रंगमंच

‘पूर्वांचल के नायक’ में आधा सौ बच्चे मंच पर…

 

जब किसी नाट्यमंचन में 46 कलाकर आदि से अंत तक एक साथ मंच पर हों, तो उस नाटक की चर्चा इसके अलावा किस बात से शुरू की जा सकती है…!!

और यदि वे कलाकर 5-6 साल की उम्र से 12-14 साल की ‘बर्रे-बालक एक सुभाऊ’ वाली उम्र के हों…और सबकी लगातार मौजूदगी में भी 40-45 मिनट तक मंच संभल जाये – न कहीं कुछ टूटे-फूटे, न कोई धमाल हो, और सबसे बड़ी बात कि निश्चित गति व विधि के साथ सही संवादों के सही क्षणों पर सही ढंग से हुई अदायगी से प्रस्तुति सम्पन्न हो जाये, तो उसकी चर्चा या समीक्षा में ‘इन्हइं न संत विदूषहिं काऊ’ (कोई संत {समझदार} इसमें दोष नहीं निकाल सकता) के सिवा और क्या कहा जा सकता है…!! 

और यदि ऐसे नाटक की निर्मिति के उद्देश्यों की जानिब से बात की जाये, तब तो ‘पूर्वांचल के नायक’ में यह आधा सौ की संख्या पूरे सौ नहीं, बल्कि नाटक को दो सौ प्रतिशत खरा साबित करती है। यह प्रस्तुति नाट्य विधा के प्रशिक्षण एवं रंगकर्म के बहुमुखी विकास के मक़सद से उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ में स्थित ‘भारतेंदु नाट्य  अकादमी’ (इस सुंदर नाम के बदले अंग्रेज़ी की संक्षिप्तीकरण {इनीशियल या शॉर्ट फ़ॉर्म} वाली प्रवृत्ति की नक़ल में ‘बी.एन.ए.’ कहने का चलन सनातन हो गया है) की निहित योजना ‘ग्रीष्मकालीन बाल-नाट्य कार्यशाला’ के अंतर्गत तैयार की गयी है, जिसका उद्देश्य है – देश में बालनाट्य का विकास या बच्चों में नाटक के प्रति रुचि पैदा करना…। ऐसे में एक साथ यदि इतने बच्चे मंच पर हों, तो इस उद्देश्य की इससे बेहतर पूर्त्ति और क्या हो सकती है? जिस देश के गाँवों में अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ाने वाला आजकल का प्राध्यापक वीडियो शो को नाटक समझता हो, 99.9% बच्चे नाटक करने तो क्या, आजीवन नाट्य-मंच की शक्ल तक न देख पाते हों, वहाँ के एक शहर के एक नाटक के एक ही शो में इतने बच्चे मंच पर कुछ कर रहे हों, तो इसे क्रांतिकारी विकास की संज्ञा ही दी जा सकती है। और इसके लिए इस योजना के केंद्र ‘भारतेंदु नाट्य अकादमी’ एवं उसके सभी अधिकारियों-कर्मचारियों, जिनका नेतृत्व करते डॉ. सुमित श्रीवास्तव तथा नाटक की तैयारी में कार्यरत नाट्यकर्मी, जिनमें प्रमुखत: निर्देशक-लेखक-मुख्य प्रशिक्षक उमेश भाटिया, सहायक प्रशिक्षक नवीन चंद्रा, कार्यशाला संयोजक वीना सहाय तथा नाटक के प्रस्तोता ‘कामायनी’ नाट्य समूह एवं उसके संचालक दीपक सहाय…आदि सभी साधुवाद के हक़दार हैं।

