उपन्याससमीक्षा

बैल की आंख

 

चर्चित कथाकार संतोष दीक्षित का चौथा उपन्यास है ‘बैल की आंख’। इसमें एक पशु चिकित्सक की आंखों से देखी गई दुनिया है जिसमें बीमार पशु तो हैं ही, रुग्ण समाज भी है – जाति-धर्म के बंधनों में जकड़ा, रूढ़ियों में पिसता। यह उपन्यास पशु चिकित्सा से शुरू होकर समाज, राजनीति आज जिसकी चालक शक्ति है, की रुग्णता की जांच-परख, उसके उपचार तथा उसके मंगल की वास्तविक अभिलाषा की ओर प्रवृत्त होता है।

उपन्यास के मुख्य पात्र डॉक्टर मोहम्मद शमीम है जो एक पशु चिकित्सक हैं। उनके छोटे-से परिवार में उनके शायर पिता हैं, बेगम शाइस्ता हैं और बेटी जेबा है। डॉ शमीम आधुनिक भाव-बोध के सुरुचि-संपन्न सुदर्शन व्यक्ति हैं जिनके व्यक्तित्व से अभिजात्य झलकता है। इसीलिए पशुपालन विभाग के लिए वह ‘मिसफिट’ समझ जाते हैं। ऐसे व्यक्ति के लिए बलवंतपुर में तबादला किसी सदमे से कम नहीं। अपने पूर्ववर्ती अधिकारी से इस इलाके के बारे में जो जानकारियां मिलती हैं, उसके चलते वे आशंकाओं से घिर जाते हैं। वास्तव में बलवंतपुर पटना जिले का एक कस्बा है जहां एक दबंग जाति की तूती बोलती है और जैसा कि डॉक्टर शमीम का पूर्ववर्ती अधिकारी उन्हें बताता है, सरकारी कर्मचारियों को भी डराने-धमकाने और प्रभावित करने की कोशिश होती रहती है। स्थिति ऐसी है कि डॉक्टर शमीम बिना अपने तैनाती स्थान गए पदभार ग्रहण करते हैं। अपने शायर पिता के संपर्कों के माध्यम से उन्हें बलवंतपुर के एक स्थानीय पत्रकार ज्योतिर्मय कुंवर का पता मिलता है। कुंवर से उनके दोस्ती हो जाती है उसी के मार्फत वे इलाके को देखने-समझने का प्रयास करते हैं।  उन्हें कुछ खास दिक्कत नहीं होती है।  ‘माय'(मुस्लिम-यादव) सरकार में उन्हें मुस्लिम होने का फायदा तो मिलता ही है, वह अपने डॉक्टरी ज्ञान और भलमनसहत से भी लोगों को प्रभावित करते हैं। स्थानीय प्रशासनिक अधिकारियों से भी वे तालमेल बैठाने में सफल रहते हैं जिसका ग्रामीणों पर उनका अलग से एक प्रभाव बनता है। तो पूरे पांच वर्षों की तैनाती के दौरान पशु चिकित्सक जो कुछ देखते-सुनते, सोचते-विचारते और भोगते हैं वही इस उपन्यास का कथानक है।

उपन्यास मूलतः पशुधन और पशुओं के इलाज और उससे संबंधित व्यवस्था पर केंद्रित है। इसमें इस क्षेत्र का प्रत्यक्ष व प्रमाणिक अनुभव प्रस्तुत किया गया है। कई तकनीकी विवरण बड़े काम के हैं और पाठक को पशु, खासकर दुधारू पशुओं के रोगों-कष्टों के प्रति संवेदित करते हैं। कई प्रसंग ऐसे हैं जिसमें पशु मर्मांतक  पीड़ा से छटपटा रहा है और डॉक्टर शमीम अपनी सारी विद्या और अनुभव का उपयोग कर उसका कष्ट दूर करते हैं। यह भी होता है कि कभी-कभी सफलता नहीं मिलती और पशु की जान चली जाती है। डॉक्टर शमीम संवेदनशील और परदु:खकातर व्यक्ति हैं, पशुओं के प्रति भी। वे जब भी खाली होते हैं, आत्म-निरीक्षण करते हैं कि आखिर पशु के प्राण क्यों नहीं बचाए जा सके। ऐसे ही एक मामले में उन्हें डेक्सोना जैसी साधारण, लेकिन जीवन-रक्षक दवा का उपयोग नहीं करने पर ग्लानि और पछतावा होता है, और तब वे हर विजिट में यह दवा अपने साथ रखना कभी नहीं भूलते।

