कविता

बुद्ध की खोज

 

  1. बुद्ध की खोज 

 

कहाँ हैं बुद्ध ?

क्या वो हैं हम सब के अंदर??

कितनी बार कोशिश की है

उन्हें ढूंढने की??

कितनी बार

मिल पाए हो उनसे?

उत्तर जरूर देना

 

कितनी बार

ग्रहण कर पाए हो

पायस उन कोमल

हाथों से , बिना विचलित हुए!!

और कितनी बार

फिर फिर गए हो

उस विटप तले,

पाने स्वयं को!!

कितनी बार त्यक्त किया है

तुमने जीवन के

कोमल पुष्पों का ?

भूलकर सब कुछ

बढ़ पाएं हैं कब कदम

केवल करुणा तक!!

बुद्ध को ढूंढना

इतना आसान नहीं

हुआ करता है,

सिद्धार्थ से तथागत तक

बुद्ध की खोज एक यात्रा है

अनंत यात्रा……

 

  1. कवि और कलम

हाथों में कलम थामते ही

कौंधने लगते हैं

असंख्य विचार और

चलने लगते हैं कई दृश्य

स्मृतियों के पटल पर,

हंसते-रोते अनेकों

भाव आने लग जाते हैं

मन और मस्तिष्क में।

 

मुश्किल हो जाता है

चुनना उनमें से किसी

एक भाव को, क्योंकि

वह मुंह नहीं मोड़ सकता

इन सब से,

हाथ भी नहीं छुड़ा सकता

अपने दायित्वों से,

उसका विकल हृदय

भींग जाता है

अभावों में मुस्कुराते

चेहरों से…..

 

द्रवित हो जाता है वह

घायल विहंग देख क्षण में !!

इतना कोमल हृदय जाने

वो कहाँ से है लाता!!

स्वर्ग की सुंदरता से लेकर

धरती की श्यामलता पर भी

वो सहज ही रीझ जाता !!

 

यह उच्श्रृंखलता नहीं

कवियों की, यह तो

उनके भावों की

ऊंचाई की पराकाष्ठा है….

 

  1. स्त्री और कविता

एक स्त्री जब

कविता लिखती है, तब

ध्यान से पढ़ी जाती है ,

अब वे भी पढ़ने

लग जाते हैं उसको,

जो कभी सुनने से भी

जी चुराया करते थे उससे,

 

क्योंकि वे जानना चाहते हैं

कि किन – किन का

जिक्र आएगा उसमें,

‘ वे ‘ जिनकी आँखें

नाप चुकी होती हैं,

उस स्त्री की भौगोलिक ….

क्षेत्रमिति,

 

अब व्याख्या करने

लग जाते हैं वे,

उसके शब्दों की,

कुछ नये स्वाद की तलाश में

 

चखना शुरू करते हैं

एक एक भाव को और

परखना शुरू करते हैं सब

हर एक आखर को,

 

आखिर क्यों नहीं छोड़

पाते हैं लोग स्त्री को कभी,

उसके चंद शब्दों और

अर्थों के साथ,

नितांत अकेले……

  1. उसे भूला नहीं कहते

वापिस आना चाहता है

‘ वो ‘ फिर से,

भूलकर अतीत की सारी

कड़वाहटों को,

खुलकर जीना चाहता है

दौड़ना चाहता है

अपने गाँव की कच्ची गलियों में !!

 

छू लेना चाहता है

वृहत्त आकाश को अपने

हाथों से, पा लेना चाहता है

हर वह साथ ;जो जुड़ा है

उसकी स्मृतियों से,

मिट्टी का सौंधापन

औऱ गन्ने की मिठास

भर लेना चाहता है अपने

अन्तस में,

 

फिर नई शुरूआत करना

चाहता है ‘ वो ‘।

भूलकर अपनी हर गलती,

उम्र की सांझ ढलने से पहले…..

क्योंकि ,

अगर सुबह का भूला

शाम को लौट आए

तो उसे भूला नहीं कहते!!

 

  1. सुबह आती है

 

हर दिन सुबह आती है

रात गुजरने के ठीक पहले।

उन अंधेरों को मिटाने

जिसे फैला रखा था

रात ने आसमान पर

पूरे एकाधिकार से !!

 

एक योद्धा की तरह

वह जीत जाना चाहती है

लड़कर उस तमस से,

खोलकर बिखरा देना

चाहती है अपनी

सुनहरी अलकों को ,

क्षितिज के आखिरी बिंदु तक।

 

हर दिन सुबह आती है

अपनी किरणों की

चतुरंगिणी सेना लिए

और छोड़ देती है

उन्हें हर ओर।

 

हर सोते को जगाने के लिए

अब कहीं कोई

शेष नहीं है साक्ष्य

निशीथ की कालिमा की

चारों तरफ पसरा है

प्रकाश …..बस प्रकाश।

  1. कल

 

कल……

जैसे सीपी में

बन्द मोती

कल…..

जैसे अँखियाँ

आधी खुली

आधी सोती

अबूझ, अनसुलझी सी

कोई पहेली

 

कल….

घूंघट में सकुचाई

कोई दुल्हन,

व्यग्र दिवस

देखने को जिसका

चंद्र वदन

कल….

