किस्सागोई की परम्परा के सूत्र भारत में मध्यकाल में मिलते हैं। उर्दू के साथ-साथ हिन्दी कथा साहित्य ने भी इसके अमल से लाभ उठाया है। अब्दुल बिस्मिल्लाह की कहानी की समीक्षा करते हुए संताल परगना से उभरे कवि राही डूमरचीर ने ऐसे ही और तत्त्वों की तलाश उनकी कहानी में की है। यह लेख हमें हिन्दी कहानी की परम्परा से परिचित कराते हुए उसके भविष्य के बारे में भी संकेत करता है। अब्दुल बिस्मिल्लाह पर केन्द्रित संवेद के आगामी अंक के लिए लिखा गया यह लेख संवेद के पोर्टल के लिए प्रस्तुत है।
कालक्रम की दृष्टि से ‘रानी केतकी की कहानी’ हिन्दी की पहली कहानी मानी जाती है। किसी कहानी पर सोचते हुए अक्सरहाँ मुझे उस अमर वाक्य की याद आ जाती है, जिसे उस्ताद इंशा अल्ला खाँ ने उस कहानी में लिखा था- “यह कैसी चाहत है, जिसमें लोहू बरसने लगा और अच्छी बातों के लिए जी तरसने लगा।“(https:/www.hindwi.org/story/rani-ketki-ki-kahani-insha-allah-khan-story) अब्दुल बिस्मिल्लाह पर सोचते हुए इंशा अल्लाह खाँ की याद आने का कारण यह भी है कि अब्दुल बिस्मिल्लाह ने भी क़िस्सागोई की परम्परा को अपनी कहानियों में जारी रखा। कहानी के तत्वों के आधार पर उक्त कहानी को आधुनिक कहानी नहीं माना गया परन्तु ‘अच्छी बातों’ के लिए तरसने वाली, चिन्ता करने वाली कहानी तो यह है ही। बाद में हिन्दी की वही कहानियाँ याद रह गईं या कालजयी साबित हुईं, जो अच्छी बातों के लिए चिन्ता करती हुई दिखाई पड़ती हैं, जो ‘लोहू’ बरसने या बरसाने की खिलाफ़त करती नज़र आती हैं।
अच्छी कहानी के सामने एक ही साथ सफल और सार्थक होने की चुनौती होती है। इसलिए इस सन्दर्भ में नामवर सिंह लिखते हैं, “कहानी की सफलता का अर्थ है कहानी की सार्थकता।” (नामवर सिंह, कहानी : नई कहानी, लोकभारती प्रकाशन : 2009, पृ. सं. 19)। मेरी दृष्टि में किसी भी कहानी की सबसे बड़ी ताक़त उसमें मौजूद कहानीपन होता है। यह लेखक की विषय, परिवेश और चरित्रों से परिचय पर निर्भर करता है। यह परिचय जितना गहरा होगा, कहानी भी उतनी परिचित महसूस होगी। साथ ही, किसी भी कहानी के मूल्यांकन के बारे में सोचते हुए मुझे समकालीन कथा-आलोचक राहुल सिंह की यह बात उचित प्रतीत होती है कि“… कहानी को परखने का कोई सुनिश्चित प्रतिमान नहीं होता है, जिसके आधार पर कहानियों का मूल्यांकन आँख मूँदकर किया जा सकता है। मेरा मानना है कि हर कहानी अपने मूल्यांकन के प्रतिमानों को अपने पाठ में छिपाए रखती है।“ (राहुल सिंह, हिन्दी कहानी: अन्तर्वस्तु का शिल्प, राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, संस्करण 2022)।
