‘मंच’ का ‘कंजूस’ और उससे उठते कुछ रंग-विमर्श

मुम्बई का ‘मंच’ नाटय समूह अपने विविधरूपी नाटकों के मंचन में प्रायः सक्रिय रहता है। समूह के नाटकों के प्रदर्शन (शोज़) तो होते ही रहते है, सही अंतराल पर नये नाटक भी आते रहते हैं। इस शृंखला में अभी आया है – फ़्रांसीसी नाटककार मोलियर के लिखे और मंच पर क्लासिक हो चुके ‘माइज़र’, जिसे miser के अनुसार ‘मिज़र’ भी कहा जाता है, का हिन्दी में ‘कंजूस’। लगभग चार सौ सालों पहले का लिखा यह नाटक वैश्विक रंगमंच पर पुराण (लीजेंड)-सा बन गया है। और इसे पिछली शताब्दी के आख़िरी दशक के शुरुआती वर्षों (1992) के दौरान तब के विख्यात निर्देशक बी.एम.शाह के नाम से मशहूर जनाब ब्रजमोहन शाह ने खेला और वह निर्मिति (प्रोडक्शन) उनके मानक कार्य (सिग्नेचर वर्क) के रूप में विश्रुत है। ‘मंच’ समूह के सर्वेसर्वा विजय कुमार ने शाह साहब के निर्देशन में रानावि के लिए बनी उस प्रस्तुति में मुख्य भूमिका निभायी थी। उस दौर के तमाम रानावि से निकले लोगों की ज़ुबानी ‘मंच’ के इन शोज के पहले व बाद की आपसी चर्चा के दौरान शाह साहब की उस निर्मिति को याद कर-कर के उसकी महिमा के रोचक-सराहनीय उल्लेख सुनायी पड़ते रहे…, जो नाटय-विरासत के रूप में यादगार हैं।
इस तरह अपने उस्ताद द्वारा निर्देशित नाटक को उसी रूप में उन्हीं के नाम से खेलना एक शागिर्द की तरफ़ से सिर्फ़ कहके नहीं, करके दिखा देने की सच्ची श्रद्धांजलि भी है। लेकिन इन सबके बीच यह ख़याल आता व सालता रहा कि इतने ज़हीन ग़ुरु जैसा कुछ अपना करने की बात भी इन लोगों के मन में क्यों नहीं आती…कि आने वाली पीढ़ी के लिए ऐसा ही कोई काम क्लासिक बन के सामने आये, जिससे एक और परम्परा बने…, जो अनुकरणीय हो!! मेरे देखे में ‘मंच’ के लिए विजय के ‘रागदरबारी’ में वह सम्भावना थी…, पर उसे इस मुक़ाम तक क्यों नहीं लाया जा सका, विचारणीय भी है और चिंतनीय है!! ख़ैर,
‘कंजूस’ की सबसे बड़ी ख़ासियत है कि यह नाटक सिर्फ़ नाटक के लिए है, फ़न के लिए है – इसका कोई और उद्देश्य नहीं। ठीक उस भक्ति एवं प्रेम की तरह, जिसका प्रयोजन सिर्फ़ भक्ति एवं प्रेम के सिवा कुछ नहीं होता और यही उसकी बड़ी महत्ता होते है। इसलिए आप ‘कंजूस’ देखने जाइए, तो जीवन-जगत के प्रति किसी सरोकार या उद्देश्य… आदि को भुला के सिर्फ़ नाटक के लिए नाटक देखिए – मज़े लीजिए और मज़े-मज़े में घर जाइए।

ग़ौरतलब है कि आज का समय इतना प्रयोजनमूलक हो गया है कि जीवन में सिर्फ़ मज़े जैसा कुछ प्रायः रहा ही नहीं!! प्रेम हो या कला, शिक्षा हो या व्यवहार…बिना किसी उद्देश्य या निहित स्वार्थ के आज कुछ नहीं होता…। सो, बड़ा ज़रूरी हो गया है कि इतने मतलबी समय में कुछ तो हो – एक नाटक ही सही, जो इस अकोरही (लेन-देन वाली) वृत्ति को तोड़े…याने जो सिर्फ़ नाटक के लिए, सिर्फ़ फ़न के लिए हो। और इस अर्थ में यह निर्मिति (प्रोडक्शन) आज के लिए कुछ और ज़रूरी एवं प्रासंगिक हो जाती है। इसकी ऐसी ज़रूरत उस पुरा काल में न थी, अतः मरहूम मोलियर साहब की न ऐसी मंशा रही होगी, न उन्होंने इसकी कल्पना की रही होगी…!!
