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‘पर्यावरण : संकट के बावजूद’ पर ‘बतरस’ में सार्थक चर्चा

 

मुंबई की प्रसिद्ध साहित्यिक संस्था ‘बतरस’ (एक अनौपचारिक सांस्कृतिक उपक्रम) ने हर माह के दूसरे शनिवार को अपने मासिक कार्यक्रम की श्रिंखला के अंतर्गत पर्यावरण-संरक्षण के प्रतीक जून माह में ‘पर्यावरण : संकट के बावजूद’ नाम से सार्थक चर्चा संपन्न  की, जिसमें विषय में निहित यह बात खुल कर सामने आयी कि यह संकट तो भीषण है, पर दुनिया भी चल रही और बचने के प्रयत्न भी…।

इसी आशय पर आधारित प्रसिद्ध पर्यावरण-विद श्री अनुपम मिश्र के लेख ‘पर्यावरण क्यों नहीं बनता चुनावी मुद्दा’ से विषय-प्रवर्त्तन के रूप में चर्चा की शुरुआत हुई। आलेख प्रस्तुत किया – निरंतर अध्ययनशील, कवि, विचारक एवं पूर्व अध्यापक शैलेश सिंह जी ने। लेख के अनुसार इस संकट की जवाबदेही विकास की उस अवधारणा से बावस्ता है, जिसके मुताबिक जिस प्रकृति ने मनुष्यों को अनंत काल से निस्वार्थ रूप में दिया ही दिया है और आगे भी देती रहेगी…, वह हमारे लिए एक भोग्य सामग्री से ज्यादा कुछ भी नहीं है। मौसम की बेरुखी, वायुमंडल में बढ़ता तापमान, मौसम के बदलते मिजाज की वजह से कहीं अतिवृष्टि तो कहीं अनावृष्टि, कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा के रूप में हमारे सामने विकट परिस्थितियाँ पैदा हो गई हैं, लेकिन अब तक मनुष्यों की आँख नहीं खुली हैं!!

इसी गंभीर मुद्दे पर अपना बीज वक्तव्य प्रस्तुत किया राजस्थान से पधारे डॉ. भंवरसिंह शेखावत ने, जो पेशे से डॉ.क्टर हैं, परंतु उन्हीं के शब्दों में ‘पिछले 20 वर्षों से मनुष्यों की चिकित्सा छोड़कर पृथ्वी की चिकित्सा-सेवा में कार्यरत हूँ’।  राजस्थान में 50,000 से अधिक पौधे लगवाये हैं और अपने घर में भी 500 से अधिक…। उन्होंने चिता व्यक्त की कि “पर्यावरण के बारे में लोगों में जागरूकता तो है, लेकिन इसके प्रति सही दृष्टिकोण बिलकुल नहीं है’। उदाहरण के रूप में उन्होंने कहा – पानी का दोहन हो रहा है, जिसकी वजह से कृषि प्रभावित हो रही है। पेड़ लगाए तो जाते हैं, लेकिन उससे अधिक काट दिये जाते हैं। इसी तरह के अनेक अंतर्विरोधो के ज़िक्र करते हुए शेखावतजी ने याद दिलाया कि वृक्षों का भारतीय संस्कृति में धार्मिक महत्व रहा है।  मनुष्य धरती का ऋणी है, जिसे चुकाना मनुष्यता का पहला धर्म है। चुकाने के कई उपाय बताते हुए उन्होंने स्कूल-जीवन से ही बच्चों में इसके संस्कार देने पर ज़ोर दिया, जिससे उस दक़ियानूसी अवधारणा को ख़त्म किया जा सके कि ‘हम कितने दिन जीवित रहेंगे?’ ऐसे बहुतेरे सुझावों-विमर्शों से युक्त उनके वक्तव्य से सिद्ध हुआ कि पर्यावरण अंतरराष्ट्रीय समस्या है और इतनी बढ़ गई है कि काबू पाना बहुत मुश्किल हो रहा है।

