प्रेमचन्दलेख

प्रेमचन्द और केदारनाथ सिंह

 

  • मृत्युंजय पाण्डेय

 

‘प्रेमचन्द और केदारनाथ सिंह’ यह शीर्षक थोड़ा असहज लग सकता है। कहाँ कथा सम्राट प्रेमचन्द और कहाँ काव्य के शिखर को छूने वाले केदारनाथ सिंह। एक गद्य का महारथी तो दूसरा पद्य का बाहुबली। आखिर इन दोनों को कैसे देखा जाए? काल भी तो एक नहीं है? प्रेमचन्द की मृत्यु के समय केदार जी की उम्र मात्र दो वर्ष थी। यह शीर्षक न जाने ऐसे कई प्रश्न खड़ा करता है। जब प्रश्न है तो उसके उत्तर भी ढूँढने होंगे। प्रेमचन्द और केदारनाथ सिंह किस बिन्दु पर आकर मिलते हैं, यह इस आलेख में हम देखेंगे। वे कब कहाँ और कैसे मिले, यह भी हम जान पाएँगे। तो चलिये चलते हैं, केदारनाथ सिंह के प्रेमचन्द के पास। इससे पहले थोड़ा-सा प्रेमचन्द के बारे में।

यदि मैं गलत नहीं हूँ तो हिन्दी और उर्दू के पाठकों की पहली मुठभेड़ प्रेमचन्द से ही होती है। साहित्यकार के नाम पर वे पहले पहल प्रेमचन्द से ही मिलते हैं और अचरज यह कि प्रेमचन्द उनसे सहज भाव से मिलते भी हैं। उन्हें यह लगता ही नहीं कि वे किसी बड़े या नामचीन साहित्यकार से मिल रहे हैं। स्नातक तक लगभग पचानवे प्रतिशत विद्यार्थियों के प्रिय लेखक प्रेमचन्द ही होते हैं। इसका एक कारण यह भी है कि प्रेमचन्द उन्हें अपना-सा लगते हैं। जैसे कोई गाँव-घर का आदमी उनकी कथा कह रहा हो। जी हाँ, प्रेमचन्द कहानी लिखते नहीं, सुनाते हैं। सुदर्शन के बाद शायद वह हिन्दी के इकलौते ऐसे कहानीकार हैं, जिनकी कहानियाँ सुनाई जा सकती हैं। आज की कहानियाँ तो पढ़ी भी नहीं जातीं, सुनाने की कौन कहे। प्रेमचन्द अपने आसपास की कथा लिखते हैं। एकदम जमीन और जीवन से जुड़ी हुई। उनकी कहानियों के केन्द्र में जीता-जागता मनुष्य है और साथ है उसका संघर्ष। उसकी जिजीविषा। जो एक आम आदमी की विशेषता है। तीसरी बात, उनकी भाषा एकदम सहज-सरल है। आमजन की बोलचाल की भाषा जैसी। लगता ही नहीं कि हम कहानी पढ़ रहे हैं। प्रेमचन्द को पढ़ना उस दुनिया में फिर से लौटना है, जो हमसे छूट गई है। उनमें कल्पना की उड़ान कम, यथार्थ अधिक है। समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक विकृतियों पर वे बराबर प्रहार करते रहे। अपनी सहज-सरल लेकिन बेलाग भाषा द्वारा उसे बेपर्द करते रहे। वे किसी के साथ भी रियायत नहीं करते। उनके लिए मनुष्य से बड़ा कुछ नहीं था। जाति-धर्म तो बिल्कुल ही नहीं।