इसीलिए मुझे जब इस नाटक के शीर्षक चरित्र मिर्ज़ा सखावत बेग नामक कंजूस का बुढ़ाई में अपने से काफ़ी कम उम्र की स्त्री से अपने बेमेल विवाह के निश्चय एवं अपने बेटे-बेटी की पसंदगी के ख़िलाफ़ उनके जबरन विवाह करने जैसी बातें आती हैं…, जो नाटक के कंजूसी वाले मूल भाव व मक़सद से ज्यादा जगह घेरती हैं – बल्कि यही पूरा नाटक बन जाती हैं, तो मूल थीम कंजूसी के प्रति मुझे बड़ा पक्षपात हुआ-सा लगता है। नाटक का नाम ‘कंजूस’ है, पर कंजूस पात्र की कंजूसी के सिवा उसकी कोई कहानी नहीं है – सिवाय इसके कि उसके पास दस हज़ार अशर्फ़ियाँ हैं, जिनके लिए वह जीता है – उन्हीं की नींद सोता-जागता है। वरना सारी कहानी तो इन तीनो (कंजूस बाप व उसके बेटे-बेटी) की शादियों की है। कंजूसी तो सिर्फ़ उल्लेखों में आती है…कि बच्चों के अच्छे कपड़ों पर खर्च हुए पैसों के लिए वह झींकता है, वेतन देने से लेकर किसी भी काम में पैसे खर्चने से बचता है। उन अशर्फ़ियों को सेता है – उन्हें हमेशा जाके देखने की छापें आती हैं। लेकिन इनके अलावा उनकी कोई कथा-घटना नहीं है। बस, अंत में उनके खो जाने पर कंजूस का बिलखना-तड़पना है, पर खो जाने की भी कोई कहानी-घटना नहीं है कि कैसे खो गया – गोया वह पोटली स्वयं कहीं उठ के भाग गयी हो। इसे नियति (डेस्टिनी) द्वारा दिये दंड के संकेत रूप में ले सकते थे, पर वह भी तो आज के वैज्ञानिक युग में कालबाह्य (आउट ओफ डेट) होकर मिथ्या साबित हो चुका है। अब कंजूस का सब रोना-तड़पना भी किसी आयाम तक नहीं पहुँचता…आप चाहें तो इसे एक नसीहत के रूप में ले सकते हैं, वरना इस कुवृत्ति के ख़िलाफ़ नाटक का कोई ‘कहन’ (say) नहीं है। वह मज़े लेने का एक ज़रिया है। इसीलिए कंजूस का यह सब रोना-बिलखना करुणा नहीं जगाता…, बल्कि कुछ स्तुति-सराहना – सही शब्द होगा अंग्रेज़ी का ग्लोरिफिकेशन… जैसा मामला बनता है, जो नाटक के कालजयी (क्लासिक) होने के साथ जुड़ता है…।
मैं बताऊँ कि कंजूसी को लेकर इस प्रच्छन्न (छिटकी हुई) कहानी के मुक़ाबले बहुत आले दर्जे की एक से एक रोचक कहानियाँ-कहावतें हमारे लोक में भरी पड़ी हैं…। मिसाल के लिए अति संक्षेप में एक सुनाता हूँ …“अकेली रह रही अत्यंत कंजूस सास का इकला दामाद उसके यहाँ आता है। मीठा-पानी देते हुए वह कहती है – तुम्हें तो हरदम जल्दी रहती है, वरना खाना खाके जाते…जिस पर वह कह देता है – नहीं अम्मा, बनाइए खाके जाऊँगा। अब फँस जाने पर फिर उसके जल्दी जाने के हवाले से खिचड़ी बनाना तय करती है, जो अपने आप में एक आइरनी है याने दामाद जैसे ख़ास रिश्तेदार को खिचड़ी जैसा पटाऊ खाना!! ख़ैर, खिचड़ी रख के सास के कहीं ज़रा सा जाने के बीच दामाद घर में जाता है और सिकहर पर लटका मटका उतारता है। उसमें