जैसे मदमाता पवन

 

कल…..

रेशमी कपड़े में

लिपटा हुआ

कोई उपहार,

कौन जाने

किसकी जीत और

किसकी हार !!!!!

कल…..

जैसे प्रिय का

इंतज़ार…..

  1. बरगद

 

बरगद ,

तुम तो युगों से

रहे हो पूजनीय, वंदनीय !!

पात-पात में तुम्हारी

देवताओं का वास होता है

गात में तुम्हारी

प्रज्ञा का निवास होता है।

 

सिद्धार्थ को बुद्ध तुमने बनाया

ज्ञान से परिचय कराया,

तुम्हारी सघन जड़ें

धरती को फाड़कर

जा पंहुचती है पाताल तक।

आयु-यश -स्वास्थ्य की

कामना भी तुम पूर्ण करते हो।

 

तुम्हारी सघन छाया में

जुड़ाते हैं दूर के विहग-पथिक,

इतना उदार, महान

होने के बाद भी

क्यों एक कलंक से

छूट नहीं पाते तुम !!

 

क्यों किसी नन्हे पौधे को

अपनी छाया तले

पनपने नहीं दे पाते तुम !

क्यों अपनी इस

वृहदता में तने रहते हो !

एक स्नेहिल बुजुर्ग की

भांति अपना हाथ

उस नन्हे पौधे पर रख

क्यों नहीं रख पाते तुम !!

इससे तुम्हारी बुजुर्गियत

और बढ़ जाती,

नन्हें पौधों की आस

तुम से और बढ़ जाती।

 

  1. तुम्हारे आने के बाद

 

कितना कुछ बदल गया है

तुम्हारे आने के बाद…..

दिल फिर सँवर गया है

तुम्हारे आने के बाद…..

मुस्कुराता लग रहा है

हर शख्स यहाँ पर कैसे

ये क्या जादू-सा हुआ कुछ

तुम्हारे आने के बाद….

थोड़े कम कम लगते हैं

दर्द जमाने के अब तो,

बड़े शोख से हम लगते हैं

तुम्हारे आने के बाद…..

छंद अधूरे, शब्द अधूरे

गीत भी बन रहे थे अधूरे

अब सधे से लग रहे हैं

जैसे मेरे ये गीत सारे…..

जीवन बन गया है नाद

तुम्हारे आने के बाद……

 

  1. मास्क लाइट

 

सड़कों के किनारे

ऊंची अट्टालिकाओं से

बातें करते हुए

जगमगाते ये

मास्क लाइट

 

कह रहे हो मानों

सुरक्षित है शहर

अंधेरे में होने वाली

वारदातों से,

सो सकते हैं सभी

अब चैन से

धीरे- धीरे गुजरती

इन रातों में

 

एक भिखारी, कुछ बच्चे और

दिन भर काम कर

आयी ,थकी हारी

यौवन की देहरी

लांघ चुकी औरतें ,

सब सोये हैं

मेरे प्रकाश-वृत्त के

घेरे में, एक सुनहले

सवेरे की प्रतीक्षा करते हुए।

 

हाथ-पांव, मुंह नहीं मेरे

फिर भी प्रतिपल

जलकर रक्षा में

तत्पर खड़ा रहता हूँ

मतांध हो भाग रहे

वाहनों से उनकी

रक्षा करने को

ताकि अंधेरे की

आड़ में उनके

वो सुनहले सपने

कुचल न दिए जाएं,

 

मैं अडिग खड़ा रहूंगा

सुबह की पहली

किरण के आने तक

मैं नही बुझूँगा

मेरे प्रकाश-वृत्त में

पल रहे सपनों के

पूरा होने तक।

  1. मनहर चाँद

 

नभ पर अठखेलियाँ करता,

हंसता-बतियाता

मनहर चाँद

भला किसे नहीं

सुहाता होगा ?

 

हर दिन बढ़ते हुए वो

वो बढ़ाते रहता है

हमारी उम्मीदें ज़िंदगी की,

जब आती है

पूनम की रात

तो चमक उठता है

सबकुछ जादू सा !!

 

लेकिन कभी

लग जाया करता है ‘ ग्रहण ‘

इस मनहर चाँद को भी,

जब जाग उठता है

एक दैत्य लीलने उसको,

और उसकी परछाईं में

मलिन होने लगता है

जादुई चाँद धीरे – धीरे…..

 

आशीष मिला हुआ है

चाँद को,

बूढ़े आसमान का ।

जो समाए रखता है

उसे अपनी गोद में

बच्चों की तरह, जिससे

उबर जाता है मनहर चाँद

इस दैत्य के शिकंजे से

 

पाकर आशीष आसमान का

पुनः बिखेरने लगता है वो

अपनी रजत रश्मियों को

तो क्या हम भी

नहीं बन सकते

वही मनहर चाँद

जो उबार लेता है

स्वयं को ग्रहण से।

.

अलका 'सोनी'

लेखिका का एक काव्य-संग्रह तपस (101 कविताओं का संग्रह) तथा अनेक समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित हैं। सम्पर्क +91 7908651937, alka230414@gmail.com
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