इमरोज़ नहीं रहे।
चला गया दरवेश!
तमाम ज़िंदगी अमृता जी के दर पर अलख जगा कर, धूना तपा, कर अमृता के नाम का जाप कर, हर साँस के साथ पतंगे की तरह, ता-उम्र अमृता के आस-पास घूम कर भी उन्हें यादों में बसाने वाला योगी-दरवेश चला गया। 22 दिसंबर की सवेर को।
भोर में!
मुंबई में।
उसके पास अमृता जी की बहू अलका तो थी ही। और पता नहीं कौन-कौन था।
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चार पाँच वर्षों से उन्हें अल्ज़ाइमर हो गई थी, जिससे मनुष्य सभी यादें भूल जाता है। वे न ही किसी को पहचानते थे, न ही किसी से बात करते थे। धीरे-धीरे विशाल ब्रह्मांड में विलीन हो रहे थे।
जिंदगी का दीपक धीरे-धीरे मद्धम पड़ रहा था। इन परिस्थितियों में दिल्ली अकेले रहना असंभव था। सो अलका और उनके बच्चे उन्हें मुंबई ले गये थे, अपने पास।
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उन्हें जब मैं पहली बार मिली तो अमृता वैस्ट पटेल वाले घर में पीछे छोटे से आँगन में आखर चारपई पर शैली, अमृता के बेटे के साथ बैठे थे। दोनों के हाथ में खाने की थालियां थीं। अमृता जी चौखट पर चौंकी बिछा कर बैठे थे। आगे अगींठी। चूल्हे पर तवा, तवे पर गोल-गोल रोटी। आहिस्ता-आहिस्ता फूल कर कुप्पा होती हुई।
अमृता जी रोटी बारी-बारी से उन दोनों की प्लेट में रखते जाते।
रोटीयां पकाते हुए एक अजीब से हुस्न के साथ लबरेज़ था उनका चेहरा।
इस तरह लग रहा था जैसे रोटी तो वह दोनों खा रहे हों पर पेट अमृता जी का भर रहा हो।
उन्होंने तआरूफ़ करवाया। ’’यह इंदरजीत है….. शैली का दोस्त’’ शैली का असली नाम नवराज था। परंतु असली नाम किसी को भी याद नहीं था। वह सभी का शैली ही था, और आखिर तक शैली ही रहा।
वो और शैली का दोस्त, दोनों एक से ही लग रहे थे। भर जवान! बढ़िया दोस्त!
ज़ाहिर है कि अमृता जी को शैली के दोस्त पर भी लाड आ रहा था।
यह तो बहुत बाद में इंदरजीत ने अपना वजूद अमृता पर निछावर कर दिया। उन्होंने अपने नाम के अक्षर और अमृता जी के नाम के अक्षर मिला कर एक नया स्वरूप गढ़ा। दोनों नाम के अक्षर तोड़ कर, गूंद कर, नया नाम तराश लिया! इमरोज ’इ’ इंदरजीत का ’म’ अमृता जी का। ’र’ दोनों का ’ज’ इंदजीत का, ’ज’ के पाँव में बिंदी।
कई बार लोग मुझसे पूछते ’’वह तुम्हारी सहेली किसी मुसलमान के साथ रह रही है?’’