जमा हुआ घी भरा देखकर उसे गरमा के फिर वहीं रख देता है। खाते हुए ‘खिचड़ी के चार भतार, चोखा-चटनी-घी-अँचार’ के उल्लेख के साथ घी माँगते हुए दामाद उस हंड़ी की तरफ़ इशारा करता है। सास उसमें का घी ख़त्म हो जाने की बात करती है। दामाद कहता है – ‘मेरी माँ तो ख़ाली हंडी भी उलट देती थी, तो मैं खा लेता था’। फिर तो घी जमा हुआ जान के वह जल्दी से हंडी उलट देती है – ताकि दामाद देख न पाये और वह वापस रख दे…, पर इतने में पूरा घी थाली में गिर जाता है। अब अपनी कंजूसी के माल में से कुछ तो घी खा ले, के लिए सास कहती है – मेरे यहाँ दामाद के साथ उसकी थाली में सास के खाने का रवाज है। लेकिन दामाद की ओर कुछ लटकी है थाली, तो सास को ज्यादा घी मिल नहीं रहा। अब वह खिचड़ी में उँगली से लकीर खींचते हुए कहती है – जो मेरी बेटी से झगड़ा करेगा, मारेगा, दुःख देगा…और घी उसकी तरफ़ आने लगता है। इस पर दामाद क्रॉस लकीर खींचते हुए कहता है – जो आपकी बेटी से झगड़ा करेगा, मारेगा, दुःख देगा…उसे मैं उठा के पी जाऊँगा…के साथ थाली उठा के सारा घी पी जाता है”।
देखें – कैसे शब्द-शब्द में कंजूसी भरी है और उसका तोड़ भी आ गया है, जिसे लेकर कहानी का ख़ासा सार्थक नाम भी है – ‘सोम (कंजूस) के धन सैतनवें खाला’!! इसके सामने यह ‘कंजूस’ कितना इकहरा (फ़्लैट) और बिखरा है!!
ऐसी दर्जनों कहानियाँ बिखरी पड़ी हैं…हर गाँव में, हर गली-मुहल्ले में। पर ऐसी देसी व अपनी खाँटी चीजों की तरफ़ हमारे प्रशिक्षित (खासकार रानावि से प्रशिक्षित) रंग़-निर्देशकों की नज़र नहीं जाती और वे फ़्रांस से कंजूस-परिवार में हो रही बेमेल व पसंदगी के खिलाफ शादियों वाली एक कहानी ढूँढ लाते हैं। इस खोजी वृत्ति का भी एक इतिहास है…रानावि में प्रशिक्षण के नियंता नाटक के महान जानकार थे, और हिन्दी का ‘अंधायुग’ करके नाम भी बना लिया था, पर मूलतः थे बड़े वाले अंग्रेज़ीदाँ। तो मूल प्रवृत्ति कहाँ मानती? लिहाज़ा उनके बनाये प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में हैं तो भारतीय व पाश्चात्य दोनो समान, लेकिन सलूक में पाश्चात्य नाटय-सिद्धातों व विदेशी नाटकों पर जितना ज़ोर रहा, उतना अपने लोक व भारतीय शास्त्र व देसी नाटकों का नहीं रहा – काग़ज़ पर हो भी, पर करने (प्रैक्टिस) में नहीं रहा, जो प्रवृत्ति विरासत के रूप में आज तक कमोबेस चल रही है। अंग्रेज़ी बोलने वाले की वहाँ चलती थी…यह बात ओम् पुरी ने नसीरुद्दीन शाह के साथ बात करते हुए सरे आम कही है, तो नसीरजी ने गर्वीली मुस्कान के साथ स्वीकार में सर भी हिलाया है। इसी अंग्रेजियत का नतीजा रहा कि रानावि वाले और उसके प्रभाव में अधिकांश लोग अपने कंजूस नहीं खोजते-बनाते, विदेशी कंजूसों के झुनझुने बजाते