ग्रामीण जीवन में (इसे विस्तारित करके देखें तो नागर जीवन में भी) पशुधन का क्या महत्व है, इस उपन्यास को पढ़कर इसका अनुमान लगाया जा सकता है। एक पशुपालक के लिए एक दुधारू पशु को खो देना सीधे उसके लिए आजीविका का संकट खड़ा कर देता है। ऐसे में जिस व्यक्ति को उपेक्षा से या हंसी मजाक में ‘घोड़ा डॉक्टर’ कहा जाता है, उस पशु चिकित्सक की उपस्थिति और उपलब्धता ग्रामीण क्षेत्रों में कितनी जरूरी है, इसका प्रमाण उपन्यास में मिलता है। उपन्यास में पशुधन और पशु-चिकित्सा को लेकर कई जरूरी विवरण दर्ज हैं जो पाठक को विस्मित कर सकते हैं, उसकी जानकारी का दायरा तो बढ़ाते ही हैं। डॉक्टर शमीम क्षेत्र के एसडीओ से अनेक विषयों पर चर्चा करते रहते हैं। दोनों की रुचियां कई मामलों में समान हैं। ऐसी ही एक चर्चा में यह बात निकाल कर आती है कि ‘ग्रामीण अर्थव्यवस्था में पशुपालन की भागीदारी जितनी बढ़ेगी लोग उतने ही आत्मनिर्भर बन सकेंगे।’ डॉक्टर कहते हैं कि “एक पशु-चिकित्सक एक चिकित्सक के मुकाबले कहीं अधिक ‘मैन ऑफ प्रोडक्शन’ है।” पशु चिकित्सा का एक सामान्य नियम भी खासा दिलचस्प है – ‘चिकित्सा का खर्च कभी भी जानवर के मूल्य से अधिक नहीं होना चाहिए’। उपन्यासकार संतोष दीक्षित वास्तव में डॉक्टर संतोष दीक्षित हैं। वे स्वयं पशु-चिकित्सक हैं और कुछ ही वर्ष पहले सेवानिवृत्त हुए हैं। उन्होंने पशुपालन क्षेत्र को बहुत निकट से देखा-भोगा है, और अपने अनुभवों का, अन्वीक्षण का पूरा इस्तेमाल उपन्यास में किया है। इसलिए उपन्यास कथ्य की दृष्टि से नया और विशिष्ट है। इस क्षेत्र में जीवन खपा देने वाला व्यक्ति ही इतना बारीक और विश्वसनीय विवरण दे सकता है।

