रिपोर्ट

मधुपर्व पर प्रेम-रस में भींगी ‘बतरस’

 

मुंबई की अनौपचारिक सांस्कृतिक संस्था ‘बतरस’ ने अपने मासिक आयोजन की श्रृंखला में शनिवार, 10 फरवरी, 2024 की शाम ‘नगीन दास खांडवाला (एन.एल) महाविद्यालय, मालाड (पश्चिम) के प्रांगण में मधुपर्व मास में ‘प्रेम’ पर बहुआयामी कार्यक्रम सम्पन्न किया…।

‘कवि मुख से’ नामक पहला आयाम आरम्भ हुआ – कवि श्री रासबिहारी पांडेय के सरस गीतों से – मन की बातें किये बहुत दिन हुए, साथ हम कहीं नहीं गये… बहुत दिन हुए और हम सफर जब से तुम हो गये, धूप भी चाँदनी हो गई न भूल पाया तुझे अभी तक, तो इसमें मेरी खता नहीं’। साथ रहते हुए प्रेममय मिलन की आकांक्षा वाले इन गीतों के बाद कवि ओमप्रकाश पांडेय ने दिल पर प्रेम की दस्तक दिल ने कई बार दर पर दस्तक दी और फिर चाहता हूँ तुमसे प्यार का इजहार करूँ’ तक की यात्रा करायी। सेवानिवृत्त अध्यापक जवाहरलाल ‘निर्झर’ के छोटे से हिंदी गीत के बाद उनके भोजपुरी प्रेमगीत ‘फाँड़ भर फूल देबें, अँजुरी अँजोरिया हो, तरई से माँग तोहरी भरबे साँवर गोरियाँ हो…’ से श्रोता ऐसे लहक उठे कि पुरज़ोर माँग पर उन्हें तीसरा गीत भी सुनाना ही पड़ा…। समिति में न रहते हुए भी ‘बतरस’ के ज़िम्मेदार कर्त्ता और सामाजिक सरोकारों के गम्भीर व ज़हीन गजलकार राकेश शर्मा भी ‘बतरसियों के आग्रह पर अपने युवा दिनों की रूमानी ग़ज़ल खोज कर लाये और सबने पहली बार उनके मुख से प्रेम में पागल हो जाने वाली खुली ग़ज़ल सुनी – पहेली हो तुम, बूझता हूँ तुम्हीं को; मैं आठो पहर सोचता हूँ तुम्हीं को।  नज़र अब कहीं और टिकती नहीं है, मैं पागल-सा बस देखता हूँ तुम्हीं कोदेर से पधारीं कवयित्री डॉ रोशनी किरण ने काफ़ी अच्छे सुर-लय में अपने दो गीत सुनाये – ‘एक उसी का प्यार पा खुशहाल है जीवन और प्रिय तुम कितने प्यारे हो सारी दुनिया से कितने न्यारे हो

आयोजन के दूसरे आयाम ‘काव्य रसिकों की जानिब से’ के अंतर्गत अभिनेता विश्व भानु ने दो कविताएँ पेश कीं – बद्रीनारायण की प्रसिद्ध और तेज कविता ‘प्रेमपत्र’ – प्रेत आयेगा/ किताब से निकाल ले जायेगा प्रेमपत्र/ गिद्ध उसे पहाड़ पर नोच-नोच खायेगा और पाश की कविता – मेरी दोस्त अब मैं विदा लेता हूँ इस क्रम में मीडिया-रंगकर्मी शाइस्ता खान ने जाँनिसार अख्तर की ग़ज़ल – हमने काटी हैं तेरी याद में रातें अक्सर …में आये …के प्रतीक रूप में अपने दिवंगत पति को याद किया। उन्होंने पुष्पिता की कविता मैं जानती हूँ तुम्हें, फूल जानता है जैसे गंध से शुरू होकर बेशुमार प्रतीकों की लड़ियों से समृद्ध गझिन कविता भी पेश की, जिसे श्रोताओं ने उसी चाव से सुना…। हरिवंश राय बच्चन की कविता – सखि, अखिल प्रकृति की प्यास कि हम तुम-तुम भीगें का चयन ही इतना अच्छा रहा कि रंगकर्मी आशुतोष की प्रस्तुति के सारे अटपटेपन के बावजूद कविता श्रोताओं को लुत्फ़ दे गयी…। इस क्रम की अंतिम प्रस्तुति सुप्रिया यादव की रही, जिनने गजलकार दुष्यंत कुमार की ‘साँसों की परिधि’ सुनाकर उनके कवि रूप की याद ताज़ा कर दी और बच्चनजी के सूक्ष्म संवेदन वाली कविता क्षीण कितना शब्द का आधार भी पढ़ी।

