आलोचना

अनुत्तरित संताप के अभिज्ञान का उपन्यास : चन्ना तुम उगिहो

 

कोई भी समाज जब विविधताओं से भरा होता है तब स्वाभाविक रूप से उस समाज के भीतर किसी भी रचना के प्रति ग्रहणीय-भाव भी अलग-अलग होता है। यह ग्रहणीय भाव सामाजिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक, आर्थिक तथा भाषा के स्तर पर एक अलग तरह का परिदृश्य तैयार करता है, ठीक वैसे ही घटनाओं और समस्याओं के आधार पर भी अलग-अलग तरह की चुनौतियाँ प्रस्तुत करता है। इसका अर्थ यह हुआ कि शोषण और शोषक के स्वरूप में भी सामाजिक आधार पर संरचनात्मक अंतर अवश्य होगा, क्योंकि यदि किसी समाज की किसी खास घटना का जिक्र किया गया हो और उस घटना से उस समाज से भिन्न, समाज के पाठकों का उससे परिचय न हो तब ऐसी स्थिति में पाठक के सामने सबसे पहले अस्वीकार का प्रश्न उठता है। यह ‘अस्वीकार’ ही ‘अविश्वसनीयता’ के बोध तक पहुंचता है और ऐसी स्थिति में हो रहे शोषण की स्वाभाविक रूप में उपेक्षा हो जाती है। रचनाकार यहीं असफलता को प्राप्त करता है, इसीलिए रचनाकार के लिए ‘सहजता’ तथा ‘स्वाभाविकता’ का प्रश्न सबसे महत्वपूर्ण होता है। इस संदर्भ में देखें तो यदि रचनाकार इन विविध सामाजिक प्रसंगों से परिचित है, तब ऐसी स्थिति में वह सहजता के साथ स्वाभाविकता की प्रक्रिया से गुजरते हुए अपनी रचनात्मक प्रस्तुति को आगे बढ़ाता है। इस प्रक्रिया से ही अलग-अलग समाज के पाठकों में रचनाकार अपनी रचनाओं के प्रति ‘विश्वसनीयता’ का भाव पैदा करता है। यह भाव इसलिए अहम हो जाता है क्योंकि तब पाठक स्वाभाविक रूप से रचनाओं के भीतर की समस्याओं, पात्रों, घटनाओं और उसकी भाषा के साथ अनुराग महसूस करने लगता है। लेकिन यह प्रक्रिया किसी भी रचनाकार के लिए जोखिम भरी होती है। एक खास समाज के लिए किसी खास कसौटी को ध्यान में रखकर लेखन करना और दूसरी तरफ एक सामूहिक समाज की कसौटी पर खुद को साबित करना साहसी लेखन का कार्य होता है। पहले में जल्दबाज़ी होती है तो दूसरे में अकूत धैर्य की जरूरत होती है। पहले में लेखन-लक्ष्य होता है तो दूसरे में लक्ष्य-रहित होना होता है। एक में ‘सीमाएं’ होती हैं तो दूसरे में ‘सामूहिकता’ का प्रश्न होता है। साहित्य में ‘स्व-लाभ’ और ‘समाज-लाभ’ को समझे बगैर ‘प्रायोजित-लक्ष्य’ और ‘लक्ष्य-रहित’ होने के प्रसंग को ठीक से नहीं समझा जा सकता है। किसी एक समूह या वर्ग के लिए स्वहित से जुड़कर किया गया लेखन कुछ समय के लिए लाभ और समृद्धि के रास्ते अवश्य मुहैया कराता हो लेकिन ऐसी रचनाएँ बहुत कम समय में दम तोड़ देती हैं। ‘उद्दमेन हि सिध्यंति कार्याणि न मनोरथे’। ठीक इसके विपरीत कई जटिल प्रक्रियाओं से गुजरते हुए ‘सामूहिकता’ के प्रश्न पर विचार करते हुए,‘सामूहिक-प्रस्तुति’ को रचना-आधार बनाकर सृजन करना रचनाकार की कठिन साधना को दर्शाता है और साथ ही उसकी दृष्टि की व्यापकता को भी रेखांकित करता है। ऐसी रचनाएँ कालजयी होती हैं, भले तात्कालिकता उसे सुप्तता की अवस्था में समझाने का भ्रम स्थापित करती हो। यहाँ यह ध्यान रखने की जरूरत है कि सामूहिकता का अर्थ हाशिए के प्रश्न से अलगाव नहीं है, बल्कि हाशिए के प्रश्न पर सीमित दृष्टि से किए गए लेखन से न होकर उस प्रश्न को सामूहिक प्रश्न बनाने के प्रयास से है, ताकि उस प्रश्न की प्रासंगिकता सामूहिकता को प्राप्त कर सके।

चंद्रकला त्रिपाठी का उपन्यास ‘चन्ना तुम उगिहो’ का कथा-शिल्प इसी ‘सामूहिकता’ की नींव पर खड़ा है। इस उपन्यास में देखें तो स्त्री-पात्र रूपा की समस्या सिर्फ रूपा की समस्या न होकर कैसे समूची स्त्री जाति से संबंधित होते हुए इसे ‘सामूहिकता’ प्रदान करती है। लेखिका इस सामूहिकता को लेकर कितनी संवेदित और सतर्क है, इसे आधार बनाते हुए ही इस उपन्यास को ठीक से समझा जा सकता है। इस संदर्भ को उपन्यास के एक छोटे से प्रसंग से जाना जा सकता है– ‘यह रोने में गाना और गाने में रोना मिलाकर जीने वाली स्त्रियों का कलेजा था’। इस एक वाक्य से ऐसा प्रतीत होता है मानो यह एक वाक्य नहीं बल्कि स्त्री जीवन का सम्पूर्ण महाकाव्य है। इस संदर्भ को आज की अति-गतिशील संस्कृति से खुद को बाहर रखते हुए ठहराव के साथ ही समझा जा सकता है। यह वाक्य ‘कथा-प्रवेश’ तो है ही साथ ही लेखिका की मनोवैज्ञानिक समझ और उसके भीतर ‘सहभावना’ के विशाल स्वरूप को भी इंगित करता है। लेखिका में यही वह विशाल सहभावना का स्वरूप है जो स्त्री-जीवन के साथ-साथ सामाजिक विसंगतियों को उभारने की कठिन साधना में ‘सहजता और स्वाभाविकता’ के माध्यम से ‘चन्ना तुम उगिहो’ सामूहिकता को प्राप्त कर ले जाता है। इस प्रसंग को ध्यान से देखें तो रूपा के दुख से दुखी होकर रोने वाली स्त्रियों का अपना दुख भी समाहित था, इसलिए रोते वक़्त उनके अपने दुखों की भी दुनियाँ उनके सामने होती है। यहाँ स्त्रियों का दूसरी स्त्रियों के साथ अपने से दूसरे दुख के साथ मिलन शोक-गीत का रूप है। रूपा की फुआ भी यही कर रही थी। उसे भी अपने दुख का अतीत घेरे हुआ था, जहां उसका डॉक्टर पति उसे अपनी ‘क्लास’ में ढ़ालने के लिए उसे पढ़ाता, और पढ़ाने के क्रम में उसका मुंह दबाकर बेंत से उसकी पिटाई किया करता। ‘जब तक बेंत की मार से वह अपने पति के हिसाब से ढ़ल न गई तब तक उनका दांपत्य जीवन शुरू न हो पाया’। एक स्त्री के दुख में अन्य स्त्रियों के रुदन के इस व्यवहार गीत को लेखिका बखूबी पहचानती ही नहीं बल्कि उसका मार्मिक चित्रण भी करती है।