अब केदारनाथ सिंह के पास चलते हैं। प्रेमचन्द की तरह केदार जी भी हमारे बीच के लेखक हैं। वे भी गाँव-घर की कथा कहते हैं। उनके लिए भी आम आदमी और उसका संघर्ष ही महत्त्वपूर्ण है। उनकी कविताओं और स्मृति में गाँव के लोग और उनकी समस्याएँ ही बसी हुई हैं। ये सारी चीजें उन्हें ‘रोकती-टोकती’ हैं। उनकी कविताओं का रिश्ता गाँव की दुनिया से है। महानगर के फ्लैट में नहीं, बल्कि गाँव की झोपड़ी में उनकी कविताएँ निवास करती हैं। हल्कू और होरी जैसे अनेक पात्र केदार जी के यहाँ दिख जाते हैं। इतना ही नहीं वे किसान जीवन की वस्तुओं को भी अपनी संवेदना का हिस्सा बनाएँ हैं। कुदाल, खुरपी से लेकर हल-बैल और आधुनिक युग का ट्रैक्टर भी उनकी निगाह से ओझल नहीं होने पाया है। उनकी चिन्तन की धुरी में ये सारी चीजें हैं। इनसे विमुख होकर वे नहीं सोच पाते। भाषा की बात करें तो, केदार जी की भाषा प्रेमचन्द की ही तरह खेत-खलिहान और किसान जीवन से होकर आती हैं। भाषा के माध्यम से वे कविता को लोकजीवन और लोकपरम्परा से जोड़ते हैं। उनकी कविताओं के शब्दकोश की सबसे बड़ी लाइब्रेरी लोक ही है। वे कहते हैं—

                  लोकतन्त्र के जन्म से बहुत पहले का
                  एक जिन्दा ध्वनि लोकतन्त्र है यह
                  जिसके एक छोटे से ‘हम’ में
                  तुम सुन सकते हो करोड़ों
                  ‘मैं की धड़कनें।

केदारनाथ सिंह की शब्दों की क्रियाएँ और संज्ञाएँ खेतों की पगडंडी से होकर आती हैं और छन्द उन्हें ‘खुरपी-कुदाल के युगल संगीत’ से मिलते हैं। शब्द उन्हें दानों की तरह मिलते हैं जिसमें ‘महुए की टपक’ की आवाज सुनी जा सकती है। उनकी भाषा उनकी सबसे बड़ी शक्ति है। भाषा की ही यह शक्ति है कि उनकी कविताओं के भीतर से पात्र झाँकने लगते हैं। यह चीज प्रेमचन्द के यहाँ भी जोरदार रूप में उपस्थित हैं। इन दोनों लेखकों के पास कहन की अद्भुत कला है। वास्तव में “भाषा की जड़ों को हरियाने वाला रसायन जो उसे जिन्दा रखता है, उसे सम्पन्न करता है, वह ‘लोक’ का स्रोत है।” रेणु के सन्दर्भ में कृष्णा सोबती की कही गई यह बात केदारनाथ सिंह के सन्दर्भ में भी कही जा सकती है। एक साहित्यकार का अपने परिवेश से कैसा रिश्ता होना चाहिए इसको रेखांकित करते हुए खुद रेणु यह बात कहते हैं कि “साहित्यकार को चाहिए कि वह अपने परिवेश को सम्पूर्णता और ईमानदारी से जिये। वह अपने परिवेश से हार्दिक प्रेम रखे, क्योंकि इसी के द्वारा वह अपनी जरूरत के मुताबिक खाद प्राप्त करता है। इस प्रेम का मतलब यह कदापि नहीं है कि वह अपने सन्दर्भों की विषमताओं और असंगतियों पर दृष्टिपात न करे। वह परिवेश से प्रेम इसलिए करे कि वह उसके मूल्यों के साथ ही विषमताओं और असंगतियों से खुलकर और गहरा परिचय प्राप्त कर सके।… लेखक के सम्प्रेषण में ईमानदारी है तो रचना सशक्त होगी—चाहे जिस विधा की हो।” रेणु की तरह ही केदार जी अपने शब्द लोक से लेकर आते हैं।

