता है, वह बात ‘प्रतियोगी’ में कहाँ। ‘प्रतियोगी’ शब्द की तत्समपरकता कहानी की मुख्य स्त्री–पात्र दुलारी के देशज प्रतिरोध को मजबूती से उभार नहीं पाता। नीलाक्षी सिंह ने इस कहानी का कथा–काल उन्नीस सौ चैरानबे बताया है। यह लेखिका का सायास चयन है। यह वही समय है जब शीत युद्ध के खात्मे, सोवियत संघ के पतन और ग्लोबलाइजेशन की प्रक्रिया में समूची दुनिया का तन्त्र बदल रहा था, और उस प्रवाह में राजनीति–आर्थिक राजनीति में, बाजार–उदारीकृत बाजार में और समाज–ग्लोबल विलेज में बदलते जा रहे थे। भारत में आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया पीवी नरसिम्हा राव के समय में शुरू हुई थी, मनमोहन सिंह उस समय वित्तमन्त्री थे। एक रूपक में कहें तो तब का ‘वित्त’ आज ‘प्रधान’ हो गया है। बाजार और वित्त के इस बढ़ते–बदलते चरित्र की पृष्ठभूमि में नीलाक्षी की यह कहानी बहुत महत्त्वपूर्ण है।
यह पितृसत्ता के चैखट को लाँघती स्त्री और उसकी अस्मिता की कहानी है। इस बार स्त्री ने अपने स्व की रक्षा बाजार के माध्यम से की है। यहाँ बाजार अपने समस्त उपादानों के साथ एक ‘टूल्स’ के तौर पर प्रयुक्त हुआ है। ‘पाकड़पुर सदर की चिल्लागंज चैमुहानी’ का वह बाजार और उसके तीन बेचनहार, जिनके बीच पारस्परिक सहयोग का नाता था, (छक्कन प्रसाद और दुलारी का तो दाम्पत्य का भी नाता था) को ‘एक सफेद दाढ़ी वाले बूढ़े जादूगर’ बाजार ने ‘प्रतियोगी’ में बदल दिया। उस बूढ़े जादूगर की जादूगरी के पहले उस चैमुहानी पर छक्कन प्रसाद, दुलारी और मुसमातिन के ‘जलेबी’, ‘कचरी’ और ‘पिअजुआ’ का एक प्रतियोगिताहीन बाजार का जलवा कायम था। वह एक पारम्परिक बाजार था। उसमें वस्तुओं के मानवीय सम्बन्ध चलते थे, वह लोगों की जरूरतों को पूरा करने का बाजार था। पर उस चैमुहानी पर जो नया बाजार आता है, वह लोगों की जरूरतों को बढ़ाने का बाजार है। इस बाजार के पास डब्बा और बोतल बन्द उत्पादों का स्टॉक है। इसमें मनुष्यों के वस्तुगत सम्बन्ध प्रमुख हैं। इसे अचानक मनुष्य के जीवन को रातो–रात बदल देने के ढेर सारे जादू आते हैं। इसके जादू के फेर में सबसे पहले छक्कन प्रसाद पड़ते हैं, उनको अपना ही जीवन अब अकारथ लगने लगता है। वे बाजार के माध्यम से अपना वर्तमान और भविष्य बदल देना चाहते हैं, चाहते हैं क्या, बदल ही देते हैं। वे कचरी, जलेबी को अलविदा कहकर ‘छक्कन प्रसाद एंड संस’ के नाम से समोसा और लाल जामुन बेचने लगते हैं। पर इस कोशिश में चैमुहानी का गणित गड़बड़ा जाता है। दुलारी और मुसमातिन की दुकानदारी चैपट हो जाती है। मुसमातिन ने तो बाजार ही बदल लिया। अब दुलारी के पास दो रास्ते थे, एक कि वह अपना चूल्हा कढ़ाई समेट कर पति छक्कन प्रसाद के साथ उनकी दुकान पर बैठने लगे, और दूसरा, यह कि वह लड़े अपनी उस पारम्परिक इयत्ता के लिए, अपने होने की शर्त के लिए। वैसे छक्कन प्रसाद की ओर से उसको खुला आमन्त्रण भी था पर ‘दुलारी ने निर्णय किया कि वह कभी भी खूँटे में बँधा अपना आँचल तुड़ाकर सड़क के उस पार छक्कन प्रसाद की दुकान तक नहीं जाएगी। वो कचरी और वो जलेबी उसकी दुकान में बिकने वाली चीजें–भर नहीं थीं, वे उसके अपने होने की शर्त थीं। दुलारी जूझेगी अपने मोर्चे पर।’ दुलारी का यह निर्णय भारी है पर स्त्री जब भी पूरे मन से कोई निर्णय लेती है तो उसका मन हल्का हो जाता है, बिल्कुल उस कपास के फूल की तरह जो दुलारी के दाम्पत्य के नितान्त व्यैक्तिक क्षणों में उस निर्णय के बाद उड़ा था।