ऐसी स्थिति में स्वाभाविक रूप से विविध समाजों के बीच जो अलगाववादी सीमाएँ तैयार कर दी जाती हैं, उन सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए यह उपन्यास विविधताओं के भीतर एकरूपता की संरचना तैयार कर देता है और फिर इस उपन्यास के पात्र, पात्रों का जीवन, घटनाएँ, समस्याएँ आदि एक खास समाज या क्षेत्र का न होकर सम्पूर्ण समाज का हो जाता है। प्रेमचंद ने जिन ‘सीमाओं के उल्लंघन में ही सीमाओं की मर्यादा है’ की बात कही थी उसे बिना आधार बनाए और समझे बगैर ‘चन्ना तुम उगिहो’ के साथ सान्निध्य जोड़ना संभव नहीं है।

रूपा की समस्या तथा उसके त्रासदीपूर्ण जीवन का संबंध सिर्फ उसके व्यक्तिगत जीवन तक ही सीमित नहीं रह जाता है। यह उपन्यास रूपा की समस्याओं का जो वृत बनाता है, वह सामाजिक मान्यताओं और उसके नियमों तक एक प्रभावशाली विचार पैदा करता है। यह विचार सोचने को मजबूर कर देता है कि किसी व्यक्ति के एक फैसले से कैसे एक पूरा परिवार और उस परिवार से जुड़े अन्य लोग तथा साथ ही फैसला लेने वाला स्वयं भी प्रभावित होता है। रूपा के पति जियुत ने अपनी पसंद से दूसरा विवाह कर लिया था। यह घटना जियुत के परिवार को तो तोड़ता ही है (‘बीच बाजार इज्जत उतर गई थी उनके परिवार की’) साथ ही बिन माँ की रूपा के पिता वैद्य जी भी यह सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं। पिता की मृत्यु ने रूपा को और अधिक उजाड़ दिया। ‘उसे लगता चारों तरफ उसके लिए सिर्फ धिक्कार बचा है’। ‘बीच बाजार ‘इज्जत’ का उतर जाना’ और सिर्फ ‘धिक्कार’ का स्थायी भाव बन जाना, यह वातावरण जो एक पूरे परिवार पर अदृश्य रूप में चस्पा था उसकी निर्मिति का स्वरूप क्या है? यह चस्पा इतना जटिल और खतरनाक क्यों है कि ‘पुनर्निर्माण’ जैसे विचारों की सोच तक नहीं पनप पाती? ‘लिहाज़’ और ‘मर्यादा’ से उत्पन्न समस्याएँ आखिर अंततः किसके लिए प्राणघातक होती हैं ? ‘जहां लोग अपना बच्चा तक गोद में नहीं उठाते थे और इसे लिहाज़ माना जाता था’, यह ग्रामीण क्षेत्रों में लिहाज़ का एक स्वाभाविक रूप माना जाता है, लेकिन लिहाज का यह एकमात्र स्वरूप नहीं है। इसका दूसरा पक्ष भी है जहां आठवीं में पढ़ने वाली लड़की और उसके साथ शादी करने वाले बीस वर्ष के लड़के का विरोध करना ‘बेलिहाज़’ होना साबित कर देता है। इस दूसरे पक्ष पर विचार करना आवश्यक हो जाता है क्योंकि ‘संस्कार’ की संरचना में समाज ‘लिहाज़’ को प्रतिष्ठित करता है और ‘बेलिहाज़’ को अप्रतिष्ठित। लिहाज़ विरोध या असहमति के सारे मार्ग बंद कर देता है। फिर इसका परिणाम क्या निकलता है? जियुत का रूपा को छोड़कर अपनी पसंद से दूसरी शादी करना। जिस पिता का जियुत विरोध नहीं कर पाया था वे अब किस तरह का दबाव डाल सकते हैं? मानव-जीवन में ‘समर्थता’ और ‘असमर्थता’ का स्वरूप समझे बिना जीवन की बहुत सारी परिस्थितियों को नहीं समझा जा सकता है। अब जियुत ‘समर्थ’ था इसलिए उसके ऊपर उसके पिता का कोई ज़ोर नहीं चल सकता था। यही कारण है कि प्रतिक्रिया में वे अपने बाल मुंडवाकर अपने जीवित पुत्र का श्राद्ध करने बैठ जाते हैं और अपनी बहू रूपा का सिंदूर धुलवाने के लिए चीखने लगते हैं। यहाँ पिता के ही कितने रूप दिखते हैं? कभी जियुत पर अभिमान करने वाले पिता, उसके जीवन का फैसला लेने वाले अलोकतांत्रिक पिता, बहू के पक्ष में खड़ा एक आदर्श ससुर और विवशता में प्रतिक्रिया के क्रम में जीवित पुत्र का श्राद्ध करने वाला निष्ठुर पिता। पिता के इन सारे रूप को गाँव की सबसे बुजुर्ग दादी पहचानती है। दादी स्त्री भी है और बुजुर्ग भी, जैसे किसी साधक की दो साधनाएं। इसलिए वो सबसे पहले उस क्रुद्ध पिता को डांटकर क्रोध संतुलित करती है और फिर उसी पल उसके टूटन पर स्नेहपूर्ण सहारा भी देती है। लेखिका के इस अद्भुत प्रसंग से जिस तरह का मार्मिक दृश्य उभरता है वह पाठक के लिए ‘अवर्णनीय’ हो जाता है। ‘निर्णयात्मकता’ के क्षेत्र में यह ‘अवर्णनीयता’ इस उपन्यास को सरल और श्रेष्ठ बनाती है। लेखिका ने इन प्रसंगों को जिस रूप में रिक्त छोड़ दिया है, उस रिक्तता में पाठक स्वयं को महसूस करने पर मजबूर हो जाता है। सामाजिक मान्यताओं की जो ‘कंडीशनिंग’ है उसकी ‘रेंज’ कितनी अधिक है, इसका बेहतरीन चित्रण यहाँ देखने को मिलता है। लेखिका एक ऐसे सत्य (यथार्थ) को पेश करती है जिसकी ताप रूपा से गुजरते हुए कई संस्थाओं के लिए असहनीय हो जाती है। इस संदर्भ को विस्तार से समझने के लिए एक और प्रसंग का जिक्र यहाँ महत्वपूर्ण हो जाता है।