Bebak Bol opinion about poet's poem - Jansattaअपनी भाषा के सन्दर्भ में स्वयं केदार जी का कहना है कि, “कविता की भाषा को ढालते समय मेरा खास ध्यान दो बातों की ओर होता है। एक तो यह कि मेरी भाषा बोलचाल की हिन्दी से बहुत दूर न हो और दूसरी यह कि उस भाषा में मेरे अनुभव जगत का जो भौगोलिक सन्दर्भ है वह भी किसी न किसी रूप में शामिल हो। जब मैं बोलचाल की निकटता की बात करता हूँ तो मेरा मतलब बोलते समय वाक्य की जो बनावट होती है—उसकी सहजता की रक्षा से है।… भौगोलिक सन्दर्भ से मेरा मतलब यह है कि जिस स्थान में मैं पला-बढ़ा हूँ वहाँ की बोली से मेरी साहित्यिक भाषा का एक रचनात्मक सम्बन्ध बने और अपनी भाषा की निजी पहचान के लिए इस बात को एक हद तक मैं जरूरी मानता हूँ।” केदारनाथ सिंह की भाषा में भोजपुरी घुली-मिली है और कुछ इस तरह से घुली-मिली है, मानो वह हिन्दी का ही एक रूप हो। भोजपुरी के शब्दों को कविताओं में लाने की सलाह केदार जी को आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने दिया था। भाषा के मामले में केदार जी पुरबिहा ही रहे। लोक के कई मुहावरों को वे कविता में लाए हैं। उनका मानना था कि “शब्दों को उनकी जड़ों से ही लाया जाए। जड़ों से मतलब है जीवन के उन स्रोतों से, जहाँ से शब्द नया अर्थ ग्रहण करते हैं।” उनके समकालीन कुँवरनारायण का कहना है कि “केदार एक सावधान कवि होने के नाते भाषा के प्रति इस बुनियादी ज़िम्मेदारी को लेकर सचेत रहे हैं कि उसकी विश्वसनीयता दूषित न होने पाए।” केदार जी की मातृभाषा उन्हें दुख से उबारती है—

                  जैसे चींटियाँ लौटती हैं
                  बिलों में
                  कठफोड़वा लौटता है
                  काठ के पास
                  वायुयान लौटते हैं एक के बाद एक
                  लाल आसमान में डैने पसारे हुए
                  हवाई अड्डे की ओर
                  ओ मेरी भाषा
                  मैं लौटता हूँ तुम में
                  जब चुप रहते-रहते
                  अकड़ जाती है मेरी जीभ
                  दुखने लगती है
                  मेरी आत्मा।

हिन्दी के अन्य पाठकों की तरह केदारनाथ सिंह की भी पहली भेंट प्रेमचन्द से ही हुई थी। सम्मुख की स्थिति न होने पर भी वे बराबर प्रेमचन्द से मिलते रहे। उनका प्रेमचन्द के बनारस से बहुत निकट का रिश्ता रहा। और बनारस में भी वे वहाँ रहते थे, जो लमही से बहुत दूर नहीं था। वे जिस स्कूल में पढ़ते थे, वहाँ से लमही पैदल आया-जाया जा सकता था और वे गए भी। पैदल गए थे कि सवारी से इसका उल्लेख केदार जी ने नहीं किया है। प्रेमचन्द की मृत्यु के दस साल बाद बनारस पहुँचने के उपरांत केदार जी को यह लगता है कि प्रेमचन्द न होकर भी यहाँ उपस्थित हैं। पूरे परिवेश में उनकी मौजूदगी बनी हुई है। उस मौजूदगी को वे बहुत गहराई से महसूस करते हैं।

‘मैंने अपने गाँव को फिर से जाना’ शीर्षक संस्मरण में केदारनाथ सिंह प्रेमचन्द से जुड़ी कई नयी बातों का खुलासा करते हैं। केदार जी जिस स्कूल में पढ़ते थे, वहाँ के सीनियर से उन्हें यह पता चलता है कि प्रेमचन्द उनके स्कूल में हस्तलिखित पत्रिका का विमोचन करने आए थे और उन्होंने उस पत्रिका को ‘साधारण को पहचानो’ जैसा कोई संदेश दिया था। क्या यह सच नहीं कि प्रेमचन्द और केदारनाथ सिंह आजीवन साधारण को ही महत्त्व देते रहे और लोगों से उनकी पहचान करवाते रहे ! उन्हें मिलवाते रहे !Kedarnath Singh Passes Away Know About His Life And Poetry ...

