रंगमंच

‘नेहरू नाट्योत्सव : परम्परा एवं 2022 के नाटक’  

 

मुम्बई में ‘नेहरू सेंटर’ ने पिछले दिनों अपना 24वां वार्षिक नाट्योत्सव मनाया। पिछले दो सालों का कोरोना न आया होता, तो पिछले साल रजत जयन्ती मन गयी होती, लेकिन उम्मीद है कि अगले साल पूरी धूमधाम से मनायी जायेगी…।

इस बार तो कोरोना के बाद कुछ उसके असर एवं  कुछ व्यवस्थापकों की नज़र के चलते पाँच नाटकों के उत्सव में दो हिन्दी एवं दो मराठी नाटकों को रखने का अनुपात बिलकुल सही रहा – एक मुम्बई में बोल-चाल की जन भाषा और दूसरी रही प्रांत की अपनी भाषा – मुंबई की धड़कन। फिर पाँचवीं तो गुजराती होनी ही थी।

नेहरू नाट्योत्सव की परम्परा एवं विधान – तीन भाषा में पाँच ही नाटकों के इस उत्सव के अवसर पर याद आता है कि नेहरू केंद्र के इस नाट्योत्सव की एक बड़ी समृद्ध परम्परा रही है। मुम्बई के बहुभाषी शहर होने के मद्देनज़र यहाँ के उत्सवों में दक्षिण भारतीय व पूर्वोत्तर की भाषाओं के नाटक भी होते थे, उर्दू के नाम से गाढ़ी हिंदुस्तानी के एवं खाँटी पंजाबी नाटक होते थे, तो शहर में रहने वाले इन सभी भाषाओं के दर्शक खूब आते थे…। आते हुए दर्शकों को बात करते सुनकर, कभी तो उनके वेश देखकर भी समझ में आ जाता था कि आज किस भाषा का नाटक है। इस प्रकार नेहरू केंद्र ने एक ऐसी छबि बनायी थी कि इस राष्ट्रीय संस्थान में पूरे राष्ट्र के नाटकों का प्रतिनिधित्व होता है। इसी से पूरे शहर को और इसके माध्यम से पूरे देश को यह संस्थान अपना लगता था। हिन्दी नाटकों की संख्या प्राय: ही अधिक होती थी, जो पुन: सम्पर्क भाषा की हैसियत का सम्मान था और हर भाषा-भाषी को हिन्दी नाटक देखने और हिन्दी रंगमंच की प्रवृत्तियों से परिचित होने का अच्छा मौक़ा मिलता था। ऐसी साख बन गयी थी कि शहर के नाट्यप्रेमियों को इसका इंतज़ार रहता था। पूरे देश के मानिंद रंगकर्मी एवं नाट्य-समूहों को भी यहाँ आने की आस रहती थी। इस महानगर के बड़े (900 सीटों वाले) व सुसज्जित नाट्यगृह में बड़ी संख्या में मौजूद दर्शकों के समक्ष अपने नाटक प्रस्तुत करने की हौंस होती थी…।  

शहर के नाट्य-दर्शकों को नि:शुल्क नाटक देखने का अवसर व नाटक के जानकार दर्शक-वर्ग को पूरे देश के रंगकर्म की एक नब्ज से वाक़िफ़ होने का लाभ मिलता था और आम नाट्यप्रेमी को विविधरूपी नाटक देखने का सुख…। इस प्रक्रिया में तमाम नये दर्शक बनते थे एवं पुराने नाट्यप्रेमियों की रुचियाँ बढ़ती व परिष्कृत होती थीं। यही कला का श्रेय-प्रेय होता है और सरकारी संस्थानो में ऐसे कला-आयोजनों के यही मर्म होते हैं, यही मक़सद होते हैं और यही करके उन्हें अपने सही कर्त्तव्य-पालन का अवसर व आत्मसंतोष मिलता है। तभी कला-सृष्टि एवं दृष्टि अपनी चरितार्थता को प्राप्त होती है।