नाटक का मूल उद्देश्य तो शीर्षक ‘उत्तरांचल के नायक’ में ही मुखर है। ये नायकद्वय हैं – बनारस तथा बलिया में क्रांति के बिगुल बजाने वाले क्रांतिकारी सचीन्द्र नाथ सान्याल एवं चित्तू पांडेय। दोनो क्रांतिकारियों की उतनी कथा सबको मालूम थी, जितनी कही गयी – याने नाटक में इतिहास की तस्दीक़ हुई है। इससे ज्यादा कथा के व्योरे बताने के लिए एवं किरदारों की समग्र पहचानें क़ायम करने के लिए अलग तरह के दृश्य-निर्माण व चरित्र-विन्यास करने पड़ते, जिसके लिए इस लघु योजना में समय-सुविधा न थी और बाल-नाट्य में इसकी अपेक्षा भी उचित नहीं। गांधीजी के असहयोग आंदोलन को वापस ले लेने की पृष्ठभूमि पर उक्त दोनो के उदय के उल्लेख के साथ आज़ादी की लड़ाई के खर्च के लिए सरकारी ख़ज़ाना लूटने और इस लूट को राष्ट्र-हित में सही, उचित व ज़रूरी ठहराने के वाजिब कारण भी स्पष्ट हुए हैं, जो उस काल में इतिहास की माँग थी। 1947 में आज़ादी मिलने के पाँच साल पहले ही चित्तू पांडेय द्वारा पुलिस थाने पर तिरंगा फहराने और बलिया को स्वतंत्र करा देने के मुखर उल्लेख हुए हैं। देश-प्रेम व आज़ादी की लड़ाई का यह इतिहास सीधे-सीधे आज के समय में राष्ट्र व राष्ट्रीयता के लिए प्रेरक व उद्बोधक बन जाता है। ‘भारतमाता की जय’ सुन-सुन कर हमारा बचपन बीता…इस नाटक में बच्चों ने सुना ही नहीं, बोला भी…यह सब कुछ निश्चय ही उनमें देशभक्ति के संस्कार देंगे, जिसकी आज अफाट कमी हो गयी है। इसके अलावा भी सब कुछ को कहने वाले नाटक के संवादों में लेखक उमेश भाटिया ने ‘क्या खून पानी हो गया है’ जैसे तेवर की ऐसी जानदार भाषा बच्चों को दी है, जिससे उनकी चेतना तो संस्कारित होगी, नाटक का असर भी बहुगना बढ़ गया है…।

अब प्रस्तुति-विधान पर आयें, तो जैसे साहित्य व कला में यह सूत्र विख्यात है कि विषय-वस्तु अपना विधान व भाषा खुद लेकर आती है, उसी प्रकार यह आधा सौ की संख्या और 40-45 मिनट की निर्धारित अवधि पर टिकी प्रस्तुति भी अपना विधान लेकर आयी है। आप कल्पना कीजिए कि एक निर्देशक के सामने बच्चों को थिएटर सिखाने का उद्देश्य हो और सीखने के लिए मौजूद इतने सारे उत्साही-इच्छुक बच्चों में से किसे छाँटे, किसे रखें के मानवीय-व्यावहारिक पेशोपेश के चलते 46 बच्चों को ले लिया गया हो…तो सबको आधा-आधा मिनट के लिए भी मंच पर लाने-जाने देने में ही 45 मिनट निकल जाने थे। फिर उसमें सबके सब तो सिर्फ़ आके निकल नहीं जायेंगे, कुछ तो कुछ से कुछ बोलेंगे भी…। लिहाज़ा संवाद के साथ घटनाओं के जोड़ और उनमें से पूर्वांचल के दो-दो क्रांतिकारियों के चरित्र का भी निरूपण-प्रक्षेपण…सब उस समय-स्थल-विधान के दायरे में फ़िट हो ही नहीं सकता था। याने नाटक के प्रचलित विधान में प्रस्तुति असम्भव ही होती। फिर वही हुआ, जिसके लिए हमारे गाँव में एक कहावत है – ‘पत्थर में से तेल निकाले, उसका नाम सिपाही’

और इस सिपहसालार उमेश भाटिया ने पत्थर में से तेल निकालने को क्या कहें पत्थरों को ही तेल की खान बना दिया। याने पात्रों का ही मंच बना दिया, जिससे प्रवेश-निर्गम का सारा मामला ही सध गया। एक बार सभी मंच पर आ गये, तो उनकी स्थितियाँ माकूल निर्धारण में रेल आदि बन जाने या सज़ा आदि दिये जाने के रूप में प्रसंगानुसार सधी गतियों में बदलती  गयी हैं…। इनके परिणाम भी काफ़ी असरकारक हुए हैं, लेकिन मूल बात यह कि सभी कलाकार पूरे समय मंच पर मौजूद रहे…। यह ऐसी युक्ति बनी है, जो लिखे-पढ़े से नहीं आती, नाट्य-समरांगण में दरपेश हुई चुनौती को साधने के प्रयत्न में स्वतः आ जाती है। उमेश ने बताया कि वह खुद समझ न पा रहा था कि कैसे करें…और यह हो गया, जिससे निर्देशन के चक्रव्यूह का मुख्य द्वार खुल गया। सबको एक साथ मंच पर ऐसा खड़ा किया कि पात्र ही मंचोपकरण भी बन गये और समय-समय पर बोलते किरदार भी। फिर कथा के अनुसार संवाद नहीं, पात्रों के क्रमश: कथन चले, जिसमें कथा बनती गयी, खुलती गयी। इसे संवाद कहना हो, तो यही कहना होगा कि पात्र और कथा के बीच संवाद चले…। इस प्रक्रिया में मंच बने पात्र अपने-अपने कथनों में ही कथा-चरित्र बनने लगे और सबकी पहचान बनती चली गयी…। दर्शक को समझने में ज़रा भी अड़चन नहीं आयी कि कब वही पात्र सान्याल बन गया और कब चित्तू बन गया। कब कोई पात्र अंग्रेज हुक्मरान बन गया, कब क्रांतिकारी व सैनिक बन गया, कब सेनापति और कब आम आदमी…!! सभी बच्चे पात्र नहीं बने, सभी के ज़िम्मे कथन नहीं आये, पर सबका मंच पर होना ही उनके लिए नाटक जैसा नाटक हो गया। यह रूप-विधान इस नाटक के लिए भी एक नाटक हो गया। इस तरह कलाकारों का जो आधिक्य कम समय के लिए नियत नाटक के सामने प्रश्न बनकर खड़ा था, वही उत्तर बनता गया – एकै साधे, सब सधे की कहावत ही नाट्य की प्रक्रिया बन कर उसे मंज़िल तक ले गयी।

