ग्रामीण राजनीतिक विसंगतियाँ और चाक
राजनीति हमारे समाज का हिस्सा है, समाज इससे कहीं भी अछूता नहीं है। सर्वहित के लिए की गई राजनीति से जनता एवं देश का विकास होता है, किन्तु जब स्वार्थहित के लिए हम राजनीति करते है तो हमारा समाज और राष्ट्र विकृत हो जाता है। राजनीति केवल शहर और पढे लिखे लोगों तक ही सिमट कर नहीं रह गई है, बल्कि इसका प्रभाव खाप पंचायत में भी देखने को मिलता है। गाँव की राजनीति शहर की राजनीति से भिन्न और जटिल दिखाई पड़ती है। मैत्रेयी पुष्पा ने इस राजनीति को उजागर करने की बीड़ा उठाया है साथ ही उनकी लेखनी हमेशा विवादित रही लोगों ने उसे पसन्द नहीं किया क्योंकि उनका मुखर रूप किसी ने सहज रुप से स्वीकार नहीं किया किन्तु इस सबके बावजूद “जब स्त्री लेखन की बात होती है, तो बुद्धिजीवी मैत्रेयी पुष्पा के लेखन को अगर-मगर लगाकर बात करते हैं, पर उन लाखों पाठकों का वे क्या करें जो आकुंठ भाव से मैत्रेयी को पढ़ते ही नहीं बल्कि उसके लेखन में अपने आपको भी देखते हैं”। 1
“नेताओं की खोखली नारेबाजी, कुत्सित इरादे और दमघोटू साज़िशों की अंतहीन सच्चाई को पूरी बेबाकी से चीरती महाभोज की प्रासंगिकता आज भी बहुत जरूरी हस्तक्षेप है। जो चमकते-चिकने चेहरों को समझने के लिय सार्थक बयान करते हुए आमजन की विवशता और उनकी असहाय स्थितियों का जीवंत दस्तावेज़ बन जाता है”। 2
राजनीति को धर्म से जोड़ कर नेताओं ने अपना स्वार्थ सिद्ध किया है क्योकि धर्म हमारे देश की कमजोर नब्स है। महाभोज में दा साहब ने भी अपनी धार्मिक निष्ठा रूपी दिखावे को प्रस्तुत करते हुए कहा कि -“मेरे लिए राजनीति धर्मनीति से कम नहीं। इस राह पर मेरे साथ चलना है तो गीता का उपदेश गाँठ बाँध लो निष्ठा से अपना कर्तव्य किये जाओ, बस फल पर दृष्टि मत रखो, फिर एक क्षण ठहरकर पूछा पढ़ते हो गीता या नहीं? पढ़ा करो। चित्त को बड़ी शांति मिलती है”। 3 राजनीति इसी का नाम है, दरअसल जो दिखता है वो है नहीं और जो है वो दिखता नहीं।
मैत्रयी पुष्पा का चाक उपन्यास ग्रामीण राजनीति की एक बानगी है। चाक उपन्यास में राजनीति का भ्रष्ट रूप दिखाई पड़ता है। उपन्यास का एक पाठ विशुद्ध राजनीति भी है। प्रधान का सरकारी फंड हड़पने के लिए तरह –तरह की युक्तियाँ नाकाम रहने पर राजनीति की कूटनीति करना, इन सब पहलुओं को बड़ी बारीकी से प्रस्तुत किया गया है। सत्ता पाने के लिए साम, दाम, दंड भेद का प्रयोग करना यह सब नेताओं के लिए आम बात है।
धूर्ततापूर्ण पाला बादल लेना, रंजीत को उकसा कर जातिवादी राजनीति करना और दूसरी तरफ श्रीधर को पिटवाने के रूप में शत्रु को धूल चटाना, प्रधानी की लालच दे कर रंजीत को अपना गुलाम बनाना, राजनेता के इन सारे षड्यंत्रों को लोग भाँप नही पाते हैं, इसीलिए तो कहा जाता है कि राजनीति वेश्या के समान होती है जो किसी की नहीं होती है तथा अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए कुछ भी कर सकती है। ऐसे ही कुचक्रों के कारण ही षड्यंत्र में फंसी गाँव की राजनीति इन धूर्तों की वजह से खून के आँसू रोती हुई मुक्ति के लिए छटपटा रही है। इन्हीं कुचक्रों के प्रभाव और जनता के आक्रोश से जन्म लेती है नई चेतना। जिसके परिणाम स्वरूप गाँव की औरतें एक जुट होती हैं। गुलकनदी, हरप्यारी नाइन और गाने-बजने वाला विसनुदेवा- ये तीन कहीं न कहीं घर-घर के स्त्री संसार से जुड़े थे। तभी तो इनकी नृशंसा मृत्यु ने गाँव वालों को विचलित कर दिया था-“औरतें चली आ रहीं है, ठठ के ठठ औरतें गली में भर गईं। अब कहाँ समाएँगी लुगाई? तूफ़ान कहाँ समाता है? भीत चौखट तोड़ डालेंगे ये औरतें के ठठ? बड़ी बहू कितनी छोटी मगर सबसे आगे। खेरापतिन दादी जर्जर बूढी मगर आज उनकी नजर इतनी खूंखार…. ये चुप और मौन कलावती चाची, प्रधानिन हुकुम कौर बैरूढी जो कभी नहीं आई वे भी लौंगसरी बीबी औरतों के बीच से उठी और दारोगा के सामने हाथ जोड़कर खड़ी हो गई हम तो इतनी ही अरज करते है कि हरिप्यारी को आगे ले जाते किसी चिरैया तक ने नहीं देखा… नाइन सब घरों की नाइन कैसे भूले कोई”?4
