गोस्वामी तुलसीदास: इन्द्रियविजय या आत्मसंघर्ष?
हाल ही में सोशल मिडिया पर एक वीडियो आया है जिसमें किसी महिला ने सुलेमान आसिफ का यह मन्तव्य उद्धृत किया है कि दुनिया में ‘एक अज़ीम तरीन शायर’ तुलसीदास हैं, जिन्होंने अपनी ‘काव्य-पुस्तक को धर्मग्रन्थ बना दिया’; जबकि धर्मग्रन्थ बनाने का न उनका इरादा था, न दावा। जहाँ ‘अपनी’ किताब को धर्मग्रन्थ की मान्यता दिलाने के लिए ‘क्रुसेड, जिहाद और खून-खराबा होता रहा है, वहाँ एक कवि ने ‘स्वान्तः सुखाय’ एक काव्य रचना की जिसे अपनी उदात्त भावनाओं के कारण समाज ने धर्मग्रन्थ जैसी लोकमान्यता प्रदान कर दी। इससे उस कवि की महान प्रेरक शक्ति का पता चलता है। ऐसा शक्तिवान कवि कला, भावना, विचारधारा, किसी स्तर पर समझौतावादी नहीं हो सकता। वह अपनी मान्यताओं में अत्यन्त दृढ होगा, इन मान्यताओं के इर्द-गिर्द लोगों को पक्ष-विपक्ष के लिए बाध्य करेगा। उसकी हर बात सबको स्वीकार हो, यह जरूरी नहीं है। लेकिन उसकी हर बात इतिहास की दृष्टि से मूल्यावन होगी। तुलसी के साहित्य पर इस दृष्टि से विचार करना दिलचस्प है।
अपने ग्रन्थ को धर्मग्रन्थ के रूप में मान्यता दिलाने के लिए ताकत का उपयोग होता है। वह दूसरों के विश्वास की अवहेलना और दमन पर आधारित है। लेकिन किसी किताब को धर्मग्रन्थ के रूप में स्वीकार करने में रचनाकार की मान्यताओं और उन्हें अंगीकार करने वाले की मान्यताओं में स्वैच्छिक सम्बन्ध होता है। तुलसी के ‘स्वान्तः सुखाय’ को एक बहुत बड़े भारतीय समाज ने अपने विश्वास की अभिव्यक्ति के रूप में अपनाया, यह दुनिया में अपने ढंग का अकेला उदहारण है। आज भी नास्तिकों के साथ-साथ आस्तिकों के बड़े हिस्से में ‘रामचरितमानस’ को साहित्य के रूप में पढ़ाया जाता है। कुरान को इस्लामिक धार्मिक पद्धति से नापने पर या उसकी किसी बात का विरोध करने पर धर्मद्रोह होता है, जिसकी सजा अत्यन्त कठोर है। बाइबिल की पवित्रता भी जरा-सा ही कम लेकिन वह भी छुई-मुई है जिसके लिए कठोर सजाओं की व्यवस्था है। लेकिन ‘रामचरितमानस’ को हम साहित्य की तरह पढ़ते हैं, उसकी पैरोडियाँ बनाते हैं—‘गड़बड़ रामायण’ नाम की पैरोडी बहुतों ने पढ़ी है। फिर भी न तो धर्मद्रोह होता है, न सजा का प्रबन्ध होता है।
तथाकथित हिन्दू समाज के भीतर शायद ही किसी वर्ण का मनुष्य हो जिसने रामचरितमानस का पूर्णतः या अंशतः विरोध न किया हो। यदि वह कुरान या बाइबिल की तरह धर्मग्रन्थ होता तो क्या यह संभव था? दलितों और पिछड़ों के अनेक हिस्से तुलसीदास को सबसे निंदनीय और उनकी महान कृति रामचरितमानस को ‘मनुस्मृति’ की तरह धर्मग्रन्थ बताते हैं। इसपर भी तुलसी के अन्धानुयायी या हिन्दू धर्म के पुरोहित-पण्डे उन लोगों को मुसलमानों और ईसाइयों की तरह प्रताड़ित करते नहीं पाए जाते। धर्मग्रन्थ एक तो अध्यात्मिक या अलौकिक विश्वास को आधार बनाकर लिखे जाते हैं और विधि-निषेध के माध्यम से उनका पालन कराया जाता है। इसीलिए न मानने वालों के लिए दण्ड का विधान होता है। रामचरितमानस नितान्त लौकिक विश्वासों और सम्बन्धों के आधार पर लिखा गया ग्रन्थ है और उसे मानने-न मानने पर दण्ड की व्यवस्था नहीं है। उसकी इतनी व्यापक स्वीकृति का कारण यह है कि उसमें वर्णित चरित्र और घटनाएँ, प्रकृति और मानव-सम्बन्ध इसी देश और समाज के हैं जिन्हें आदर्श रूप देने की कोशिश की गयी है। ये चरित्र, आदर्श और सम्बन्ध व्यापक सामाजिक हितों के अनुकूल हैं इसलिए उन्हें स्वीकृति दिलाने के लिए धर्मग्रन्थों की तरह दण्ड-व्यवस्था आवश्यक नहीं थी।