तीसरे आयाम ‘प्रेमगीत श्रृंखला’ के अंतर्गत अध्यापिका एवं ‘बतरस’ की नियमित प्रतिभागी जया दयाल ने कैफ़ी आज़मी लिखित गीत बेताब दिल की तमन्ना यही है को गहन तल्लीनता से सुनाकर श्रोताओं को मुग्ध कर दिया। सायली हट्टगड़ी ने साहिर लुधियानवी के मशहूर गीत – अभी न जाओ छोड़कर कि दिल अभी भरा नहीं  को ऐसे सधे राग व साधे स्वर में गाया कि गीत पूरा होते ही, श्रोताओं की तालियों से कक्ष गूँज उठा। इसके बाद तो मंचों के सुपरिचित गायक दीपक खेर ने अपने वाद्ययंत्र के साथ एशुदास के गाये ‘जब दीप जले आना, जब शाम ढले आना… से ऐसा समाँ बांधा कि श्रोताओं की फ़रमाइश पर उन्हें जगजीत सिंह द्वारा गायी ‘बतरस’ के पुराने और नियमित प्रेमी हस्तीमल हस्ती की गजल- प्यार का पहला खत लिखने में वक्त तो लगता है सुनानी ही पड़ी।

इसी प्यार का पहला खत वाले भाव से मेल खाता इस आयोजन के अभिनव प्रयोग के रूप में अगला  आयाम बना था ‘लेके पहला पहला प्यार’, जिसमें अपने पहले प्रेम का सच्चा क़िस्सा सुनाना था…। इसमें सिर्फ़ तीन ही प्रतिभागी आये और तीनो बूढ़े…याने तमाम मीडिया…आदि के ज़रिए सारे खुलेपन के बावजूद ज़माना अभी इतना भी प्रगत (ऐडवाँस) नहीं हुआ है कि उसने जो किया, उसे कह सके…, जबकि बच्चनजी ने आधी शती पहले घोषित कर दिया था – ‘मैं बोला, जो मेरी नाड़ी में डोला, रग-रग में घूमा…’। बहरहाल, शुरुआत की ज़े.एन. यू. से सेवामुक्त हुए प्रो. राम बक्ष जी ने…अपनी 3 वर्ष की उम्र में हुए पहले प्रेम को याद किया और कहा कि वह अहसास आज भी है, लेकिन यह भी कहा कि बाहर चलकर इस प्रसंग पर कोई पूछेगा, तो मैं ना बोलूँगा। नाबाद बैंक से सेवामुक्त ओम प्रकाश पांडेय ने किशोरावस्था में अपने पड़ोस की लड़की से हुए ज़हीन प्रेम को याद किया, जिसे पिता द्वारा लोक की मान्यताओं की जानिब से समझाए जाने के बाद छोड़ देना पड़ा…। सत्यदेव त्रिपाठी ने अवश्य दसवीं में पढ़ने के दौरान सहपाठिनी से हुए दुतरफ़ा प्यार का खुलकर नाम साहित ज़िक्र किया, जिसमें शुरुआत लड़की की तरफ़ से हुई, लेकिन वह किसी अंजाम की तरफ़ बढ़े, के पहले लड़की के बी.डी.ओ. पिता का तबादला हो गया। फिर तो कम उम्र व आर्थिक तंगी के बावजूद 35 किमी सायकल चलाकर गये ज़रूर, पर द्वार खटखटाने की हिम्मत न हुई और प्रेमिका से मिलना तो क्या, देखे बिना ही लौट आना पड़ा – सिर्फ़ सामने के जलपंप पर अंजुलियों से पानी पीकर…!! इन बूढ़ों की यादें सुनकर अगली बार शायद कोई युवा भी आगे आये…!!