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तब अमृता जी रेडियो स्टेशन पर नौकरी करते थे। इमरोज़ उन्हें अपनी साईकल पर पीछे बिठा कर रेडियो स्टेशन ले जाता। वहां बैठा इंतजार करता रहता और उन्हें लेकर ही घर वापिस आता।
अमृता जी के ख़ावंद प्रीतम सिंह जी की होजरी की दुकान थी, सदर बाज़ार में। उनके पिता जी सरदार जगत सिंह कवातड़ा और उनके भाई, सभी मिल कर वह दुकान चलाते थे। दिल्ली आने से पहले उनकी दुकान लाहौर के सबसे बड़े और शानदार बाजार, अनारकली बाजार में थी। दिल्ली में उन्हें ’हिजरती जायदाद’ में से यह दुकान अलाट हुई थी।
प्रीतम सिंह तो सुबह के घर से निकले रात को घर लौटते थे। सारा दिन घर संभालना, शैली और कंदला को स्कूल भेजना, रेडियो स्टेशन की नौकरी पर जाना, खाना पकाना, सब कुछ अमृता जी ही करते थे।
अब उन्हें एक साथी मिल गया था जो उनका बोझ बंटा रहा था।
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यह दोस्ती शुरू इस तरह से हुई थी कि इंदरजीत ’शमा’ नाम की उर्दू पत्रिका, जो दरियागंज से निकलती थी, उन्हें अपनी लकीरों के साथ पेंटिंग से सजाने संवारने का काम करते थे। डिज़ाईनर थे वह। रहते थे ईस्ट पटेल नगर। अकेले।
’शमा’ में अमृता जी का नावल ’डाक्टर देव’ उर्दू में तर्जुमा होकर सीरियलाईज़ होना शुरू हुआ। यानि कि किश्तों में प्रकाशित होना शुरू हुआ।
हर किश्त का चेहरा इंदरजीत ही सवांरते थे, अपनी कलम से।
जैसे-जैसे वह नॉवल पढ़ते गये, लिखने वाली पर फिदा होते गये। एक दिन हिम्मत कर अमृता जी को फोन कर दिया।
’कौन’? अमृता जी ने पूछा
’’मैं….. डॉ. देव’’ इंदरजीत ने इतना कह कर फोन रख दिया।
यही वो ईलाही पल था, जिसमें से आधी सदी के इश्क का आगाज़ हुआ।
जिस तरह रब्ब ने एक आवाज़ दी और खंडों-ब्रह्माडों का, और लाखों करोड़ों सृष्टीयों का पासार फैल गया।
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डॉ. एम.एस. रंधावा जी ने यानी महेंद्र सिंह रंधावा ने दिल्ली में एक नई ’कालोनी’ बनाई ’हौज खास’। कमिश्नर थे वह दिल्ली के। सभी अदीबों के साहित्यकारों को, भापा प्रीतम सिंह को विशेष तौर पर बुला-बुला प्लाट दिये। पाँच हजार में पाँच सौ गज के प्लाट।
मुझे भी कहा था, यह भी कहा कि पाँच हजार अगर न हों तुम्हारे पास तो अभी मैं दे देता हूँ। तुम मुझे धीरे-धीरे थोड़े-थोड़े पैसे कर कर्ज लौटा देना। परंतु मुझ पर कम्युनिज़म का गलबा था। मैंने कहा ’रंधावा जी, मैं जायदादों के हक़ में नहीं। हम फकीर लोग हैं। झुग्गी में गुजर बसर करने वाले’’, ’’पगली हो तुम तो।’’
वह ’पंजाब का दुल्हा’ थे। यही नाम रखा था मैंने उनका, उनके रेखाचित्र, का अपनी नयीं पुस्तक ’नीला कुम्हार’ में।
भापा प्रीतम सिंह को भी प्लाट दिया।
पड़ौस वाला प्लाट, यानि दोनों की पीठ मिलती थी और दोनों की पिछली दीवारें एक थीं, अमृता जी को दे दिया।
कुछ समय पहले ही अमृता जी को साहित्य अकादमी अर्वाड मिला था। पाँच हजार रूपये। सो फटाफट उन्होंने पैसे भर कर प्लाट ले लिया।
वहां घर बनाने के लिए अमृता जी ने प्रीतम सिंह जी को कह कर पटेल नगर वाला घर बेच दिया। बच्चों को साथ लेकर प्रीतम सिंह जी अपने पिता के घर चले गये।