उससे भी बड़ी बात यह है कि तुलसीदास ने अपने युग में सामान्य मनुष्यों के जिस जीवन को आदर्श रूप दिया, जिनके दुखों का समाधान राम की भक्ति में बताया, उन सामान्य मनुष्यों के प्रति उच्च-कुलीन समुदाय के लोगों का, सामंती और पुरोहिती वर्ग का रवैया बहुत तिरस्कारपूर्ण था। इसकी सजा तुलसीदास को मिली। उन्हें बनारस के पण्डों-पुरोहितों ने मारा-पीटा और मानस को नष्ट करने की कोशिश की। वे समझते थे कि देवकथा को देववाणी (संस्कृत) में ही लिखा जाना चाहिए, ‘भाषा’ (अवधी या हिन्दी) में लिखने से उसे शूद्र भी पढ़ेंगे और वह अपवित्र हो जाएगी। यहाँ दो बातें विचारणीय हैं। शूद्रों में लोग पढ़-लिख रहे थे और तुलसीदास राम के जीवन की कथा को समाज के हर दुखी प्राणी के लिए सुलभ करने का प्रयास कर रहे थे। गौर करने की बात है कि बाद में चलकर परिदृश्य बदल गया। जिन पण्डों-पुरोहितों ने तुलसी और उनकी ‘रामचरितमानस’ पर हमले किये थे, वही उसके वारिस बन गये। तुलसीदास जिन दुखियारों-दलितों की वेदना का समाधान खोजने के लिए भाषा में रघुनाथ गाथा को ‘स्वान्तः सुखी’ रच रहे थे, अँगरेज़ समर्थक बुद्धिजीवियों के प्रचार से उन्हीं दलितों के कुछ शिक्षित लोग तुलसीदास के घनघोर निंदक हो गये। कोई-कोई तो ‘रामचरितमानस’ को मनु महाराज की ‘स्मृति’ के समकक्ष या गोलवलकर के ‘विचार नवनीत’ के समान घातक मानता है। बहुत चर्चा हुई है और आगे भी होती रहेगी कि ‘मानस’ ने मनु या गोलवलकर की तरह किसी जड़ सामाजिक ढाँचे की परिकल्पना नहीं की है।
‘रामचरितमानस’ की स्थिति को देखकर स्पष्ट होता है कि तुलसी का ‘स्वान्तः सुखाय’ जनसाधारण के ‘बहुजन हिताय’ से पृथक नहीं है। यह कविता का सृजनात्मक द्वंद्व है। तुलसी ने धर्मशास्त्री के रूप में नहीं, कवि के रूप में अपनी महानतम कृति ‘रामचरितमानस’ की रचना की है। दूसरे शब्दों में, कविता की प्रकृति और तुलसी की भक्ति का स्वभाव एक बिन्दु पर मिलता है— निजी भावना और सार्वजनिक हित के बीच द्वंद्वात्मक एकता। जिस मनुष्य के ‘स्व’ की व्याप्ति ऐसी हो कि उसमें स्वार्थ और अहं तिरोहित हो जाए, उसी के ‘सुख’ की परिकल्पना में ‘सबकहँ हित’ समाविष्ट हो सकता है। अकारण नहीं है कि ‘स्वान्तःसुखाय’ लिखी गयी तुलसी की रघुनाथ-गाथा ही ‘सुरसरि’ की भांति सबका हित करती है। अपनी आन्तरिकता को इस रूप में ढालना साधना का विषय है। इसीलिए भक्ति का एक पक्ष ईश्वर के प्रति समर्पण है तो दूसरा पक्ष आत्मसाधना। अहं से ऐंठा हुआ मनुष्य स्वार्थ में डूबा हुआ प्राणी सहज नहीं होता। सहज होना इतना सहज नहीं है। तुलसी से पहले कबीर ही उसे ‘साधना’ का विषय बता गये थे। ‘सहजसाधना’! हमारे गुरुदेव विश्वनाथ त्रिपाठी कहा करते हैं कि जरा-जरा-सा त्याग करके लोग इतराते हैं। यह सहजता नहीं है। त्याग, परोपकार आदि किसी चीज़ के बाद मन में यह गर्व न आए कि कोई प्रशंसनीय कार्य किया है, तब आप सहज हैं। यही सहजता कवि या भक्त की निजता को सबके हित से जोडती है। यही कारण है कि भक्ति और नैतिक साधना एकमेक हैं। तुलसी-कबीर की भक्ति से आज की ‘भक्ति’ की तुलना करने पर यह फर्क समझ में आता है।
आत्मसाधना में स्वार्थों की बलि चढ़ानी पड़ती है। इच्छाओं और आवश्यकताओं को नियन्त्रित करना पड़ता है। इसीलिए कुछ विचारकों की राय है कि तुलसीदास ने इन्द्रियजनित कामनाओं को वशीभूत कर लिया था, तभी उन्हें ‘गोस्वामी’ कहा गया। ‘गो’ का एक अर्थ इन्द्रिय है। लेकिन यह न भूलना चाहिए कि ‘गो’ का एक अर्थ गाय भी है। ‘गोचर’ में इन्द्रिय वाला अर्थ स्पष्ट है। किन्तु ‘गोवंश’ में दूसरा अर्थ है। द्विअर्थी शब्दों के उपयोग में अत्यधिक सावधानी की आवश्यकता होती है। उससे अधिक सावधानी बरतने की आवश्यकता उन शब्दों के अर्थ निकलते समय होती है। तुलसी साधारण मनुष्य थे, आत्मसाधना से उन्होंने अपने को इतना उदात्त बनाया कि सन्त माने गये। लेकिन मानवीय भावनाएँ, आवश्यकताएँ और दुर्बलताएँ जीवन भर पीछा करती रहीं, जिनसे तुलसी को अनवरत संघर्ष करना पड़ता था। उनकी दो जीवन-व्यापी समस्याएँ थीं—काम और दरिद्रता। राम के सहारे वे इन पर विजय पाने का प्रयत्न वे निरन्तर करते रहे। यह संघर्ष भी जीवन-व्यापी था। ‘रामचरितमानस’ का अन्त इस दोहे से होता है:
कामिहि नारि पियारि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरन्तर प्रिय लागहु मोहि राम।। (7/130ख)
बुढ़ापे में दरिद्रता की समस्या का समाधान नहीं हुआ था, यह ‘कवितावली’ से परिलक्षित होता है। काम की समस्या का स्थान रोग ने लिया था। पहले बलतोड़, फिर बाहुपीड़ा—‘हनुमान-बाहुक’ और ‘विनय पत्रिका’, तुलसी की दीनता और आत्मग्लानि का अप्रतिम दस्तावेज हैं। ‘मानस’ का अन्त यह बताने के लिए पर्याप्त है कि तुलसी को काम और दरिद्रता ने आजीवन पीड़ित किया। राम दोनों का विकल्प थे। लेकिन पीड़ाएँ वास्तविक थीं, विकल्प काल्पनिक। फिर भी, ‘मानस’ का अन्त उनके अन्तर्द्वंद्व का द्योतक है जिसमें वे राम से अनुरोध करते हैं कि मुझे उतने ही प्रिय लगो जितना कामी पुरुष को नारी लगती है या दरिद्र व्यक्ति को धन लगता है। क्या हम तुलसीदास के सन्त रूप को एक साधारण या असाधारण मनुष्य के आत्मसंघर्ष की सफलता और असफलता की कसौटी पर नहीं परख सकते? अभाव दो थे, विकल्प एक; अभाव वास्तविक थे, विकल्प काल्पनिक। इससे जो अन्तर्द्वंद्व पैदा हुआ उसने तुलसी को निरन्तर गतिशील रखा। उनके इस विकास को अनदेखा करना तुलसी के प्रति ही अन्याय नहीं है, अपने प्रति भी छल है।
विदित है कि स्वान्तः सुखाय तभी बहुजन हिताय से एकमेक होता है जब व्यक्ति निरहंकारी हो; उसकी आत्मचेतना का धरातल तभी समाजचेतना से अभिन्न होता है जब व्यक्ति सामान रूप में आत्मसजग और समाजसजग एक साथ हो। तुलसी के निंदक यह सोचने की ज़हमत नहीं उठाते कि सामन्त युग के पतनोन्मुख दौर में जब बाज़ार ने आजीविका के पर्याप्त विकल्प मध्यवर्ग को नहीं दिये थे और प्रतिभाशाली रचनाकार विवश होकर दरबारों की चाकरी करते थे, उसे गर्व से स्वीकार भी करते थे- ‘लाखनखरचि रचि आखर ख़रीदे हैं’, उस दौर में कबीर, रैदास की पाँत में खड़े होकर तुलसी कहते हैं- ‘अब तुलसी क्या होहिंगे नर के मनसबदार!’ प्रतिभा के जौहर से व्यक्तिगत सुख-समृद्धि अर्जित करने की जगह उस प्रतिभा का उपयोग उन्होंने ‘सबकहँहित’ करने वाली कविता लिखने में किया। इन दो तरह की नैतिकताओं के साथ दो तरह के काव्यशास्त्र भी हैं। तुलसी को आप किस तरफ रखेंगे? कितना भी फर्क हो लेकिन उन्हें रैदास और कबीर की पाँत में ही रखेंगे, बिहारी और देव की पाँत में नहीं। यदि आप नितान्त दुराग्रही हैं तो मुझे कुछ नहीं कहना।
ज़्यादातर बहस तुलसी के ‘ब्राह्मणवाद’ को लेकर है। वर्ण-व्यवस्था के लिए उनके समर्थन को लेकर है। इन बिन्दुओं पर बहुत विचार-विमर्श हुआ है और आगे भी होगा। लेकिन यहाँ मेरा एक ही प्रश्न है। वर्ण-व्यवस्था किसी की व्यक्तिगत इच्छा पर आधारित प्रणाली है या उसका सामाजिक और ऐतिहासिक स्रोत है? वर्ण-व्यवस्था से टकराने वाली चेतना-चाहे उसका समर्थन करे या विरोध-क्या नायिका-भेद और अलंकार शास्त्र पर चलने वाली चेतना से भी नीचे समझी जा सकती है? एक में सामाजिक बोध प्रधान है, दूसरे में समाज-विमुख अभिरुचि। कवियों की व्यक्तिगत रूचि नायिकाओं में चाहे जितनी रहती हो लेकिन लक्षण-ग्रन्थ वे अपनी काव्याभिरूचि की तृप्ति के लिए नहीं लिखते थे। इसके विपरीत, इस कृत्रिम लेखन में उनकी काव्य-प्रतिभा दब जाती थी। सोचने की बात है कि काव्यशास्त्र, कामशास्त्र इत्यादि की विधिवत शिक्षा लेकर लिखने वाले ‘विशुद्ध’ कवियों ने साहित्य के विकास में जितना योगदान किया है, उससे कई गुना ज्यादा योगदान उन कवियों का है जिन्होंने विनम्रतावश कहा था, ‘मसि कागद छुयो नहीं’ या ‘कवि न होऊँ नहिं चतुर कहाऊँ’! कबीर और तुलसी में दुश्मनी खोजने वाले विद्वानों को थोड़ा परिश्रम केशव और तुलसी के फर्क को खोजने में भी करना चाहिए। इन्हीं ‘शास्त्रीय’ कवियों के आक्रमण का जवाब देते हुए तुलसी ने कहा था, ‘काक कहहिं कलि कंठ कठोरा!’ कोयल के कंठ को कौवे कठोर बता रहे हैं!