इसी सब योगदानों से जिस दिन नेहरू-नाट्योत्सव के नि:शुल्क प्रवेश के टिकिट बंटने होते थे, भीड़ लग जाती थी। प्रदर्शन के दिनों अंदर जाने की क़तारें ख़त्म ही न होती थीं…। इस वर्ष ऐसा न दिखा। क़तार तो सिर्फ़ मराठी-गुजराती नाटकों के दिन लगी, पर आधी दीवाल से ज्यादा लोग न होते थे। कभी सभागृह दो-तिहाई से अधिक न भरा, जबकि इसी सभागृह को मैंने भरा क्या, भीड़ से हाँफते हुए देखा है। मराठी के संगीत नाटक में पैर रखने तो क्या, तिल फेंकने की जगह न बचती थी। नियमित प्रेस सभाएँ होती थीं। छापे व पर्दे मीडिया के तमाम प्रतिनिधि एवं सभी भाषाओं के सुपरिचित नाट्य-समीक्षक आते थे। स्थानीय नाटकों के निर्देशक भी आमंत्रित व उपस्थित होते…। आयोजन के प्रमुख अधिकारी द्वारा चयनित नाटकों के प्रति संस्थान की दृष्टि तथा नाटकों की प्रवृत्तियों का परिचय दिया जाता। निर्देशक लोग अपने नाटकों की बावत बताते और फिर प्रेस वालों के साथ उनकी बातचीत, सवाल-जवाब होते। कहने की बात नहीं, सुस्वादु व विविधरूपी नाश्ते भी होते…। पहले शो की सुबह या एक दिन पहले अख़बारों में इस पर आधारित पूर्वावलोकन (प्रीव्यू) छपते, जिसे पढ़कर दर्शक भी उत्सव की पूरी संकल्पना व स्थिति से वाक़िफ होते। तदनुसार देखने के अपने कार्यक्रम बनाते…। कुल मिलाकर एक समृद्ध नाट्य-परंपरा व आह्लादक रंग़-संस्कृति के दर्शन-प्रदर्शन व अनुभव होते थे।

इस उत्सव की शुरुआत 1996 में हुई। प्रमुख नियामक रहे – कमलाकर सोनटक्के। तब से लेकर 1916 तक मैं इस उत्सव का नियमित साक्षी रहा…। जब तक उत्सव का कार्यक्रम घोषित न होता, सितम्बर महीने में बाहर जाने का कोई कार्यक्रम स्वीकार न करता था। एम.ए. की छात्राओं को इसी नाट्योत्सव पर प्रकल्प लिखने का का विषय दे देता था। साढ़े नौ बजे रात को छूटकर विरार जाने की उनकी आदत पड़ जाती थी। इन सबसे इस आयोजन के साथ निजी व कलात्मक लगाव हो गया था। प्रेस वालों के उसके लिए

फिर सेवामुक्त होने के बाद बनारस रहने चला गया, तो सितम्बर में बड़ी याद आती रही। अब फिर मुम्बई में होना सुनकर आयोजक प्रमुख प्रकाश पवारजी ने याद किया, तो बड़ा अच्छा लगा। लेकिन उत्सव में आने पर पूरा नजारा बिलकुल बदला हुआ मिला…इस बार तो प्रेस वालों की क़तार भी खोजनी-पूछनी पड़ी, वरना तब एक कतार सुरक्षित होती। वहाँ पट्टिका (बोर्ड) लगी रहती और क़तार दर्जनाधिक संवाददाताओं-समीक्षकों से भर जाती…।

इस बार पट्टिका थी नहीं, तो उसमें सब आम दर्शक भी बैठे थे। और देखने-लिखने वाले कभी दिख गये एक-दो लोग…वरना नदारद। इसीलिए यह सब लिख गया कि वर्तमान आयोजक-व्यवस्थापक उस समृद्ध परंपरा को फिर से स्मरण करें और अगले सालों में उसे पुनरुज्जीवित करने के प्रयत्न करें…तथा पढ़कर लोग भी पुन: जुड़ने का मन बनायें…।

