रिपोर्ट

अवसाद का आनंद : जीवनी-लेखन का मानक

 

सविता श्रीवास्तव

वाराणसी-निवासी कालजयी महाकवि जयशंकर प्रसाद के पार्थिव निधन के 85 सालों बाद रज़ा फ़ाउंडेशन, दिल्ली ने पहली बार उनकी प्रामाणिक जीवनी लिखाने का दस्तावेज़ी कार्य कराया है। लेखक हैं मुम्बई से काशी पधारे प्रो. सत्यदेव त्रिपाठी। ‘सेतु’ प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक ‘अवसाद का आनंद’ का लोकार्पण एवं शहर के महनीय विद्वानों के बीच सहचर्चा सम्पन्न हुई दुर्गाकुंड स्थित ‘पिलग्रिम्स प्रकाशन’ में। आयोजन शुरू होने के घंटे भर पहले से शुरू हुई इस साल की पहली व भारी बारिश के बावजूद सभी वक्ता एवं पर्याप्त मात्रा में श्रोता भी उपस्थित हुए…। कार्यक्रम के प्रारम्भ में इस कार्यक्रम के इकले आयोजक एवं ‘पिलग्रिम्स प्रकाशन’ के निदेशक श्री रामानन्द सनातनी ने ‘अपवित्र: पवित्रो व सर्वावस्थाम् गतोsपि वा, य: स्मरेत पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यतर: शुचि:’ के साथ आमंत्रित वक्ताओं पर जल छिड़कने के बाद चंदन-तिलक एवं माल्यार्पण से सभी अतिथियों का सनातन-धर्म की पद्धति से अभ्यर्थना की। उन्होंने अपने प्रस्ताविकी वक्तव्य में बताया कि पुस्तकों के माध्यम से भारतीय साहित्य, संस्कृति तथा हिंदी भाषा का विकास ही ‘पिलग्रिम्स’ का महत् उद्देश्य है। प्रसादजी पर लिखी इस पुस्तक के निमित्त हो रहा यह आयोजन भी इसी उद्देश्य की श्रिंखला की एक कड़ी है। उन्होंने आगे बताया कि आज की विवेच्य पुस्तक की अपने प्रकाशन के अल्पकाल में ही आशातीत बिक्री हुई है। इससे इसकी लोकप्रियता एवं पाठकों के बीच इसकी माँग स्वयं सिद्ध होती है। और बनारस में इसकी चर्चा का अपना महत्त्व है…।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे देश के उद्भट विद्वान श्री कमलेशदत्त त्रिपाठी ने कहा कि ‘अवसाद का आनंद’ जीवनी-लेखन का मानक तय करती है। इस विधा को सूक्तियों एवं गाढ़े मुहावरों से सजी एक नयी व प्रवाहमय भाषा देती है और एक मुकम्मल रचनाविधान गढ़ती है। यह सब लेखक के पारंपरिक अध्ययन एवं संस्कृत की पृष्ठभूमि का सुपरिणाम है। विद्वान वक्ता ने पूरी कृति का अध्यायानुसार विभाजन, उसमें निहित विषयवस्तु एवं इस वर्गीकरण के औचित्य का विवेचन किया। उन्होंने बताया कि इसमें जीवनी के साथ समीक्षा और फिर समीक्षा के बीच से जीवनी भी चलती रहती है। और दोनो को प्रसाद-युग के इतिहास से जोड़ दिया जाता है, जिसमें से प्रसादजी की गहन राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक चेतना छन-छन कर पाठकों तक पहुँचती रहती है। यह कृति हिंदी जगत के लिए एक उपलब्धि है। और इन सबके बावजूद लेखक का यह कहना कि ‘इसमें मेरा कुछ नहीं – सब जयशंकर प्रसाद एवं उन पर लिखने वालों का प्रसाद है’, कालिदास के ‘मंद: कवियश: प्रार्थी’ की परम्परा की शालीनता का परिचायक है। कमलेशजी ने पुस्तक को बारम्बार पठनीय बताया और प्रमाणस्वरूप अपना ही उदाहरण दिया कि उम्रदराजी के बावजूद तीन दिनों में ही पूरा पढ़ गये और स्वीकारा कि 4-5 बार और पढ़कर लिखने का आकांक्षी हूं।