रोशनी जो अभी तक जियुत की प्रेमिका है, वह जियुत के साथ खुश है। रोशनी को जियुत के विवाहित होने से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। ‘रोशनी उसे पकड़ती थी मगर बांधती नहीं थी’। लेकिन बाद में ‘वह अपने किसी मजबूत हक़ के फिराक में थी’। रोशनी अब जिस ‘पाने’ (या ‘अधिकार’) की सोच से जुड़ गई है, वह उसके प्रेम के स्वरूप में अंतर्द्वंद्व को लक्षित करता है। पहले वह जियुत के साथ प्रेम में स्वाभाविक ‘उन्मुक्तता’ के साथ थी लेकिन सामाजिक नियमों की छाया में उसकी उन्मुक्तता परिवर्तित होकर ‘अधिकार’ की मांग में बदल जाती है। लेखिका ने जिस ढ़ंग से प्रेम में स्वाभाविक उन्मुक्तता और उसके विलोमीय परिवर्तन को रेखांकित किया है, वह बेहद विचारणीय है। अब प्रश्न यह उठता है कि रोशनी के अंदर का यह परिवर्तन क्या स्वाभाविक परिवर्तन है या उसके पीछे की कोई सामाजिक-संरचनात्मक व्यवस्था है? दिक्कत यह है कि जब हम यह कह रहे होते हैं कि यह सारी समस्या पितृसत्तात्मक सामाजिक ‘कंडीशनिंग’ की देन है, तब हम यह भूल जाते हैं कि कंडीशनिंग का स्वरूप इतना मजबूत होता है कि यह कहते हुए हम स्वयं एक दूसरे किस्म की कंडीशनिंग के शिकार हो चुके होते हैं। यह दूसरे किस्म की ‘कंडीशनिंग’ बनाम (वर्सेज़) की स्थिति को जन्म देती है। जहां समस्याओं की पहचान और उसके समाधान का प्रश्न गौण हो जाता है और पक्ष-विपक्ष का बचकाना विवाद शुरू हो जाता है।

जियुत का भाई कीरत जब उससे पूछता है कि – ‘भाभी (रूपा) की क्या गलती है भाई”? तब वह कहता है कि –‘मैंने कब कहा कि रूपा की कोई गलती है…दुनियाँ में लोगों की कमी है क्या… अरे यार मैं क्या कोई खूँटा हूँ? यह प्रसंग बेहद विचारणीय है। जियुत जिस तरह के संवाद कीरत से कर रहा है क्या उससे वह ‘विलेन’ साबित होता है? या फिर कीरत के अनुसार अपनी पसंद से दूसरी शादी करना विलेन होना है? इस उपन्यास के साथ एक अद्भुत संयोग भी है कि जिस समय यह उपन्यास प्रकाशित हुआ ठीक उसी समय ‘सोशल मीडिया’ पर एक घटना विमर्शवादियों के बीच छिड़ी हुई थी। ‘एक स्त्री का यह निर्णय कि वह विवाहित पुरुष से शादी करे’ विषय पर बहस के शुरुआती हिस्से में ही विमर्शकार दो पक्षों में बंटे थे। यह पक्ष और विपक्ष था पहली स्त्री बनाम दूसरी स्त्री। इस पक्ष-विपक्ष का परिणाम सिर्फ बनाम (वर्सेज़) तक सीमित रह गया और सामाजिक मान-मर्यादा और मूल्यों के आलोचनात्मक विवेक के इर्द-गिर्द भी नहीं पहुँच सका। लेकिन इस उपन्यास में लेखिका ने जिस जिस दृष्टि का उपयोग किया है, उससे ‘बनाम’ की जगह ‘विचार’ और ‘चिंतन’ की स्थिति पैदा होती है। ऐसा इसलिए भी संभव हो सका क्योंकि लेखिका ‘निर्णयात्मक (जजमेंटल)’ होते हुए सृजन नहीं कर रही है। इसलिए जटिल परिस्थितियों के सरल चित्रण में पाठक शामिल हो जाता है और उन प्रश्नों की राह का सफर शुरू हो जाता है जहां से स्त्री या पुरुष के सम्बन्धों के बीच ‘खूँटे’ की निर्मिति होती है। विमर्श और सृजन (साहित्य) में यह खास अंतर है। विमर्श में जहां दोषी महत्वपूर्ण है, वहीं साहित्य में दोष महत्वपूर्ण है। विमर्श जहां ‘बनाम’ है, साहित्य वहीं समग्र रूप में है और इस उपन्यास में यह समग्रता पक्षविहीनता न होकर पक्षधरता की ही बात करता है, लेकिन यह पक्षधरता एकांगी न होकर बहुवचनात्मक है। इस दृष्टि से भी इस उपन्यास का मूल्यांकन जरूरी हो जाता है। ऐसा नहीं है कि रूपा को उसके दुख से बाहर निकलने का विकल्प उसे सुझाया नहीं जाता है। रूपा की ननद तारा जो स्वयं शिक्षा ग्रहण कर रही होती है, वह रूपा को हतोत्साहित होने से बचाना चाहती है। वह रूपा को आत्मनिर्भर होने की सलाह देती है –‘अपना बूता खोजो तुम, जो करना है अब तुम्हें करना है’। यहाँ आर्थिक पक्ष जिसका एक आधार शिक्षा भी है का स्वरूप उभरकर सामने तो आता है लेकिन सामाजिक-संरचना के ताप में कैसे सारे विकल्प बह कर अलग हो जाते हैं, इसका जीवंत उदाहरण रूपा के जीवन से गुथा हुआ है। ‘शिक्षा’ और ‘कंडीशनिंग’ के बीच के द्वंद्व में ‘कंडीशनिंग’ किस कदर हावी हो जाती है या कर दी जाती है इसका जीवंत उदाहरण तो वर्तमान में भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। समाज के लोगों की ही बात की जाए तो यहाँ भी एक गहरा अंतर्द्वंद्व है। जहां एक ओर ‘बीच बाजार इज्जत’ उतर जाती है की मानसिकता है तो वहीं दूसरी ओर रूपा के कष्ट-क्षण हैं, जहां उसके जीवन में निश्चित-विरह स्थापित हो चुका है और साथ ही उसका गर्भ भी नष्ट हो गया है, इस भयावह समय में आधा गाँव जुट जाता है और उसके दुख में शामिल हो जाता है। अब सवाल यह उठता है कि जिस समाज में इज्जत का रोना है उसी समाज में मनुष्यता की उपेक्षा कहाँ है? इसे समझने के लिए ‘स्ट्रकचरल डिफ़रेंस’ और ‘स्ट्रकचरल इंटिग्रीटी’ के बीच के अंतर्द्वंद्व को बेहद गंभीरता के साथ समझना आवश्यक हो जाता है, जिसे लेखिका ने बहुत सावधानी के साथ लक्षित भी किया है।