‘दृष्टि दान’ हिन्दी नाटक

उत्सव के हिन्दी नाटक – हिन्दी के दोनों नाटक सामाजिक सरोकारों वाले रहे। एक तो सरनाम ऐतिहासिक ‘इप्टा’ का था – ‘दृष्टि दान’ और दूसरा था – राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से पढ़ के निकले और अपने नाट्यकर्म की रजत जयंती मना चुके विजयकुमार के ‘मंच’, का आधुनिक क्लासिक ‘आधे अधूरे’। लेकिन दर्शकों की उपस्थिति दोनों में प्राय: समान थी। याने यह युग नाम के जलवे से नहीं चल रहा और बिना देखे ही काम के नाते चलने का प्रश्न नहीं, तो कैसे चल रहा, समझना होगा…।

लेकिन नाटक दोनों अच्छे थे और अच्छी तरह दर्शकों द्वारा समझे-सराहे गये। टैगोरजी विश्वप्रसिद्ध क्लासिक रचनाकार हैं, जिनकी ‘दृष्टि दान’ कहानी पर नाटक हुआ। लेकिन बहुत दुःख दिया इन लोगों ने लिखित में ‘दृष्टी’ दान करके। कितना दयनीय है कि हिन्दी में नाटक और नाटक का नाम भी सही नहीं लिख सकते!! ख़ैर,

‘दृष्टिदान’ में मुख्य पात्र तो दो ही हैं – पति-पत्नी के रूप में विकास-कुमुद, लेकिन कुमुद के भाई बोडो दा को मिलाकर तीन पकड़ लें, क्योंकि मंच पर अपेक्षाकृत बहुत कम समय रहने के बावजूद कथा में भाई बोडो दा की भूमिका निर्णायक है। इस नाटक का कुल समय भी कम है – इतना कम कि इतनी दूर-दूर से आये दर्शक को पोषाता नहीं। आयोजकों को ख़्याल होना चाहिए कि पूर्णकालिक नाटक रखें या फिर अल्पकालिक हो, तो सेट परिवर्तन का समय देखके दो रखें…। बहरहाल, ‘दृष्टि दान’ में इसी कम समय के दौरान छोटे-छोटे कार्य वाले पात्रों की बस आवाजाही भर काफ़ी बार है। अंजन जैसे बड़े कलाकार की भूमिका चंद मिनटों की है – नियोजन ऐसा कि चेहरा ही नहीं दिखता और प्रभाव ऐसा कि जल्दी से भाग जाने के लिए आये हैं। इसे उनके क़द का सदुपयोग भी कह सकते हैं या किसी की अनुपस्थिति में ‘भरती’ हुई हो। लेकिन छोटी-सी भूमिका के लिए मंच पर आने में उनकी उदारता भी उल्लेखनीय है, जो नाट्यमय (थिएट्रिकल) वृत्ति भी कही जायेगी। मेरा कयास है कि यह आवाजाही कम होती, तो कसाव बढ़ता, लेकिन इतने लोगों को भूमिका नहीं मिल पाती। तो क्या भूमिका देने के लिए नाटक को ढीला रख देना उचित है? ऐस न होता, तो नाटक में सघनता (कम्पैकटनेस) आती। ज्यादा अच्छा सधता, वरना इन्हीं सबसे प्रस्तुति का अपेक्षित कसाव जाता रहा। फिर भी यदि प्रस्तुति बिखरती नहीं, तो यह कमाल रमेश तलवारजी का ही है। उधर ‘मंच’ प्रस्तुत ‘आधे अधूरे’ भी मोहन राकेश लिखित मौलिक नाटक है। इसमें निर्देशन के साथ चार पुरुषों की भूमिका भी विजय कुमार ने की ही और शेष पात्र भी चार ही थे – पत्नी सावित्री, दो बेटियाँ एवं एक बेटा – याने कुल मिलाकर आठ पात्र एवं पाँच कलाकार। ‘आधे अधूरे’ अपनी बनावट व बुनावट में इतना कसा हुआ है कि कोई किसी लटके-झटके से चाहे भी, तो बिखराने का मौक़ा ही नहीं है।