भक्ति सामाजिक असंतोष की उपज थी इसलिए वह एक ऐतिहासिक परिस्थिति की देन थी और उसमें सामाजिक चेतना की व्याप्ति है। स्वभावतः भक्त कवियों में परस्पर जितनी समानता है, उतनी भक्तों और दरबारी कवियों में नहीं है। इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि उत्तरवर्ती सामन्तकाल में अथवा प्रारंभिक आधुनिकता के काल में जहाँ एक ओर सामन्त वर्ग और जनसाधारण का अन्तर्विरोध था, जिसका प्रभाव साहित्य के स्वरुप पर पड़ता था, वहीँ दूसरी ओर सामन्त युग में उत्पन्न सामाजिक अन्तर्विरोध भी विद्यमान थे, जिनसे कवियों का सामाजिक दृष्टिकोण प्रभावित होता था। कबीर जुलाहा थे, व्यापारी से उनके हित टकराते थे, उन्होंने व्यापारियों को जितनी गालियाँ दी हैं, वह ध्यान देने योग्य है। हालाँकि आज कल कुछ अध्येता कबीर के योगदान को आखिरकार बनियों की देन सिद्ध करने लगे हैं! कबीर निर्गुणिया थे। सगुणोपासक सूरदास भी गोपियों द्वारा ‘आयो घोष बड़ो व्यापारी’ जैसे पदों में कबीर की भावना के साझीदार दिखाई देते हैं। रैदास अस्पृश्य कही जाने वाली जाति से थे और बनारस में रहकर चमड़े का काम करते थे। तुलसी के पिता हीन कोटि के ब्राह्मण थे- गोसाईं दुबे। ज्योतिष सम्बन्धी अंधविश्वास के चलते उन्होंने नवजात शिशु को त्याग दिया था। एक भिक्षाजीवी दासी ने तुलसी को पाला। उनका साहित्य बचपन से बुढ़ापे तक भूख, अपमान, दरिद्रता की अनंत गाथा है। बनारस के रूढ़िवादी पंडित उन्हें ब्राह्मण मानने को तैयार नहीं थे। ‘गोसाईं’ ब्राह्मणों में एक तिरस्कृत उपजाति है। जैसे ‘महाब्राह्मण’। समाज में जातियों के बीच ऊँच-नीच है, ब्राह्मणों में आपस की ऊँच-नीच भी है। कान्यकुब्जों की इस ऊँच-नीच की भावना पर निराला ने कहा ही था, ‘ब्राह्मण समाज में ज्यों अछूत’! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जिन्हें अछूत कहते हैं, उनके बीच भी उपजातियों में भारी ऊँच-नीच भेद है। यह भेद भक्ति साहित्य में उतना उभरा हुआ नहीं है जितना समसामयिक ‘दलित’ कहे जाने वाले साहित्य में परिलक्षित होता है। यह ‘दलित’ नजरिया जितना कबीर और तुलसी के बीच खड्ग-हस्त होकर उतरता है, उतना ही वर्तमान दलित उपजातियों के बीच भी उतरता है।
समाज में जातिभेद, जातियों में ऊँच-नीच, द्विजों में परस्पर भेदभाव, शूद्रों में अपने ढंग की अस्पृश्यता-सामंती समाज के इन अवशेषों से अगर आज का भारत इतना ग्रस्त है कि राजनीति के साधन के रूप में कुछ समुदाय तुलसीदास को गाली देना आवश्यक समझते हैं तो पाँच-छः सौ साल पहले के समाज में इन भेदों का मनोवैज्ञानिक प्रभाव कितना रहा होगा? कबीर ब्राह्मणों को गाली देते थे, तुलसी शूद्रों को; इसे तत्कालीन सामाजिक भेदभाव के सन्दर्भ में क्यों नहीं देखा जाना चाहिए? कबीर ने वर्ण व्यवस्था पर आक्रमण किये। तुलसी ने ‘रामचरितमानस’ में वर्ण व्यवस्था के दोषों को हटाकर उसे आदर्श बनाने की कोशिश की। यह बात तुलसी को अपने जीवन के उत्तरार्ध में साफ़ हुई कि वर्ण व्यवस्था उनकी इच्छा से निर्दोष नहीं बनने वाली और एक दरिद्र ब्राह्मण को समाज में प्रतिष्ठा भी नहीं मिलने वाली। हमें तुलसी के इस नये आत्म-साक्षात्कार को सम्मान से याद करना चाहिए कि अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त होने के क्रम में वे यहाँ तक घोषित करते हैं: ‘मोरे जाति-पाँति न चहौं काहू की जाति-पाँति’। इसलिए वर्ण-व्यवस्था को लेकर कबीर और तुलसी की प्रतिक्रियाओं को आज की भावना से देखने की अपेक्षा उचित यह है कि उसे इतिहास के संक्रमणकाल में विघटित