रंगमंच

जीवन और रचना : आमने-सामने

 

निदा फ़ाज़ली का शेर है –

‘कहानी में तो किरदारों को जो चाहे बना दीजे; हक़ीक़त भी कहानी-कार हो, ऐसा नहीं होता…

इसी हक़ीक़त के साथ दो-चार होते हुए सुपरिचित नाटककार योगेश त्रिपाठी ने नाटक लिखा है – ‘अपने ही पुतले’, जिसमें नाटककार के सामने खड़े होते हैं किरदार। वे लेखक से सवाल व बहस करते हैं कि उसने उन्हें ऐसा क्यों बनाया…। इससे प्रकट रूप में यह नाटककार व पात्रों की समक्षता (आमने-सामने होने) का नाटक लगता है। लेकिन वस्तुतः यह पात्र व लेखक के माध्यम से रचना और जीवन के बीच की कश्मकश का नाटक है, क्योंकि एक नाटककार अपने देखे-भोगे जिस जीवन को व्याख्यायित करता है, उसके माध्यम ही तो हैं ये पात्र-घटनाएँ…याने वे जीवन से बावस्ता हैं और लेखक ने उन्हें गढ़ा है, रचा है,– ‘अपने पुतले’ क़हने का यही मर्म है, लेकिन नाटक उन पुतलों की अपनी इयत्ता की भी कथा है। सो, यह नाटक रचना और जीवन के सम्बन्धों-सरोकारों का विमर्श लेकर उपस्थित हुआ है।

नाटक यह भी सिद्ध करता है कि लेखक के अंतस् में रचना की पैठ हो, रचनाशीलता सच्ची हो और नीयत साफ़ हो, तो वह किसी परिवेश व स्थिति का मोहताज नहीं होता…वरना रींवा जैसे अपेक्षाकृत छोटे शहर में बैठा और बैंक में नौकरी करने वाला व्यक्ति (योगेश त्रिपाठी) रचना और जीवन के रिश्ते -बल्कि जीवन के रचना में उतरने की जटिल प्रक्रिया तथा उसमें लेखक-पात्र की पारस्परिकता का इतना सटीक विश्लेषण इतनी सहजता से न कर पाता।

इसी तरह दिल्ली में सीखी-कमाई रंगकला को मुम्बई में परवान चढ़ाते हुए निर्देशक योगेश शर्मा द्वारा ‘ओंकार थिएटर समूह’ व ‘बेस्ट वे मोशन पिक्चर्स’ (हिन्दी नाटक कम्पनियों के नाम किस कुंठा से अंग्रेज़ी में होते हैं!!) के बैनर तले किसी पूर्वग्रह व प्रदर्शनाई ताम-झाम के बिना सीधे-सीधे जस का तस इसे मंच पर उतारने की सादगी व सफ़ाई भी सिद्ध करती है कि रचना को अपना बनाने के बदले रचना के हो जाओ –‘असाध्य वीणा’ के केशकंबली की तरह…। बस, रंग़-प्रस्तुति की वीणा आपोआप बज उठेगी…।

तभी तो सारी सुविधाओं से हीन नाट्य-स्थल पर भी इतना कारगर मंचन हो सकता है। असल में यह भी आज के थिएटर का एक उल्लेखनीय मंजर है कि जैसे रक्त-संचरण की मुख्य शिराओं के अवरुद्ध (ब्लॉक) हो जाने पर मनुष्य का हृदय कभी-कभी बाइपास की तरह कुछ शिराएँ खोल लेता है, उसी तरह नाटक वालों ने दिल्ली-मुम्बई जैसे बड़े शहरों में भी तमाम कारणों से मुख्य व सरनाम नाट्यगृहों की असुलभता के चलते कई-कई सामान्य स्थलों को नाट्यगृह में तब्दील कर लिया है और दर्शकों का भी पूरा सहयोग मिल रहा है –बल्कि महँगे टिकटों से उन्हें भी राहत मिल रही है…। यह सब थिएटर के स्वास्थ्य के लिए बहुत शुभ है। उससे शुभ यह है कि करने वाले सारी मेहनत करके, घाटा सह के, जोखम उठा के कर रहे है। सातबंगले इलाक़े की आराम नगर कॉलोनी में ऐसे ही बने नाट्य-स्थल ‘वेदा फ़ैक्ट्री स्टूडियो’ में आमंत्रित के रूप में इस नाटक को देखने का अवसर मिला।