केदार जी के सामने प्रेमचन्द की चर्चा कुछ इस तरह से होती मानो वे उनके बीच उपस्थित हों। प्रेमचन्द की चर्चाओं को सुनते हुए केदारनाथ सिंह उनके साहित्य की ओर उन्नमुख हुए थे। यानी केदार जी का प्रेमचन्द से पहला साक्षात्कार उनकी रचनाओं के माध्यम से नहीं, बल्कि उनकी कथा से हुआ था। प्रेमचन्द कथा लिखते-लिखते कथा बन गए हैं। उनकी कीर्ति हर एक जुबान पर बसी हुई है। केदार जी अपने संस्मरण में इस बात का उल्लेख करते हैं कि वे प्रेमचन्द से जुड़ी बातों को जानने के लिए अधिक-से-अधिक स्मृतियों को इकट्ठा कर रहे थे। वे उन सभी स्मृतियों के पास जाते हैं, जिनसे प्रेमचन्द के बारे में कुछ भी जानकारी मिल सकती थी। उस समय का माहौल भी कुछ और था। अपने पूर्वजों को जानने की विकट इच्छा होती थी साहित्यकारों में। अब तो नए लेखक अपने वरिष्ठ लेखकों को बिना पढ़े ही खारिज कर रहे हैं। कई मामलों में तो अपने आप को उनसे बड़ा ही समझ-बता रहे हैं। खैर, केदारनाथ सिंह जिस समय प्रेमचन्द को जानने के लिए स्मृतियों का दरवाजा खटकता रहे थे, उस समय प्रेमचन्द के भाई माहताब राय जीवित थे। केदार जी उनसे कई बार मिले थे। माहताब साहब बड़े चाव से प्रेमचन्द से जुड़ी बातें बताया करते थे। प्रेमचन्द से जुड़ी वे एक ऐसी घटना का उल्लेख करते हैं, जो कहीं भी दर्ज नहीं है। यह उन दिनों की बात है जब प्रेमचन्द कष्ट में थे और सरस्वती प्रेस की स्थिति भी ठीक नहीं थी। उन दिनों प्रेमचन्द महताब साहब के साथ ही उनके घर में रहते थे। उन्हीं दिनों एक छोटी-सी बात पर प्रेमचन्द अपने भाई से अलग हो गए। इस घटना को याद करते हुए केदार जी कहते हैं— “एक दिन छोटे भाई को काम से कहीं बाहर जाना पड़ गया और जब वे अगली सुबह लौटकर आए तो देखा कि प्रेमचन्द अपना बिस्तर बाँध रहे हैं।

      ‘पूछा, ‘भैया क्या हो गया?’
      कहने लगे, ‘तुम्हारे घर में नहीं रहूँगा, मैं जा रहा हूँ।’
      ‘पर हुआ क्या?’

प्रेमचन्द ने कहा कि रात में तुम्हारी पत्नी ने मुझे जो खाना दिया था, उस खाने में घी नहीं था।…प्रेमचन्द को लगा कि जैसे उनकी अवमानना हुई है और अगले दिन वे घर छोड़कर चले गए।” केदार जी इस घटना का उल्लेख करने के साथ यह कहना नहीं भूलते कि आज यह बात हास्यास्पद लग सकती है, लेकिन एक ‘बड़े लेखक की छोटी-सी बात भी मायने रखती हैं।’

प्रेमचन्द से एक बार एक पुराने पत्रकार (जो साहित्यकार भी थे) ने पूछा ‘आपकी महत्त्वाकांक्षा क्या है?’ प्रेमचन्द ने कहा— “मेरी तीन महत्त्वाकांक्षाएँ हैं। एक तो यह कि मैं कुछ ऐसी किताबें लिखूँ जो देश को आजाद कराने में काम आयें, जिससे स्वाधीनता आंदोलन को गति मिले। दूसरी कि मेरे बच्चे निकम्मे न हों, देश को आगे बढ़ाने में योगदान दें। तीसरी महत्त्वाकांक्षा यह कि दो जून रोटी-दाल नसीब हो और हाँ थोड़ा-सा घी भी।” प्रेमचन्द का देश प्रेम तो जगजाहिर है। उनकी कई रचनाओं में देश से अटूट लगाव को देखा जा सकता है। घी उनकी कमजोरी था। खाने-पीने के वे काफी शौकीन थे।