होते सामन्तवाद के प्रति मनोवैज्ञानिक अभिक्रिया मानना चाहिए। इस अभिक्रिया में एक ओर उनके जन्मगत संस्कार परिलक्षित होते हैं, दूसरी ओर टूटते-बनते आर्थिक-सामाजिक सम्बन्धों से प्राप्त अनुभव। इस प्रक्रिया में आवश्यक था कि वर्ण-व्यवस्था के समर्थक तुलसीदास के विचार, उनके आग्रह-दुराग्रह बदलें और वह हुआ। यह परिवर्तन महान आत्मसंघर्ष के बिना संभव नहीं था। यह तुलसी के लिए पीड़ादायक भी रहा होगा। इस पीड़ा का अनुमान लगाने के लिए एक बार ध्यान दीजिए कि ओमप्रकाश बाल्मीकि ने जब ‘शवयात्रा’ कहानी लिखी तो दलितों ने ही उप-जातीय आधार पर उसका सबसे ज्यादा विरोध किया। यह विरोध इतना बद्धमूल हो गया कि अब भी दलित कथाकारों के संकलन में दूसरे लेखक शामिल किये जाते हैं लेकिन बाल्मीकि जी को नहीं किया जाता, हालाँकि दलित साहित्य को व्यापक स्वीकृति दिलाने में उनका योगदान सबसे बढ़कर है।
क्या ‘पूजिय विप्र सील गुन हीना’ से चलकर ‘मोरे जाति पाँति न चहौं काहू की जाति पाँति’ तक तुलसी की यात्रा को अनदेखा करना स्वयं अपने विवेक से च्युत होने का परिचायक नहीं है? क्या ऐसा करके हम किसी युग या रचनाकार का आकलन कर सकते हैं? क्या हम अपने अनुभव से जान सकते हैं कि किसी व्यक्ति के आग्रहों-दुराग्रहों का टूटना सामान्य घटना नहीं है? यह अकस्मात् नहीं होता। लेकिन इस दृष्टि से विचार करने की जगह स्वयं आग्रहों-दुराग्रहों से प्रेरित होकर चर्चा करना न सांस्कृतिक दृष्टि से उचित है, न ऐतिहासिक दृष्टि से स्वीकार्य। प्रायः देखा गया है कि निहित स्वार्थ अथवा तात्कालिक प्रयोजन से लोगबाग ऐतिहासिक विवेक को ताक पर रखते हैं। इस बीच तुलसी सम्बन्धी विवाद उत्तर प्रदेश के कुछ ‘पिछड़ा’ राजनीतिज्ञों द्वारा छेड़ा गया है। ये राजनीतिज्ञ सत्तापक्ष के भी हैं और प्रतिपक्ष के भी। दोनों को जातिगत ध्रुवीकरण से लाभ की आशा है। इस अनुभव के आधार पर हम कह सकते हैं कि जातिगत राजनीति से लाभ उठानेवाले राजनीतिज्ञ अपना अनैतिहासिक और असांस्कृतिक रवैया साहित्य पर भी आरोपित करते हैं। उन राजनीतिज्ञों की तरह विमर्श के नाम पर नेतागिरी चमकानेवाले कुछ साहित्यकार भी उसी सुर में सुर मिलाने लगते हैं।
जितना भ्रामक और अनैतिहासिक यह तुलसी-निंदक रुख है, उतना ही कुत्सित और असांस्कृतिक अनेक तुलसी-पूजकों का रुख है। इसकी सबसे प्रमुख पहचान है काव्य को इतिहास की तरह पढ़ना, पुराणकथाओं को यथार्थ का स्थानापन्न बना देना। अभी हाल में राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद् (NCERT) की एक उच्च स्तरीय विशेषज्ञ समिति ने सुझाव दिया है कि रामायण, महाभारत और वेदों को भारतीय इतिहास के क्लासिकल युग की तरह स्कूलों में पढ़ाया जाय! जिन्हें पुरा-इतिहास, प्राक्-इतिहास और क्रमिक इतिहास का अन्तर नहीं पता, उनसे यह उम्मीद करना व्यर्थ है कि महाकाव्य-युग और इतिहास-युग का अन्तर जानें। मैं ऋग्वेद का प्रशंसक हूँ, बाल्मीकि की रामायण, वेदव्यास के महाभारत और तुलसीदास के रामचरितमानस का समर्थक हूँ; लेकिन इनमें किसी रचना को इतिहास की तरह पढ़ने-पढ़ाने का तीव्र विरोध करता हूँ। मैं इतिहास को काव्य से, यथार्थ को कल्पना से मिला देने के खतरों से वाकिफ हूँ। जिन सत्ताओं और राजनीतिज्ञों द्वारा इस तरह का अवैज्ञानिक और अनैतिहासिक प्रयत्न होता है, वे न अतीत की संस्कृति का भला करते हैं, न युवाओं के भविष्य का।