एक समीक्षक के लिए पाठ में छुपे उन प्रतिमानों या सूत्रों की टोह लेना, उसकी कहानी को देखने की दृष्टि पर निर्भर करता है। यह दृष्टि उसकी जीवन – दृष्टि से निर्मित होती है, जिसके माध्यम से वह हर पाठ से गुज़रता है। ‘रफ़ रफ़ मेल’ कहानी को बस की दृष्टि से भी देखा जा सकता है, या उस क़स्बे में सार्वजनिक परिवहन की ज़रूरत की दृष्टि से भी। ‘रफ़ रफ़ मेल’ पढ़ते हुए केदारनाथ सिंह की ‘टूटा हुआ ट्रक’ कविता की याद आती है। वहाँ जर्जर होते, साल भर से खड़े उस टूटे हुए ट्रक के एक दिन चल पड़ने की उम्मीद है-
“मेरे लिए ये सोचना कितना सुखद है
कि कल सुबह तक सब ठीक हो जाएगा
मैं उठूँगा
और अचानक सुनूँगा भोंपू की आवाज़
और घरघराता हुआ ट्रक चल देगा
तिनसुकिया या बोकाजान …” (https:/www.hindwi.org/Kavita/tuta-hua-truck-kedarnath-singh-kavita)
‘टूटा हुआ ट्रक’ में कवि को उम्मीद है कि एक-न-एक दिन यह ट्रक चलेगा। कवि को उसके चल पड़ने की आस है, जो उसकी सदिच्छा ज़्यादा है। ‘रफ़ रफ़ मेल’ में उस आस को सच में बदलने का जुनून है। वहाँ ट्रक का चलना उसकी सार्थकता से जुड़ा है और इस कहानी में ड्राइवर और बस दोनों की सार्थकता चलने में ही है। ‘रफ़ रफ़ मेल’ कहानी से गुज़रते हुए यह महसूस होता है कि आस न हो तो ज़िन्दगी बहुत मुश्किल हो जाती है। आस है, तभी जीवन में विश्वास और रवानी है। ‘‘रफ़ रफ़ मेल’’ कहानी के बद्दू मास्टर एक आस की वजह से ही पूरी निष्ठा से ज़िन्दगी जीने की क़वायद करते हुए दिखाई पड़ते हैं। अच्छी बात की चाहत, हालात को अच्छा करने की ललक उनके अन्दर है। उसी आस के कारण ही तो खटारा मान ली गई ‘रफ़-रफ़ मेल’ को वापस सड़क की ज़िन्दगी लौटाना चाहते हैं। एक ड्राइवर की लगन और गाड़ी के प्रति उसके प्यार की अद्भुत कहानी है, ‘‘रफ़ रफ़ मेल’’। वैसे भी ड्राइवर या चालकों पर बहुत कम रचनाएँ हिन्दी में दिखाई पड़ती हैं। हमेशा हमारे आस-पास रहने वाले, हमारी ज़रूरतों को पूरा करने वाले इस वर्ग के प्रति समाज और साहित्य में संवेदनशीलता का पर्याप्त अभाव दिखाई देता है। इस दृष्टि से ‘रफ़ रफ़ मेल’ एक ज़रूरी कहानी है।
बद्दू मास्टर असल में इत्तेफाक से ड्राइवर बन गए थे। जो जानते हैं कि ‘ड्राइवरी’ क्या शय है, वह यह भी जानते हैं कि इस शय का कोई मुकाबला नहीं है। बद्दू मास्टर के ख़ालिस ड्राइवर होने की बात इसलिए कहानीकार शुरू में ही स्पष्ट कर देता है, “जिस मोटर की सफ़ाई और सजावट में बद्दू मास्टर लीन थे वह उनकी नहीं थी।