केदारनाथ सिंह की भेंट शिवरानी देवी से भी हुई है। ‘प्रेमचन्द की स्मृतियों से भरी’ शिवरानी देवी उन्हें बताती हैं कि प्रेमचन्द बड़े ‘चटोरे’ थे। उन्हें सड़क किनारे की तली हुई पकौड़ियाँ काफी पसन्द थीं। वे जब भी घर लौटते अक्सर रोड किनारे की तली हुई पकौड़ियाँ लेकर लौटते थे। प्रेमचन्द के इस शौक पर अक्सर पति-पत्नी में झगड़ा होता रहता था। लेकिन प्रेमचन्द अपने इस शौक को छोड़ नहीं पाए। केदार जी प्रेमचन्द से जुड़ी एक और दिलचस्प घटना का उल्लेख करते हैं— “मन्नन द्विवेदी गजपुरी, यह एक नाम है जो धीरे-धीरे इतिहास से गायब होता जा रहा है गोरखपुर के रहने वाले थे। उसी गोरखपुर के, जहाँ रहकर प्रेमचन्द ने कई महत्त्वपूर्ण कहानियाँ लिखीं, ‘सेवासदन’ लिखा। दोनों में घनिष्ठता थी। मैंने मन्नन द्विवेदी गजपुरी को नहीं देखा था पर उनके कनिष्ठ चचेरे भाई से गोरखपुर में मिला था, जिनका नाम था रामाधार द्विवेदी ‘जीवन’। उन्होंने मुझे प्रेमचन्द से जुड़ी एक कहानी और एक दोहा सुनाया था। उन्होंने बताया कि प्रेमचन्द का पहला संग्रह ‘सोजेवतन’ जब हिन्दी में छपा तो उसकी भूमिका मन्नन द्विवेदी गजपुरी ने लिखी थी। प्रेमचन्द ने मन्नन द्विवेदी से न सिर्फ भूमिका लिखने के लिए कहा बल्कि भूमिका लिखवाने की फीस भी माँगने लगे। दोस्तों में ऐसा मज़ाक होता रहता है। प्रेमचन्द ने उनसे कहा कि आपका घर नदी के किनारे है, इसलिए भूमिका लिखवाने की फीस के तौर पर मुझे एक टोकरी ताजी मछलियाँ भिजवा दीजिए। मन्नन द्विवेदी गजपुरी ने भूमिका भी लिखी और मछलियाँ भी भिजवाईं। साथ में उन्होंने एक दोहा लिखकर भी भेजा। यह दोहा लिखित इतिहास में रहे, इसलिए आपको सुनाना चाहता हूँ—

                  “धीवर ने मारयो बहुत दीन हीन मछरीन।
                  प्रेमचन्द भोजन करै विद्या बुद्धि प्रवीन।”

इस दोहे में प्रेमचन्द पर व्यंग्य था। मन्नन द्विवेदी गजपुरी आर्यसमाजी थे और मछली नहीं खाते थे। प्रेमचन्द पहले आर्यसमाजी थे, बाद में इससे मुक्त हो चुके थे और डटकर मछली खाते थे। व्यंग्य यह था कि गरीब मछुआरे ने अपने से भी दीन-हीन मछलियों को मारा है और उन्हें ऐसे प्रेमचन्द खा रहे हैं जो किसानों के पैरोकार हैं, उनके चितेरे हैं और गरीबों के पक्षधर हैं।” मन्नन द्विवेदी बातों ही बातों में प्रेमचन्द पर करारा व्यंग्य कर जाते हैं। सबसे बड़ी बात यह कि इस व्यंग्य को समझते हुए भी प्रेमचन्द उनसे अपनी पुस्तक की भूमिका लिखवाते हैं। मैंने जिस ‘सोजेवतन’ को पढ़ा है, उसमें मन्नन द्विवेदी गजपुरी की लिखी हुई भूमिका नहीं है। यह भूमिका मेरी नजरों से गुजरी भी नहीं है। इसकी खोज की जानी चाहिए। निस्संदेह मन्नन द्विवेदी उस समय बड़ा नाम होगा। अपनी अन्य रचनाओं की तरह यहाँ भी केदार जी इतिहास से गायब होते जा रहे लोगों एवं चीजों को इतिहास में दर्ज करते हैं।