कष्ट की एक लंबी यात्रा के बाद लौटा पति रूपा को साथ रखना चाहता है। अब उसकी दूसरी पत्नी को उससे कोई ऐतराज नहीं था। उसे रूपा से सिंपैथी थी। उम्र, अधिकार, वर्चस्व, सेक्स, प्रेम और परिस्थिति का मनोविज्ञान सामाजिक नियमों के साथ किस प्रकार से घुला हुआ होता है, इसका सटीक विश्लेषण यहाँ देखने को मिलता है। मनुष्य के जीवन की एक खास अवधि तक ये सभी तत्व किस रूप में महत्वपूर्ण होते हैं और फिर उम्र के अगले पड़ाव पर यही मान्यताएं कैसे परिवर्तित हो जाती हैं? समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से देखें तो एक आश्चर्य की बात सामने आती है। रोशनी (दूसरी पत्नी) और जियुत के लिए अब रूपा के साथ रहना न उसके अधिकार को प्रभावित करता है और न ही नैतिक मूल्यों को। उम्र की जिस अवस्था को वह प्राप्त कर चुकी है अब वहाँ यह चल सकता है, लेकिन क्या इन्हीं के लिए ठीक उसी समय उम्र के पहले पड़ाव की किसी लड़की को स्वयं जियुत या रोशनी यह अधिकार या सुविधा देने के पक्ष में होगा? मानव-समाज की इस दुर्बलता और स्वीकारोक्ति के कई स्तर हैं। लेकिन रूपा कि दुनिया और उस दुनिया से बनी हुई परिस्थिति अलग है। संबंध और संबंधों से संबंधित नैतिकताएं, स्वाभिमान का मूल्य भला रूपा को क्यों ही मुड़ कर जाने देता। उसके लिए अब दोनों दुनिया एक जैसी थीं–जियुत के साथ लौटना या किसी बेमंजिल की ओर निकल जाना। रूपा मंजिल-विहीन हो चुकी थी।

रूपा विपाशा नदी में जीवन त्यागने के भाव से डूब जाना चाहती है। लेकिन वह मुनि वशिष्ठ की भांति डूब नहीं पाती है। मुनि वशिष्ठ के शरीर पर बंधन था जिसे इस नदी ने खोल दिया था लेकिन रूपा के तो मन-मस्तिष्क पर बंधन था। शायद यही कारण है कि विपाशा नदी ने शरीर तो बचा लिया लेकिन रूपा का मन नहीं बच पाया। विपाशा नदी स्त्री-बंधन का पाश नहीं खोल पाई।

लेखिका चंद्रकला त्रिपाठी ने इस उपन्यास को दो हिस्से में प्रस्तुत किया है, जिसका दूसरा हिस्सा है – उत्तर कथा।

नदी के उस पार हरिश्चंद्र घाट पर जहां लोगों को अंतिम विदाई दी जाती है, वहीं से रूपा का दूसरा जीवन शुरू होता है। इसी दूसरे जीवन में रूपा को एक सीमा तक विचार करने का मौका मिलता है। रूपा के जीवन का यह दूसरा हिस्सा (उत्तर-कथा) पाठकों की बहुत सारी उलझनों को दूर करता है। ‘पहला’ और ‘दूसरा’ जीवन महत्वपूर्ण और गहरे अर्थों में निहित है। पिछले जीवन की धुंध दूसरे जीवन में भले न हटे लेकिन धुंध का कारण अवश्य लक्षित होने लग जाता है। मूर्छित रूपा को जिस परिवार में शरण मिलती है, उस परिवार की संरचना में बदलाव है। काम-काज, भाषा-व्यवहार सभी का रूप अलग है लेकिन समस्याओं का चरित्र वहाँ भी बदले रूप में ही सही लेकिन एक ही सिरे से जुड़ा हुआ है। रूपा पुतुल के साथ जिस घर में रहती है, उस घर में कई ऐसे परिवार हैं, जिनकी अपनी दुखदाई समस्याएँ रही हैं। पुतुल मालकिन कम और अभिभावक की भूमिका का निर्वहन अधिक कर रही होती है। पुतुल का अपना अतीत भी किसी से कम भयावह नहीं था, जिसकी ताप उसके वर्तमान पर भी चिह्नित थी। उसके त्रास्द-अतीत का जिम्मेदार कौन था? उसकी माँ चैताली? जिसने उसके कलाकार पति मृण्मय के शिष्य नदीम के साथ अपनी बेटी पुतुल का विवाह स्वीकार नहीं किया। पुतुल के नदीम से अगाध-प्रेम और उसके गर्भवती होने के बावजूद उसकी माँ ने उसकी शादी जबरन निरंजन से करवाई। लेकिन अंजाम क्या निकला? नदीम का जीवन समाप्त हो जाता है, मृण्मय भी इन घटनाओं में घुलते-घुलते खत्म हो जाते हैं, पुतुल इतनी विक्षिप्त अवस्था को प्राप्त कर चुकी थी कि अपने बच्चे तापस को बचपन में ही झपट कर गंगा में फेंक देना चाहती थी और पुतुल की माँ इतने विखंडन के बाद अब सब कुछ संभाल लेना चाहती थी। लेकिन अब उससे कुछ भी भला कैसे संभल पाता? तापस को संभालते-संभालते वह भी ज़िंदगी की डोर छोड़ देती है। और तापस? माँ द्वारा हत्या से आशंकित पुत्र तापस की व्यथा को लेखिका ने जिस स्तर से बाल-मन को साधते हुए अंकित किया है वह चकित भी करता है और मन को करुणा से भर भी देता है। बावजूद इसके प्रश्न वहीं खड़ा रह जाता है कि क्या इस वीभत्स त्रासदी की ज़िम्मेदार चैताली ही है या कोई अन्य व्यवस्था जो सामाजिक मूल्यों को नियंत्रित करते हुए हमारी कंडीशनिंग को तय कर देता है।