चर्चा की शुरुआत साहित्य मर्मज्ञ डॉ. दयानिधि मिश्र द्वारा पुस्तक-लेखक के परिचय से हुई, जिसमें उन्होंने अपने ओजस्वी तेवर, बुलंद वाणी एवं ज़ोरदार भाषा में सत्यदेव त्रिपाठी के आज़मगढ़ में स्थित छोटे से गाँव से लेकर मुम्बई-गोवा-पुणे-बनारस तक के जीवन-संघर्षों एवं मध्यकालीन कविता से लेकर कथा साहित्य तक एवं पत्रकारिता से लेकर थिएटर व मीडिया में उनकी आवाजाही के परिणामस्वरूप हुए योगदानों पर आधारित अब तक लिखी 12 पुस्तकों का संक्षिप्त, पर मुकम्मल परिचय पेश किया। और बताया कि सत्यदेवजी के इसी व्यापक व काफ़ी कुछ पारम्परिक अध्यवसाय का ही सुफल है – इस महनीय रूप में आयी अद्यतन पुस्तक प्रसादजी की जीवनी ‘अवसाद का आनंद’।

कृति-चर्चा में पहले वक्ता डा उमेशकुमार सिंह ने जीवनी-पुस्तक के सामग्री-संचयन, उसके विनियोग के विधान व तकनीक और विवादास्पद स्थलों पर प्रसादजी के रचना-संसार के सहारे निष्कर्ष तक पहुँचने की पद्धति की भरपूर सराहना की। उनके अनुसार ‘इस जीवनी की सबसे मार्मिक एवं महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें रचनाकर की जीवन-स्थितियों और उसके काव्य-बोध को पारस्परिक रूप से समाहित करने की प्रक्रिया का उद्घाटन बड़ी विदग्ध रीति से सम्पन्न हुआ है’। ‘आंसू’ पर आधारित ‘उसकी स्मृति पाथेय बनी’ नामक अध्याय के हवाले से डॉ. सिंह ने कहा कि इसके मत-मतांतरों की परीक्षा के दौरान त्रिपाठीजी ने जिस साहित्यिक नैतिकता एवं विराट सहृदयता का परिचय दिया है, उससे काव्य-कृति की आंतरिक अर्थ-व्याप्ति को अद्भुत विस्तार एवं गरिमा मिली है। इसी प्रकार उन्होंने प्रसादजी के समस्त साहित्य की केन्द्रीयता को व्यक्त करते शीर्षक ‘अवसाद का आनंद’ की ख़ास चर्चा की और कुछ सम्भावित शीर्षकों के समानांतर इसमें निहित सटीकता व व्यंजनाओं का खुलासा किया।

डॉ. रामप्रकाश द्विवेदी गांधीवादी सोच-विचार के राष्ट्रीय स्तर के विशेषज्ञ हैं, लेकिन पड़ोसी के रूप में त्रिपाठी जी के इस जीवनी-लेखन के दौरान आती कठिनाइयों-संघर्षों-चिंताओं के बीच  अथक परिश्रमों व जीतोड़ प्रयत्नों के साक्षी भी रहे हैं। इन सबका उनके द्वारा विशद व सोदाहरण उल्लेख करने से लेखन-प्रक्रिया के आंतरिक पक्ष का विश्वसनीय खुलासा हुआ, वरना पुस्तक के ज़रिए सिर्फ़ बाह्य या पठित आकलन ही होकर रह जाता। उन्होंने लेखन के दौरान त्रिपाठीजी के साथ हुई बातों के कुछ सृजनशील रोचक प्रसंगों के आलोक में और अपने पाठ से अर्जित विवेचन के ज़रिए कृति के कई अनकहे पक्षों को उजागर किया।