सारंग ने जब प्रधानिन की लड़ाई के लिए अपना नामांकन भरा तो रंजीत को यह नागवार था इसलिए “सारंग में आक्रोश है” अरे! हम इसी तरह हवन करते रहेंगे अपनी देहों का? हमें मारकार ही इनकी आनबान का झंडा फहरेगा? भंवर कैसे लोग है ये? इनके पास अपना कुछ भी नहीं/ घर-बार की ख़ुशी शान-शौकत हमारे घूँघट के नाम लिख दी है। तुम्हारे भैया, पढ़े- लिखे बनते है और घूँघट उंचा होते ही गुर्राने लगते है। ”5
सारंग अपने सहज ज्ञान और दूरदर्शी दृष्टि से समझाती भी है कि वह प्रधान की चालों का मुहरा न बने, मगर रंजीत को यह बर्दाश्त नहीं कि उसकी औरत भले ज्ञानवान है, इस तरह उसे प्रबोधित करे, वह राजनीति के लालच में इतना भ्रष्ट हो चुका है कि वह नहीं चाहता है कि राजकाज के काम में उसे सारंग से सिखने की जरुरत पड़ेगी, पर इसी सारंग के रौद्ररूप से उसके चेहरे का रंग उड़ जाता है। जब वह दुनाली बंदूक से दनादन फायर कर देती है। अकूत हिम्मत और साहस वाली सारंग सज्जन है किन्तु वह इस तरह का अत्याचार बर्दाश्त नहीं कर पाती है। श्रीधर ने ही सारंग को अन्दर की राजनीति और विकास नीति से अवगत कराया था। दूसरी तरफ भंवर और बाबा उसे चुनावी महाभारत में शस्त्र हाथ में लेने के लिए प्रेरित करते हैं। श्रीधर सबके लिए एक चाक ही है, जिस पर चढ़कर एक नई संभावना, एक नया रास्ता खुलता है। चाक उपन्यास में गाँव की राजनीति का इतना विकृत रूप दिखाई पड़ता है कि अंतत: सारंग को भी अपने गाँव के लिए इस राजनीति के दलदल में कूदना पड़ता है।
केवल मैत्रेयी पुष्पा ही नहीं अन्य लेखिकाओं ने भी राजनीती की इस गंदगी के विरुद्ध अपनी कलम चलाई है। मन्नू भंडारी, चित्रा मुद्गल, मृदुला गर्ग ने राजनीति के गलियारों में हो रहे भ्रष्टाचार को उजागर किया है। स्त्री को नेता बनाने की लालसा थी क्योंकि “प्रदेश कांग्रेस की महिला कार्यकर्ता कुर्सी पर बैठने के लिए हिचकिचाती सुक्खन भौजी को बड़े अनुनय के बाद राजी कर पाई। वरना उसे याद नहीं पड़ता- खटोला, मचिया या टाट छोड़ वह कभी किसी ऊँचे आसन पर बैठी हो, वह भी अपनी बिरादरी में। बाभन ठाकुर के घर तो कच्ची-पक्की भूमि की उदारता ही सिंहासन समझो”। 6 चित्रा मुद्गल ने जगदम्बा बाबू गाँव आ रहे हैं, कहानी में राजनीति की इस भव्यता को दिखाया है, साथ ही इसकी आड़ में चल रहे षड़यंत्र को भी।
लपटे कहानी आज की राजनीति परिवेश की ही उपज है। राजनेता लोग धर्म के नाम पर अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए अपना वोट बैंक बनाते हैं। वर्तमान अराजक सामाजिक परिवेश को देखते हुये अन्य लोगों के लिए अति सामान्य सी बात है किन्तु सांप्रदायिक दंगों में अक्सर तो बहुतों के पूरे के पूरे कौटुंबिक जन समाप्त हो जाते है। यहाँ राजनीती से आम-जन पर पड़ रहे प्रभाव को बखूबी बताया गया है। हिन्दी साहित्य में लेखिकाओं की नजर से राजनीति बच नहीं पायी है।
संदर्भ ग्रन्थ सूची
- पृ. स. 99, भरद्वाज प्रेम, पाखी अंक- 4 जनवरी 2016
- पृ. स. 23 संस्करण 1979 भंडारी मन्नू महाभोज राधाकृष्ण प्रकाशन नयी दिल्ली.
- पृ. स. 368 चाक, पुष्पा मैत्रेयी
- पृ. स. 388 वही
- पृ. स. 162 जगदम्बा बाबु गाँव आ गये आदि- अनादि भाग – 2 मुद्गल चित्रा सामयिक प्रकाशन नयी दिल्ली
- पृ. स. 171 लपटें आदि-अनादि भाग – 3 मुद्गल चित्रा सामयिक प्रकाशन