“ (अब्दुल बिस्मिल्लाह, रफ़ रफ़ मेल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2000, पृष्ठ -56)। उनके नाम और फिर उनके ड्राइवर बनने के पीछे एक कहानी थी। यह क़िस्सागोई की परम्परा है, जिसमें कहानी के पीछे एक कहानी मौजूद होती है। यह श्रोता या पाठक को कहानी में शामिल करने का एक तरीका होता है। पहले, एक दृश्य को सामने रखा जाता है, फिर उसमें मौजूद चरित्र से परिचय कराने के लिए कहानीकार हमें थोड़ी पीछे की यात्रा कराता है। बद्दू मास्टर रिश्ते में उस हाजी सुलेमान शेख के भतीजा थे। ज़्यादातर लाइसेंसशुदा बसें उस इलाके में उनकी ही चलती थीं। ‘बद्दू मास्टर उनके रिश्तेदार होते थे। पर राजा और प्रजा का भला क्या रिश्ता?” (वही)। इसलिए यह सोचकर कि ज़्यादा पढने के बाद वह किसी काम का नहीं रह जाएगा, उन्हें सातवीं तक ही पढ़ाया और एक दर्जी की दुकान पर काम करने के लिए लगा दिया। वहीं से बदरुद्दीन, बद्दू मास्टर हो गए। एक दिन इस्त्री करते हुए एक शर्ट जला देने की वजह से वहाँ से निकाल दिए जाते हैं। फिर वह अपने चाचा हाजी सुलेमान की एक बस में क्लीनर यानी खलासी का काम करने लगते हैं, पर नाम उनका बद्दू मास्टर ही रह जाता है। यहीं से उनका बस और ड्राइवरी से रिश्ता पनपता है और पगता ही जाता है।
ड्राइवरी संगीत की शास्त्रीय परम्परा की तरह ही कोई अनुशासन है। यहाँ भी उस्ताद की इनायत और उसकी सहमति शागिर्द के लिए अपेक्षित होती है। ठीक से काम करने और रियाज़ करने के साथ उस्ताद की सेवा टहल भी बेहद ज़रूरी होती है, तभी शागिर्द उस्ताद की कुर्सी तक पहुँच पाते हैं। बद्दू मास्टर भी समय निकालकर और उस्ताद की अनुकम्पा (जिसका ज़िक्र कहानीकार ने नहीं किया है ) से ड्राइवरी सीख लेते हैं। ड्राइवरी सीख लेने के बाद भी उनकी प्रोन्नति नहीं हो पा रही थी। ड्राइवरों की तादाद पहले से ही ज़्यादा होने की वजह से उन्हें ड्राइवर बनने का मौक़ा नहीं मिल पा रहा था। साथ ही एक बड़ी दिक्क़त यह भी थी कि “ड्राइवरी सीख लेने मात्र से ही चूँकि अब वे अपने को ड्राइवर समझने लगे थे, इसलिए क्लीनर का काम करने में उन्हें हिचकिचाहट होने लगी।“ (वही, पृष्ठ -57)। अर्थात् वह कोरस से निकल कर मुख्य गायक की भूमिका में आना चाहते थे और इसलिए वे एक दिन हाजी सुलेमान शेख के पास पहुँच जाते हैं।
हाजी सुलेमान ने उसी सुबह और तीन बसों को लाइसेंस मिल जाने की ख़ुशख़बरी सुनी थी। इसलिए बद्दू मास्टर की दुआ अप्रत्याशित रूप से क़ुबूल हो जाती है। हाजी सुलेमान उनसे कहते हैं, “ऐसा है बद्दू मास्टर, कि हमारी एक बस बेकार पड़ी हुई है। सारे ड्राइवरों ने उसे खटारा मान कर रिजेक्ट कर दिया है। हम टायर-ट्यूब वगैरह बदलवाए देते हैं और तुम अगर सजा सँवार कर इस लायक बना डालते हो कि वह ठीक-ठीक चलने लगे सड़क पर, तो वह बस तुम्हारी।