शख्सियत

रचनाकार की आलोचकीय अभिव्यक्ति

  

अब्दुल बिस्मिल्लाह हिन्दी की दुनिया में उपन्यासकार, कहानीकार के रूप में जाने जाते हैं। उनकी प्रसिद्धि का एक बड़ा आधार ‘झीनी झीनी बिनी चदरिया’ रहा है। उपन्यासकार, कहानीकार के रूप में उनकी प्रसिद्धि ने उनके एक दूसरे लेकिन महत्वपूर्ण रूप को लगभग गौण कर दिया है- वह है उनका समर्थ आलोचक रूप। आलोचना की इन्होंने चार पुस्तकें लिखी हैं और इनके माध्यम से अपने समय की बहसों में अपना पक्ष रखा है। कहानीकार, उपन्यासकार के रंग से अब्दुल बिस्मिल्लाह की जो छवि बनती है वो अधूरी ही समझी जाएगी जब तक कि उनके आलोच्य-कर्म को उसमें शामिल नहीं किया जाएगा। प्रस्तुत आलेख में लेखक के उसी कम देखे पक्ष की एक पड़ताल की गयी है।

अब्दुल बिस्मिल्लाह- इस नाम से क्या ध्यान में आता है! कि ये उपन्यास ‘झीनी झीनी बिनी चदरिया’ के लेखक हैं, कि और भी कई उपन्यासों के लेखक हैं, कि ये हिन्दी कहानी की दुनिया का एक जाना हुआ नाम है, कि ये हिन्दी के प्रोफ़ेसर रह चुके हैं आदि-आदि। किताब के फ्लैप की बात छोड़ दी जाए तो बराए-नाम कहीं ये उद्धृत होता है कि अब्दुल बिस्मिल्लाह हिन्दी आलोचना के पन्ने के एक ज़रूरी दस्तख़त भी हैं। इनकी झीनी-झीनी बीनी चदरिया इतनी फैली और भारी होती गयी कि इनके काम के दूसरे पट्टे उससे ओझल होते गये। इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। मोटी डाल दूर से दिखाई देती है। कथित छोटी शाखों को क़रीब आकर देखना होता है। पढ़ने-लिखने-बोलने वालों का काम है कि वे बराबर कथित छोटी शाखों के पास जाते रहें, उनके बारे में औरों को बताते रहें ताकि हर तरह की चादर की ओट से वे मुक्त रहें; उनका होना भी मोटी डाल की तरह नज़र आता रहे।

अब्दुल बिस्मिल्लाह की चार आलोचना पुस्तकें हैं। उनमें से एक ‘उत्तर आधुनिकता के दौर में’ है। यह सन् 2014 में ‘नयी किताब’ प्रकाशन से प्रकाशित है। पुस्तक के नामकरण के पीछे की पृष्ठभूमि बस इतनी है कि इसमें सम्मिलित लेख उत्तर आधुनिकता के समय में लिखे गये हैं। किताब की आन्तरिक संगति को चार अलग-अलग हिस्सों के मार्फ़त साधा गया है। उन हिस्सों में हिन्दी साहित्य, हिन्दी-उर्दू व उर्दू साहित्य, पुस्तक-समीक्षा और लेखकों के नाम पत्र हैं। आलोचना की पुस्तक में पत्र? हाँ, इस पुस्तक में विश्वनाथ त्रिपाठी और राजेन्द्र यादव के नाम पत्र हैं।

‘हंस’ के अगस्त 2003 के विशेषांक- ‘भारतीय मुस्लिम मन’ की लिखी सम्पादकीय की प्रतिक्रिया में अब्दुल बिस्मिल्लाह ने सम्पादक राजेन्द्र यादव के नाम एक लम्बा पत्र लिखा था जो हंस में कभी प्रकाशित नहीं हो पाया। उपर्युक्त अंक के अतिथि सम्पादक असग़र वजाहत थे लेकिन सम्पादकीय राजेन्द्र यादव का लिखा हुआ था। वही अप्रकाशित और अलक्षित रह गया पत्र इस पुस्तक में है और उसके यहां होने का एक औचित्य यह है, “…मैंने उनसे बातचीत करते हुए, यह बार-बार महसूस किया है कि वे अपनी आलोचनाओं-निन्दाओं को सुनकर तो मज़े लेते थे, मगर अपने ‘अज्ञान’ को स्वीकार करने का उनमें साहस नहीं था। यही नहीं, ऐसे व्यक्ति को वे अपनी ‘काली सूची’ में डाल देते थे।“ (पृ. 192)