देखा कि करने की स्थितियाँ कठिन हैं। गतियों के लिए जगह नही है। नृत्य फिर सीमित स्थल में कलाकार कर रहे हैं। बहुत समृद्ध-सटीक वेश-भूषा नही है। और इनसे गाँवों में जीते एक परिवार का जागता दृश्य बनता है…तो यह सब नियोजित है – सोद्देश्य है। यथार्थवादी नाटक का पक्का सरंजाम है। श्वेता मौंदल का संगीत उसी के अनुरूप है। सारा दारोमदार प्रकाश-योजना का है, जिसे दनयनेश्वर गोपीनाथ ने समझदारी के कौशल से सम्भाला है। इस जगह और इसमें काम करते पात्रों को देखकर शुरू में कुछ अटपटा, नाट्य की लियाक़त के लिए संदेहास्पद-सा लगा। सबसे अधिक शंका लेखक बने विकास कुमार को लेकर हुई – वही पहले उभरे मंच पर…। फिर जमादार दुबेजी बने उत्कर्ष राज नुमायाँ हुए – ठेंठपना-सा लगा।

सविता बनी आफ़रीन खान ने कुछ विश्वास जगाया। बालाजी सिंह राजपूत आये बब्बू बनके, तो काफ़ी ढब्बूजी लगे। याने सबकुछ यूँयूँ-सा ही। बीच-बीच में बिट्टो के रूप में घरेलू, सु-मन बच्ची लगीं चाँदनी मेश्रान। किंतु जब हम पृथ्वी-एनसीपीए…आदि जैसे पॉश नाट्यागृहों के आदी भी उस नये थिएटराना माहौल से समरस होने लगे और उक्त यथार्थवादी विधान का घरेलू प्रभाव लोकमयता के साथ रसे-रसे मन में समाने लगा, तो प्रस्तुति उठने लगी…लगा कि निर्देशन की संकल्पना से यह सुनियोजित था, जिसे कलाकरों ने धीरे-धीरे साकार किया। उद्वेलित कर देने जैसा सबसे मनभावन यह लगा कि सभी किरदारों में एक जंक्चर ऐसा आया, जब आवेग से ऊपर उठती जलधार की तरह अभिनय का ऊर्जावान उत्कर्ष उफन कर बह उठा…। इसके लिए भी सबके ऐसे स्थल शायद चुने (प्वाइंट आउट किये) गये थे, जो हर किरदार के भी चरमोत्कर्ष (कलाइमेक्स) थे और अभिनय के भी। और इत्तफ़ाक़ कहें या सुनियोजन, सबके ऐसे प्रवाह लेखक के सामने वाले संवाद-दृश्यों में ही बने और प्रस्तुति के और्गाज़्म (कामोन्माद) सिद्ध हुए…। मन हो रहा कि खुमार साहब का शेर सुना ही दूँ – ‘हुस्न जब मेहरबाँ हो तो क्या कीजिए, इश्क़ की मगरिफ़त (मोक्ष) की दुआ कीजिए’…। वैसे ही अभिनय व नाट्य-कला के भी चरम…दर्शकता की सार्थकता के सरंजाम बने…।