दूसरे प्रमुख वक्ता वरिष्ठ कवि, लेखक मुकेश गौतम जी ने पर्यावरण कार्यकर्ता के रूप में देश भर में पर्यावरण-संरक्षण के लिए जागरूकता अभियान चलाया है और इसके लिए प्रचलित अधिकांश प्रचार-नारे (स्लोगन) उन्होंने ही लिखे हैं। महाराष्ट्र में 12वीं कक्षा के पाठ्यक्रम में उनकी कविता ‘पेड़ होने का अर्थ’ सम्मिलित है। गौतमजी जंगलों-पेड़ों को जीते हैं, वरना 40,000 से अधिक पेड़ लगाना आसान काम नहीं! उन्हें पर्यावरण और उसकी सुरक्षा को लेकर लोगों तथा सरकार से ढेरों शिकायतें व सवाल हैं, जिनके ज़िक्र उन्होंने विस्तार से किये…। मसलन – पर्यावरण का किसी के घोषणा पत्र में शामिल न होना, किसी राजनीतिक दल का इस पर विचार न करना,  बाढ़ की रोकथाम के लिए करोड़ों खर्चने के बदले पेड़ न लगाये जाना…आदि-आदि। विषय की चिंता के साथ उनका स्वर सरकार व व्यवस्था के विरोध का रहा। गौतमजी ने  पर्यावरण को बचाने के लिए अथर्व वेद में 84 श्लोकों का हवाला भी दिया। उनके अनुसार पर्यावरण को क्षति से बचाने के लिए वैश्विक स्तर पर आंदोलन करना होगा। अंत में उन्होंने पर्यवारण सम्बन्धी अपनी कुछ कविताएं भी सुनायीं…।

वक्तव्यों की इस अतिथि-श्रिंखला में अध्यापिका और ‘बतरस’ की नियमित श्रोता-प्रस्तोता  डॉ. जया दयाल ने अपने वक्तव्य के अंतर्गत पर्यावरण की समस्याओं से होने वाली परेशानियों पर स्वानुभूत विचार साझा करते हुए कहा “हमें स्कूली जीवन से ही विद्यार्थियों पर ऐसे संस्कार डालने होंगे, ताकि पर्यावरण-सुरक्षा को नई पीढ़ी गंभीरता पूर्वक ले, ताकि आने वाले दिनों में उनका व समाज का जीवन सुरक्षित व बेहतर हो…।

कार्यक्रम के अगले चरण ‘काव्य प्रस्तुति’ के अंतर्गत कवि, विचारक एवं परिदृश्य प्रकाशन के संस्थापक और ‘बतरस’ के सदस्य रमन मिश्र जी ने हिंदी के तीन श्रेष्ठ कवियों की सुंदर कविताएँ बड़े मनोयोग से सुनायीं – नरेश सक्सेना की ‘अंतिम समय जब कोई नहीं जाएगा, साथ एक वृक्ष जाएगा’, त्रिलोचन की ‘नदी: कामधेनु’ एवं कुंवर नारायण की ‘एक वृक्ष की हत्या’। पिछले 30 वर्षों से देश भर में रंगकर्म के विविध प्रारूपों में सक्रिय अभिनेता एवं लेखक विश्व भानु जी ने सुप्रसिद्ध कवि भवानी प्रसाद मिश्र की प्रसिद्ध कविता ‘सतपुड़ा के जंगल’ का पाठ बड़े नाट्यमय अंदाज में किया, जिसे श्रोताओँ की तालियों की गड़गड़ाहट से भरपूर सराहना मिली…।

निबंध पाठ के अंतर्गत- मीडियाकर्मी, रंगकर्मी एवं लेखक विजय पंडित जी ने प्रसिद्ध निबंधकार, समीक्षक हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध ‘शिरीष के फूल’ एवं अध्यापिका श्रीमती राजश्री चौरसिया ने सुप्रसिद्ध भाषाविद  विद्यानिवास मिश्र जी के निबंध ‘घने नीम तरु तले’ का पाठ किया। रगकर्मी एवं सिने अभिनेत्री निधि मिश्र जी ने हिंदी ललित निबंध परंपरा के हस्ताक्षर निबंधकार कुबेर नाथ राय द्वारा लिखित ‘गूलर’ का पाठ इस अंदाज में किया कि वह एक कहानी जैसा भा गया, तो श्रोताओं की हर्षित तारीफ भी मिली।

बतरस के कुछ सम्मान्य स्थायी स्तंभ हैं, जिनमे कवि- विचारक अनिल गौड़ जी ने अपनी कविता- ‘हम मनुष्य थे, बहुत बड़े थे’ और ‘परि आवरण परि आवरण परिआवरण परि आवरण, धरती गगन के बीच में जीवन के ये कितने चरण’…! जैसी काविताओं को बेहद प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया और कवि, साहित्यकार, गीतकार रासबिहारी पांडेय जी ने अपनी रचना – ‘आओ पेड़ लगाएं, आओ पेड़ बचाएं… मूल मंत्र हो यह जीवन का, सबको याद कराएं’ और बात करता हूं दिल की पेड़ों से, फूल इजहारे इश्क करते हैं, धूप से,बादलों, हवाओं से रंग जीवन में सारे भरते हैं…’ सुनाकर श्रोताओं को प्रमुदित कर दिया। इसी क्रम में मंचीय कवि और सेवा निवृत अध्यापक जवाहर निर्झर जी ने भोजपुरी का लोकगीत गाकर सदा की तरह सभी श्रोताओं को सम्मोहित कर लिया। चौथे स्तम्भ हैं – भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी दीपक खेर, जिन्होंने काव्य के सहवर्ती स्वरूप सवाद्य गायन के अंतर्गत अपनी मधुर वाणी में फिल्म- ‘बूँद जो बन गई मोती’ का गीत पेश किया – ‘यह कौन चित्रकार है…’ जिसने भी श्रोताओं की भरपूर तालियाँ बटोरीं।