ऐसे माहौल में केदारनाथ सिंह प्रेमचन्द को जानते-समझते हैं। प्रेमचन्द को जानने का जो भी रास्ता उन्हें दिखा उस रास्ते पर वे चले। कई बार रास्ते पर बढ़ते हुए पगडंडियों से भी गुजरना पड़ा। उन्होंने पहले प्रेमचन्द को जाना, पढ़ा बाद में। और जब पढ़ा तब ऐसा पढ़ा जैसा किसी ने नहीं पढ़ा। उनका पढ़ना एक तरह से प्रेमचन्द को जानना ही है। उनकी रचनाओं के माध्यम से वे उनसे मिल रहे थे।

केदारनाथ सिंह को प्रेमचन्द की ‘मंत्र’ कहानी अद्भुत लगती है। इस कहानी से गुजरते हुए उनके मन में कई सवाल उठते हैं। इसमें एक ओर आधुनिक डॉक्टर है, जो मेडिकल साइंस का प्रतिनिधि है और दूसरी ओर वह बूढ़ा ओझा है, जो मंत्र के माध्यम से साँप का विष उतारता है। एक समय डॉक्टर चड्डा बूढ़े के बेटे को नहीं देखते हैं और वह मर जाता है। कहानी में एक और मोड़ आता है, डॉक्टर चड्डा के इकलौते बेटे को साँप काट लेता है और वह लगभग मृतप्राय हो जाता है। बूढ़े को यह विश्वास है कि वह उसे बचा लेगा। बूढ़े के उस समय के द्वन्द्व की स्थिति को, उसके संघर्ष को प्रेमचन्द ने विलक्षण ढंग से दिखाया है। उसकी अन्तरात्मा कहती है कि उसे जाना चाहिए और उसे बचाना चाहिए, लेकिन परिस्थितियाँ और डॉक्टर का व्यवहार उसे जाने से रोकते हैं। लेकिन उसकी अन्तरात्मा विजयी होती है और वह जाता है तथा उनके बच्चे को बचा भी लेता है। अन्य कई पाठकों की तरह केदारनाथ सिंह भी इस बात से जूझते हैं कि आखिर प्रेमचन्द कहना क्या चाहते हैं? क्या सचमुच मंत्र से किसी को ठीक किया जा सकता है? इस चमत्कार से जूझते हुए उन्हें लगता है— “वास्तव में यह दो सभ्यताओं की टक्कर है। एक सभ्यता जो गाँव की थी, जिसकी अपनी परम्परा चली आ रही थी और उसमें सबकुछ त्याज्य ही नहीं था, कुछ ग्रहणीय भी था, कुछ अच्छी बातें भी थीं। उसके समानान्तर समाज में एक नयी सभ्यता बन रही थी, एक नया शिक्षित मध्यवर्ग तैयार हो रहा था। यह नया संसार कितना निर्मम और कितना कठोर हो सकता है, इसका मर्मभेदी अनुभव उसे बूढ़े को हो चुका था। इन दो सभ्यताओं की टक्कर में डॉक्टर का बेटा ठीक होता है तो मंत्र से, जड़ी-बूटी से, पर इसके माध्यम से प्रेमचन्द कहना क्या चाहते हैं?” इस प्रश्न से टकराते हुए वे आगे लिखते हैं— “सारे अर्जित ज्ञानबोध के विरुद्ध जो सहजबोध होता है, उसमें प्रेमचन्द का गहरा विश्वास था। यही सहजबोध उस ग्रामीण बूढ़े में है। इस तरह की परम्परा कम-से-कम उस समय तक तो बनी ही हुई थी। यह कहानी ऐसा प्रश्न उठाती है, जिसकी अनेक व्याख्याएँ की जा सकती हैं, लेकिन प्रेमचन्द ने साहस पूर्वक एक उभरती हुई सभ्यता के विरुद्ध एक प्राचीन सभ्यता की विशेषता को रेखांकित किया है। इसके माध्यम से प्रेमचन्द ‘प्रबोधन’ और ‘नवजागरण’ के अन्तर्विरोधों और खामियों पर भी टिप्पणी करते हैं। प्रेमचन्द नए का स्वागत करते हैं पर उस पुराने के भीतर जो बहुत कुछ बचाने योग्य है, जो थोड़ी-बहुत मनुष्यता बची हुई है, उसे भी सुरक्षित रखना चाहते हैं। नयी सभ्यता में किस तरह मनुष्य का अमानवीकरण हो रहा है, प्रेमचन्द की पीड़ा यह थी। बच्चों को पढ़ाई जाने वाली यह कहानी बड़ा प्रश्न सामने रखती है। उत्तर-आधुनिक लोग इसकी अलग व्याख्या करेंगे पर हम जो आधुनिक संस्कृति के संवाहक हैं, उनके सामने तो यह प्रश्न रहेगा ही।” केदारनाथ सिंह इस छोटी-सी कहानी को बड़ा फलक दे देते हैं। उसे सभ्यता-संस्कृति से जोड़कर देखते हैं। अपनी व्याख्या में कहीं भी उन्होंने आधुनिक तकनीकी की आलोचना नहीं की है। उन्होंने उस प्रवृत्ति की ओर इशारा किया हैं जिसे नयी शिक्षा और नयी व्यवस्था जन्म दे रही थी। लोगों की संवेदनाएँ, लोगों के प्रति कम हो रही थीं। दिखावे की प्रवृत्ति बढ़ रही थी। केदारनाथ सिंह प्रेमचन्द की तरह नए का स्वागत करते हुए पुराने को बचाए रखना चाहते हैं। मन्नन द्विवेदी और बूढ़ा भगत जैसे लोग बचने ही चाहिए। उनकी मानवीयता को सहेजकर रखा जाना चाहिए।मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ...