“ (वही)। बस को बाकी सभी उस्तादों ने खटारा मान लिया था और बद्दू मास्टर के ड्राइवर होने पर अभी तक औपचारिक रूप से मुहर भी नहीं लगी थी। इसलिए यह मौक़ा से ज़्यादा उनके लिए एक इम्तिहान था। बेशक! एक ऐसा इम्तिहान जो वह देना चाहते थे। राजा जैसे ख़ुश होकर भी सबसे बंजर खेत किसी प्रजा को दे देते थे, वैसे ही हाजी सुलेमान ने भी अपनी महीनों से खटारा पड़ी बस, बद्दू मास्टर को सौंप दिया था। राजा या कोई अमीर किसी ज़रूरतमंद के लिए अनायास ही द्रवीभूत नहीं हो जाते बल्कि उसके पीछे भी उनका एक मकसद होता है। मातहत को कभी-कभी कुछ तो अंदेशा होता है पर हाकिम के इरादों को समझना इतना आसान कहाँ होता है? गाड़ी का इंजन ठीक करवाकर, टायर ट्यूब लगवाकर वापस उसे उसी कस्बे में पहुँचा दिया जाता है, जहाँ वह अब तक खटारा की तरह पड़ी हुई थी। “कभी-कभी बद्दू मास्टर झल्ला उठते हैं। हाजी साहब ने बस तो बनवाई शहर में और सजाने-सँवारने के लिए भेज दिया उसे इस कस्बे में। अरे वहीं खड़ी रहती तो क्या बुरा था?” (वही, पृष्ठ-62)। इसकी एक वजह वह, यह समझते हैं जो वहाँ एक सुगबुगाहट के तौर पर मौजूद थी कि “शायद यहीं के कोई ठाकुर साहब अपनी बस चलाने वाले हैं इस रोड पर। बिना परमिट के। लेकिन परमिटवाली बस अगर तैयार जाती है जल्दी से तो उनकी सारी कारिस्तानी फेल।“(वही) पर बद्दू मास्टर उस कारण को हाजी साहब की अपने ऊपर अकारण हुई अनुकम्पा से नहीं जोड़ पाते हैं। वह जोड़ भी नहीं सकते थे। प्रजा अपने आकाओं के प्रति इतनी कृतज्ञता से भरी होती है कि उसके लिए वास्तविक वजह का इम्कान तक होना मुश्किल होता है।
चालीस साल के अविवाहित बद्दू मास्टर की ज़िन्दगी, उस गर्द-गुबार से भरे क़स्बे और महीनों से खटारा पड़ी बस में एक गहरी समानता थी। एक गहरी उदासीनता और उपेक्षा का भाव तीनों को आपस में जोड़ता था।। बद्दू मास्टर की तरह वे भी अपनी ज़िन्दगी में बदलाव चाहते थे। क़स्बे के बदलने की कोशिश वहाँ की दुकानों के नामों में दिखाई पड़ती थी। बाम्बे टी स्टाल, पाकीज़ा हेयर ड्रेसर, न्यू स्टाइल जनरल स्टोरवाला जैसे नाम उसके सूरत को बदलने की कोशिश की ही ताकीद करते थे क्योंकि असलियत यह थी कि “बाम्बे टी स्टाल और पाकीज़ा हेयर ड्रेसर की बेंचों पर एक इंच मोटी धूल जमी हुई थी।“ (वही, पृष्ठ-56) न्यू स्टाइल जनरल स्टोरवाला की भी स्थिति कुछ ऐसी ही थी। यह बदलता हुआ समय था जिसे यह पता चल गया था कि बाहरी रूप-रंग और नाम में बहुत कुछ रखा हुआ है। गाड़ी चलने लायक तो हो गई थी। शहर से चल कर ही वापस उस क़स्बे में आई थी पर उसकी सूरत अभी देखने लायक नहीं हुई थी। “यानी सीरत तो ठीक-ठाक है, पर सूरत भद्दी। और बद्दू मास्टर का ख़याल है कि भई, सीरत का अंदाज़ा तो तब होगा जब मोटर में बैठेंगे लोग, पर बैठेंगे तो सूरत ही देखकर।“(वही, पृष्ठ-57) इसलिए सबसे पहले उन्होंने उसकी सूरत को ठीक करने या देखने लायक बनाने का निश्चय किया। हाजी सुलेमान से कुछ पैसे लेकर वह शहर से पेंट के कुछ डिब्बे, छोटे-बड़े ब्रश, चमकदार सुनहरी झालरें, लाल-पीली चोटियाँ, बैटरी, काबे की तस्वीर, लाल रंग का बल्ब आदि सजाने की चीजें ख़रीद कर वापस उस क़स्बे में पहुँचते हैं ।