लेकिन इस सबका मुख्य कारण है – लेखन, जिसमें विजय ने छोटा सा सम्पादन भी किया है, पर वह नज़र में नहीं आता। राकेश ने दो अच्छे नाटकों के बाद ‘आधे अधूरे’ लिखा। इसलिए दोनों के अनुभवों के परिणामस्वरूप इसमें लेखन-कला का कौशल अपने चरम पर है, जिसका पूरा इस्तेमाल विजय करता है। जबकि रवींद्रजी ने तो विपुल नाट्य-लेखन भी किया है। विशुद्ध नाटकों के साथ उनकी लिखी नृत्य-नाटिकाएँ व गीतिनाट्यों को मिला लें, तो 50 से ऊपर ही रचनाएँ होंगी। इसके बावजूद कवींद्र ने तो इसे नाटक रूप में लिखा नहीं, कहानी-रूप में ढाला…, तो कोई मर्म रहा होगा। फिर भी सरहदीजी ने इसे ही नाटक बनाया, रमेशजी ने पेश किया, तो कोई कला-मर्म इनमें भी रहा होगा, क्योंकि कला में ‘इदमित्थम्’ (यह ऐसा ही है) कभी नहीं होता – चाहे वे विश्व-सम्मान से विभूषित टैगोरजी ही क्यों न हों!! सो, यह प्रस्तुति कहानी के नाट्य रूप पर सोचने का अवकाश देती है। बहरहाल,

दोनों की कथा के केंद्र में विवाहिता नारी (जीवन) है और यहीं से दोनों की वृत्तियाँ एकदम अलग राहों पर चलती हैं, क्योंकि दोनों के कालखंड में अंतर भले शायद 50 साल का ही हो, पर जमाना और जीवन की प्रवृत्तियाँ एकदम बदल गयीं। तब समर्पण और त्याग एक बड़ा मूल्य था – ख़ासकर स्त्री के लिए। दुनिया उससे चलती भले न रही हो, पर जीवन का मान्य आदर्श वही था। ‘दृष्टि दान’ की कुमुद यही करती है और आदर्श की तरह नहीं, गहन प्रेम की तन्मयता से करती है – ‘मैंने जज़्बात निभाये हैं उसूलों की जगह’ की तरह। पति मेडिकल की पढ़ाई कर रहा है, तो उसकी आँख का इलाज वही करेगा। भाई और सारी दुनिया मना करती है, दूसरा डाक्टर बता देता है कि इलाज ग़लत हो रहा है, तब भी नहीं मानती…यह एक बात है। परंतु आँख फूट जाती है, अंधी हो जाती है, इसका ज़िम्मेदार पति ही है, यह जानकर भी कुमुद उसकी गलती नहीं मानती…यह अजीब है। और यही तब आदर्श था। लेकिन आज के युग में इतना भावुक होना, ऐसे अवैज्ञानिक सोच और अंधे विश्वास को कौन स्वीकारेगा। सो यह इतिहास का निदर्शन मात्र है, मौजूँ नहीं। ख़ैर,

इसके बाद जिसके प्यार में वह अंधी होकर भी ख़ुशी-ख़ुशी रहने को तैयार है, वही पुरुष दूसरी औरत लाना चाहता है। उसके लाने के पहले तो कुमुद स्वयं कहती थी – ले आओ, लेकिन जब आने वाली है, तो बिलखना-बिखरना क्यों? ख़ैर, स्त्री का दुखी होना कोई नयी बात नहीं, यहाँ अटपटा अवश्य बन गया है। कुमुद व्यग्र बहुत होती है, पर पति की शादी हो भी जाती, तो भी यह भारतीय नारी कोई पौढ़ (बोल्ड) निर्णय लेती…, इसमें संदेह है। तो घोषित-पोषित रूप से प्रगतिशील मूल्यों वाला प्रस्तोता रंग़ समूह ‘इप्टा’ आज के युग को क्या देना चाह रहा है – पुरुष के उसी छलावा के लिए नारी का आदर्श??

