नमस्ते समथर की कुन्तल: स्वावलंबी स्त्री
अपनी ग्रामीण स्त्री पात्र की सशक्त छवि को अपने रचना संसार में उकेरने वाली मैत्रेयी पुष्पा ने विज़न की डॉ. नेहा, गुनाह-बेगुनाह की ईला और इसी क्रम में अगली कड़ी नमस्ते समथर की कुन्तल को गढ़कर एक नयी दिशा में कदम आगे बढ़ाया है। जहाँ ग्रमीण और शहरी स्त्रियों के बीच भावना की एक डोर जो उन्हें बहनापे के रिश्ते से बांधे रखती है।
बहुत सारे रचनात्मक लोग जो किसी संस्था से जुड़ते हैं, उनके मन में एक संतोष रहता है कि समाज नहीं तो कम से कम उस क्षेत्र विशेष के लिए कुछ अच्छा कर पाएंगे। कुन्तल ने भी यही सोचा था, पर यह क्या यहाँ तो सब उलटा पड़ गया। यहाँ प्रतिभा की उतनी पूछ नहीं जितनी पैरवी की। कुन्तल हर बार आयोजन के लिए योग्य कवियों की लिस्ट बना कर देती जिन्हें संस्था फैलोशिप के साथ एक उचित सम्मान देती है, पर आश्चर्य यह कि अंत में लिस्ट के नाम ही बदल दिए जाते है। ऐसे में उसके मन में एक प्रश्न कौन्धता है कि “हिन्दी सेवी होने के नाम पर वित्तीय मदद लेना जैसे उनका अधिकार हो। यहाँ कितने आग्रह, कितनी खुशामदें और कितनी चापलूसियाॅ… क्या यह वही अकादमिक दुनिया है जिसमें कबीर, प्रेमचन्द, निराला जैसे रचनाकारों को अग्रणी माना जाता है”?
इन सबके बावजूद कुन्तल का मन नहीं हारता जबकि वह पूरी तरह टूट चुकने के कागार पर है, फिर भी मन को मजबूत कर वह कहती है कि “यह भी युद्ध है और युद्ध छोटे या बड़े नहीं हुआ करते, हर हालत में लड़ने होते हैं”।
कुन्तल पर चारित्रिक आरोप लगाने में भी यह समाज पीछे न हटा कुन्तल जैसी कितनी ही मेधावी लड़कियां इसी वजह से अपने कदम पीछे कर लेती हैं। एक समय उर्जा से परिपूर्ण कुन्तल की मनः स्थिति ऐसी हो जाती कि वह अंत में इस्तिफा देना चाहती है, लेकिन कहा जाता है न जिसमे समाज के लिए कुछ करने की सनक होती है वे बाधाओं का प्रयोग भी सकारात्मक उर्जा के रूप में कर लेते हैं, इसलिए कुन्तल का हार ना मानना उन मेधावी लड़कियों के लिए एक उदाहरण है। समाज में ऐसी प्रतिकूल परिस्थिति के कारण कुन्तल के मन में भावनाएं हैं तो सही पर उसके साथ बह जाने का समय नहीं है। समाज ने उसे या उस जैसी हर लड़की को अबला ही समझा है और पुरूष को उसका आश्रयदाता। उनके लिए तो यह माना जाता है कि कड़े निर्णय और मुक्कमल फैसला देने वाली स्त्री हंटरवाली ही हो सकती हैं, न्यायप्रिय और वैज्ञानिक चेतना से लैस नहीं। एक स्त्री का यही अस्तित्व है। जिसे कुन्तल रोज चुनौती देती है, वह सपना देखती है लेकिन उसके आस- पास जो उसके अपने या हितैषी है वे व्यवस्था या समाज में परिवर्तन की बात न सोचकर उसे ही समझाना चाहते हैं-“तुम स्त्री अधिकारों की बात करती हो, स्त्री चेतना के लिए आश्वस्त होना चाहती हो जबकि यहाँ सपने भी मर्दों से छिपकर देखे जाते हैं क्योंकि माता पिता और संरक्षकों की रस्सियों से बंधी लड़कियों के लिए तमाम दुःस्वप्न थे- हमारी लड़कियां नाचेंगी तो इनके व्याह कैसे होंगे”?
‘नमस्ते समथर’ की लेखिका मैत्रेयी पुष्पा ने विषम परिस्थिति में भी कुन्तल की जीवटता को उजागर कर समाज को एक संदेश देने का काम किया है।