हिन्दी का कोई स्वनामधन्य सम्पादक अपना अज्ञान दूर करना चाहें या न चाहें लेकिन हर तरह के पाठकों का यह निजी दायित्व है कि वे अपने अज्ञान की धूल झाड़ते रहें। सम्पादकों को कई बार ये ख़ब्त हो जाता है कि वे इस दुनिया के वाहिद ज्ञानी हैं। उन दिनों जब सोशल मीडिया कूद कर हमारी गोदों में नहीं बैठा था, तब ऐसे सम्पादकों की मोनोपॉली थी। नए अमल के आने से अब सूरत बदल गयी है। उर्दू भाषा, अलगाव की संस्कृति, भारतीय मुसलमान आदि ऐसे विषय हैं जो भारत में बराबर ज़ेरे-बहस रहे हैं और हमारे समय में यह बहस एक अति तक पहुंच चुकी है। यह पत्र एक आलोचनात्मक पड़ताल करती है और अति तक पहुंचे सामाजिक-धार्मिक वैमनस्य के पारे को सम पर लाती है। ग़ज़ल में एक शे’र हासिले-ग़ज़ल होता है। इस आलोचना-पुस्तक में यह पत्र एक हासिले-ग़ज़ल जैसा है।

इसी आलोचना-पुस्तक के खण्ड ‘ग’ में तीन किताबों की समीक्षाएं हैं। पहली समीक्षा भीमसेन त्यागी के उपन्यास ‘जमीन’ की है। अब्दुल बिस्मिल्लाह का मानना है कि “हिन्दी के अधिकांश लेखक गाँव में पैदा हुए हैं, किन्तु ग्रामीण-जीवन पर आधारित रचना करनेवाले इने-गिने हैं। कृषि-व्यवस्था के चित्रण की दृष्टि से तो हिन्दी साहित्य की स्थिति और भी दयनीय है।“ (पृ. 159)

ग्रामीण जीवन पर आधारित रचना करनेवाले कितने रचनाकरों को अब्दुल बिस्मिल्लाह ने गिना है; मुझे नहीं मालूम लेकिन हिन्दी साहित्य के पाठकों को याद होगा कि ‘नयी कहानी’ के दौर में गाँव और शहर केंद्रित लेखन को लेकर बहस चली थी और सुविधा के लिए लेखकों का वर्गीकरण ग्रामीण, शहरी, कस्बाई आदि आधारों पर किया जाता था। जुलाई 1958 में ‘नया साहित्य प्रकाशन, इलाहाबाद (अब प्रयागराज) से कहानीकार शेखर जोशी का पहला कहानी संग्रह ‘कोसी का घटवार’ प्रकाशित हुआ। इस संग्रह की भूमिका में शेखर जोशी ने जो लिखा है, उससे अब्दुल बिस्मिल्लाह के ‘…रचना करने वाले इने-गिने हैं’ कथन का विपर्याय सामने आता है। शेखर जोशी लिखते हैं, “पिछले दो-तीन वर्षों में लिखी गयी कहानियों में से कुछ कहानियां इस संग्रह में दे रहा हूँ। इनमें से अधिकांश कहानियों की पृष्ठभूमि औद्योगिक अथवा पर्वतीय जीवन रही हैं। मेरे सम्मुख इसके दो कारण है। परिवर्तित सामाजिक परिस्थितियों में औद्योगिक संस्थानों की जो भूमिका रहेगी, वह आज के बिखरते ग्रामीण जीवन से कहीं अधिक महत्वपूर्ण सिद्ध होगी, ऐसा मेरा विश्वास है। लेकिन आज भी समसामयिक रचनाकारों एवं कथा-साहित्य के आलोचकों का ग्राम-कथा के प्रति जो आग्रह है, उसका अंशमात्र भी औद्योगिक जीवन के प्रति दिखायी नहीं देता।“ (भूमिका, प्रथम संस्करण)