रहे और बजाते जा रहे हैं…! यह बात मैं इस शिष्य विजय के लिए नहीं कर रहा – वह तो अपने भोलेपन के चातुर्य में ग़ुरु को नवाज़ रहा है…। मैं उसी ग़ुरु व उस तरह के लोगों की बात कर रहा हूँ, जो अपने कंजूस न खोज के विदेशी कंजूसों को भुनाते रहे…। इन इरादों-मुरादों ने हिन्दी नाटकों को दरकिनार तो किया ही, नाट्य-लेखन को कुंठित भी किया। फिर हिन्दी में मंचेय नाटकों की कमी के शगूफ़े को ऐसा फैलाया कि वह सच हो गया और हिन्दी नाटय-लेखन भी बेतरह प्रभावित हुआ। ख़ैर,
विजय कुमार ने तब यह भूमिका अच्छी की, इसके बयान-बखान सुनायी पड़े हैं और आज अच्छा करते हुए दिखते हैं, लेकिन अच्छा करने के लिए आज अपने नेतृत्व के साथ उन पर कुछ ज़ोर भी पड़ रहा लगता है। वे मज़े देना चाह रहे हैं, पर मज़े लेते हुए कम दिख रहे हैं। इसीलिए जब अंतिम दृश्य में अशर्फ़ियाँ ग़ायब हो जाने पर तड़पते-छटपटाते हैं, तो दर्शक को समझ नहीं आता कि वह इस पर हंसे या दुख व्यक्त करे। लेकिन यह असमंजस आलेख का भी परिणाम है…, जिसके उल्लेख ऊपर हुए कि नाटक कंजूस के पैसों के पीछे पड़े होने से ज्यादा उन शादियों के होने, उनसे बचने-बचाने में परवान चढ़ता है। बहरहाल,
‘मंच’ की जानिब से एक ख़ास बात यह कि मि. विजय कहीं भी कैसे में भी नाटक कर लेते हैं, जो कौशल भी है, सहजता भी है, प्रगत (ऐडवाँस) सोच भी है। नाटय की दृष्टि से अधिकाधिक मंचन होना नेमत भी है, पर बिना किसी मंचीय सुविधा के नाटक करके आप कहानी-कथा पहुँचा सकते हैं – हमेशा नाटक नहीं पहुँचा सकते। ‘मंच’ की यह वृत्ति बेसिक भी है और उसके ‘हम बिहार से चुनाव लड़ रहे हैं’ की सफलता से बहुत बढ़ी भी है (बूस्ट अप हुई है)। लेकिन बिहार वाली निर्मिति अपनी प्रकृति में इस लायक़ थी कि बिना सही मंच और सहायक मंचोपकरणों के अच्छा हास्य नाटक हो जाये – फिर भी इस हास्य के चलते परसाईजी के व्यंग्य की धार कुंद भी हुई! यदि इन सब सहायों के बिना अच्छा नाटक हमेशा हो सकता, तो भरत मुनि से लेकर अभिनवगुप्त तक…सब क्या बावले थे, जो नाटय में मंच, मंचोपकरण व आहार्य…आदि के इतने विपुल व बारीक विवेचन हज़ार सालों तक करते रहे…!! इस दृष्टि से हर नाटक को कहीं भी कर देना उसे सस्ता-हल्का भी बना देना है!! ‘कंजूस’ को पिछले दिनों एक फ़्लैट कमरे में करने की दरियादिली भी कंजूसी का ही विस्तारित रूप है। नमूने के लिए एक-दो दृश्य कर देना एक बात है, इसे नाट्यवृत्ति बना देना रंग़-कला के लिए दूसरी बात भी है…!! कला में सहूलियतें ली जा सकती हैं, पर कला को सहूलियत बना देना…!! इसके लिए ‘पथ नाटय’ (स्ट्रीट थिएटर) बना है। ‘कंजूस’ जैसे क्लासिक बन गये को वैसा क्यों बनाना? आख़िर ‘हाउ-हाउ मच ऑइड़ियन्स डज़ अ प्ले रिक्वायर’ और किस क़ीमत पर?

