समीक्षा

हिंदी आलोचना की आलोचना

 

 

सुप्रसिद्ध आलोचक और भाषाविद अमरनाथ की पुस्तक ‘हिंदी आलोचना का आलोचनात्मक इतिहास’ 21 सोपानों में विभक्त और चार सौ बहत्तर पृष्ठों में फैली हुई है। इस पुस्तक में लेखक ने अत्यन्त तार्किक ढंग से हिंदी आलोचना का आलोचनात्मक इतिहास प्रस्तुत किया है। लेखक का मानना है कि,‘‘हिंदी आलोचना का इतिहास विसंगतियों से भरा हुआ है और हमारा हिंदी समाज अब उसके दुष्परिणाम भी झेल रहा है।’’ लेखक का सबसे बड़ा सवाल यह है कि हमने यह कैसे मान लिया कि हिंदी आलोचना का विकास आधुनिक काल में गद्य के विकास के साथ हुआ? हिंदी साहित्य में सृजन जब नवीं-दसवीं सदी से ही होने लगा था तो फिर आलोचना का विकास अठारहवीं सदी से क्यों? क्या एक हजार साल तक सिर्फ रचनाएँ होती रहीं और उन पर प्रतिक्रियाएँ नहीं होती थी? हमारे वरिष्ठ आलोचकों की नज़र इस विसंगति की ओर कभी गई ही नहीं। हिंदी साहित्य के आदिकाल से लेकर आधुनिक काल के भारतेन्दु युग तक लोग सिर्फ रचनाएँ ही पढ़ते रहें प्रतिक्रियाएँ देने से परहेज करते रहें? यह बात असंभव लगती है। लेखक के अनुसार आलोचना का विकास रचना के साथ ही होता है। इसलिए जिस समय से हम हिंदी साहित्य के सृजन का इतिहास स्वीकार करते हैं उसी समय से उसकी आलोचना का इतिहास भी स्वीकार करना होगा। हिंदी आलोचना की विरासत संस्कृत में निहित है। इसलिए हमें भी संस्कृत की इस महान विरासत को समझना और सहेजना चाहिए। संस्कृत में जो टीका या भाष्य लिख गए इनके साथ ही सटीक और आलोचनात्मक टिप्पणियाँ भी भाष्यकार करते थे। ये लोग सच्चे अर्थों में आलोचक ही थे।

      लेखक ने पुस्तक के पहले सोपान में हिंदी आलोचना की विरासत के रूप में ‘काव्यशास्त्र’ की संक्षिप्त में चर्चा की है। इनका मानना है कि ‘‘जिस ज्ञान को प्राप्त करके कवि सुंदर कविता कर सकता है और सहृदय काव्य का पूरा आनंद प्राप्त करता है, वह ज्ञान है काव्यशास्त्र।’’ इस सोपान में काव्य के मूल्यांकन के सैद्धांतिक मानदण्डों के रूप में रस, अलंकार, रीति, ध्वनि, वकोक्ति और औचित्य सम्प्रदाय की चर्चा करते हुए संस्कृत की व्यावहारिक आलोचना के रूप में टीका पद्धति और सूक्तियों के संदर्भ में अपनी बात कही है। दूसरे सोपान में लेखक ने मध्यकालीन हिंदी आलोचना के जो रूप प्रचलित थे उनका श्रेय संस्कृत साहित्य को दिया है। इस समय हिंदी में लक्षण ग्रंथों की जो परम्परा चली वो संस्कृत के सैद्धांतिक आलोचना के छः सिद्धांत में से हिंदी में रस, ध्वनि और अलंकार का ही विशेष प्रचलन हुआ।

      लेखक भारतेन्दु युगीन हिंदी आलोचना को व्यावहारिक आलोचना की नई शुरूआत मानते हैं। इसका सूत्रपात भारतेन्दु युग के गद्य के विकास के साथ ही होता है। भारतेन्दु के आगमन के पश्चात् हिंदी के पाश्चात्य शिक्षा और संस्कृति के सम्पर्क से नवीन विचारों का अभ्युदय हुआ। वैज्ञानिक अनुसंधान, जनतांत्रिक मूल्यों, विचार स्वातंत्र्य आदि मूल्यों से हिंदी के साहित्यकार परिचित हुए। साहित्यिक संस्कारों में बदलाव आया। हिंदी आलोचना भी इससे प्रभावित हुई।

      इस पुस्तक में लेखक सोपान-दर-सोपान आलोचना के पूरे इतिहास को अपनी तार्किक दृष्टि से देखते हैं।पुस्तक में विशेष रूप से पाठालोचन पर भी चर्चा की है तो  उर्दू साहित्य आलोचना पर भी पूरा एक सोपान है। इस सोपान के माध्यम से लेखक यह कहना चाहता है कि हिंदी- उर्दू का विभाजन कृत्रिम है। भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में उर्दू को हिंदी के समानान्तर स्वतंत्र भाषा का दर्जा दे दिया गया। भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से ये दोनों अलग भाषा न होकर एक ही भाषा की अलग-अलग शैलियाँ है। लेकिन हिंदी साहित्य की आलोचना से उर्दू साहित्य बाहर ही रह गया। आज उर्दू केवल एक धर्म से जुड़ी भाषा हो गई है। हिंदी साहित्य का पाठक उर्दू साहित्य की एक समृद्ध परम्परा से वंचित हो गया है।