वो तो कुमुद का भाई अपनी बहन को बचाने के लिए बिना किसी से बताए उस लड़की से शादी कर लेता है, तो पति विकास महोदय ‘अशक्ये परमं साधु:’ (मजबूरी में सज्जन) बनकर कुमुद से माफ़ी माँगते हैं, पत्नी रूप में उसे सचमुच का अपना लेते हैं…। शायद यह अपनाना ही वह दृष्टि है, जिसे ‘दृष्टि दान’ कहा गया है, पर यह कितनी विवश व आरोपित है!! इसी प्रक्रिया को उस काल में हृदय-परिवर्तन के नाम (टर्म) से जाना जाता था – गांधीजी के ख़ास साधन के रूप में भी। यह है सब कुछ (लुटा) करके होश में आने वाली दृष्टि, जिसका दान तब कवींद्र ने किया था, जब दूसरे रास्ते न थे। यह उस युग की सीमा थी। लेकिन आज जब सारे रास्ते हैं, ऐसे दान की दृष्टि देकर ‘इप्टा’ क्या चाहता है? यह दान भी पुरुषपरक है। इसमें नारी कहाँ है? ऐसे में इप्टा ने इसे क्यों किया, नेहरू सेंटर ने क्या देख के उत्सव में लिया – क्या इप्टा का नाम? न समझ में आता, न आने वाला है।  

नेहरू नाट्योत्सव
‘हास्ता हा सावता’ मराठी नाटक

(यहाँ एक क्षेपक – जब नयी शादी के बाद दोनों में अफाट प्रेम दिख रहा था और पति की दवा से पत्नी के अंधे होने के आसार दिख रहे थे, मै अनुमान कर रह था कि प्रायश्चित्त स्वरूप पति अपनी एक आँख दे देगा – यही ‘दृष्टि-दान’ होगा और सोच रह था कि तब शल्य चिकित्सा में यह शोध हुआ था या नहीं…!!) 

इसी कुमुद-वृत्ति को नकारती हुई आती है ‘आधे अधूरे’ की सावित्री, जिसे सारे भौतिक सुख चाहिए। जब तक पति से मिले, ठीक। लेकिन जब इसी सुख की पूर्त्ति करते-करते प्रेमी-पति महेंद्र एक दिन दीवालिया बन जाता है, तो वह किसी के भी साथ से वह सब पाना चाहती है। तब एक बड़ी पोस्ट वाला, एक बड़े पैसे वाला और एक बड़े सुंदर रूप वाला…उसके जीवन में आते हैं…या वह लाती है। यह है आज के भोग (एंज्वाय द लाइफ़) का युग। एक सिरा थी कुमुद, तो दूसरा छोर है सावित्री। कुमुद का आदर्श तब झूठा था, सावित्री का आज का यथार्थ भी सही नहीं है। सच तो यह किसी भी समय का हो नहीं सकता। इसलिए राकेश ने ऐसी भोगवादी अंध-अमानवीय दृष्टि की असलियत का पर्दाफ़ाश करके सही ही किया है। ऐसा करके सावित्री अब सबसे उपेक्षित-ख़ारिज होकर अपने उसी पति-घर में रहने को मजबूर है – साहिर सार्थक होते हैं – ‘मजबूर हूँ मैं, मजबूर हो तुम, मजबूर ये दुनिया सारी है, तन का दुःख मन पर भारी है’। बच्चे-पड़ोसी…आदि के ज़रिए समाज द्वारा भी सावित्री की इस वृत्ति को नकारा जाना कृति-प्रस्तुति में बहुत स्पष्ट है – याने मोहन राकेश ने इस अफाट भोग के युग को भी आईना दिखा दिया। काश, आज का समय इसमें अपनी तस्वीर देख पाता …। इस प्रकार दोनों नाटकों को मिलाकर इस आयोजन में उस युग और आज के युग -याने तब औ अब- के अगुआ (लीडिंग) जीवन मूल्यों की विवेचना हो गयी है – दोनों के अतिवाद को उघाड़ा जा सका है।