उपन्यास का लोकेल, उसकी अवस्थिति बिहार की राजधानी से सटा एक ग्रामीण क्षेत्र है, और  समय है पिछली सदी का अंतिम दशक। यहां सामाजिक न्याय की सरकार है जो ‘माय'(मुस्लिम-यादव) समीकरण पर मोटे तौर पर टिकी है। बलवंतपुर में एक दबंग जाति का, संख्या बल और संसाधन-बल के कारण, वर्चस्व है, जिसको इस राज्य में चुनौती भी मिल रही है। यह चुनौती सशक्त हो रही पिछड़ी और दलित जातियों के साथ ही सरकार में भागीदार अल्पसंख्यक मुसलमान ही नहीं प्रस्तुत कर रहे, बल्कि युवा महिलाएं भी अपनी जाति के अंदर पुरुष वर्चस्व के खिलाफ खड़ी हो रही हैं । डॉक्टर शमीम यहां पांच साल तक तैनात रहने के बाद  विदा होते-होते निरूपा को एक नौकरीशुदा दलित युवक से विवाह करते और उसके परिवार को भी इसे स्वीकार करते देखते हैं। पारिवारिक-सामाजिक बंधनों के खिलाफ अंदर ही अंदर उबलती चंद्रप्रभा डॉक्टर शमीम के प्रति आसक्त होती है और उनपर दूसरा विवाह करने का दबाव डालती है। उसकी यह कोशिश भी वास्तव में अपने लिए मुक्ति का मार्ग तलाशने का ही उपक्रम होता है। आखिर उसे कोई रोक नहीं पाता, वह सत्ताधारी दल में शामिल हो जाती है और राजनीति में किसी भी कीमत पर अपना भविष्य बनाने को तैयार हो जाती है। अंत में डॉक्टर शमीम की पोस्टिंग में अपनी भोग्या भूमिका में ही वह उनकी मदद कर पाती है – मंत्री को अपने को सौंप कर। लेकिन इसके फौरन बाद वह अपनी इच्छा से डॉक्टर शमीम से संबंध बनाती है जिन्हें वह चाहती रही थी। अपने लिए चंद्रप्रभा को इतनी बड़ी कीमत चुकाते देख लज्जित, लेकिन उपकृत डॉक्टर शमीम उसे ना नहीं कह पाते।

    उपन्यास में पढ़ा-लिखा एक दलित पात्र है आनंद भारती, जो कोचिंग संस्थान चलता है और बैंक में अफसर की नौकरी पा जाता है। वह उच्च जाति की लड़की के प्रेम और उसके विवाह प्रस्ताव को विनम्रता से ठुकरा देता है। वह समर्थ दलितों के अपने से उच्च जातियों के साथ विवाह-संबंध के खिलाफ है क्योंकि इससे उनका वर्ग चरित्र बदल जाता है और वे अपने ही लोगों के प्रति संवेदनहीन बन जाते हैं। इसी जाति की एक किशोरी कभी सूबेदार सिंह के शोषण का शिकार बनती है और ‘गायब’ कर दी जाती है। यह निश्चल किशोरी संवेदनशील शमीम के सपनों में आती है। लेकिन कालांतर में इस घटना और ऐसी ही घटनाओं के बदले में हत्याएं होती हैं। यह प्रतिकार का एक अलग ही आयाम है और इससे अत्याचारियों में एक भय का भाव भी व्यापता है। अनेक ऐसे प्रसंग हैं जिनमें दलितों में जागरण और सशक्तीकरण की अभिव्यक्ति होती है। उनमें गांव के दमघोंटू वातावरण से बाहर निकलने की भी प्रबल इच्छा और कोशिश देखने को मिलती है। वैसे यह दौर मध्य बिहार में सिलसिलेवार अंजाम दिए जा रहे नरसंहारों का भी है जिनके चलते ग्रामीण जनजीवन में एक अलग ही स्तर का तनाव व्याप्त है। यह उपन्यास इलाके का एक सामाजिक-आर्थिक, और कुछ हद तक ऐतिहासिक सर्वेक्षण भी है जो कुछ वृद्ध पात्रों के माध्यम से संभव हो पाता है जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया था।

‘बैल की आंख’ में द्वंद्व का पक्ष प्रबल है, भले ही वह अलग से बहुत निखर कर नहीं आ सका। यह द्वंद्व सामाजिक है – समाज के अलग-अलग जाति समूहों के बीच, जिनमें स्त्री-पुरुष गैरबराबरी का द्वंद्व भी शामिल है; आर्थिक है – जिसमें अलग-अलग हित-समूह जमीन दखल और व्यापार-ठेकेदारी आदि को लेकर अंदर ही अंदर संघर्षरत हैं, और इसमें पारिवारिक लोग भी शामिल हैं जो जमीन बंटने नहीं देने के लिए अपने ही किसी भाई को अंधा तक बना सकते हैं ताकि उसका विवाह न होने पाए और आगे संतति न चले; साथ ही नौकरशाही के अंदर का द्वंद्व भी अलग से जुड़ गया है क्योंकि मुख्य पात्र एवं अनेक सहायक पात्र सरकारी कर्मचारी हैं जो शुरू से अंत तक कथा में बने रहते हैं।