साहित्य को कुछ विरल तरह से देखने, विश्लेषित करने के लिए जाने जाने वाले डॉ. रामप्रकाश कुशवाहा ने कहा – ‘अवसाद का आनंद’ शीर्षक से आयी यह जीवनी कालजयी कवि प्रसाद के साथ-साथ उनके साहित्य, उनके युग व परिवेश व उस काल के बनारस का भी जीवंत, शोधपरक, विमर्शात्मक एवं आख्यान शैली में लिखा हुआ अनूठा जीवन-वृत्त है। इसके जीवनीकार प्रो. त्रिपाठी न सिर्फ़ प्रसाद-साहित्य के मर्मज्ञ हैं, बल्कि 10-11 वर्ष की आयु में प्रसाद-कृत ‘आंसू’ का प्रथम पाठ कर इस कृति का नैमित्तिक पूर्व-संकेत दे चुके थे। पढ़ते हुए यह कृति मुझे विष्णु प्रभाकर लिखित शरत चंद्र की प्रसिद्ध जीवनी ‘आवारा मसीहा’ की याद दिलाती रही। मैं एक कालजयी कवि की कालजयी कृति पढ़कर रोमांचित व अभिभूत हूँ। काश, यह पुस्तक मुझे और पहले (याने सेवा मुक्ति के पहले) पढ़ने को मिली होती, तो मै प्रसाद-साहित्य को और बेहतर ढंग से पढ़ा पाता। यह प्रसाद-साहित्य के अनेक रहस्यों को खोलती है। मुझे विश्वास है कि यह प्रसाद-साहित्य के सही पाठ के निर्धारण में सहायक होगी, साथ ही प्रसाद-साहित्य पर अनेक विमर्शों से युक्त नया दौर लाने में सक्षम एवं यशस्वी होगी…।

प्रो. सदानंद शाही ने कहा कि यद्यपि यह पुस्तक किसी अंत:प्रेरणा से नही, बल्कि रजा  फ़ाउंडेशन की योजना की संपूर्त्ति के रूप में लिखी गयी है, लेकिन लेखन-रत होते हुए त्रिपाठीजी ने इससे ऐसा तादात्म्य स्थापित कर लिया कि यदि बताया न जाये, तो इसके मौजूदा रूप में कोई भी पाठक इसे गहन अंत: प्रेरणा से उपजी कृति ही समझेगा, इसमें संदेह नहीं। इस कृति के साथ इधर के दो सालों में प्रसादजी पर प्रकाशित तीन अन्य कृतियों का हवाला देते हुए शाहीजी ने बड़ी वाजिब टिप्पणी की – ‘क्या प्रसादजी पर लिखने का कोई दौर चला है…!!’ इसे लेकर आयोजन के बाद की आपसी चर्चा में यह तथ्य भी खुला कि विजय बहादुर सिंह की पुस्तक चाहे भले इधर के चंद सालों का परिणाम हो, लेकिन आलोक श्रीवास्तव की दो खंडों में आयी महत्त्वाकांक्षी समीक्षा कृति पिछले 15 सालों की साधना का फल है और उनकी साधना अभी रुकने वाली नहीं। वे प्रसाद-साहित्य के लेखन के अलावा उनके स्थलों, जीवन-प्रसंगों…आदि की व्यापक तलाश में लगे हैं, उनकी योजना प्रसादजी की जीवनी लिखने की भी है। प्रसादजी के जीवन पर आया उपन्यास भी आज से 7-8 साल पहले ‘नवनीत’ में लगभग तीस कड़ियों में प्रकाशित हो चुका है। इतने सालों के इंतज़ार के बाद छपकर पिछले साल आया। इस तरह प्रसादजी न किसी दौर के रचनाकार हैं, न उन पर लिखा जाना किसी दौर का मोहताज हो सकता है। लेकिन ऐसा विमर्श खड़ा करना भी ऐसी गोष्ठी की उपलब्धि ही मानी जायेगी…।