‘आधे अधूरे’ में अपेक्षाकृत कम पात्रों के चलते उस बड़े मंच के अगले हिस्से का ही उपयोग किया गया, जिससे प्रस्तुति की सघनता (कम्पैक्टनेस) बनी रही। ‘दृष्टि दान’ में खड़े होकर बातें करने में आगे भाग के उपयोग और घरेलू दृश्यों को पीछे रखने की माकूल व्यवस्था बनी। घर के दृश्यों में दोनों ने ही कम से कम याने सिर्फ़ ज़रूरी मंच-उपकरणों के इस्तेमाल किये, जिससे सादगी बनी और नाट्य का बेहतर रस मिला। ‘आधे अधूरे’ में पात्रों के बीच कहा-सुनी व आपसी टकराहट के जमे हुए दृश्य अधिक हैं, जिससे नाट्य-रस का मज़ा खूब आता है और उनके अभ्यास इतने मंजे लगे कि नाट्यमयता के सघन आनंद की स्थिति  बनी। ‘दृष्टि दान’ में टकराहट के दृश्य बनते ही कम हैं और प्रेम के दृश्य में आवेग-जोश कम, समर्पण का भाव ज्यादा है, जिससे कमनीयता आती है, नाट्य दबा रह जाता है।

यही हाल अभिनय का है। खुलकर खेलने के अवसर नहीं हैं ‘दृष्टि दान’ में, लेकिन सभी कलाकारों ने अपना सर्वोत्तम दिया है। मुख्य भूमिका में प्रियाली घोरे ने कुछ अधिक मुतासिर किया, जिनके सामने अविनाश बने विकास रावत किंचित दबे रहे – क्या पति की भूमिका के द्वैध के चलते? द्वैध दोनों – आँख ख़राब होते जाने के बावजूद दवा करते जाना और बाद में अपनी शादी का उपक्रम। हाँ, अपनी धज और आवाज से बोडो दा बने नीरज पांडे खूब फबे – क्या अपने रिश्ते व कारगर भूमिका के भी चलते? बाक़ी कलाकर पूरक की हैसियत में ठीक ही रहे। रमेशजी तलवार का ‘भीतर हाथ सहारि दै’ का प्रभाव खुल कर दिखता रहा, जो प्रस्तुति का सबसे खूबसूरत आयाम है।

‘आधे अधूरे’ की प्रस्तुति हर पक्ष में बहुत असरदार रही। सबके अभिनय की अपनी-अपनी ख़ासियतें ऐसी हैं कि इस निर्मिति (प्रोडक्शन) में पहले की देखी दर्जन भर निर्मितियों के बावजूद नाटक बिलकुल नया लगता है। प्रस्तुति की सबसे ख़ास बात है कि इसमें न कोई बड़ा नाम है, न किसी पक्ष में बड़ा बनने-बनाने के सरंजाम हैं। जैसे आलेख में बड़ी शिद्दत से प्रविष्ट हुआ गया हो और बेहद आत्मीयता से उसे महसूसा गया हो और उसके साथ एकाकार होकर निकला गया हो…। फिर जो सहज ही एकम-एक होने से नैसर्गिक प्रभाव बनता है, उसका मूर्त्त मिसाल बन जाता है प्रयोग, जो नेहरू में नाटक के बाद लोगों की प्रतिक्रियाओं में भर-भर के निकल रहा था। कहना होगा कि नाट्य का मानक पेश करता है यह प्रयोग। इसके लिए सधे-मंजे निर्देशन के साथ चारो पुरुषों की भूमिका को वैविध्यपूर्ण ढंग से निभाने वाले विजय कुमार तो प्रमुख कर्त्ता-धर्ता हैं ही, शेष चारो ने भी अपने दायित्त्वों को भरपूर अंजाम दिया है…लगभग पूरे समय मंच पर रहते हुए सावित्री के कई-कई भावों-कार्यों-भेदों…आदि को साधने वाली गीता त्यागी तो प्रस्तुति की परान ही हैं। फिर मां के प्रेमी के साथ शादी करके पति की शंकाओं-तानों को सहते हुए भी मां को सबसे ज्यादा समझने वाली तथा दोनों घर को निभाने में टूटती हुई बड़ी बेटी बिन्नी बनी जेबा अंजुम…, पिता की बेबसी और मां की ज़्यादती को समझने के आक्रोश-उबाल व आत्मरति में एक साथ डूबा बेटा अशोक बना आशुतोष खरे और इन सबके कारनामों से बनी व समूचे असर को झेलती-झल्लाती किन्नी बनी वाणी शर्मा ने मिलकर ‘आधे अधूरे’ की इस निर्मिति को जिस तरह पूरा है, निखारा है, उसको तीन बार देखने के बाद अब लग रहा है कि यह ‘मील का पत्थर’ बनता जा रहा है…।