आमने-सामने

अब नाटक पे आएँ… ‘अपने ही पुतले’ नाटक एक विवाहित लड़की याने स्त्री की आत्महत्या के रूप में हुई हत्या का बेहद संवेदनशील मामला है, जो हमारे समाज में काफ़ी आम रहा है। इस घटना को नाटक के शुरू होते ही सबसे पहले परछाईं-दृश्य के माध्यम से दिखा देने की लेखकीय युक्ति और निर्देशक द्वारा उसका हू-ब-हू रूपायन बड़ी सूझ-बूझ वाला सिद्ध हुआ है, क्योंकि एक बार दिखा देने के बाद आगे चलकर मुख्य नाट्य-विधान के तहत इस बीज घटना को कहीं लाने की दरकार नहीं होती एवं दृश्य-दर-दृश्य इस मंज़िल की ओर बढ़ते नाटक के सूत्र जुड़ते जाते हैं…। यह शुरुआत नाट्य-विधान (फ़ॉर्मेट) का यूँ भी मानक बनती है कि आरम्भ में ही अंत का पता हो जाने पर भी दर्शक में जिज्ञासा व रुचि वैसी ही बनी रहती है। नाटक पर कोई असर नहीं पड़ता। फिर इसी युक्ति का सहारा निर्देशक लेता है – लेखक के सामने हर पात्र के प्रकट होने के समय शेष सारे पात्र मद्धम रोशनी में परछाईं की तरह मंच पर घूम रहे होते हैं– गोया उनकी बेसब्री बेक़रार हो बोलने के लिए…।

मूल नाट्य-विधान (फ़ॉर्मेट) बहुत साफ़ है, लेकिन सादा नहीं। नाटक के पात्र अपनी शिकायतें लेकर लेखक के पास आते हैं। बल्कि यूँ कहें कि पहला पात्र आता है और उससे सहूलियत पाकर लेखक बाकियों के आने की इच्छा करता है और वे प्रकट होते रहते हैं। उनके आने के क्रम में ही नाटक और उसके बनने के गुर छिपे भी हैं, खुले भी हैं। यूँ कुल छह पात्र हैं और लेखक को पता ज़रूर होगा उस इटैलियन नाटक ‘सिक्स कैरेकटर्स इन द सर्च ऑफ ऐन ऑथर’ का…।

लेकिन इस नाटक में चार पात्र ही संवाद करते हैं। लिखने की मेज़ पर रचना-रत क्षणों में उसकी चेतना में चमकते (फ़्लैश होते) हुए उभरते हैं पात्र…। तो एक यह दृश्य-स्थल ज़ाहिर है मंच के एक किनारे छोटा-सा होगा। यहाँ समस्याओं के सिरे बातों में शुरू भर होते हैं। फिर धीरे-धीरे प्रकाश बुझता है और प्रकाशित होता है लड़की की ससुराल वाला घर, जहां सारी घटनाएँ होती हैं। तो इसी क्रम में कहानी घर में बनती-चलती है और बहसें यहाँ लेखक की मेज़ पर होती हैं…। ये बहसें कृति-प्रस्तुति की बुद्धिवादी निधियाँ हैं, जिनके विवेचन के लिए यहाँ अवकाश नहीं– आपको मंचन या मूल पाठ से गुजरना होगा…।

 

इन आवा-जाहियों में कभी लेखक का लिखा हुआ पात्रों के जीवन से प्रमाणित होता है और कभी पात्रों का जीवन सवाल खड़े करता है लेखक व लेखन के समक्ष। शुरुआत दुबे जमादार नामक उस पात्र से होती है, जिसकी दूसरी बेटी बिट्टो की आत्महत्या नाटक के निष्कर्ष का निकष है, लेकिन नाटक बनता है – बड़ी लड़की के जीवन-प्रसंगों से। दुबे का पात्र जब पहली बार लेखक के पास आता है, वह अपने रचनाधीन नाटक के साथ जूझ रहा होता है। इसी पात्र के साथ लेखक की बातचीत नाटक का लगभग 35-40% हिस्सा घेरती है, जिसमें नाटक आकार लेता है – गोकि जमादार के साथ मूल बात शुरू होने में नाटक आवश्यकता से ज्यादा भटकता है। इसे मंचन में कम किया जा सकता है – छोटा नाटक होने के बावजूद।