वरिष्ठ प्राध्यापक जितेद्रनाथ मिश्र ने ‘अवसाद का आनंद’ को हिंदी जगत की चिर-संचित अभिलाषा की संपूर्त्ति के रूप में रेखांकित किया। इस उपलब्धि के साथ ही उन्होंने लेखक को सुझाया कि आगामी संस्करणों में जो कुछ छूट गया हो, उसे भी शामिल करने का प्रयास हो। यह बहुत ही ज़रूरी व स्वागतयोग्य सुझाव है, लेकिन मिश्रजी ने जो एक उदाहरण दिया कि प्रसादजी के काफ़ी निकट रहे शांतिप्रिय द्विवेदी का ज़िक्र कहीं नहीं आया, तो वह लिखने में एकाधिक जगहों पर आया है, लेकिन शायद पाद-टिप्पणियों में न आया हो और इसलिए उलट-पुलट कर पढ़ते हुए नज़रों से ओझल रह जाता हो…।

आयोजन में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले डॉ. प्रकाश उदय ने धन्यवाद भी दिया और संचालक डॉ. रामसुधार सिंह के आग्रह पर कृति की बावत अपने विचार भी रखे…। उनकी बोलने-लिखने की एक अलग शैली है, जिसकी बानगी ही दी जा सकती है – ‘जीवनी के लिए यही सही है कि आमतौर पर जीवित की नहीं होती। लेकिन ‘अवसाद का आनंद’ की ख़ास बात यह है कि यह एक जीवित की जीवनी है और खुद भी एक जीवित जीवनी है – कुंतक जिसे स्वस्पंद सौंदर्य’ कहते हैं, उससे सम्पन्न। जहां छूइए, वहीं एक उठती हुई छुवन के साथ उसका धड़कना मौजूद मिलता है। ऐसा नहीं है कि मृत्यु इसमें नहीं है, वह है और दहाड़ती हुई है। लेकिन जीवन फिर भी जाने किस कदर है कि उसकी चुप्पियाँ भी उस दहाड़ पर भारी पड़ती हैं…इसे बारहा महसूस कर सकते हैं। लेकिन कहीं और क्या जाना, जिसकी यह जीवनी है,  उसके अंत के अंत पर ही चलें – ‘पंचतत्त्व की रमणीय रचना अगरु-चंदन की आग्नेय लपटों में धू-धू करके जलने लगी। महाकाल सामने खड़ा हंस रहा था’। लेकिन इस दृश्य में महाकाल की इस हँसी के सामने भी कुछ है, जिसका होना भर भी महाकाल के सारे कस-बल को ढीला कर देने के लिए काफ़ी है। ख़ास बात यह है कि जीवनीकार को इस महाश्मशान में यही दिखा और कुछ नहीं दिखा। और उसने यही दिखाया – इस दिलेरी के साथ कि और कुछ दिखे भी, तो दिखे नहीं – ‘भग्नावशेष होने की उस लीला को एक आत्मीय, जिसे लकवा मार गया था, बांसों से बंधी कुर्सी में आठ कहाँरों के कंधों पर चढ़ा बड़ी ही संवेदना भरी तन्मयता से देख रहा था। वह व्यक्ति कोई और नहीं, नगवाँ-निवासी बाबू शिवप्रसादजी गुप्त थे’। यह पन्ना अंत की तरफ़ का है, लेकिन अंतिम पन्ना यह नहीं है। कुछ कदम और चलती है यह जीवनी…। जिसकी है, उसके चार कंधों पर आये शव के साथ नहीं, आठ कंधों पर आए उस ‘शिव’ के साथ…!!