दुलारी एक स्वतन्त्रचेता स्त्री है। वह पति का अनुगमन नहीं करती, बल्कि अपनी अस्मिता की खोज करती है। अस्मिता की खोज की प्रक्रिया में उसका धैर्य और संयम उसे एक यादगार चरित्र में बदल देता है। नीलाक्षी सिंह की निगाह बाजार के विस्तारवादी प्रवृत्ति पर भी है, जो छक्कन प्रसाद की महत्त्वाकांक्षा को लगातार बढ़ाती जा रही है। वे अब आइसक्रीम, चाउमीन, कोल्ड ड्रिंक के साथ कस्बे का एकमात्र फास्टफूड सेंटर खोलने की घोषणा कर देते हैं। उसको लेकर जितनी तैयारी छक्कन प्रसाद कर रहे हैं उतनी ही कस्बे की उत्सुकता भी बढ़ती जा रही है। लेकिन दुलारी की चिन्ता कुछ और है। छक्कन प्रसाद बाजार के धुन पर ताल दे रहे हैं और दुलारी अपनी आत्मा की लड़ाई लड़ रही है। जाहिर–सी बात है कि वह उलझी हुई भी है। ऐसे में उसका सोलह साल का बेटा टिंकू पूछता है कि ‘माँ, क्या तुम बाजार में इस तरह टिक पाओगी? ‘दुलारी के पास इसका कोई जबाब नहीं है। बाजार में टिकने का औंजार टिंकू ही देता है – ‘चार जलेबियों की खरीद पर दो कचरी और एक कप चाय मुफ्त’। विज्ञापन के इस फार्मूले ने लोगों के साथ ही छक्कन प्रसाद के ‘फास्ट फूड’ की चकाचैंध को घूमिल कर दिया। कहानी के अन्त में दुलारी के सामर्थ्य के पीछे बैठा मिंटू ‘टेकबे त टेक न तो गो’ की धुन पर सीटी बजा रहा है।
नीलाक्षी सिंह अपनी इस कहानी के माध्यम से लगभग परस्पर विरोधी विमर्शों को एक साथ साधती हैं। आमतौर पर पूँजी आधारित बाजार अपने अस्तित्व के लिए अपने विज्ञापनों में हमारे समाज के सर्वाधिक कोमल समूहों जैसे बच्चों और स्त्रियों का इस्तेमाल करता आ रहा है। नीलाक्षी सिंह के पात्र दुलारी (स्त्री) और मिंटू (बच्चा) अपनी अस्मिता के लिए बाजार का इस्तेमाल करते हैं। इस्तेमाल का यह तरीका नयी पीढ़ी का लड़का मिंटू अपनी माँ को देता है। यह नीलाक्षी सिंह की एक विलक्षण युक्ति है जो उन्हें खास बनाती है। दुलारी की लड़ाई एक स्त्री के अपने होने की लड़ाई है। इसलिए दुलारी पितृसत्ता से अपनी आत्मा की जमीन पर अपने अस्तित्व के हथियार से लड़ती है। उसकी लड़ाई के प्रतीक भी उसी से उपजे हैं। छक्कन प्रसाद की दुकान का नाम ‘छक्कन प्रसाद एंड संस’ पितृसत्तात्मक मूल्यों को ही स्थापित करता है। जिसके बरक्स नीलाक्षी सिंह की दुलारी ‘दुलारी जलेबी सेंटर’ खोलती है। जाहिर–सी बात है कि ये लेखिका की अपनी चीजें हैं और मौलिक हैं। आर्थिक नवउपनिवेशवाद के इस दौर में नीलाक्षी सिंह अपने दृष्टिकोण और भाषा के लिए न तो इतिहास के उस दौर में जाती हैं जब भारतीय स्वाधीनता संघर्ष और बुजुर्वा जनवाद की बहाली का अभियान जारी था और न ही विकलांग पूँजीवादी समाज–विकास के उस दौर में, जब आर्थिक उपनिवेशवाद की शुरुआत नहीं हुई थी। पश्चिमी नारीवाद के मुहावरों का भी नीलाक्षी ने इस कहानी में उपयोग नहीं किया है। क्योंकि आज ‘‘स्पेस और टाइम’’ का वह सन्दर्भ पूरी तरह से बदल गया है। इसलिए नीलाक्षी सिंह दुलारी के माध्यम से वैश्वीकृत बाजार का प्रतिरोध बिल्कुल देशज ढंग से करती हैं। चाउमिन, साटी, कोल्ड ड्रिंक्स के बरक्स दुलारी कचरी और जलेबी को खड़ा करती है। यह स्त्री के प्रतिरोध का अपना तरीका है। स्त्री को ऊर्जा और शक्ति अपनी जड़ों से मिलती है। आज बाजार