भीमसेन त्यागी के उपन्यास की समीक्षा के क्रम में अब्दुल बिस्मिल्लाह ने ‘रागदरबारी’ के बारे में महज़ एक वाक्य लिखा है और वो वाक्य काफ़ी उत्तेजक और ध्यानाकर्षक है। लिखा है, “’रागदरबारी’ का गाँव औपन्यासिक है, ऐसे गाँव की कल्पना सिर्फ़ गाँव का मज़ाक़ उड़ाने के लिए की जा सकती है।“ (पृ. 159) हिन्दी आलोचना में कहाँ तो इस बात की धूम रही है कि श्रीलाल शुक्ल ने अपने उपन्यास में आज़ादी के बाद के बदलते गाँव का सटीक चित्रण किया है और कहाँ यह विचार कि इसमें गाँव का मज़ाक़ उड़ाया गया है! अब्दुल बिस्मिल्लाह के मत से एक शोधपरक अध्ययन की गुंजाइश बनती है जिससे पता चले कि श्रीलाल शुक्ल ने गाँवों का मज़ाक़ उड़ाया है या उत्तर भारतीय गाँव वाक़ई शिवपालगंज जैसे होते जा रहे हैं।  

इसी खण्ड में आलोचक ने एक ऐसी पुस्तक की समीक्षा की है जो मूलतः हंगेरियन पुस्तक थी और जिसका सम्पादित अंग्रेज़ी अनुवाद ‘विलियम रॅदिचे’ ने ‘फ़ायर ऑफ बेंगाल’ के नाम से किया और फिर कार्तिक चन्द्र दत्त ने इसका अनुवाद ‘अग्निपर्व शान्ति निकेतन’ के नाम से किया है। पुस्तक रवीन्द्रनाथ ठाकुर एवं महात्मा गांधी से जुड़े ऐसे पहलुओं को उठाती है जो प्रकाश में नहीं हैं और कुछ हद तक अप्रिय भी; इसलिए ऐसे लेखकीय उद्यम को आलोचक मूर्तिभंजन या बुतशिकनी कहते हैं। मूर्तिभंजन को लेकर एशियाई देश अभी तक सहज नहीं हो पाए हैं; इसलिए हम देखते हैं कि किताबें बैन कर दी जाती हैं, थियेटर के पर्दे जला दिये जाते हैं या जब ऐसा कुछ नहीं किया जाता है तो उपेक्षा की ठण्डी आँखों से दृश्य को ओझल-सा बना दिया जाता है।

समीक्षा की तीसरी पुस्तक ‘कादम्बरी’ का संस्कृत मर्मज्ञ राधावल्लभ त्रिपाठी द्वारा किया गया रूपान्तरण है। आलोचक इस विचार को लेकर दृढ मत हैं कि “…यदि कोई कृति ‘पहला भारतीय उपन्यास’ कहलाने लायक है तो वह ‘कादम्बरी’ ही है।“ (पृ. 180) अपने इस विचार की स्थापना के लिए उन्होंने उर्दू की नामचीन लेखिका क़ुर्रतुल-ऐन हैदर के विचार का प्रत्याख्यान किया है। क़ुर्रतुल-ऐन हैदर का मानना है कि ‘पहला भारतीय उपन्यास’ सत्रहवीं शताब्दी में फ़ारसी भाषा में लिखा गया और उसके लेखक हसन शाह हैं।

तीन पुस्तकों की समीक्षाएं और उनमें से एक मूलतः हिन्दी में लिखित रचना, दूसरी वाया हंगेरियन, अंग्रेज़ी से हिन्दी में सम्पादित-अनूदित और तीसरी संस्कृत से हिन्दी में रूपांतरित : रूचि और अध्ययन बहुलता से जुड़ा हुआ यह उदाहरण अब्दुल बिस्मिल्लाह की दृष्टि और आलोचकीय उद्यम को रेखांकित करता है।

आलोचना-पुस्तक का खण्ड ‘ख’ हिन्दी-उर्दू सम्बन्ध, उर्दू साहित्य और उनके कुछ नामचीन रचनाकारों पर केन्द्रित है। इस खण्ड में नौ आलेख हैं। इसमें से तीन आलेख ऐसे हैं जिनका विषय बहुत नया और रोचक है- ‘बाइबिल में ग़ज़ल’, ‘ग़ालिब का मुहावरा’ और ‘मंटो का यज़ीद’।