मैं सोचता हूँ, तुलसी अगर होते तो इस तरह की जहालत का समर्थन करते या विरोध? जिस कवि के सबसे प्रिय पद है ‘मंगल’ और ‘विवेक’, क्या वह तर्क और सार्वजनिक हित की कसौटी पर परखे बिना इस तरह के फैसले का अनुमोदन करता? इस बात पर भी पहले विद्वानों ने प्रकाश डाला है कि तुलसी अपने विचारों में दृढ़ थे लेकिन किसी मतवाद के समर्थक नहीं थे। यहाँ तक कि वेदांत और विशिष्टाद्वैतवाद के भी अंध अनुयायी नहीं थे। स्वभावतः अंधभक्ति से तुलसी की भक्ति बहुत दूर थी। वे न धार्मिक या दार्शनिक मतवाद के प्रचारक थे, न राजनितिक सत्ता के केंद्र में पहुँचने के लिए किसी लाभ-लोभ के वशीभूत चाटुकार। सच तो यह है कि अपने विवेक के आगे वे किसी पूर्व निर्धारित मान्यता को स्वीकार नहीं करते। ‘रामचरितमानस’ के आरंभ में गुरु की महिमा गाने वाले तुलसीदास ‘दोहावली’ में इस सम्भावना को ही नकार देते हैं कि कोई तुलसीदास का गुरु हो सकता है:
ज्ञान कहै अज्ञान बिनु, तम बिनु कहै प्रकास।
निरगुन कहै जो सगुन बिनु सो गुरु, तुलसीदास।। (दोहा 251)
अर्थात, अज्ञान को मिटाने का काम ही ज्ञान है; अगर अज्ञान नहीं है तो ज्ञान का बोध भी नहीं हो सकता; दोनों परस्पर आश्रित हैं! पश्चिम की उत्तर-आधुनिकता ने ‘डेविल’ को पहले और ‘गॉड’ को बाद में रखकर इसी परस्पर निर्भरता के रूपक को अपना तर्क बनाया है।यही बात अन्धकार और प्रकाश के सम्बन्ध में है। बिना अन्धकार के प्रकाश का ज्ञान भी नहीं हो सकता। निर्गुण-सगुन का सम्बन्ध भी ऐसा ही है। सगुन-साकार द्वारा ही निर्गुण को समझाया जा सकता है। अगर ऐसा कोई व्यक्ति है जो अज्ञान के बिना ज्ञान को, अन्धकार के बिना प्रकाश को और सगुण के बिना निर्गुण को स्पष्ट कर सकता है, वही तुलसीदास के लिए गुरु बनने की योग्यता रखता है। मतलब यह कि ये सभी कार्य असंभव हैं और इसलिए तुलसीदास का गुरु होना किसी के लिए संभव नहीं है!
जो व्यक्ति रामानुज की भक्ति पद्धति का उत्कृष्ट रत्न हो, जो रामानंद की परंपरा का विकास हो, वह दर्शन सम्बन्धी अपने विचारों में इतना दृढ़ है कि किसी को गुरु बनाने को तैयार नहीं है। लेकिन उसकी अपनी मान्यता अत्यन्त स्पष्ट है और उसके लिए अकाट्य तर्क भी है। तुलसी निर्गुणमार्गी भक्त नहीं हैं, सगुणमार्गी हैं; लेकिन निर्गुण-सगुण में विरोध की जगह परस्पर निर्भरता का सम्बन्ध मानते हैं। फिर भी उनमें सगुण को प्राथमिक मानते हैं। यह बात ऊपर के दोहे से तो स्पष्ट होती ही है, आगे और भी अकाट्य तर्क से वे यह कहते हैं कि:
अंक अगुन, आखर सगुन समुझिअ उभय प्रकार।
खोएँ राखे आपु भल, तुलसी चारु विचार।। (252)
तुलसी ने तो भली भाँति विचार किया है, औरों से भी विचार करने का अनुरोध करते हैं कि अंक और अक्षर के सहयोग से भाषा बनती है, सम्प्रेषण संभव होता है। अंक निर्गुण की तरह है, अक्षर सगुण की तरह; दोनों को समझना चाहिए। किसका खोना और किसका रहना उचित है? अंक का खोना संभव है, अक्षर कभी नहीं खोते। अंकों में उलटफेर भी संभव है, अक्षर स्पष्ट बताते हैं।
यहाँ एक बात पर ध्यान देना जरूरी है। निर्गुण की परिणति मायावाद में होती है। ब्रह्म तो सगुण और निर्गुण दोनों के लिए सत्य है लेकिन निर्गुण के लिए संसार माया है, मिथ्या है। इसलिए संसार के दुःख भी मिथ्या हैं। सिर्फ रैदास को छोड़कर ज़्यादातर निर्गुण संतों के यहाँ काम की निंदा, नारी की निंदा खूब मिलती है लेकिन भूख का उल्लेख नहीं मिलता। ‘ऐसा चाहूँ राज में मिले सभन को अन्न’- रैदास की यह आकांक्षा तुलसी की वेदना की समानधर्मा है, जिनके लिए ‘कलियुग’ की एक ही पहचान है—कलि बारहिं बार दुकाल परै, बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै। यहाँ सगुण-निर्गुण का भेद है या दिन-दुखी-क्षुधित लोगों की यातना है? वास्तविक यातना, सगुण पीड़ा के सामने ब्रह्म के काल्पनिक स्वरुप का भेद व्यर्थ हो जाता है।