      लेखक का मानना है कि हिंदी में छायावाद के साथ-साथ चलने वाली राष्ट्रीय चेतना धारा वाली कविता की तरफ आलोचकों का ध्यान ज्यादा नहीं रहा। वह उपेक्षा का शिकार हुई। जबकि इस धारा पर गाँधीवाद का प्रभाव सर्वाधिक पड़ा था। हिंदी में मार्क्सवादी, मनोविश्लेषणवादी आदि दर्शनों पर तो विस्तार से चर्चा की गई लेकिन गाँधीवादी आलोचना पद्धति का उल्लेख नहीं मिलता है। पुस्तक का एक पूरा सोपान इस पर ही आधारित है। लेखक ने इस श्रेणी में शांतिप्रिय द्विवेदी, नंददुलारे वाजपेयी, नगेन्द्र, विजयदेवनारायण साही को माना है। इसी प्रकार लेखक ने हिन्दुत्ववादी आलोचना को भी नोटिस में लिया है। इस आलोचना के पीछे हिन्दुत्ववादी जीवन-दर्शन है, दर्शन का वैचारिक स्त्रोत राष्ट्रीय सेवक संघ है। इसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि को भी रेखांकित करने का प्रयास किया है। लेखक ने माना है कि ये धारा भी भविष्य में मजबूत हो सकती है जबकि हिंदी साहित्य की प्रकृति कभी ऐसी नहीं रही है। लेखक यह भी कहते हैं कि इस प्रकार की संकीर्णता में साहित्यकार को कभी नहीं फँसना चाहिए।

      भूमंडलीकरण के प्रभाव से हिंदी आलोचना में भी व्यापक परिवर्तन आया है। भूमण्डलीकरण के इस दौर में मीडिया का दायरा बहुत विकसित हो चुका है। इसलिए लेखक ने एक सोपान में मीडिया समीक्षा पर भी व्यापक चर्चा की है। वर्तमान समय में अस्मितावादी आग्रह बढ़ा है। लेखक ने भी आज की आलोचना के प्रमुख विषय दलित-विमर्श, स्त्री-विमर्श, आदिवासी-विमर्श को पुस्तक में यथोचित महत्व दिया है। लेखक ने मीडिया-समीक्षा के भीतर सिनेमा का अध्ययन भी रखा है क्योंकि यह समाज को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाला माध्यम है। पत्रकारिता के समीक्षकों को पर्याप्त जगह प्रदान की है।

      लेखक का मानना है कि वर्तमान समय में लेखक अपने को विचारधारा मुक्त भी कहने लगे हैं, लेकिन स्थिति ऐसी होती नहीं है। वह लिखते है कि, ‘‘विचारधारा का विकास भी इसी समाज में होता है। अगर हमारे पास बुद्धि है, हम पढ़े-लिखे हैं और सामाजिक हैं तो हमारे ऊपर समाज में फैली विचारधाराओं का अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा ही। हाँ, यह जरूर है कि प्रत्येक सचेत बुद्धिजीवी की विचारधारा उसके अध्ययन और चिंतन के क्रम में तथा समय के प्रभाव में बदलती रहती है।’’ लेखक ने अध्ययन की सुविधा के लिए आलोचकों को किसी-न-किसी श्रेणी में शामिल किया है। लेकिन यह भी माना है कि, ‘‘रचनारत आलोचकों के विचार कल यदि बदल जाएँ तो मेरे द्वारा किया गया वर्गीकरण स्वतः अनुपयुक्त साबित हो जाएगा।’’

      लेखक लिखते हैं कि एक रचनाकार को प्रतिष्ठित करने में आलोचक की भूमिका असंदिग्ध है। लेखक की तुलना में एक आलोचक को बहुत अधिक श्रम करना पड़ता है, उसे रचना में डूबना पड़ता है, रचना के साथ ही रचनाकार के परिवेश, उसके व्यक्तित्व के निर्माण में योग देने वाले कारकों, परिस्थितियों आदि का भी अध्ययन करना पड़ता है। तब जाकर वह किसी रचनाकार या उसकी कृति का तर्कसंगत विश्लेषण कर अपना मंतव्य रख पाता है। यदि इसमें तनिक भी चूक हुई तो उसकी छवि खराब हो जाती है। इतने खतरों को झेलने वाले आलोचक के खाते में ढंग का कोई पुरुस्कार भी नहीं है। चयनवादी प्रवृत्ति के कारण भी हिंदी आलोचना का बड़ा अहित हुआ है। चंद आलोचक ही विमर्श के केन्द्र में रहते हैं, बाकि को उपेक्षित छोड़ दिया गया है। चाहे उनके काम कितने भी महत्वपूर्ण हो। लेखक ने इस दूरी को पाटने की कोशिश पुस्तक में की है। लेखक ने पुस्तक में आलोचना के वर्गीकरण के प्रचलित सभी आधारों का समावेश किया है, जैसे विचारधारा के आधार पर, साहित्य की विधा के आधार पर, शैलियों तथा प्रवृत्तियों के आधार पर। इस पुस्तक को तैयार करना काफी श्रमसाध्य रहा है। यह पुस्तक हिंदी साहित्य के शिक्षकों, विद्यार्थियों और शोधार्थियों के लिए काफी मूल्यवान सिद्ध होगी

समीक्ष्य पुस्तकहिंदी आलोचना का आलोचनात्मक इतिहास : अमरनाथ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2022

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ललित श्रीमाली

संपर्क : 38 –A,लेन-1,विनायक नगर, रामगिरि, बड़गाँव, उदयपुर 313011
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