जब चैताली पुतुल का गर्भ नष्ट करवाना चाहती थी तब अवनीन्द्र ने कहा था –‘जीवन का एक ही धर्म है माँ, और वह है जीना’। यह वाक्य इस मार्मिक उपन्यास का ऐसा केंद्रीय बिन्दु है जिसे समझे बगैर न तो इसका पाठ संभव है और न ही इसका मूल्यांकन। इस आधार पर कहें तो यह वाक्य इस उपन्यास का मूल्यांकन-प्रवेश मार्ग भी है।

उत्तर-कथा में ‘संघर्ष’ का स्वरूप भी गाहे-बगाहे लक्षित होता है। पुतुल रूपा से कहती है कि – ‘ठीक से पढ़ी-लिखी भी तो नहीं हो, तब आखिर मर जाने के अलावा तुम्हें भला क्या सूझता’। यहाँ ‘निर्भरता’ को ‘संघर्ष’ का आधार माना गया है, जिसके कई सिरों में एक सिरा शिक्षा भी है। संघर्ष का अस्तित्व आत्म-हत्या के मार्ग को बाधित कर देता है। यही कारण है कि पुतुल के मकान में रह रहे परिवारों की समस्याएँ जटिल तो दिखती हैं लेकिन वहाँ आत्म-हत्या के ख्याल से अधिक ‘जीवन’ का स्वरूप गाहे-बगाहे विकसित होता दिखता है। लेकिन मानसिकता और मान्यताएं उस संघर्ष की परिधि को भी कहाँ छोड़ती हैं? स्कूल में पढ़ने वाली किशोर अवस्था की जया जो एक बेहतरीन खिलाड़ी भी है, उसकी मांग से सिंदूर धुल जाने पर उसकी माई कहती है – ‘अभी साल नहीं बीता और यह रंडी अपना कुआरियों का भेष बनाकर जग लूट रही है’। जया के साथ उसके परिवार द्वारा किया गया व्यवहार उसे शून्य में पहुंचा देता है, जहां से शिक्षा और नेशनल लेवल तक के खेल में उसकी कुशलता और प्रसिद्धि जैसे उसके मन-मस्तिष्क से खुरच-खुरच कर अलग कर दिया जाता है। कॉलेज छोड़ चुकी जया को पुतुल समझाती है कि बाऊ चाहते हैं कि जया पढ़े और सब चीज में हिस्सा ले। जया जवाब में कहती है – “ अम्मा भी चाहती है, लल्लू भी चाहता है, ससुर और पति भी चाहते हैं,…. मगर इन सबके चाहने से ही तो मेरा चाहना बनता है न। ये चाहें, उस दिन उसी क्षण जया सब कुछ ठप्प कर दे …है न! एक मशीन की तरह, जिसका स्टार्ट और स्टॉप इन लोगों के पास है।” जया की यह प्रतिक्रिया मार्मिक और विचारणीय होते हुए कई प्रश्न खड़े करती है। जया को आखिर कौन मशीन बनाना चाहता है? वे लोग जिनका जया जिक्र कर रही है या वे सिर्फ माध्यम हैं? रूपा जो अब विचलन को प्राप्त हो चुकी है, उसके डिप्रेशन का कारण कौन है? जो ‘डिप्रेशन’ उसके नए जीवन के प्रति एक मजबूत निश्चय के बावजूद उसे इतना खाली कर देता है कि जीवन की ओर उसकी निगाह कभी उठ ही नहीं पाती। लेखिका द्वारा यह चित्रण सामान्य चित्रण नहीं है। जिस दृष्टि से वह सामाजिक समस्याओं और उन समस्याओं के गर्त में फंसे समाज, परिवार और व्यक्ति को देख रही है, वह दृष्टि किसी भी प्रसंग में एकांगी नहीं हो पाई है।

यह उपन्यास विचारधाराओं के लिए भी चुनौती पेश कर देता है। इन्हीं प्रसंगों पर यदि सावधानी से विचार नहीं किया जाता तो अतिवादी पुरुष-मानसिकता से संबंधित लोगों के लिए चैताली, रोशनी, माई और पुतुल जैसे पात्र को दोषी करार देने से अधिक दूर तक की विचार-यात्रा संभव नहीं हो पाती। ठीक उसी तरह अतिवादी स्त्री-मानसिकता से विचार किया जाता तब ऐसी स्थिति में दारोगा, जियुत, नदीम, शंभू आदि दोषी साबित होकर अन्य सभी चिंतन-प्रक्रिया का अंत हो जाता। लेकिन लेखिका ने इस तरह के सरलीकरण से संबंधित मूल्यांकन के लिए उपन्यास में किसी तरह का ‘स्पेस’ ही नहीं छोड़ा है।