प्रेमचन्द की एक और कहानी ‘ईदगाह’ पर केदार जी ठहरकर लिखे हैं। इस कहानी को पढ़ते हुए बार-बार हम इस प्रश्न से टकराते हैं कि आखिर हामिद मेला से चिमटा ही क्यों खरीदता है? वह अपने लिए मिठाई क्यों नहीं लेता, जैसा कि अन्य बच्चे लेते हैं? प्रेमचन्द ने प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष पद पर रहते हुए अपने भाषण में कहा था, हमें हुस्न का मेयार बदलना होगा।’ यानी ‘हमें सौन्दर्य का मानदण्ड बदलना होगा।’ प्रेमचन्द इस कहानी में सौन्दर्य का मानदण्ड ही बदलते हैं। केदार जी कहते हैं— “मेरे ख्याल से जिस रचना में सौन्दर्य का वह मानदण्ड सबसे पहले बदलते हुए दिखाई देता है, वह है प्रेमचन्द की कहानी ‘ईदगाह’। उन सारे खूबसूरत खिलौनों के बरक्स, मिट्टी के हाथी-घोड़ों के बरक्स एक चिमटा आता है और सबसे ज्यादा सुन्दर लगने लगता है। बाद में बच्चे भी उसे स्वीकार करते हैं। यहाँ चिमटे का सुन्दर होना आकस्मिक नहीं है, वह टिकता है, हमारे दिमाग में रह जाता है।” केदारनाथ सिंह प्रेमचन्द को एक नयी दृष्टि से देखते हैं और साथ ही हमें देखने की नयी दृष्टि भी देते हैं। मेरी जानकारी में ‘मंत्र’ और ‘ईदगाह’ कहानी को इस तरह से किसी ने नहीं देखा है। ‘ईदगाह’ कहानी में यदि प्रेमचन्द सौन्दर्य का प्रतिमान बदलते हैं तो केदारनाथ सिंह प्रेमचन्द को पढ़ने का भी प्रतिमान बदलते हैं।