बिना वक़्त जाया किए वह अपने काम में जुट जाते हैं। “पहले उन्होंने पूरी मोटर को एक पुराने बोरे से रगड़-रगड़ कर साफ़ किया और उसके बाद उस पर हल्का नीला पेंट चढ़ाने लगे। जब नीला रंग सूख गया तो जगह-जगह उन्होंने लाल रंग के पेंट से डिजाइनें बनाईं। कहीं-कहीं सीन-सीनरी भी। उगता हुआ सूरज, नदी का किनारा और आम का पेड़। चित्र बनाना बद्दू मास्टर को नहीं आता, पर मोटर की बॉडी पर बने हुए वे चित्र लाजवाब थे।“(वही, पृष्ठ-58) उन्होंने अपने ड्राइवर और ‘मास्टर’ होने की पूरी काबिलियत उसे सँवारने में झोंक दिया था। दूसरी सुबह उन्होंने ड्राइवर के ठीक सामने थोड़ा बायें हटकर काबे की तस्वीर लगाई और इंजन से बैटरी को कनेक्ट करके उसके ऊपर लाल रंग के बल्ब को लटका दिया। उसके बाद स्विच ऑन किया तो वह बल्ब जल उठी। उससे काबे की तस्वीर और बद्दू मास्टर का चेहरा चमक उठा। एक ख़ुशी उनके अन्दर तक फैल जाती है। कहानीकार की टिप्पणी है कि सफलता चाहे छोटी हो या बड़ी, वह ख़ुशी तो देती ही है। और यह भी सच है कि जिन्हें छोटी सफलताओं पर ख़ुश होना नहीं आता, उन्हें ठीक से ख़ुश होना कभी नहीं आता। अब इसके बाद एक ही काम बचा था। यात्रियों के लिए ज़रूरी हिदायतें लिखने का काम। वह सोचने लगे कि सबसे पहली हिदायत क्या लिखी जाए? काले रंग का पेंट और महीनवाला ब्रश निकाला और क़ाबे की तस्वीर के ठीक ऊपर लिखा -खुदा हाफ़िज़।“लेकिन ड्राइवर तो ड्राइवर होता है। काबा। और फिर खुदा हाफ़िज़। इसका क्या मतलब?….और ठीक ‘खुदा हाफ़िज़’ के ऊपर उन्होंने लिखा –“आपकी यात्रा शुभ हो।“ (वही, पृष्ठ-59-60) यह उनके ड्राइवर होने की संवेदनशीलता और एक असली ड्राइवर के मन को दिखाता है। एक तो ख़ुद ड्राइवर के लिए खुदा हाफ़िज़ जैसा कुछ नहीं होता है। उसकी यात्रा मुसलसल जारी रहती है। वह लगातार यात्रा में रहता है, चलते रहना ही ड्राइवर की प्रकृति और प्रवृत्ति है। दूसरा यह है कि ड्राइवर किसी एक धर्म का नहीं होता। वह तो अपने यात्रियों का ड्राइवर होता है इसलिए यह सिर्फ़ एक ड्राइवर ही कर सकता है कि काबे की तस्वीर के ऊपर लगनपूर्वक यात्रा के ‘शुभ’ होने की बात लिख सकता है। यह अनायास नहीं है। ड्राइवर के लिए धर्म, जाति, कद-काठी का विशेष महत्त्व नहीं होता। ड्राइवर अपनी जाति या धर्म से नहीं बल्कि अपनी कुशलता और दक्षता से जाना जाता है। इसलिए तो जब वह उस क़स्बे में पहुँचते हैं और जब पानवाला उनका धर्म या जाति जानना चाहता है तब वह उसे साफ़ बता देते हैं कि ड्राइवर की कोई जाति या धर्म नहीं होता। उस समय का ही संवाद है –
“तुम्हारा नाम क्या है ड्राइवर?”