यहाँ प्रश्न यह उठता है कि लेखिका ने जिस सामाजिक ‘सत्य’ को रेखांकित किया है उस ‘सत्य’ के साथ ‘असत्य’ की संरचना के पक्षधर क्या उसी ‘ग्राफ’ पर जाकर मूल्यांकन करेंगे जहां से यह सृजन संभव हो पाया है। इस तरह के उपन्यास पर व्याख्याकारों द्वारा की गयी व्याख्या का मूल्यांकन भी जरूरी हो जाता है। यहाँ पर मौखिक-व्याख्या के उदाहरण से इस प्रसंग को ठीक से समझा जा सकता है। मौखिक व्याख्या (जिसका संबंध संगोष्ठियों से अधिक है) के संदर्भ में सबसे आश्चर्य करने वाली घटना होती है कि जिन रचनाओं पर बात होनी है उसे पूर्ण रूप में पढ़ना आवश्यक नहीं है और इस घोषणा के बावजूद संगोष्ठियों में ऐसे व्याख्याकारों को श्रोताओं द्वारा गंभीरता पूर्वक सुनना उससे भी बड़े आश्चर्य की घटना को दर्शाता है। यह ‘कहने’ के अधिकार का दुर्भाग्यपूर्ण उपयोग है, जिसकी परंपरा संगोष्ठी के क्षेत्र में लगभग स्वीकारोक्ति की सीमा तक पहुँच चुकी है। इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए प्रो. नवीन ने इस उपन्यास पर कुछ प्रश्न उठाए। अधिकांश प्रश्न उपन्यास के उस भाग से थे जिसे उन्होंने पढ़ना आवश्यक नहीं समझा, इसलिए उन प्रश्नों पर विचार करना लगभग अर्थहीन होगा। लेकिन जिन प्रसंगों को उन्होंने पढ़ने का कष्ट किया उनसे उन्होंने दो प्रश्न खड़े किए हैं। पहला भाषा को लेकर और दूसरा उपन्यास में वर्णित जीवन के यथार्थ को लेकर। पहले भाषा पर संक्षेप में विचार कर लेते हैं। भाषा को क्षेत्रीयता के आधार पर जिस तरह से उन्होंने देखने की कोशिश की है, वह तर्कसंगत नहीं है। घटनाओं और पात्रों का संबंध जिस परिवेश से होगा वहाँ भाषा का स्वरूप उससे अलग होना लेखन में अस्वाभाविक होना है। बहुत अधिक विस्तार में न भी जाया जाए तो ‘हिन्दी भाषा, साहित्य और संस्कृति’ के संदर्भ में हिन्दी के सबसे अधिक महत्वपूर्ण विद्वान और आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा और प्रख्यात कवि बाबा नागार्जुन के बीच भाषा को लेकर किए गए संवाद से ही सब कुछ स्पष्ट हो जाता है। यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि भाषा पर विचार करते हुए की गयी हल्की-सी भी असावधानी कब आपको भाषाई -सांप्रदायिकता का शिकार बना देती है, आपको पता भी नहीं चल पाता है। बाबा नागार्जुन ने इस पर विस्तार से लिखा है लेकिन समस्या फिर वहीं खड़ी हो जाती है – अपठनीयता की, जिसका अंततः कोई विकल्प नहीं है। ‘चन्ना तुम उगिहो’ की भाषा का स्वरूप कई स्तर पर पाठक को प्रभावित करता है। ग्रामीण-जीवन के अनगिनत रंग और बेरंग दृश्यों से जुड़े संदर्भों में जो विविधता है, वही विविधता इस उपन्यास की भाषा में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। इस उपन्यास की भाषा जीवन की भाषा है, जिसे संवेदना के साथ ही समझा जा सकता है। जिस भाषा में सिर्फ विचारों का समुच्चय होता है, उसे बगैर भावना के भी समझा जा सकता है, लेकिन जो भाषा जीवन के साथ गुथकर प्रस्तुत होती है उसे समझने के लिए संवेदना के उसी स्तर पर पहुँचना होता है, जिस स्तर पर वह भाषा सृजित होती है – ‘यह रोने में गाना और गाने में रोना मिलाकर गाने वाली स्त्रियों का कलेजा था’, ‘गाँव की स्त्रियाँ बचपन से सीधे बुढ़ापे में जाकर ढहती हैं’, ‘पत्थर क करेजवा तुहू कइला हे पूता’, तोर दुलहा त करेजे में घुस गइल रे’, हरे सुखिया एक ठे अपने जोड़ के भी छांट लीहे रे, मांग लीहे समधी से’, तोहरे खातिर पुरानो-धुरान ठीके है’, ‘यहाँ के सारे सुख में उसके मन की यह अकेली रिक्तता थी’, ‘स्वाधीनता की लहक’, मुंह दबाकर सहेगी अपना समूचा जल जाना, उसके पैरों के नीचे यह कई रास्तों के फूटने की जगह है’, ‘बंग्ला के शीरे में पकी हिंदी का जलवा था यह’…. जैसी भाषा को पढ़कर और महसूस कर यह स्पष्ट हो जाता है कि लेखिका का संबंध काव्य-सृजन से किस प्रकार से जुड़ा हुआ है। गद्य में संवाद का काव्यात्मक हो जाना लेखन की श्रेष्ठता को भी दर्शाता है। अच्छी रचना के संदर्भ में यह भी कहा गया है कि उसमें कितने नए शब्दों को जोड़ा गया है। वर्तमान परिस्थिति में यदि इसे ठीक से समझा जाए तो यहाँ यह भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि नगरीय बोध के तहत जिन ‘देसी’ शब्दों की उपेक्षा हो रही होती है, उन शब्दों को साहित्य कैसे जीवन-प्राण देता है और फिर से वह कैसे जाग उठता है। इसका बहुत बड़ा प्रमाण इस उपन्यास में देखा जा सकता है। इस आधार पर कुछ शब्दों को उदाहरण रूप में देखें तो – उसीज (ना), तन्नी सा, उचारा, लेसना, देखहरुआ…..जैसे अनगिनत शब्द हैं, जिन्हें पढ़कर लगता है जैसे साहित्य के किसी बड़े मंदिर में सुदूर के गाँव की मिट्टी से बनी शब्दों की मूरत की प्राण-प्रतिष्ठा हो रही हो। भाषा और संस्कृति के बीच के संबंध को आत्मसात किए बगैर इस उपन्यास की भाषा तक पहुँचना बेहद मुश्किल है।

लेखन के संदर्भ में एक और मसला यहाँ संक्षेप में समझना जरूरी है। लेखिका ने कथा के साथ-साथ प्रकृति और रीति अनुसार गीतों का अद्भुत समन्वय किया है। मानव-जीवन विविध प्रसंगों के बिना नहीं चलता है। वहाँ सुख-दुख के गीत भी होते हैं और मौसमों की संगत भी – ‘कातिक की बोआई’, ‘अगहन की सिंचाई’, ‘एकादशी के चाँद की रूपहली रोशनी’, ‘पुरवइया जो हर दुखती नस को टपका जाए’…। लेखिका ने जैसे जीवन के संपूर्ण अनुभवों को लेखन में पिरोकर इस उपन्यास को सृजित किया है। चंद्रकला त्रिपाठी जी की भाषा पर विस्तार से विचार करने के क्रम में स्वाभाविक रूप से विद्यापति की वह पंक्तियाँ स्मरण हो जाती हैं जिसका उपयोग इन्हीं संदर्भों में बाबा नागार्जुन ने किया था –“बालचन्द बिज्जावई भासा, दुहु नइ लग्गई दुज्जण हासा। ओ परमेसर हर-सिर सोहई। ई निश्चय नागर मन मोहई।” अर्थात बालचन्द और विद्यापति दोनों को दुर्जनों की हंसी प्रभावित नहीं करती……।