बाइबिल में ग़ज़ल की खोज और उसके हिन्दी तर्जुमे से पाठकों को परिचित कराना एक नया काम है। हिन्दी में ग़ज़ल की परम्परा फ़ारसी से आयी और फ़ारसी में अरबी से। ग़ज़ल मूलतः अरबी भाषा की विधा है लेकिन आज वह कई भाषाओं की ऐसी विधा बन चुकी है कि लगता है जैसे वह कहीं से बाहरी न होकर सम्बंधित भाषा और साहित्य के आन्तरिक अनुशासन और ज़रुरत से पैदा हुई हो। ग़ालिब की शायरी की भाषा आसान नहीं है। अरबी-फ़ारसी के शब्दों ने उसे आमफ़हम नहीं रहने दिया है। कम शे’र हैं जिनमें ठेठ हिन्दी का ठाठ नज़र आता है। इस बात को ठीक-ठीक समझने के लिए ग़ालिब के पहले हो चुके नज़ीर अकबराबादी की भाषा को याद किया जा सकता है। लेकिन एक दिलचस्प बात ये है कि शे’रों में हिन्दी के बिल्कुल आम मुहावरों का इस्तेमाल प्रचुरता से हुआ है और कई बार मुश्किल इस बात की पेश आती है कि उन आम भारतीय मुहावरों तक पहुँचने का रास्ता अरबी-फ़ारसी के मुश्किल लफ़्ज़ों से होकर गुज़रता है और ऐसे में ध्यान मुहावरे से हट जाता है। ग़ालिब की कीमियागिरी इसमें दिखती है कि कैसे उन्होंने आसान और मुश्किल को साध कर अपनी सदाबहार शायरी पैदा की है।

‘यज़ीद’ मंटो की ग़ालिबन सन् 1954 की कहानी है। इस कहानी की चर्चा न के बराबर हुई है। अब्दुल बिस्मिल्लाह ने अपनी आलोचना में इसे रेखांकित कर इसके अज्ञातवास को भंग किया है। यज़ीद एक ऐतिहासिक इस्लामिक चरित्र है और वक़्त के साथ यह शब्द अब एक चरित्र से मुहावरे में ढल चुका है। मंटो ने अपनी कहानी में उसी मुहावरे को पकड़ कर भारत-पाकिस्तान के तनावपूर्ण सम्बन्ध के एक भूले हुए पहलू को दिखाया है जिसमें दो राष्ट्रों के बीच के तनाव की ज़द में दरिया तक आ गयी हैं। मंटो का साहस भरा कमाल ये है कि वे अपनी कहानी में यज़ीद के रूढ़ हो चुके अर्थ को बदलने की तरतीब करते हैं और कहानी में एक नये जन्मे किरदार का नाम यज़ीद रखते हैं। यह बदलाव भारत-पाकिस्तान या किसी भी दो मुल्क के बिगड़े सम्बन्धों के बेहतर भविष्य को लेकर प्रकट किया गया एक विश्वास है।

पुस्तक के अन्त में खण्ड ‘घ’ के अन्तर्गत ही आलोचक ने उत्तर आधुनिकता को एक ऐसे प्रेत के रूप में देखा है जिसको लेकर हमारे समाज में स्वीकार और नकार का भाव देहरी पर आ खड़ा हुआ है। और आलोचक की दृष्टि ये है कि कई बार ‘वाद’ हमें अपनी जड़ों से उखाड़ कर पूरी परम्परा में एक टीस पैदा करता है। उत्तर आधुनिकता का असर इससे दीगर नहीं है।

अब्दुल बिस्मिल्लाह की आलोचना की भाषा बिल्कुल वैसी नहीं है जैसी हम हिन्दी में शास्त्रीय आलोचना की भाषा देखते हैं। उनके भीतर का क़िस्सागो आलोचना की भाषा में भी बेतकल्लुफ़ ढंग से उतर आया है और यह हिन्दी आलोचना के पूरे परिदृश्य के सन्दर्भ में एक अच्छी बात है

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दिव्यानंद

जन्म : जनवरी 1990, महादेवपुर, अमरपुर, बांका (बिहार)। शिक्षा : एम.ए, एम.फिल्, पी-एच.डी। ‘पहल’, ‘हंस’, ‘नया ज्ञानोदय’, ‘एनसीआरटी जर्नल’, ‘बनास जन’, ‘परिसर’, ‘युद्धरत आम आदमी’, ‘समसामयिक सृजन’, ‘सबलोग’, ‘जन सन्देश टाइम्स’, ‘अमर उजाला’, ‘जनसत्ता’ आदि पत्र-पत्रिकाओं एवं ‘हिन्दी कहानी वाया आलोचना’ (सम्पादक : नीरज खरे, लोकभारती प्रका.) सहित दो अन्य सम्पादित पुस्तकों में आलेख प्रकाशित। सम्प्रति : असिस्टेंट प्रोफ़ेसर & समन्वयक – पी.जी.डी.जे.एम.सी. विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय भागलपुर, बिहार। सम्पर्क: angiradevmp@gmail.com, 8332997175
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