इसी प्रकार स्त्रियों को जीवित जलाने की प्रथा थी। पति के शव का साथ पत्नी को ‘सती’ होना पड़ता था। इसके पीछे संपत्ति का प्रश्न महत्वपूर्ण था। स्त्री को संपत्ति पर स्वतंत्र अधिकार न देने के लिए उसे सती कर दिया जाता था। अधिकांश निर्गुण संतों ने सती को आदर्श बनाया है। लेकिन सगुण भक्तों ने इस अमानुषिक प्रथा का विरोध किया है। सबसे पहले स्वयं मीरांबाई ने पति की मृत्यु के बाद प्रतिवाद किया कि ‘भजन करस्याँ सती न होस्याँ। सूरदास ने एक स्त्री को सती होते देख क्षोभ से भरकर कहा ‘देख जरनि जड़ नारि की।।।! यह भक्तियुग का यथार्थ था। इसीलिए महान शासक अकबर ने सती प्रथा पर रोक लगायी। जो मित्र कबीर और तुलसी में वर्ण-व्यवस्था को लेकर ज़मीन-आसमान एक करते हैं, उन्हें एक बार सती के बारे में दोनों के दृष्टिकोण की तुलना करनी चाहिए। कबीर ने अवश्य सती होती स्त्री को देखकर लिखा होगा—जिसे हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उद्धृत किया:
जैसे सती चढ़े अगिन पर, प्रेम वचन ना टारा हो।
आप जरै औरनि को जारी, राखै प्रेम मरजादा हो।। (द्विवेदी ग्रंथावली, खंड-4, पृष्ठ-395)
पराधीनता का चरम रूप स्त्री को जला देना है। जो तुलसी ‘मानस’ में क्षोभ व्यक्त करते हैं: ‘कत विधि सृजी नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।।’ वे सती के नामपर स्त्री को जिंदा जलाने का विरोध करते हैं। अपनी रचना ‘दोहावली’ में एक ‘सती’ को चिता से उठकर भागते देखते हैं:
परमारथ-पहिचानि-मतिलसति विषय लपटानि।
निकसि चिता से अधजरति, मानहुँ सती परानि।। (दोहावली, संख्या-२५३) निस्संदेह, एक ओर है स्त्री के जलने का दृश्य, दूसरी ओर है परमार्थ और विषय का दार्शनिक विवेचन। दोनों टकराते हैं। तुलसी के अनुसार परमार्थ को पहचानकर भी जो बुद्धि विषय की लपटों में जाती है, उसे देखकर लगता है मानों चिता पर जलती कोई स्त्री चिता से भाग खड़ी हुई है— पलायन कर गयी है!
कबीर की सहज साधना जीवन-कर्म के सामान्य व्यापारों के बीच होता है। तुलसी भी अधूरे संन्यास की अपेक्षा गृहस्थी में भगवन का भजन अधिक उपादेय मानते हैं। अगले ही दोहे में:
सीस उघारन किन कहेउ, ब्रजी रहे प्रिय लोग।
घरहीं सती कहावती, जरती नाह वियोग।। (दोहा-254)
शायद जलती चिता से भागी हुई ‘सती’ है जिसे कुछ लोग सिर खोलने के लिए कहते हैं, हालाँकि परिवार के लोग रोक रहे थे। इससे अच्छा था कि घर में ही सती बनी रहकर पति वियोग में जलती रहती। विधवा जीवन अधिक वेदनामय है। निराला ने भी विधवा की मार्मिक व्यथा पर लिखा है। तुलसी के पास पाँच सौ साल पहले विधवा जीवन का समाधान नहीं था। लेकिन वे विधवा को जला देने का समर्थन या गौरवमंडन नहीं करते। जीवित रहते हुए भी उसे पीड़ा है लेकिन पति के वियोग में जलना और पति के शव के साथ चिता पर जलना दो अलग-अलग बातें हैं। याद कीजिए कि जयपुर में बीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में रूपकंवर को ‘सती’ किया गया था। चिता जलने के बाद वह चीख रही थी, ‘पापा मुझे बचा लो!’ लेकिन‘ धार्मिक जोश में ‘सती मैया’ की जय के शोर में उसकी चीख पर ध्यान नहीं दिया गया। तुलसी ने इन स्त्रियों के दुःख को वाणी दी।