जमादार पात्र के दो प्रवेश-निर्गम लगातार होते हैं, जो साध लिये जाते हैं, लेकिन साधा जाना इतना ज़ाहिर भी होता है कि इससे बचने का पता देता है। दोनों प्रवेशों में नाटक बनने का मुख्य कारण (मेन कॉज) भी सामने आ जाता है कि उसने पुलिस की अपनी सरकारी नौकरी का रुआब दिखाकर बेटी सविता की शादी तय भी कर ली है और उसी रौ में दामाद बब्बू के पिता की और नवासी होने के बाद पूरे घर की काफ़ी बेइज्जती की है। ये बातें लेखक के बताने पर जमादार स्वीकारता है – याने लेखक है पात्र के अचेतन का साक्षी। इससे झल्लाकर बब्बू ने ससुर को घर से निकाल दिया, फिर कभी न आने की चेतावनी दे दी है।  इसके लिए बेटी के बाप की दोयम दर्जे की सामाजिक स्थिति का रोना भी जमादार रोता है…।

इसके बाद संदर्भ की रौ में क़ायदे से दामाद बब्बू को आना चाहिए। लेकिन लेखक इच्छा करता है – जमादार की बड़ी बेटी याने बब्बू की पत्नी सविता से मिलने की…और नाटक को उसका सुफल मिलता है। बब्बू की कारस्तानियाँ सामने आ जाती हैं, ताकि उसकी पेशी पर उसे कटघरे में लिया जा सके। सविता बताती है कि बब्बू ने उसे काफ़ी यंत्रणा से गुज़ारा – छह साल तक उससे कोई सम्बन्ध न बना – संतानें यंत्रवत दैहिक प्रक्रिया की परिणाम हुईं। हर तरह की हिक़ारत-ज़िल्लत मिली। छोटी बहन बिट्टो को भी बब्बू ने खाने में ज़हर डाल देने जैसे जघन्य आरोप की बलि चढ़ाया। वह घर के सारे काम व जीजू की सारी टहल करती… फिर भी सुनियोजित ढंग से ग़लत लड़के से उसकी शादी करायी। लेखक से सविता गुज़ारिश करती है – ‘बिट्टो को मरने से बचा लो’। 

आमने-सामने

अब बब्बू आता है, तो शुरुआत का पता चलता है कि वह शादी न करके पढ़ना चाहता था। तिलक के दिन घर से भाग गया था, पर पैसे न होने से कहीं जा न सका। उसका दुःख है कि ससुर ने अपने पद के दबाव एवं पैसे के बल से उसे ख़रीद लिया। इसे वह कभी भूल न सका – घर-निकाला के दंड के बावजूद। वह इस आदमी को हारा-लुटा हुआ देखन चाहता था। इसलिए बिट्टू की शादी शराबी-जुआरी-अनपढ़ लड़के से करा दी। वह स्वीकार करता है कि वह एक मामूली आदमी है – ईर्ष्या-द्वेष-प्रतिशोध का पुतला। और उसने प्रतिशोध ले लिया। बिट्टो का पति उसके सारे गहने-पैसे तो उड़ा ही देता है, मरणांतक यातनाएँ देता है। वह जीजू से चिरौरी करती है, पर वह नहीं सुनता, तो अंतत: फाँसी लगा लेती है। दो पुरुषों के अहम के बीच पिसती लड़की को लेखक बचा न सका।