संचालन के दौरान रामसुधारजी बीच-बीच में विवेच्य किताब की जानिब से अपनी सार्थक टिप्पणियों देते रहे…, जिन सबको मिला दिया जाये, तो एक पूरा वक्तव्य सिद्ध हो। इस तरह संचालन तो उत्तम कोटिक रहा ही, वर्षा से बेहद प्रभावित इस आयोजन को अपनी प्रत्युतपन्न सूझ-बूझ से समायोजित भी करते रहे, जिससे यह कार्यक्रम अपनी मंज़िल तक सुचारु रूप से पहुँच सका, वरना बाधित होने की सम्भावनाएँ पक्की थीं।

सबके अंत में अपने मनोगत के रूप में जीवनीकार सत्यदेव त्रिपाठी ने समस्त काशीवासियों तथा पूरे कार्यक्रम को रेकार्ड करने के लिए आकाशवाणी के निदेशक सहित उनकी पूरी टीम तथा पूरे कार्यक्रम को फ़ेसबुक पर जीवंत (लाइव) करने और उसके लिए सबसे पहले आके, सबसे बाद जाने वाले प्रतीक त्रिपाठी के प्रति अपना अनुग्रह निवेदित किया, जिन सबने इतनी झमाझम बरसात में भी उपस्थित होकर कार्यक्रम को सफल बनाया। आयोजक रामानन्दजी को विशेष रूप से प्रणम्य कहा, जिन्होंने सामने से प्रस्तावित करके इस आयोजन को सम्पन्न कराया…। विमोचन का अभिनव तरीक़ा भी उन्होंने प्रस्तुत किया, जब फूलों के बीच रखी पुस्तक को फूल हटाके अनावृत्त कराया। त्रिपाठीजी ने इस पुस्तक को भी अपने लिए काशी का प्रसाद माना, जिसका लिखा जाना दस सालों पहले काशी में बसने के बिना कदापि सम्भव न होता। श्री त्रिपाठी ने सदानंद शाहीजी का विशेष उल्लेख किया, जिन्होंने वाचस्पतिजी के समक्ष सबसे पहले इस पुस्तक पर आयोजन का प्रस्ताव रखा, जो प्रसाद-मंदिर में होना था। इसके लिए प्रसाद-संतति भी तैयार थी, लेकिन उस आयोजन के लिए जितना समय दरकार था, वह इस वक्त स्वयं त्रिपाठीजी के पास न था, जिस अपनी बेबसी पर उन्होंने खेद भी व्यक्त किया…। अत: उसे कभी फिर करने के लिए स्थगित करना पड़ा। और इसी श्रिंखला की पूर्ववर्ती कड़ी के रूप में यह आयोजन सम्पन्न हुआ। इसमें कारगर सहयोग के लिए विद्याश्री न्यास को भी नतमस्तक होकर शिरोधार्य किया तथा हर रूप में प्रकाश उदय के योगदान को शब्दातीत कहा।

किताब और अपने लिखने को लेकर सिर्फ़ यही कहा – मुझे जो कुछ कहना था, किताब में कह दिया है, अब तो मुझे सिर्फ़ पाठकों को सुनना है। बस, अपनी एक अनकही अनुभूति उन्होंने इन शब्दों में साझा की – ‘मैं जैसे-जैसे प्रसादजी के बारे में पढ़ता व जानता गया, वैसे-वैसे उनका व्यक्तित्त्व मझ पर हावी होता गया… और मुझे अपनी बुद्धि व प्रयत्न बौने लगते गये…। ऐसे में यह कार्य कदापि सम्भव न होता, लेकिन जैसे मेरा कोई भी कार्य तुलसी की प्रेरणा व उपस्थिति के बिना पूरा नहीं होता, इस मानसिक हालत में भी वही याद आया, जो राम-चरित लिखते हुए बाबा को लगा था –

‘करन चहऊँ रघुपति ग़ुनगाहा, लघु मति मोरि चरित अवगाहा।

  सूझ न एकउ अंग उपाऊ, मन-मति रंक मनोरथ राऊ।

इसी को सुमिरनी की तरह जपते हुए यह कार्य होता रहा और दो साल की प्रदत्त सीमा में पूरा होने का संतोष दे गया। अब तो बस, पाठकवृंद की प्रतिक्रियाओं का मुंतज़िर है…।

 

सविता श्रीवास्तव

लेखिका समीक्षक हैं तथा बलदेव पीजी कॉलेज, बावतपुर, वाराणसी में हिंदी विभाग में प्राध्यापक हैं।

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साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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