यहाँ नामवर सिंह और उनकी कहानी सम्बन्धी आलोचनाएँ याद आ रही हैं। केदार जी किसी भी मामले में नामवर जी से कमतर नहीं ठहरते। काव्य आलोचना के दौरान भी नहीं और कहानी पाठ के समय भी नहीं। कवि केदारनाथ सिंह में एक बेहतरीन आलोचक हमेशा विद्यमान रहा। लेकिन वह आलोचक कवि नामवर सिंह की तरह नहीं है। वह आलोचक, आलोचक नामवर सिंह की तरह है। अपनी बात को एक ठसक के साथ कहने वाला, लेकिन मितभाषा के साथ। बिल्कुल नए अन्दाज में।

केदारनाथ सिंह ने प्रेमचन्द की ‘पूस की रात’ कहानी पर एक लम्बी कविता लिखी है। हल्कू की कथा को, उसके संघर्ष को केदार जी ने अद्भुत तरीके से कविता में प्रस्तुत किया है। कविता में न तो सहना है और न ही उसकी पत्नी मुनिया, इसमें है तो सिर्फ आग, कुत्ता और हल्कू। लेकिन वे अनुपस्थित होकर भी उपस्थित हैं। केदार जी की यह खासियत है कि वे अनुपस्थित को भी उपस्थित कर देते हैं। कारण कविता लिखते समय उनके दिमाग में अनुपस्थित सबसे ज्यादा उपस्थित रहता है। कविता की शुरुआत में वे कहते हैं—

                  मेरी जानकारी में
                  वह पृथ्वी पर पहली आग थी
                  जो आदमी और कुत्ते ने
                  मिलकर जलाई थी।

केदार जी भले ही ‘पूस की रात’ कहानी पर कविता लिखे हों, लेकिन यह कविता कहानी के सारे मर्म और समाज के सारे सच को खोलकर रख देती है। अन्त तक जाते-जाते कवित अपना व्यापक रूप ग्रहण कर लेती है। अन्त में केदार जी पाठकों को सीधे संबोधित करते हुए कहते हैं—

                  तो पाठकगण, इस तरह खत्म हुई
                  बीसवीं शताब्दी के
                  एक पूस के महीने की
                  वह लम्बी अथाह महाभारत जैसी रात
                  और जब सुबह हुई
                  तो गाँव वालों ने देखा
                  कोहरे से निकलकर एक पतली-सी पगडंडी पर
                  युधिष्ठिर और उनका कुत्ता
                  दोनों हिमालय से वापस आ रहे हैं
                   बर्फ ने
                   उन्हें गलाने से इनकार कर दिया था।

कवि को हल्कू में युधिष्ठिर दिखाई देते हैं। जिस तरह हिमालय की बर्फ न तो युधिष्ठिर को गला पाई थी और न ही उनके कुत्ते को उसी तरह ‘पूस की रात’ की हाड़ कंपा देने वाली ठंड न तो हल्कू को परास्त कर पाती है और न ही जबरा को। बल्कि वे दोनों उसे परास्त कर उस पर विजय पाते हैं। उस रात कड़ाके की ठंड के अलावा हल्कू सहना की घुड़कियाँ और गालियों पर भी विजय प्राप्त करता है। प्रेमचन्द सहित केदारनाथ सिंह हल्कू जैसे लोगों को हमेशा विजयी देखना चाहते हैं।

अन्त में यही कहना चाहूँगा, केदारनाथ सिंह के प्रेमचन्द को जानना एक तरह से ‘जाने हुए को नए ढंग से जानना’ भी है। ‘ऐसा जानना जैसा इससे पहले हमने नहीं जाना था।’

(यह आलेख आलोचक मृत्युंजय पाण्डेय की अति शीघ्र प्रकाशित पुस्तक केदारनाथ सिंह का दूसरा घर का एक अंश है)

संपर्क : 9681510596

ईमेल : pmrityunjayasha@gmail.com

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साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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