फिर भी चंद कलाकार प्रमुख बनकर दर्शक की याद में बसने लायक़ स्थान पा सके। श्रीकृति मिश्रा का दोनो क्रांतिकारी पात्र बनना यह भी उजागर किये बिना नहीं रहता कि इतने कम समय में हर बच्चे को अच्छे काम लायक़ नही बनाया जा सकता। इसी प्रकार शुद्ध हिंदी में संवाद व श्लोकादि बोलकर श्रेया भी ख़ास ध्यान खींच पायी। अध्यापक क्रांतिकारी बनी निष्ठा एवं छात्र क्रांतिकारी के रूप में पायल कन्नौजिया की पहचानें भी बनीं। बाक़ी सबकी पहचाने थोक में ही हो सकीं, जो इस श्रेणी व प्रकार के नाटक की ख़ासियत होती है।

इस रूप में और इस स्थिति में कुछ कहना भी नाटक का उद्देश्य नहीं रह गया और इस प्रकार नाटक का जो उद्देश्य या कथ्य दर्शक तक पहुँचना था, वह ‘इतने सारे बच्चों को सामने पेश कर देना’ ही हो गया। भक्ति निरूपण में कृष्ण-लीला की बावत कहा गया है – ‘न हि लीलाया: कश्चित प्रयोजनम्, लीला एवं प्रयोजनत्वात्’ याने लीला का कोई प्रयोजन नहीं, लीला ही प्रयोजन है, उसी प्रकार इस नाटक का कोई और प्रयोजन भले हो, बाल-नाट्य-विकास के उद्देश्य को साधने में आधा सौ बच्चों को पेश कर देने की कला ही सबसे बड़ा व कारगर प्रयोजन है।  

इन छोटे-छोटे बच्चों द्वारा अभिनीत इस छोटे से नाटक का सर्वाधिक मनभावन पक्ष रहा गीत-संगीत का। कहना ज़रूरी है कि पूरा नाटक ‘निवेदिता विद्यालय’ महमूरगंज में ही एक महीने में तैयार हुआ और वहीं के सभागार में शो भी हुआ। विद्यालय में होती मां सरस्वती की प्रार्थना ही नाटक का अनौपचारिक मंगलाचरण हो गयी – ‘हे हंस-वाहिनी ज्ञान-दायिनी अंब विमल मति  दे…’। लेकिन शुरुआती गीत तो नाटक के बनने की सांकेतिकता के साथ राष्ट्रीय भावना के विकास का रूपक भी बनकर कारगर हुआ – ‘मातृभूमि, पितृभूमि, देवभूमि मां, कदम-कदम, डगर-डगर बढ़ेगा कारवाँ’। मौक़े-मौक़े से माकूल व व्यंजक पार्श्व संगीत से समृद्ध होकर ओज व मृदुता के समन्वय वाले संवादों से भी दर्शक दोलायमान होते रहे…।

ऐसे समर्थ संस्थानों एवं उत्साही रंगकर्मियों के संयोग-सुयोग से ऐसी सीधी-सरल-उद्बोधक-व्यंजक प्रस्तुतियाँ अपनी उपादेयता में सदा स्वागत-योग्य हैं…

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सत्यदेव त्रिपाठी

लेखक प्रसिद्ध कला समीक्षक एवं काशी विद्यापीठ के पूर्व प्रोफ़ेसर हैं। सम्पर्क +919422077006, satyadevtripathi@gmail.com
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