दूसरा प्रश्न उन्होंने उठाया है – उपन्यास में निहित कथा के ‘सत्य’ (यथार्थ) को लेकर। इस उपन्यास के सत्य पर ऊपर विस्तार से बात की जा चुकी है फिर भी यहाँ संक्षेप में कुछ तथ्यों पर बात की जा सकती है। प्रेमचंद ने जिक्र किया था कि – ‘इतिहास में सब कुछ यथार्थ होते हुए भी वह असत्य है और कथा साहित्य में सब-कुछ काल्पनिक होते हुए भी वह सत्य है’। साहित्य के सत्य को समझने का यह एक प्रसंग है, लेकिन यहाँ इस उपन्यास के संदर्भ में इन बिन्दुओं के विकसित रूप पर भी ध्यान देने की जरूरत है। ‘सृजन प्रक्रिया में कल्पना’, ‘कल्पना आधारित सृजन’ और ‘यथार्थ आधारित सृजन में कल्पना’ के बीच कई तत्वों में समानता होने के बावजूद इनमें काफी अंतर भी होता है, जिसे समझे बिना हम रचना के वास्तविक मूल्य अथवा सत्य को नहीं पहचान पाते हैं। इस उपन्यास का मूल्यांकन ‘यथार्थ आधारित सृजन में कल्पना’ के आधार पर ही किया जा सकता है। समस्या यह है कि ‘सत्य’ को पहचानने की कोशिश करना एक बात है और ‘सत्य’ को झुठलाने या उसकी उपेक्षा करना एक दूसरी तरह की मानसिकता है। यह जो दूसरी मानसिकता है दरअसल इसका सत्य के साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में कोई संबंध नहीं होता है। जबकि इसका अर्थ यह निकाला जाता है कि सत्य है ही नहीं। यहाँ सत्य को नकारना दरअसल समस्याओं को नकारना है। यहाँ यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि ऐसी स्थिति उत्पन्न करने वालों के संदर्भ में हम अक्सर समझते हैं कि सत्य से उनका परिचय नहीं है, ऐसा समझना भी नादानी है। यहाँ सत्य से परिचय के साथ उसकी उपेक्षा का भाव मुख्य है। अरुंधति रॉय ने इन्हीं संदर्भों के लिए ‘क्लास-पोर्नोग्राफी’ जैसे शब्द का उपयोग करते हुए कहा था कि – “आजकल साहित्य और सिनेमा में जो हो रहा है उसे मैं क्लास-पोर्नोग्राफी कहूँगी। जिसमें लोग गरीबी की तरफ देखते हैं और कहते हैं कि ये लोग तो ऐसे होते हैं, वैसे होते हैं, गाली देते हैं….. मतलब अपने आपको बाहर रखकर ये चीजों को ऐसे देखते हैं जैसे उनका इनसे कुछ लेना-देना नहीं हो। यह ऐसा ही है जैसे गरीबों का ‘ग्लेडिएटर’ का संघर्ष देखना और फिर यह कहना कि ये कितने हिंसक होते हैं। यह एक तरह की ‘ऐन्थ्रोपॉलौजी’ है, जहां पर आप युद्ध को बाहर से एक तमाशे की तरह देखते हैं और मजा लेते हैं। फिर एक और तरह से चीजों को ‘ट्रिवीयलाइज़’ (महत्वहीन) बनाते हैं।” कुल मिलकार देखें तो प्रो. नवीन की व्याख्या ‘ट्रूथ’ को ‘ट्रिवीयलाइज़’ करने की व्याख्या है, और इस स्थिति में वे ‘कैपटिवेटिंग लिट्रेचर’ के पक्ष में अधिक खड़े होते हैं।

इस संदर्भ पर गहराई से विचार करें तो मशहूर जर्मन लेखक ब्रेख्त लेखक के लिए पाँच मुश्किलों पर विजय पाने की सलाह देते हैं – ‘सत्य को लिखने का साहस (Courage)’, ‘सत्य को पहचानने की उत्सुकता(Keenness)’, सत्य को हथियार की तरह प्रयोग करने का कौशल (Skill)’, ‘निर्णय(judgement) करने की क्षमता कि किसके हाथ में सत्य अधिक प्रभावशाली होगा’, और ‘योग्य लोगों के बीच सत्य का प्रचार करने की चतुराई’(cunning).

ब्रेख्त की बातों को साहित्य के संदर्भ में क्रमशः समझने का प्रयास करें तो – ‘सत्य को लिखने का साहस क्या है? जहां तथाकथित सामाजिक तथा राजनैतिक शक्ति-संस्थाओं द्वारा ‘सत्य’ को रेखांकित या समस्याओं के समाधान का उपक्रम न कर ठीक इसके उलट उसे ढ़कने का प्रयास किया जा रहा हो, वहाँ उस सत्य को विषय बनाकर सृजन करने का साहस करना प्रत्यक्ष रूप में ऐसी संस्थाओं के सामने चुनौती पेश करना है तथा उससे टकराने का साहस करना भी है। यह साहस चंद्रकला त्रिपाठी मजबूत इरादों के साथ इस उपन्यास के विषय के चुनाव में करती हुई दिखती हैं।

दूसरा है ‘सत्य को पहचानने की उत्सुकता’ – यह उत्सुकता साहित्य में सहजता और स्वाभाविकता के माध्यम से प्राप्त होता है जहां लेखक की उत्सुकता सकारात्मक रूप में परिवर्तित होते हुए लेखन के माध्यम से पाठक तक पहुंचता है और पाठक द्वारा फिर उस सृजन के सत्य तक।

तीसरा है – ‘सत्य को हथियार की तरह प्रयोग करने का कौशल’ – यह हथियार आलोचना और विमर्श में जहां रेडिकल रूप धारण करता है, वहीं साहित्य में संवेदना के स्तर पर लोगों को संवेदित करता है। अब अगर ‘सामूहिकता’ का संदर्भ इससे जोड़ दिया जाए तब यह संवेदना सामूहिक रूप में संवेदित करती है, जिससे सभी समूह के लोग उस ‘सत्य’ के प्रति संवेदित होकर उसके पक्ष में खड़े होते हैं। इस विशाल जन-समूहिक पक्षधरता को रचना के ‘सत्य’ के प्रति खड़ा करना ही साहित्य का हथियार कहलाता है। इस उपन्यास में यह पक्षधरता स्पष्ट रूप में देखी जा सकती है।

चौथा है – ‘निर्णय करने की क्षमता कि किसके हाथ में सत्य अधिक प्रभावशाली होगा’ – इस संदर्भ का संबंध जितना रचनात्मकता से जुड़ा हुआ है उतना ही रचनाकार से भी जुड़ा हुआ है। रचनाकार की पृष्ठभूमि, उसका जीवन स्वरूप (सामाजिक संदर्भों में) तथा उसके साहित्यिक-सामाजिक योगदान का प्रक्रियात्मक स्वरूप किस रूप में है? यह जानना-समझना भी आवश्यक हो जाता है। यहाँ निजी जीवन से संबंधित संदर्भों के सरलीकरण से बचने की भी जरूरत है। लेकिन यदि निजी जीवन का जिया हुआ यथार्थ अथवा विचार रचना में अनुगामी अथवा प्रतिगामी रूप में लक्षित हो रहा है, तब उस निजी जीवन की भी जांच-पड़ताल आवश्यक हो जाती है। लेकिन यहाँ आलोचनात्मक विवेक का उपयोग सतर्कता के साथ करना जरूरी है, अन्यथा ऐसी स्थिति में व्याख्या सिर्फ प्रतिक्रियावादी स्वरूप का शिकार होकर रह जाती है। लेखक के इस योगदान के स्वरूप पर बात करें तो हम पाते हैं कि अतीत के अधिकांश रचनाकार अथवा विद्वान अपने दैनिक जीवन में ऐसे समूह को तैयार करने में अपनी भूमिका निभाते थे, जो सत्य के पक्षधर हो सकें और इस पक्षधरता की परंपरा चुनौतीपूर्ण समय के समक्ष भी सत्य-आधारित चुनौती पेश कर सके। यह परंपरा साहित्य के पूर्ववर्ती विद्वानों में स्पष्ट रूप में देखी जा सकती है। बाद इस परंपरा का अवश्य लोप हुआ है और कहीं न कहीं इसके पीछे बाजार द्वारा निर्मित अति-गतिशील बाजारू संस्कृति का मुख्य योगदान रहा है। यह अलग बात है कि बावजूद इसके अभी-भी गाहे-बगाहे इस परंपरा को निभाने में साहित्यकार अपनी भूमिका निभा रहे हैं। ब्रेख्त के अनुसार यह एक जरूरी मुद्दा है। लेकिन यहाँ इस उपन्यास पर बात करते हुए इस संदर्भ में सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि इस आधार पर भी स्वतंत्र रूप से रचनाकारों के सामाजिक योगदान पर विचार किया जाना चाहिए कि क्या रचनाकार ने सत्य के पक्ष में किसी परंपरा को विकसित करने में अपना योगदान दिया है या नहीं? भविष्य में जब रचनात्मक चुनौतियाँ और अधिक जटिल होती जाएंगी तब निश्चित ही यह बिन्दु सार्थक आलोचना के लिए महत्वपूर्ण तत्व के रूप में प्रमाणित माना जाएगा।