साम्राज्यम हिन्दी नाटक

उत्सव के अन्य नाटक शुभारम्भ ही ‘अभिनय कल्याण’ सामूह के नाटक ‘साम्राज्यम’ से हुआ। नाटक की संकल्पना बहुत ज़हीन है। लेखक जगदीश पवार ने इसमें आज की राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार, परिवार-वाद, एक दूसरे को ठग कर सत्ता पाने..आदि को दिखाने की कोशिश की है, पर इसके लिए रामायण-कथा की प्रतीकात्मकता को उठा लिया है। यही उसकी उपलब्धि भी है और सीमा भी। इसके बिना नाटक, नाटक न होता और इसी से नाटक बन नहीं पाया नाटक जैसा। बड़ा कारण यह कि तब और अब के मूल्यों व साधनों में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ है। और रामायण की कथा काफ़ी लम्बी व बहुआयामी है। वैसा सब दो घंटे के नाटक में आज के साथ-साध साध पाना सम्भव न था। लिहाज़ा, दोनों की समानांतरता न निभ पाती, न ज्यादा समझ में ही आ पाती। रामायण के कथानकों में खूब उछाल के साथ उठायी घटनाओं के दृश्यांकन में निर्देशक अभिजित झुँझारो को गाढ़े-भड़क आहार्य (बहुरूपी वेश, रंग़-बिरंगी सज्जा व मेकअप…आदि) के साथ दैहिक उठापटक, बनावटी-तेज आवाज़ें और अन्य कारनामे…आदि दिखाने में उलझ जाना पड़ा है। यही सब कुछ एक जैसे करते हुए सारे कलाकर टाइप्ड हो गये – उनकी पहचान खो जाती है। 

दोनों के बीच में रामायण ठीक से आ पाया, न ही आज की कारस्तानियाँ अपने सही रूप में समा पायीं। सब इतना प्रतीकात्मक हुआ कि अमूर्त्त हो गया। समझने चलें, तो सारे घटाटोपी आयोजनों को भेद न पायें, तब तक नया दृश्य शुरू हो जाये…। बस, सत्ता पाने की क्रूरताएँ-सजाएँ…आदि खूब मुखर रहीं, जिनसे सारांश समझ में आ गये। प्रयोग की कोशिश सराहनीय ज़रूर है। एकाधिक बार देखने पर शायद कुछ ज्यादा समझ में आ जाये, तो अच्छा भी लगे। इस बार इतना ही आया। इस तरह ‘साम्राज्यं’ के लायक़ हमें भी बनना होगा और हमारे लायक़ बनाने के लिए नाटक को भी थोड़ा नमनीय होना होगा…।

‘पप्पा मारा पुष्पराज’ गुजराती नाटक

गुजराती नाटक ‘पप्पा मारा पुष्पराज’ के लेखक हैं – गौरव नाइक और निर्देशक हैं – हरिकृष्ण  दवे। पक्का (टिपिकल) गुजराती नाटक है – ऐसी कॉमेडी कि दिल-दिमाग़ घर रख के सिर्फ़ देखने की आँख और किसी भी बात पर अनायास हंसने के लिए मुँह लेके जाइए, तो मस्त होके बैठिए और प्रफुल्ल मना होके आइए – खाके सो जाइए। यही गुजराती नाटक की प्राय: मुख्य धारा है। हमारी हिन्दी फ़िल्मों में हास्य के साथ स्टंट वाली मुख्य धारा की तरह।

नयी पीढ़ी में अपनी दिखावटी प्रतिष्ठा (स्टेटस) की एक प्रवृत्ति है – होती है। हमारी किशोरावस्था में ऐसे उदाहरण बने, जब गाँव से धोती कुर्ता पहने सीधे-सादे पिता अपने बेटे के मॉडर्न (आधुनिक न कहें) दफ़्तर में आ गये, तो बेटे ने उन्हें अंग्रेज़ी में घर के नौकर के रूप में परिचित नहीं, ‘इंट्रोड्यूस’ करा दिया। ऐसी ही अपवाद स्वरूप घटना का सीरांजा ऐसा गढ़ा गया है नाटक में – गोया यही जीवन की मूल वृत्ति हो। 