“बद्दू। बद्दू मास्टर।“
“कौन भाई हो? मुसलमान?”
“जो समझ लो। वैसे ड्राइवर का क्या, ड्राइवर तो ड्राइवर।“ (वही, पृष्ठ-59)
यह कितनी शानदार बात है कि धर्म-जाति आदि के भेदभाव से भरे हमारे समाज में ड्राइवरों की इस तरह की कोई फौरी पहचान नहीं होती। जिस तरह कलाकारों का कोई धर्म नहीं होता और वे अपनी काबिलियत से जाने जाते हैं वैसे ही ड्राइवर भी अपनी काबिलियत से ही जाने जाते हैं। कलाकार हमें एक सुहानी यात्रा पर ले जाते हैं और ड्राइवर यात्रियों को उनके मंज़िल तक।
बद्दू मास्टर पूरी लगन से गाड़ी को सजाते-सँवारते हैं। मालिक पैसे दे सकता है पर गाड़ी की सीरत और सूरत का ख़याल तो एक ड्राइवर ही रखता है। मालिक को उस स्तर का लगाव गाड़ी से हो भी नहीं सकता। उसके लिए गाड़ी एक मशीन है, जो पैसा पैदा करती है। जिस दिन से उसकी उत्पादन क्षमता कम होने लगती है, मुनाफ़ा कम होने लगता है, मालिक की दिलचस्पी उसमें ख़त्म होने लगती है। गाड़ी और ड्राइवर का रिश्ता ऐसा नहीं होता और यहाँ तो बद्दू मास्टर और ‘‘रफ़ रफ़ मेल’’ नाम की बस के साथ उस गाढ़े रिश्ते की शुरुआत हो रही थी, जिसे गाड़ी के प्यार में डूबा एक ड्राइवर ही समझ सकता है। इस लिए लगन में चूक नहीं हो सकती थी। इसलिए गर्द और गरम हवाओं से भरे ख़िलाफ़ मौसम के बीच ,”…मौसम की इस छेड़खानी से बेख़बर बद्दू मास्टर अपनी मोटर की सफ़ाई और सजावट में लीन थे। जैसे कोई नई ब्याही औरत आँधी के बीच खेत की मेड़ पर बैठी महावर से अपने पाँव रंग रही हो और आँखों में काजल की रेखा बना रही हो।“ (वही, पृष्ठ-56)
गाड़ी के सामने के दोनों आइनों के पास चोटियाँ और झालरें लटकाने, और सवारियों के लिए हिदायतें लिखने के बाद वह बस की बाहरी दीवारों पर ज़रूरी चीजें लिखने के लिए नीचे उतर गए। मोटर के पीछे पहुँच कर एक पहिये के ऊपर मुस्कुराते हुए अंग्रेजी के बड़े अक्षरों में लिखा – ‘स्टॉप’ और दूसरे पहिये के ऊपर लिखा – ‘हॉर्न प्लीज़’। “जब वे प्लीज़ लिख रहे थे बगल में एक लाल – सी छाया झलक-झलक जा रही थी। बद्दू मास्टर घूमे। दूर एक स्त्री खड़ी थी।…बद्दू मास्टर को घूरता हुआ देखकर उस स्त्री ने आँखें तरेरीं। गुस्सा वहाँ साफ़ तैर रहा था। बद्दू मास्टर मुस्कुराए। उन्होंने दोनों पहियों के बीच में, ऊपर बॉडी पर लिखा -देखो मगर प्यार से।“ (वही, पृष्ठ- 63) ड्राइवरी के साथ-साथ शादी की उनकी आस भी अभी तक अधूरी ही थी। प्यार का झोंका कभी भी आ सकता है और प्यार का सोता इंसान के अन्दर कभी सूखता नहीं है। बद्दू मास्टर का यह भी ख़याल था कि शादी जैसी चीज़ तो पहले से तय होती है और इसलिए यह ‘सही समय’ पर ही होता है। सही समय अभी तक उनकी ज़िन्दगी में आया नहीं था। उन्होंने इंतज़ार करना नहीं छोड़ा था और ‘सही वक्त’ का वास्ता देकर ख़ुद को तसल्ली देते रहते थे। खटारा गाड़ी का रंग-रोगन करके उसे नई की तरह अपने तईं तो उन्होंने बना दिया था पर क्या इंसान भी अपने को इस तरह से नया कर सकता है? वह क्या चीज़ है जो इंसान को नया बनाए रखती है?