स्त्रियों को लेकर असहज करने वाले अनेक प्रसंग उपन्यास में उपस्थित हैं, और पर्याप्त जगह इन्हें दी गई है। गांव को आमतौर पर स्त्रियों के लिए सुरक्षित माना जाता है लेकिन गांव तो क्या, वह तो परिवार में भी सुरक्षित नहीं हैं। स्त्रियों के प्रति भोगवादी दृष्टि सर्वव्यापी है – चाहे वह जिस भी उम्र की हों, उनके दैहिक शोषण को आतुर, हमेशा ताक में रहने वाले पुरुष हर कहीं हैं – संयुक्त परिवार और पास-पड़ोस से लेकर सरकारी महकमों और राजनीति के गलियारों तक में। स्वयं परिवार के लोग भी उनका साधन के रूप में उपयोग करते नजर आते हैं। डॉक्टर शमीम अक्सर क्षेत्रीय दौरों पर होते हैं और आए दिन उन्हें कहीं और रात बितानी पड़ती है। एक रात जब वह शराब पीकर सोए पड़े हैं, गृह स्वामी जो कि एक उपकृत हेड मास्टर है, अपनी किशोरी बच्ची को उनके पांव दबाने के लिए भेज देता है। डॉक्टर शमीम ग्लानि से भर उठते हैं, उनके लिए यह एकदम अकल्पनीय स्थिति है, उस बच्ची में उन्हें उसकी लगभग हमउम्र अपनी बेटी जेबा नजर आती है। ऐसे ही शौच के लिए जाती स्त्रियों को निहारने का दृश्य बहुत लज्जा और ग्लानि पैदा करता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि स्थान-स्थान पर स्त्रियों के साथ घृणित व्यवहार, हरकतें; उनके लिए बोले गए स्तरहीन व घटिया संवाद पाठक के मन में अरुचि ही नहीं, वितृष्णा पैदा करते हैं और इन्हें वह अतिशयोक्ति की तरह लेना चाहेगा; बल्कि इससे उपन्यास के स्तर, उसके क्लास पर भी सवाल उठ सकता है; तब भी, इससे कौन इनकार करेगा कि हमारे समाज में ऐसी स्थितियां मौजूद हैं, स्त्रियों को लेकर मानसिकता अब भी बहुत बदली नहीं है। इस स्थिति का दूसरा पक्ष यह है कि कुछ स्त्रियां सत्ता और सुविधा के लिए अपनी देह का साधन के रूप में उपयोग करने को तैयार हैं। चंद्रप्रभा, जिसमें लेखक को ‘फायर’ दिखाई देता था, एक बड़े बंगले में ऐशो-आराम के साथ रह रही है और उसमें इसके लिए कोई ग्लानि या पछतावा है, यह प्रकट नहीं होता है। भोग ही जीवन का चरम लक्ष्य है।