और घर बनाने के लिए अमृता जी ने और इंदरजीत ने उस प्लाट पर तंबू लगा लिया और वहीं रहने लगे।
ज्यादा समय नहीं लगा। पाँच छह महीनों में ही घर बन कर तैयार हो गया। सभी वहीं आकर रहने लगे।
इंदरजीत ने घर बनाने के लिए अमृतसर अपने भाई के पास से हिस्सा लेकर इस घर को बनाने में ही लगा दिया था। सो उसका हक़ बनता था वहां रहने का।
इस घर के निर्माण ने, इस घर में इक्कठा रहना शुरू करने से उनके इश्क पर मोहर लग गई। प्रीतम सिंह जी ने भी मंजूर कर लिया।
मैंने अपने स्केच ’मल्लिका-ए-आलिया पुस्तक (नीला कुम्हार) में बताया है कि अगर वह दोनों अंदर प्यार कर रहे हों और प्रीतम सिंह सिर दुखने के कारण जल्दी घर आ जाये तो वह बाहर लान में बैठ कर चौंकीदारी करते कि कोई उन दोनों को डिस्टर्ब न करे।
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इंदरजीत अब बकायदा अमृता जी की ज़िंदगी का हिस्सा बन चुके थे। प्रीतम सिंह जी अपने पिता के घर जा चुके थे। इंदरजीत के पास अब बच्चों को प्यार करने के लिए समय ही समय था। बच्चे उन पर फ़िदा थे।
बाद में जब कंदला का विवाह हो गया और उसके बच्चे हो गये, वह उन्हें कंधों पर बिठा कर झुलाते। कहते ’’मुझे बाबा कह कर बुलाओ, बाबा कहोगे तो मैं मार्किट ले जाऊँगा। लॉलीपाप लेकर दूँगा’’।
बच्चे उनकी गोद में ही बड़े हुए।
शैली की पहली पत्नी तो उसे छोड़ कर चली गई। दूसरी पत्नी अलका तो बिल्कुल भगवान का रूप थी। अलका के सर पर प्यार से हाथ रख कर बोलते ’’हमारी बहू तो जैसे भगवान का रूप है।’’
खुद को हमेशा अपनी उम्र से बड़ा बताने की कोशिश करते ताकि वह अमृता जी से छोटे न लगे, जो वह वास्तव में थे।
उन्होंने अपनी उम्र बड़ी कर ली, अपने पूरे अस्तित्व को अमृता जी में ही जज़्ब कर दिया।
पूरा दिन पुस्तकों के कवर बनाते। पत्रिका में ड्राईंग कर कविता-कहानियों को श्रंगारते।
अमृता जी की हर पुस्तक का कवर तो खैर इंदरजीत ने ही बनाना था, उनकी हिंदी और उर्दू में तर्जुमा हुए नावलों के विज्ञापन भी उन्होंने ही बनाये।
ऐसे ही एक विज्ञापन से जो ’स्टार पाकेट बुक्स’ के जरनल में प्रकाशित हुआ था, के साथ ऐसा तुफान उठा कि पूरी जिंदगी कृष्णा सोबती के साथ उनका मुकद्दमा चलता ही रहा।
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फिर इंदरजीत ने खुद के नाम को ही फ़नाह कर दिया और नया नाम रखा ’इमरोज़’।
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इमरोज़ सारा दिर पूरे घर में चिड़ियों की तरह चहकते रहते अपनी पेंटिंगस बनाते, टेप रिकार्ड पर सूफी क्लाम सुनते, गज़ले सुनते, टेलीफोन सुनते, अमृता जी की हर जरूरत उसी वक्त पूरी करते। बच्चों को लाड लडाते। उन्हें सैर कराने ले जाते। सुबह एक लड़की आती थी, उससे कमरों की, रसोई की, गुसलखानों की सफाई करवाते। मार्किट जाकर सब्जी और फल और घर का सामान लाते। रसोई में सब्जी काट देते, आटा गूंद देते। सब्जी को छौंक अमृता जी लगाते और गोल-गोल रोटी अमृता जी बेलते। तवे से फुला-फुला कर रोटी इमरोज़ उतारते।
रसोई में हमेशा इक्कठे ही होते, रोटी पकाते समय।
बाकी सारा दिन इमरोज़ जाये तो जाये उसकी रसोई। दोनो को चाय पीने का शौंक। आने-जाने वालों के लिए चाय बनती। चाय हमेशा इमरोज़ ही बनाते।