काव्य-क्रम में विशेष प्रस्तुति रही शैलेश सिंह की दो रचनाएं – ‘चिड़ियाँ जो कल तक चहचहा रही थीं, अब खामोश हो गई हैं…’ और ‘पहाड़ जो यही कहीं था कुछ अरसा पहले…’। दोनो ने गम्भीर विषय व सधी प्रस्तुति में बड़ा मार्मिक छोड़ा…।

नात्य-प्रस्तुति के रूप में रंगकर्मी एवं सिने अभिनेता सौरभ बंसल ने अपनी टीम के साथ मिलकर लिखे व अभिनीत नुक्कड़ नाटक पेश किया – ‘पर्यावरण की कहानी- उस्ताद जम्हूरे की जुबानी’। 15 मिनट की इस सहज-सीधी प्रस्तुति में  नुक्कड़ नाटक के समूचे कौशल के साथ पर्यावरण विषयक सारी स्थितियों, उसके कारणों, उससे बनते ख़तरनाक भविष्य तथा इसके निदान की सारी बातें इतनी सहजता से पिरो दी थीं कि बस, क्या कहने…!! यह बात खुलकर सामने आयी व दर्शकों के मन तक पहुँची कि यदि मनुष्य इसी तरह पर्यावरण को नुकसान पहुँचाता रहा, तो वो दिन दूर नहीं, जब बोतलों में पानी की जगह ऑक्सीजन गले में लटका कर चलना पड़ेगा। रुपया-पैसा, सोना-चाँदी से महंगा ऑक्सीजन हो जाएगा। अतः पर्यावरण की सुरक्षा का दायित्व हम सब का है ताकि आने वाली पीढ़ी का भविष्य खतरे में न पड़े। नाटक में प्रतिभागी कलाकार रहे – हरप्रीत, भानु, भीष्मा, अमित, मुस्कान और समीर…आदि जिन्होंने कई-कई किरदारों को बखूबी निभाया, जिससे पूरा शो खूब जीवंत व जोश-खरोश से भरपूर रहा…। कथ्य व प्रस्तुति दोनो दृष्टियों से नाटक इतना प्रभावी रहा कि श्रोताओं ने खड़े होकर ज़ोरदार तालियों एवं मुक्त कंठ से सभी कलाकरों का अभिनंदन किया।

अंत में साहित्य एवं कला समीक्षक डॉ. सत्यदेव त्रिपाठी ने समय की कमी के कारण पहले से निश्चित अपने विषय ‘पर्यावरण और किसानी जीवन’ की बात न करके सिर्फ़ कालिदास की शकुंतला का प्रकृति के साथ जो मित्र व परिवार जैसा आत्मीय सम्बंध था, उसे एक श्लोक ‘पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं युषमास्व पीतेषु या…’ के ज़रिए सुना-बता के और सद्य: मंचित नाटक के प्रस्तोताओं के प्रोत्साहन में दो शब्द कहके ‘जन गण मन’ के सामूहिक उच्चार के साथ कार्यक्रम को सम्पन्न कराया…। गोष्ठी का पूरा विधान भी डॉ. सत्यदेव त्रिपाठी, रमन मिश्र एवं शैलेश सिंह ने तैयार किया था।

श्री त्रिपाठी के ही शब्दों में सबसे उल्लेखनीय यह कि ‘बतरस’ की सबसे सक्रिय सदस्य डॉ. मधुबाला शुक्ल ने कार्यक्रम का कुशल संचालन तो बड़ी सहजता एवं बड़े सलीके से किया ही, संगठन के दस्तावेज के लिए पूरे आयोजन के नोट्स भी लेती रहीं…और शाइस्ता रशीद के साथ मिलकर जलपान की व्यवस्था एवं फ़ोटोग्राफ़ी के कार्य को भी अंजाम देती रहीं…।

मधुबाला शुक्ल

लेखिका प्राध्यापक व सुपरिचित समीक्षक एवं संस्कृति कर्मी हैं। सम्पर्क- vinitshukla82@gmail.com
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