को हम अपने जीवन से बाहर नही निकाल सकते, इसलिए बाजार से बाहर खड़ा होकर उसे गाली देने से बेहतर है उसको अनुकूलित करने की कोशिश करना। दुलारी भी यही करती है। यह बाजार को बाजार के ही तर्कों के आधार पर साधने की कोशिश है। बाजार स्वाद का मानकीकरण करता है। बाजार प्रदत्त इस ‘यूनीफार्मिटी’ के बरक्स दुलारी देशज स्वाद को खड़ा करती है। यह कहीं से भी स्वदेशी का पारिभाषिक फार्मूला न होकर एक स्त्री के सत् से उपजी हुई चीज है। यह वैश्विक और स्थानीयता का भी द्वन्द्व है। कचरी और जलेबी बचाने की दुलारी की जिद नये डिब्बा बन्द बाजार में खुद को बचाने के जिद से जुड़ जाती है। इसमें दोनों बचते हैं। दुलारी के उस ऐतिहासिक निर्णय से स्त्री के एक अनोखे प्रतिरोध का तो जन्म होता ही है साथ ही एक नयी संरचना में कचरी और जलेबी का भी पुनर्जन्म होता है। आखिरकार किसी के जन्म और पुनर्जन्म के बारे में एक स्त्री ही सबसे बेहतर जानती है।
दुलारी का पति के साथ नहीं जाना पितृसत्ता का विरोध है, वह पुरुष का उपनिवेश बनने से इनकार कर देती है। वह जानती है कि पति की दुकान में बैठना अपनी अस्मिता का विसर्जन करना है, पुरुष के अस्तित्व में अपने अस्तित्व को घुलाकर ‘एड्रेस लेस’ होना दुलारी को गँवारा नहीं है। अपनी इस कोशिश के साथ दुलारी अपना ‘पता’ खुद बनती है। दुलारी के प्रतिरोध की जड़ें सुदूर दुलारी की ही अपनी परम्परा में हैं, जब दुलारी की माँ बिहुली ने बरसों पहले दुकान की तरकारियों को उटकेरते गोरे साहब को अपनी भाषा में समझाया था कि ‘टेकबे त टेक न तो गो’, तब माँ के सामने भी ब्रिटिश उपनिवेश का कोई आकर्षण नहीं था और न अब बेटी के यहाँ भी पुरुष उपनिवेश का कोई आकर्षण है। ऐसा नही है कि यह सब करना दुलारी के लिए आसान था। दुलारी का संघर्ष जितना बाहर में था उतना ही आन्तरिक भी था। पति के बिजनेस में शमिल नहीं है तो वह उनकी समृद्धि के उपभोग से भी परहेज करती है। नीलाक्षी सिंह ने दुलारी के उन दिनों की मन:स्थिति का अभूतपूर्व वर्णन किया है। पति के साथ एक ही घर में रहते हुए भी दुलारी पति के पेशे में अपने ‘स्व’ के रक्षार्थ शामिल नहीं होती। वह एक तरह से स्त्री के स्वराज के लिए किया जाने वाला सत्याग्रह है। यहाँ एक खास बात और है कि दुलारी जो कुछ कर रही थी उसमें थोड़ी–सी चूक से उसका घर बरबाद हो सकता था, वैसे भी दुलारी पितृसत्तात्मक मूल्यों वाले घर को बचाने की कामना नहीं करती। वह कबीर की तरह बाजार में खड़ी है और घर खतरे की जद में है।
यह कहानी बाजार का कोई विकल्प नहीं देती शायद इसलिए भी कि ऐसा करना नीलाक्षी सिंह का कोई अभीष्ट नहीं था। वो दुलारी के चरित्र और उसके प्रतिरोध के माध्यम से जो कहना चाहती हैं उसमें सफल रहती हैं। पर इतना तो है कि दुलारी का प्रतिरोध ‘थिंक ग्लोबल एक्ट लोकल’ का अद्वितीय उदाहरण है और यही बात नीलाक्षी सिंह के लेखन के लिए भी कही जाय तो क्या बुरा है! (हंस, जुलाई 2002)
(यह आलेख ‘संवेद’ के 71वें अंक (दिसंबर 2013) में प्रकाशित है।)
आशुतोष – चर्चित युवा कथाकार। कहानी संग्रह ‘मरें तो उम्र भर के लिए’ भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित। कथालोचना में विशेष अभिरुचि। सम्प्रति – डॉ. हरि सिंह गौड़ विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर के पद पर कार्यरत। मोबाईल – +919479398591