आज की विकट परिस्थितियों में मुम्बई-दिल्ली के ख़ास इलाक़ों शुरू हुए ‘कलामंची थिएटर’ (‘स्टूडियो थिएटर’ या एवं ‘स्टूडियो स्पैस’) की बात फिर भी समझी जा सकती है। यह समय की ज़रूरत के मुताबिक़ एक आंदोलन है, लेकिन कहीं भी करके इतना चलताऊ (कैजुअल) कर देना इस मानिंद कला का सस्तीकरण भी है। फिर इस चलाताऊपने का असर सही जगह की प्रस्तुतियों पर भी पड़ता है और आपके प्रदर्शन पर भी पड़ता है। यह न होता, तो विजय कुमार जैसा रंगशील शख़्स अपनी उतावली-जल्दबाज़ी में ऐसी कच्ची तैयारी से ‘महाबली’ के मंच पर नही आता कि संवाद ही गलबल कर दे – ‘धूत कहो, अवधूत कहो’…वाला छ्न्द शुरू करे…फिर हिन्दी में उसका अर्थ बोलने पर आ जाये…। फिर तो शुरू से ही गद्य बोलते!! फिर घालमेल की यह वृत्ति फैली भी है – मुक्ति दास ने ‘पूर्णपुरुष’ नाटक में महाभारत के यक्षप्रश्न वाला श्लोक उठाया…फिर अटक के गद्य पे आ गया! ये दोनो ‘राष्ट्रीय नाटय विद्यालय’ वालों के नमूने हैं, जो तीन साल के रात-दिन वहाँ रहके जनता के पैसों पर नाटक सीख के आते हैं!! लेकिन क्या करें, जब वहाँ के ‘गुरू’ लोग ही ‘कामचलाऊ रंगमंच’ का लंगर लेकर बनियागीरी करेंगे, तो चेले क्यों न करें – उक्त दोनो ख़ास चेले ही हैं – एक सीधे, एक लस्तगे से। फिर हाल यही होना है, जो कबीर ने लिखा है – ‘जाका ग़ुरु हो अँधला, चेला खरा निरंध’। अंधै अंधा ठेलिया दूनो कूप पडंत’!! यह सब देखकर मुझे तो कवि के ही शबड़ों में वही मन होता है कि ‘मैं लगा दूँ आग इस संसार को, हो ‘कला’ जिसमें इस तरह ‘बेहाल’-कातर’…!! लेकिन मुझसे यह होगा नहीं – जैसे प्रिय विजय से नाटक के चरखे चलाने बंद न होंगे…। अस्तु,
‘कंजूस’ की इस निर्मिति में विजय बाबू की जंगरतोड़ मेहनत के साथ ही उनके रंग-दल ने भी जम के मेहनत की है। और सराहनीय यह कि विजय ने कलाकारों का दोहरा दल (डबल कास्टिंग) बना लिया है। यह आज के रंगकर्म की अहम ज़रूरत है, क्योंकि अब यह सर्व स्वीकृत सत्य हो गया है कि कलाकर्मी नाटक करने नहीं, मीडिया में पैसे कमाने मुम्बई आता है। तो जिस दिन छायांकन (शूटिंग) का काम आ जायेगा, वह शो करने नहीं आयेगा, तो विकल्प तैयार चाहिए, जिसके लिए दो दल बिलकुल मुफ़ीद। और दो दल जितने कलाकार मिल जाते हैं, इसका श्रेय भी मीडिया को ही जाता है। इस अर्थ में मीडिया जगत ही रंगजगत के लिए वरदान-अभिशाप दोनो है। ‘कंजूस’ की बावत यह भी कि कुछ तो नाटक ऐसा गुलज़ार है और कुछ विजय का विधान (मेकिंग) भी सादा व माकूल होने के