जब सजाने-सँवारने का सारा काम पूरा हो गया, “बद्दू मास्टर अपनी-यानी ड्राइवरवाली सीट पर बैठ गए और अनायास ही हॉर्न बजाने लगे। लेकिन थोड़ी देर बाद ही वे चौंक उठे। मोटर के नीचे, थोड़ी दूर पर वही लाल साड़ी वाली स्त्री खड़ी थी और हँस रही थी। उसके साथ कुछ अन्य स्त्रियाँ भी खड़ी थीं। वे भी हँस रही थीं। “अरे बुढ़ऊ, कब चलेगी तुम्हारी ये मोटर?” (वही) अपने लिए बुढ़ऊ का संबोधन सुन उन का मन उचड़ जाता है, अभी तक की सफलता से उत्साहित मन उदास हो जाता है। ऊपर से यह लाल साड़ी वाली स्त्री ही उनसे पूछ रही थी कि उनकी मोटर चलेगी भी या नहीं? उन्होंने अपना चेहरा शीशे में देखा, पके हुए बाल, पकी हुई दाढ़ी, धँसी हुई आँखें, पिचके हुए गाल दिखे…उन्हें लगा सच ही तो कह रही है वह। बूढ़े तो वह हो ही गए हैं। असल में ज़िन्दगी और गाड़ी दोनों की सार्थकता चलने में है, चलने से है। उनकी ज़िन्दगी भी तो इस मोटर की तरह कहीं पड़ी हुई ही थी। ‘‘रफ़ रफ़ मेल’’ नहीं आई होती तो उनकी ज़िन्दगी में नई रवानी ही पैदा नहीं होती। शायद खलासी ही बने रह जाते या कोई और काम कर रहे होते, पर उनकी आस तो पूरी नहीं हो पाती, अच्छी बातों के लिए तो उनका जी तरसता ही रह जाता। उनके बिना ‘रफ़ रफ़ मेल’ भी खटारा से लोहों के विभिन्न टुकड़ों में बँट कर बिक जाती। अब दोनों एक ही जगह पर बहुत दिनों से खड़े थे, पड़े हुए थे तो कोई कैसे उम्मीद कर सकता है कि वे चल भी सकते हैं। बुढ़ऊ संबोधन के बाद आईने में ख़ुद को देख कर उनका अब तक का उत्साह शांत हो जाता है, उमंग जाती हुई सी लगती है। फिर अचानक उन्हें उस सीट का जैसे बोध होता है जिस पर वह बैठे होते हैं। उनके अन्दर का ड्राइवर जैसे धूल झाड़कर, ख़ूब तनकर अपनी जगह पर कूच करने को तैयार हो जाता है। व्यक्ति अपनी चाहत और जूनून की वजह से हमेशा आगे बढ़ता रह सकता है, हार नहीं स्वीकार करता है। जब तक हारता नहीं है, व्यक्ति तब तक नया रह सकता है। वह आख़िरी शेर लिखते हैं और पेंट का डब्बा बाहर फेंक देते हैं, कि बहुत हुआ सजना-सँवारना, हिदायतें लिखना, बातें बनाना। अब ‘रफ़ रफ़ मेल’ और बद्दू ड्राइवर के चलने-बढ़ने का समय है, वह लिखते हैं –
“मोटर है अपनी ज़िन्दगी, मोटर है वतन अपना
टायर में दफ़न होंगे, ट्यूब होगा कफ़न अपना।
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