उपन्यास का एक महत्वपूर्ण पक्ष है बिहार में, देश भी कह सकते हैं, राजकाज यानी गवर्नेंस के तौर-तरीकों को प्रामाणिक रूप से सामने लाना। यह उपन्यास एक सरकारी व्यक्ति, एक पशु चिकित्सक की दैनंदिनी भी है। अपने विभाग के ही नहीं,अन्य विभागों के अधिकारियों-कर्मचारियों के साथ अंतःक्रिया, उठ-बैठ, अनुभवों और समस्याओं का साझा, उनके बीच आपसी प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या-द्वेष – उपन्यास में यह सब कुछ दर्ज हुआ है। हमारे यहां निचले स्तर पर, डिलीवरी पॉइंट्स पर गवर्नेंस की क्या स्थिति है, योजनाओं व कार्यक्रमों के कार्यान्वयन को लेकर सरकारी कर्मियों का दृष्टिकोण उनकी साधनहीनता और असहायता; दलाली, ठेकेदारी और घूसखोरी; पैरवी और पैसे के बल पर तबादले का धंधा.., इन सब के अलावा सरकारी विभागों में जात-पात और सत्ता पक्ष से जुड़ी प्रमुख जाति/जातियों का प्रशासनिक व्यवस्था पर दबाव – इनका स्वाभाविक चित्रण उपन्यास में हुआ है। यह सब संभव इसलिए हुआ कि उपन्यास एक सरकारी सेवक के कार्यानुभवों पर आधारित है। एक सरकारी कर्मचारी को लेखक समुदाय प्रायः उपेक्षा से देखता है, लेकिन वास्तव में उसका जमीनी अनुभव विस्तृत, व्यापक और प्रामाणिक हो सकता है, और अगर वह संवेदनशील भी हुआ तो वह अपनी एक जीवन-दृष्टि भी विकसित कर सकता है, यह उपन्यास इसकी बानगी है। इसे उपन्यासकार संतोष दीक्षित ने बैल की आंखों जैसी सुंदर आंखों वाले डॉक्टर शमीम के माध्यम से संभव बनाया है।

उपन्यास की भाषा पृष्ठभूमि एवं परिवेश के अनुरूप है। यह सामान्य ज्ञान की भाषा है जिसमें उर्दू और मगही के शब्द, क्रियापद, विशेषण, लोकोक्तियां और मुहावरे भी हैं। उपन्यास में संवादों की बहुलता है। कथन कम हैं , हैं भी तो लंबे नहीं। किसी उपन्यास में विचार-तत्व जो पात्रों अथवा कथा कहने वाले  के सोच और चिंतन में प्रायः कथनों के माध्यम से प्रकट होता है, वह भी यहां अधिकतर संवादों में ही अभिव्यक्त हुआ है। भाषा वैसे और सशक्त और प्रभावी हो सकती थी। दरअसल बहुत सारे पात्रों की उपस्थिति है उपन्यास में, और बहुत कुछ कहने और साधने की कोशिश भी है, लेकिन इस क्रम में उपन्यास का सौष्टव कहीं-कहीं बिखर-सा जाता है। हालांकि उपन्यास का अंत प्रभावी बन पड़ा है। दसवीं की परीक्षा में बेटी ने बहुत अच्छा किया है – राज्य स्तर पर उसका उसे दूसरा स्थान मिला है। बधाइयां हैं और जश्न है। जेबा का मनपसंद खाना है चिकन पुलाव(चिकन-चावल-शराब का इंतजाम पूरे उपन्यास में हर छोटी-बड़ी खुशी में होता रहता है, हर छोटे-बड़े मौके पर)। डॉक्टर शमीम बहुत खुश हैं। रात सपने में सुकमी कांड वाले सूबेदार आते हैं – एक दिव्य पुरुष की तरह, जो अपने सारे पापों से मुक्ति पा चुका हो। वे कहते हैं – ‘बलवंतपुर छूट गया न… सबका छूटेगा जैसे मेरा छूटा.. तुम्हारा छूटा.. वैसे ही सबका छूटेगा… एक-एक कर.. देख लेना, उस निर्मल सिंह को भी छोड़ना होगा जिसने तुम्हारे साथ दगा किया..।’ यह प्रतीकात्मक अंत है जिसका आशय है कि जीवन में आगे बढ़ाने के लिए ठहरे हुए पानी के ताल सरीखे बलवंतपुरा को पीछे छोड़ना ही होगा। यह एक नए युग के आह्वान की तरह है, गो कि एक सुधरे हुए खलपात्र की तरफ से। बैल की आंखों को जीवन में सुघड़ और सुंदर देखने को ही अभीप्सित होना चाहिए

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शिवदयाल

हिन्दी के समकालीन सृजनात्मक एवम् वैचारिक लेखन के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर। सम्पर्क +919835263930, sheodayallekhan@gmail.com
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