बावजूद मंच पर पात्रों की आवाजाही थोड़ी हलचल जैसी लगती है। बाप की कंजूसी और दबंगई से बेटे-बेटी न अपने-अपने प्यार के इज़हार कर पाते, न ख़ुद बुढ़ाई में उनकी शादी को रोकने की औक़ात रखते…। इसलिए खुसफुस चलती रहती है…। यहाँ भी एक सवाल है कि ऐसा आज कहाँ होता है? आज तो बापों को दुबकना पड़ता है अपने बेटी-बेटों के फ़ैसलों-व्यवहारों के सामने!! लेकिन यह तो 400 साल पुराना है। इसकी क्लासिकी को कैसे तोड़ा जाये? हमारे यहाँ एक किसानी कहावत है – ‘खेत का भले नाश हो जाये – साटन कैसे बिगड़े’? याने ठंड की रात में खेत की रखवाली करने वाला खेत चरते पशुओं को भगाने इसलिए नहीं जाता कि कम्बल-चद्दर का जो साटन बनाया है, जिससे ठंडी लगना रुका है, वह बिगड़ न जाये। तो यहाँ आज की ज़िंदगी भले झूठी हो जाये, लेकिन क्लासिकी कैसे तोड़ी जाये? याने ‘क्लासिक फ़ॉर क्लासिक सेक’। फिर ग़ुरु शाहजी के निर्देशन की साख के ख्याल का भी सवाल है!!
तो देखा मैने दोनो टीमों का किया हुआ, जिसमें ऊपर हुई विजय की पर्याप्त चर्चा के बाद सर्वाधिक ध्यान खींचता है घर का नौकर तथा बाद में पुलिस वाला बना संत रंजन नामक मामूली-से व्यक्तित्व वाला बालक दिखता शख़्स, जो यह सिद्ध करता है कि अभिनय शरीर से होता भले हो, उसके आकार-प्रकार व भव्यता का मोहताज नहीं होता – जो नवाजुद्दीन ने भी सिद्ध किया है। संत का मंच पे यात्किंचित भी होना ‘तपन में शीतल मंद बयार’ की तरह होता है। कंजूस के बेटे फ़ारुख बने आशुतोष खरे अपने सीधे-सधे ढंग में खरे उतरते हैं, तो दूसरे दल में कृष्णा जायसवाल भी ठीकठाक निभा पाते हैं। बेटी अजरा बनी सरिता चतुर्वेदी अपनी अदाओं में भी अपने नाज़-नक़्श वाले व्यक्तित्व जैसी मोहक लगती हैं। ये लोग आगे के शोज़ में और मंजने की उम्मीद भी जगाते हैं। इन दोनो के क्रमशः प्रेमिका व प्रेमी बने श्रुति/प्रिया अग्रवाल एवं सचिन कुशवाहा भी बखूबी जँचते हैं। फ़र्जीना बुआ का किरदार एक ख़ास अदा वाला है, जो रिज़वाना परवीन में खूब लहका है, तो ज़ेबा अंजुम में अच्छा निभा है। लेकिन यह किरदार ऐसा है कि इसे जितना लहकाया जाये, लहकेगा… और जितना निभाया जाये, निभता जायेगा…। अन्यों में मरियम के पिता व दलाल बने शिवा, अलफू बावर्ची बना दिगांता साहा तथा खैरा नौकर व अशर्फ़ियाँ चुराने वाला बना अभिनव डाँगा भी अपनी भूमिकाओं को अच्छा अंजाम देते हैं।
कुल मिलाकर ‘कंजूस’ इस लायक़ तो बेशक़ है ही कि दर्शकों को इसे देखने में कंजूसी नहीं करनी चाहिए…।