पाँचवाँ और अंतिम बिंदु है – ‘योग्य लोगों के बीच सत्य का प्रचार करने की चतुराई’(cunning)। यहाँ सबसे पहले इस संदर्भ पर विचार करना आवश्यक हो जाता है कि आखिर साहित्य का ‘सत्य’ से क्या संबंध है? प्रसिद्ध आलोचक डॉ. अजय तिवारी प्लेटो का संदर्भ उद्धृत करते हुए कहते हैं कि –“प्लेटो चिंतित होते थे कि कवि या त्रासदीकार शिल्पी नहीं है, फिर भी शिल्प पर बोलता है, दार्शनिक या इतिहासकार न होकर भी उस पर बोलता है, राजनैतिक न होकर भी शासन के बारे में राय देता है… दार्शनिक को सत्य का ज्ञान है, जबकि कविता (साहित्य) सत्य से दुगुनी दूरी पर है। फिर भी वह मनुष्य पर कैसे सत्य के दावेदार माध्यमों से अधिक प्रभाव डालती है और फिर क्या कारण है कि प्लेटो कवि को गणराज्य में नहीं रहने देने की पैरवी करते हैं। आखिर आदर्श राज्य के स्वपनदर्शी प्लेटो को साहित्य से इतनी शिकायत क्यों थी?” (साहित्य का देश और काल, डॉ. अजय तिवारी) यही साहित्य का सत्य है, जिसकी चर्चा अजय तिवारी करते हैं, जो यथावत न होकर भी अधिक प्रभावशाली होता है। साहित्य का सत्य स्पष्ट होने के पश्चात जब हम ब्रेख्त के आखिरी बिंदु पर विचार करें जिसमें वे ‘योग्य लोगों के बीच सत्य का प्रचार करने की चतुराई की बात करते हैं, तो वर्तमान परिस्थितियों को समझा जा सकता है। यहाँ ज़िम्मेदारी का संदर्भ जुड़ता है जिसका पहला संबंध लेखक से जुड़ता है और दूसरा संबंध पहले के माध्यम से पाठक के साथ जुड़ता है। इसे साधारण शब्दों में समझा जाए तो एक बात स्पष्ट हो जाती है वो यह कि लेखक-लेखिकाओं को अपनी रचनाओं के प्रचार-प्रसार के लिए जागरूक रहने की भी आवश्यकता है। यहाँ कई विद्वान-आलोचक इस बात से असहमत होते हैं कि लेखकों को इस तरह अपनी रचनाओं के प्रचार-प्रसार से बचने की जरूरत होनी चाहिए। यहाँ प्रचार-प्रसार के भी दो रूप हैं। एक तरफ प्रचार का संबंध सिर्फ तात्कालिक प्रसिद्धि के लिए है तो दूसरी ओर प्रचार का संबंध संवेदनात्मक परिस्थितियों के प्रसार से संबंधित है। एक में ‘सेल्फ’ मुख्य है तो दूसरे में ‘सोशल’ की प्रधानता है। इस आधार पर भी प्रचार करने वाले लेखक-लेखिकाओं के मनसूबे को आसानी से समझा जा सकता है। यहाँ एक और बात ध्यान रखने की आवश्यकता है, जहां रचना में ‘सोशल’ मुख्य है वहाँ निश्चित रूप से उस रचना को दबाने का प्रयास किया जाएगा। इसका सबसे बड़ा उदाहरण ‘फ़िरोजी आंधियां’ (हुस्न तबस्सुम ‘निहाँ’) जैसा क्रांतिकारी और वैचारिक उपन्यास प्रमाण हैं। यहीं पर लेखक-लेखिका की ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह अपनी उन रचनाओं को पाठक वर्ग तक लेकर पहुंचे जिन रचनाओं में ‘सामूहिकता’ का लक्ष्य मुख्य है। बदलते समय में यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि आज के दौर में लेखकों का दायित्व ‘सत्य’ लिखना और उस लिखे को पाठकों तक पहुंचाना भी है। झूठे प्रचार तंत्र के दौर में यह एक जरूरी प्रक्रिया भी है। ब्रेख्त इसी संदर्भ को प्रमाणित करते हैं, जिस पर गहराई से साहित्य के क्षेत्र में भी विचार करने की आवश्यकता है।

निष्कर्ष रूप में देखा जाए तो ‘चन्ना तुम उगिहो’ मानव-जीवन द्वारा मृत्यु-मार्ग तक जीवन को तलाशने की ऐसी संघर्ष-गाथा है, जो सामाजिक विविधताओं के बीच बनाई गई सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए ‘सामूहिकता’ को प्राप्त होती है। ‘सामूहिकता’ को प्राप्त होने की अवस्था के कारण ही यह जरूरी हो जाता है कि इस पर गंभीरता के साथ विचार किया जाए ताकि इसमें वर्णित समस्याओं का समाधान भी ‘सामूहिक’ प्रक्रिया के माध्यम से सम्पन्न हो सके

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संजीव कुमार

लेखक जेएनयू में पोस्ट डॉक्टरल फेलो हैं तथा 'फिर एक दुर्योधन ऐंठा है' नाम से उनकी एक काव्य-संग्रह प्रकाशित है। संपर्क +91 9834105324, majdoorjha@gmail.com
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विकास
विकास
8 months ago

बहुत सुन्दर

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