इसमें पिता की अपनी छोटी सी दुकान है। खाँटी आदमी हैं। झूठी प्रतिष्ठा के लिए दिखावा करेंगे नहीं। सो, बेटा अपनी उच्च वर्गीय प्रेमिका व उसके पिता से झूठ बोलता है। पड़ोसी को पटाकर अपने ही घर में बड़ा आदमी बनाकर मिला भी देता है। इस काम में मां भी बेटे के साथ है। यह सरंजाम भी नाटक का ढाँचा भर है। इसमें भरी गयी हैं ऊलजलूल स्थितियाँ और फ़ालतू के हिट संवाद और बोलने के सस्ती मनोरंजन-उत्तेजक अदाएं…जिनके  सटीक टाइमिंग के साथ सधे अदा-ओ-अंदाज अद्भुत रूप से नाटकीय बन पड़े है। उन कलाकरों को ऐसे द्रविड़ प्राणायामों के लिए सलाम तो बनता है। यदि दो-चार बार होता – दाल में छौंक की तरह, तब तो स्वाद बनता, तृप्ति मिलती। लेकिन यहाँ छौंक ही दाल होती है, जिसकी छन्न-सी आवाज भर उठती है – न कोई आस्वाद, न तृप्ति। नाटक देखने की अपनी प्रतिबद्धता न होती, तो छोड़ जाते…।

लेकिन बैठे रहे…तो दर्शकों को ऐसे गदगदायमान देखा कि उन पर तरस व नाटक की नियति पर ताज्जुब होता रहा…। लेकिन जानते हैं कि ये लोग दिन भर लाखों कमाने के चक्कर में दिमाँग का दही बना लेते है, तो शाम को हज़ार खर्च करके गुलछर्रे उड़ाने में राहत महसूस करते हैं। और सयाने नाटक वाले उनकी इस स्थिति से लाखों कमा रहे हैं। ये एक दूसरे के खून और जोंक हैं। यह सलमान टाइप स्टंट सिनेमा के फ़िल्मोद्योग की तरह फूहड़ता का नाट्योद्योग (ड्रामा इंडस्ट्री) है।

अंत का पता था कि लड़का सुधर जायेगा – बुराई पर अच्छाई की विजय होगी…। तो वह हो गया। लेकिन उसके पहले जिस तरह से पिता को जलील करता है लड़का, वह सारी संस्कृति व सारे सम्बन्धों का जनाजा उठाना सिद्ध होता है – बैठे रह जाने का पछतावा होता है। माना कि अपवाद ऐसे होते हैं, पर ऐसे विरल (रेयर) अपवादों को आम जीवन की विशिष्ट समस्या बना कर पेश करना तो जीवन और कला दोनों को चौपट करना है। ख़ैर, ‘अंत भला, सो जग भला’। बोलो – सिया वर रामचंद्र की जय, पवन-सुत हनूमान की जय…।

लेकिन उस शाम ‘कॉमेडी’ नाम ऐसा से ऐसा पका कि अन्तिम दिन के नाटक के लेखक मेरे पढ़े हुए उपन्यास ‘बालगंधर्व’ वाले अभिराम भड़कमरकर एवं नामचीन निर्देशक कुमार सोहोनी के बावजूद नाटक के नाम ‘हँसता हंसावता’ से मेरे ऊपर चचा ग़ालिब तारी हो गये –

ख़ुदा के वास्ते पर्दा न काबे का उठा ज़ालिम। कहीं ऐसा न हो, याँ भी वही काफिर सनम निकले…।

और मैं पर्दा उठता देखने गया ही नहीं – मुआफ़ करना भाइयो…!!

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सत्यदेव त्रिपाठी

लेखक प्रसिद्ध कला समीक्षक एवं काशी विद्यापीठ के पूर्व प्रोफ़ेसर हैं। सम्पर्क +919422077006, satyadevtripathi@gmail.com
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