इस प्रकार कारण दिया ससुर ने, लेकिन जघन्य परिणाम तक पहुँचाया दामाद ने। लेकिन इस कथा में झोल बहुत हैं। लड़के का बाप इतना दयनीय नहीं होता, जितने रघुनन्दन प्रसाद हैं। इनके जितना नामालूम व नामाकूल तो कोई बाप भी शायद ही हो, जिसकी किसी भी बात में कोई भूमिका ही न हो – व्यक्तित्त्व-विहीन द्रष्टा तो क्या, काठ के उल्लू जैसा। उधर लड़की का कोई बाप शादी के बाद दामाद व उसके घर-परिवार का ऐसा अपमान कदापि नहीं करता। यहाँ वह जब तक पुलिस में है, आदमी नहीं बन पाता और जब पुलिस में नहीं रहा, तो सिर्फ़ लड़की का बाप होकर रह गया। दामाद ने बदला लेने के लिए उनसे बात करने की नौटंकी की और जमादार ने ज़िंदगी में उसी एक दिन बात करने वाले दामाद को बेटा मान लिया। उस दामाद के ज़िम्मे अपनी दूसरी लड़की को सौंप आया, जिसने उसे घर से निकाला था- उसके घर रहने छोटी बेटी आती ही कैसे है!! क्या दामाद ही एकमात्र शख़्स था, जो बिट्टू के होने वाले पति को जानता था। बेटी सविता से क्या कोई बात नहीं होती थी कि दामाद के बारे में जान पाये। याने सब कुछ ऐसा ही है, जो न त्रिकाल में घटे, न जिस पर कोई सामान्य आदमी भी विश्वास करे…!! पढ़े-लिखे लोग, नाटक करने वाले लोग कैसे कर लेते हैं!! इस तरह जो भी है, निहायत अपवाली है। सभी अपने-अपने सीमांत (एक्सट्रीम) पर खड़े हैं। तर्कातीत हैं। इनके जैसे लोग खोजे से भी शायद ही कहीं मिलें…और यहाँ सब एक ही साथ मौजूद हैं – यह परिवार ही पूरा अजायबघर है…।

लेकिन यह विकृति (मॉर्बिडिटी) वस्तु की है – कथा-पात्र की। इसमें निहित दृष्टि विकृत नहीं है। इसके लिए लेखक के साथ संवाद करने आयी चौथी व अंतिम पात्र बिट्टो के पास चलना है, जिसके ज्वलंत यथार्थ प्रश्नों के आगे सब कुछ झुठला उठता है – सबसे अधिक लेखक, जो अपनी सरनामी के लिए, कमाई के लिए लिखता है। इसके लिए उसे हिट-हॉट वस्तु-पात्र चाहिए– साम्प्रदायिकता, दलित, हत्या, बलात्कार, घोटाले, दंगे-फ़साद…आदि। उसे हर कुछ का दोहन कर लेना है। इन मुद्दों को ख़त्म तो क्या, हल्के तक नहीं होने देना है। ताकि वह लिखता रहे, बिकता रहे, प्रसिद्धि पाता रहे…। पूरी लेखक बिरादरी पर थप्पड़ मारते हुए बिट्टो कहती है लेखक से – एक बिट्टो आत्महत्या करती है, लेकिन कहीं कोई दूसरी बिट्टो विरोध कर रही है, अब तो पीट भी रही है पति-परिवार को। वह तलाक़ भी ले रही है। दूसरी शादी भी कर रही है। आत्मनिर्भर हो रही है – शादी नहीं भी कर रही है…याने विकल्प ढेरों हैं –उसे लिखो। अब बिट्टो डिक्टेट करेगी लेखक को, इसका उसे हक़ है…। लेखक भी कहता है – मैं हार जाता हूँ अपने पात्रों से। और लेखकों की इन कटु सचाइयों को कहने वाले इस लेखक को सलाम और इसके संजीदा प्रस्तोता योगेश शर्मा का इस्तक़बाल…

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सत्यदेव त्रिपाठी

लेखक प्रसिद्ध कला समीक्षक एवं काशी विद्यापीठ के पूर्व प्रोफ़ेसर हैं। सम्पर्क +919422077006, satyadevtripathi@gmail.com
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