अज्ञेय जी का बड़प्पन

यश मालवीय
आज अनायास अज्ञेय जी की याद आ रही है। पहले दो प्रसंग। पहला प्रसंग/ उन दिनों पिता उमाकांत मालवीय इलाहाबाद में कल्याणी देवी वाले किराए के मकान में रहते थे और वहीं से साहित्य बुलेटिन नाम से एक पाक्षिक निकालते थे। उन दिनों अज्ञेय जी की सर्प शीर्षक कविता विशेष चर्चा में थी। एक बार इसी कविता पर पिता ने अपना संपादकीय लिखा था। संपादकीय का शीर्षक था, यह रहस्यवाद है या छायावाद? अज्ञेय जी की कविता कुछ इस तरह से थी/
सर्प तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगरों में रहना भी तुम्हें नहीं आया
एक प्रश्न पूछूं
उत्तर दोगे
ये विष कहां पाया?
ये डसना कहां सीखा?
इस कविता के साथ सत्रहवीं शती के कवि एडिपोलिस की यह कविता भी उन्होंने दी थी/
सांप तुम तहज़ीबयाफ़्ता तो हुए नहीं
शहरों में रहने का सलीका भी तुम्हें नहीं आया
एक सवाल पूछूं
जवाब दोगे
ये ज़हर कहां पाया?
ये डसना कहां सीखा??
साथ में इस कविता का अंग्रेज़ी अनुवाद भी, स्नेक! यू आर नेवर सिविलाइज्ड… नाम से प्रकाशित किया। और अंत में लिख दिया कि अज्ञेय जी की, सर्प, शीर्षक कविता पढ़कर मुझे जन्म जन्मान्तरों के संस्कारों पर विश्वास हो चला है कि हो सकता है पिछले जन्मों में सम्भवतः अज्ञेय जी एडिपोलिस रहे हों और वहीं से कविता के यह संस्कार सुरक्षित लेते आए, जो इस जन्म में आकर इस कविता के रूप में इस तरह से प्रस्फुटित हुए।
दूसरा प्रसंग / यह सन 1980 की बात है। इंदौर से निकलने वाले साप्ताहिक पत्र नई दुनिया में पिता उन दिनों किताबों की नियमित समीक्षाएं लिख रहे थे। असंकलित कविताएं/ निराला, पर लिखते हुए पिता ने लिख दिया था कि निराला की यह कविताएं पढ़ते हुए यह स्पष्ट समझ आता है कि निराला ने इन्हें क्यों असंकलित रह जाने दिया होगा। इसी क्रम में नेशनल पब्लिशिंग हाउस से अज्ञेय जी का कविता संग्रह, नदी की बांक पर छाया, भी छपकर आया था। पिता ने संग्रह की समीक्षा लिखते हुए यहां तक लिख दिया था कि संग्रह की अधिकांश कविताएं ऐसी हैं, जो यदि किसी अपरिचित नाम के साथ सम्पादक के पास छपने जाएं तो न केवल यह कविताएं लौट आयेंगी, वरन उनके लौटने में सम्पादक का तिरस्कार भी निहित होगा।
मुझे अच्छी तरह याद है कि यह पढ़कर अज्ञेय जी का एकपोस्टकार्ड आया था, जिसमें उन्होंने लिखा था कि उमाकांत जी आप बेहद दुर्विनीत व्यक्ति हैं, आपको बड़ों का सम्मान तक करना नहीं आता।
पिता ने जवाब दिया था कि मैं अपने इस तरह से दुर्विनीत होने को गौरव की तरह धारण करता हूं। इस घटना के बाद तो पिता और अज्ञेय जी के रिश्तों में गहरी कटुता आ गई थी, वो वहां आने से ही मना ही कर देते थे, जहां पिता होते थे। महत्वपूर्ण प्रसंग वो नहीं हैं जिनका उल्लेख मैंने अभी किया। महत्वपूर्ण प्रसंग यह है, जो अब मैं कहने जा रहा हूं, जो बताने के लिए मुझे यह दो प्रसंग लिखने पड़े।
हुआ यह कि पिता 11 नवम्बर 1982 में नहीं रहे। उन दिनों अज्ञेय जी श्रीनरेश मेहता और रामकमल राय सरीखों के साथ जय जानकी यात्रा नाम से एक साहित्यिक यात्रा देश भर में कर रहे थे, उसी दौर में उन्होंने साहित्यकारों की मदद करने के लिए वत्सल निधि की स्थापना भी की थी। महादेवी जी ने इलाहाबाद में मुझे और वसु को उनसे बहुत प्यार से मिलवा भी चुकी थीं । पिता के देहान्त की ख़बर सुनकर अज्ञेय जी ने वत्सल निधि के खाते से मां ईशा मालवीय के नाम एक तीन हज़ार का ड्राफ्ट भिजवा दिया।
पिता के न रहने के बाद ताऊ कृष्णकांत मालवीय जी ही हम सबके संरक्षक थे, उन्हें यह सारे प्रसंग मालूम थे, उन्होंने मां की ओर से एक पत्र लिखवाया और उसमें लिखा कि आपका परिवार के प्रति जो सद्भाव है, वह तो सिर माथे है पर जहां तक आर्थिक सहायता की बात है, वह स्वीकार करने में मुझे असुविधा हो रही है। विनम्रतापूर्वक आपका भेजा हुआ ड्रॉफ्ट आपके पास वापस भिजवा रही हूं। बच्चों को आशीर्वाद दें कि वो अपने पैरों पर जल्दी से खड़े हों। कृतज्ञ हूं आपके अपनेपन के प्रति।
अज्ञेय जी मां का यह पत्र पाकर बेहद आहत हुए, उन्होंने लौटती डाक से वह ड्राफ्ट फिर भिजवा दिया, यह लिखते हुए कि बहूरानी साहित्य की दुनिया में सहमति असहमति तो चलती रहती है, पर उमाकांत एक नक्षत्र थे, उनमें मैं इलाहाबाद का साहित्यिक भविष्य देख पा रहा था। यह मेरी ओर से केवल एक श्रद्धा स्मरण भर है, तुम इसे अस्वीकार कर दोगी तो मुझे बहुत मानसिक क्लेश होगा। उम्मीद है मेरे आग्रह की रक्षा करोगी।
अज्ञेय जी का यह पत्र पाकर और उनका बड़प्पन देखकर हम सब नतमस्तक हो उठे। आज भी मां की वो भीगी आँखें नहीं भूलतीं, मां ने भरी आंखों से अज्ञेय जी का वह पत्र माथे से लगा लिया था।