कार्यक्रम का एक आयाम प्रेम कहानी के अंतर्गत लेखिका डॉ मधुबाला शुक्ल ने प्रसिद्ध ग्राम कथाकार शिवप्रसाद सिंह की छोटी व प्यारी कहानी‘ प्लास्टिक का गुलाब’ का पाठ किया।

इसी क्रम में नाट्य-पाठ के अंतर्गत प्रसिद्ध रंगकर्मी एवं सिने अभिनेता विजय कुमार ने रंगनेत्री जेबा हुसैन के साथ हिंदी में मंच-पुराण (थिएटर लीजेंड़) बन गये नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ से मल्लिका-कालिदास से अंतिम शोक व कसक भरी भेंट की पाठपेशी की, जो पर्याप्त दृश्यमान भी बन पड़ा…।

कार्यक्रम का संचालन कर रहे सत्यदेव त्रिपाठी ने शुरुआत करते हुए साहित्य की जानिब से बताया कि कालिदास आदि प्राचीन कवियों को पढ़ते हुए लगता है कि तब प्रेम काफ़ी उन्मुक्त था। उस पर पहरे लगना  उसे छिपाना व उसकी कदर्थना..आदि मध्य काल की देन है। 20वीं सदी के पूर्वार्ध में ही प्रेम को मुक्त करने के प्रयत्न हुए, जब फ़िराक़ साहब ने घोषणा की – ‘कोई समझे तो एक बात कहूँ, इश्क़ तौफ़ीक़ है, गुनाह नहीं’ और बच्चनजी ने कहा – ग़र छिपाना जानता, तो जग मुझे साधू समझता…। उन्होंने तर्क और प्रमाण भी दिये – जिसने कलियों के अधरों में रस रखा पहले शरमाए, जिसने अलियों के पंखों में प्यास भारी सर लटकाए,

शीश करे वह नीचा जिसने यौवन का उन्माद भरा, …मैं सुख पर सुखमा पर रीझा, इसकी मुझको कुछ लाज नहीं’।

प्रेम की प्रकृति व स्वरूप के लेकर पूरे संचालन के दौरान त्रिपाठीजी कई-कई पंक्तियाँ उद्धृत करते रहे…कुछ बतौर उदाहरण – तेरे जैसा कोई मिला नहीं, कैसे मिलता कहीं पे था नहीं…’, तुमने नाराज होना छोड़ दिया, इतनी नाराजगी भी ठीक नहींआदि।

मोबाइल पर देखकर पढ़ने और पढ़ते हुए बार-बार अटकने, रुक के लिखा हुआ खोजने को लेकर नाराजगी व्यक्त करते हुए त्रिपाठीजी ने झिड़का भी – यहाँ-वहाँ ढूंढने के चक्कर में पढ़ने की लय बिगड़ जाती है। श्रोता को झटके लगते हैं…! आज के साधनों ने हमें कितना अदना व बौना बना दिया है कि अपनी पसंदीदा एक-दो कविता भी लोगों को याद नहीं – यहाँ तक कि अपनी कविता भी लोग देख के पढ़ते हैं…!! पहले के शायरों को सबकी कविताएँ याद होती थीं – अपनी तो बिना किसी चिट के दो-दो घंटे भी सुना सकते थे…!! ऐसों में सरनाम जावेद साहब और अन्य भी कई आज भी मौजूद हैं!!

अंत में रंगगर्मी एवं मीडियाकर्मी विजय पंडित ने एक-एक का नाम लेते हुए सभी का आभार माना…। उन्होंने कार्यक्रम की समाप्ति की घोषणा के पहले 16 मार्च को होने वाली अगली बैठक की सूचना भी दी, जिसका विषय है – ‘सार्थक सिनेमा बनाम जुगुप्सापरक कमाऊ सिनेमा’।

समिति की महिला सदस्यों के सुझाव ‘बतरस’ ने मधुपर्व के निमित्त स्त्रियों से गुलाबी एवं पुरुषों से धवल रंग़ के वस्त्र धारण करके आने का प्रस्ताव रखा था, जिसका पालन भी हुआ और अपेक्षित प्रीतिकर असर भी पड़ा…।।

 

मधुबाला शुक्ल

लेखिका प्राध्यापक व सुपरिचित समीक्षक एवं संस्कृति कर्मी हैं। सम्पर्क- vinitshukla82@gmail.com
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