इस विषय का समाहार करते हुए यह उल्लेखनीय है कि एक तरफ वैष्णव निर्गुण सन्त कबीर सती का गौरव मंडन करते हैं। दूसरी तरफ सूफी निर्गुण सन्त जायसी भी सती का गौरवमंडन करते हैं। दोनों में उनका निर्गुण विश्वास सामान्य है। यह ध्यान देने की बात है कि निर्गुण भक्त कबीर-जायसी सती को गौरवमंडित करते हैं और चिता पर जलती हुई स्त्री के प्रति श्रद्धा प्रकट करते हैं। इसके विपरीत मीराँ, सूर, तुलसी, जितनेसगुण भक्त हैं, वेसतीके नामपर स्त्री को पति की चिता पर जीवित जलाने की क्रूर एवं अमानवीय प्रथा का विरोध करते हैं। क्या कबीर को क्रांतिकारी और तुलसी को प्रतिक्रियावादी मानने वाले हमारे अस्मितावादी, निर्गुण ब्रह्म को सामाजिक क्रांति का वाहक और सगुण ब्रह्म को क्रांति के दांत उखाड़ डालने वाले इतिहास विरोधी घोषित करने वाले मुक्तिबोधपंथी इस पहलू पर गौर करेंगे कि एकनिष्ठता के आधार पर स्त्री को जिंदा जलाने का आदर्शीकरण अधिक मानवीय है या भौतिक सुख-दुःख को आधार बनाकर स्त्री को जलाने की प्रथा का विरोध अधिक मानवीय है? ‘निर्गुण’ के लिए शरीर ही नहीं, सारा भौतिक सुख-दुःख माया है। सगुण के लिए भूख माया नहीं है, रोग माया नहीं है। संपत्ति सम्बन्धों के आधार पर भी स्त्री को सती करने के पीछे पितृसत्ता की प्रभुत्व-योजना है जिसमें दिवंगत पति की संपत्ति पर उसकी संतानों का अधिकार है, न कि पत्नी का। आखिर पत्नी स्वयं भी पति की संपत्ति है!
अन्ततः यदि ‘सती’ ही एकनिष्ठ समर्पण का प्रतिमान है तो केवल निर्गुण संतों में ऐसा समर्पण होता। सगुणसंतों की निष्ठा तैंतीस कोटि देवताओं से नहीं तो प्रमुख त्रिदेवों से बंधी होती। लेकिन हम इसके विपरीत वहाँ भी एकनिष्ठ समर्पण देखते हैं। मीराँ के ‘मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई’ से तुलसी के ‘एक भरोसो एक बल एक आस विस्वास’ तक वही अनन्यता मिलती है। इसलिए सेवा में निवेदन है कि पहले जाति के आधार पर सगुण-निर्गुण विभेद, फिर सामाजिक भूमिका के बहाने सगुण को प्रतिक्रांतिकारी और निर्गुण को क्रांतिकारी बताने की रणनीति वास्तव में फूट डालो-राज करो की ब्रिटिश नीति का रूपांतरण है जो आज भी सत्ताधारी और सत्तालोलुप राजनीतिज्ञों-बुद्धिजीवियों का सबसे भरोसेमंद साधन है। सच यह है कि इस तरह की विभेदनीति समाज के न्यायपूर्ण गठन और परिवर्तन में बहुत बड़ी रुकावट है।
संक्षेप में, तुलसी को भक्ति के महान आन्दोलन के एक शिखर के रूप में देखने की आवश्यकता है जो असाधारण मनुष्य और संवेदनशील कवि थे। उनमें वे सभी मानवीय दुर्बलताएँ थीं जिनसे समाज का पीड़ित व्यक्ति ग्रस्त होता है। वे असाधारण इस बात में थे कि अपनी दुर्बलताओं से उन्होंने घोर संघर्ष किया। इसलिए उनके व्यक्तित्व में, विचारधारा में और साहित्य में आश्चर्यजनक विकास देखने को मिलता है। किसी जुझारू मनुष्य की तरह तुलसी की शक्ति इस बात में थी कि वे अपने विश्वासों में दृढ़ और विचारों में स्पष्ट थे। वे किसी तरह के समझौतावाद और समन्वयवाद के फेर में नहीं पड़ते थे। साथ ही, कबीर, रैदास, जायसी, मीराँ की भाँति सभी मनुष्यों की समता में अटूट विश्वास करते थे। भक्ति उनके लिए भी वैकल्पिक सामाजिकता थी जहाँ ईश्वर के समक्ष सभी लोग बराबर हैं ।यदि भक्ति विद्यमान समाज-सम्बन्धों और मान्यताओं का अनुमोदन होती तो उसने वर्ण व्यवस्था, प्रभुत्व की व्यवस्था और स्त्री की अधीनता का समर्थन किया होता। अपनी-अपनी सीमाओं और विशेषताओं में सभी भक्त कवि, तुलसीदास भी, निर्भीक होकर विद्यमान सम्बन्धों को बदलने का संघर्ष कर रहे थे। ‘अब तुलसी का होहिंगे नर के मनसबदार’—यह नैतिक साहस और तेजस्विता तुलसी के व्यक्तित्व की पहचान है जो उन्हें और उनके प्रशंसकों को किसी भी सत्ता के सामने अडिग खड़े रहने का मनोबल देता है।