इमरोज़ अमृता जी की आँखों की झिमनीयों की कंपन से ही भांप लेते कि अमृता को चाय चाहिए या सिगरोट। बोलने की जरूरत ही बाकी नहीं बची थी। दोनों के सांँस एक हो चुके थे।
ऐसा इश्क कहीं ओर भी होगा, दो मनुष्यों के दरमियान, इस तरह भी कोई एक दूसरे में घुल जाता होगा, मुझे नहीं मालुम।
मुझे इल्म नहीं।
मैंने तो यह एकम-एक करिश्मा देखा है। अमृता इमरोज़ के इश्क का।
हाँ सच, मैं तो बताना ही भूल गई कि हौज ख़ास वाले घर में शिफ्ट होने के कुछ समय पश्चात एक छोटी सी काले रंग की कार खरीद ली गई थी। उस कार में वह पहले तो अमृता जी को रेडियो स्टेशन ले जाता रहा, उसी कार में वह उनका इंतजार करता रहा, और कार में कैसेट लगा कर सुलतान बाहु सुनता।
सुलतान बाहु के बोल उसे बहुत पसंद थे और बेगम अख़्तार की ग़ज़लें भी।
रेडियो स्टेशन पर जितना भी वक्त लगे वह बाहर कार में बैठ कर इंतजार करता और फिर उन्हे घर ले आता।
इमरोज़ लंबे इंतजार कर सकता था।
इमरोज़ लंबे इश्क कर सकता था।
इमरोज़ लंबे समय तक, प्रभात से लेकर गहरी रात तक, लगातार काम कर सकता था।
अमृता जी दोपहर के समय घंटा डेढ़ घंटा सोते थे। इमरोज़ उस समय अपनी पेंटिंगस बनाता।
अमृता जी का सारा घर इमरोज़ की कला से श्रृंगारा हुआ था। बाहर वाले दरवाजे पर लगी ’अमृता प्रीतम’ नाम की प्लेट। अंदर जाकर सीढ़ियां चढ़ते समय चौखट ऊपर लगे बल्ब पर एक छोटी सी टोकरी उल्टी कर लैंप शेड बनाया हुआ। रोशनी कैद नहीं की हुई, छन-छन कर खिलती हुई, लुढ़कती-लुढ़कती बाहर रही होती।
सीढ़ियों से उतर कर छोटा सा बरामदा। यानी बरामदी सी। जिस में एक रंग-बिरंगा मेज था जिस पर बैठ कर वह खाना खाते थे एक खिड़की जो अंदर कमरे की ओर खुलती थी। उस में एक फोन पड़ा होता। बरामदे में, अंदर वाले कमरे में, बड़े-बड़े फानूसों की तरह इमरोज़ के चित्र लटक रहे होते। साथ वाला कमरा अमृता जी के सोने वाला, लिखने वाला कमरा, बहुत ही नजदीकी दोस्तों को मिलने का कमरा, अगर बहुत ही करीबी हों, और सजा-सजा कर रखी हुई उनकी अपनी किताबों वाला कमरा।
हर कमरे में इमरोज़ के चित्र।
सूफी कलाम में से चुनी पंक्तियों के चित्र बनाता वह।
उसके हर चित्र का चेहरा अमृता का ही चेहरा था। हर तरफ अमृता। हर जगह अमृता! रोम-रोम में अमृता।
बरामदे की दूसरी ओर भी दो कमरे थे। एक कमरा इमरोज़ का पेंटिंग करने वाला कमरा। साथ वाला कमरा, बाईं ओर का कमरा बाद में ’नागमणी’ का कमरा बन गया।
’नागमणी’ के पहले सफे पर लिखा होता : कामगार! अमृता और इमरोज़।
नागमणी को प्रकाशित करवाना, पैक करना, लोगों के पते पैकेटस पर चिपकाने पोस्ट आफिस जाकर पोस्ट करने, यह सभी काम इमरोज़ ही करता। भाग-भाग कर। चाव से।
’नागमणी’ के दोनों माँ-बाप थे।
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जिंदगी के आखिर के तीन साल अमृता जी बहुत बीमार हो गई। आखि़र के डेढ़ साल वह कभी आधी और कभी पूरी बेहोशी में ही थी।
उनकी सेवा करने वाले दो ही इंसान थे : इमरोज़ और उनकी बहू अलका।
शैली मुंबई शिफ्ट हो गया था, फिल्में बनानी चाहता था वह। वैसे उसने आर्किटेक्ट की ट्रेनिंग की हुई थी, परंतु अपनी सारी उम्र में उसने केवल एक दोस्त का ही फार्महाऊस बनाया बस। उसे निठल्ले रहना और दारू पीना बहुत पसंद था। और कंदला अपने बच्चों के साथ विलायत चली गई थी।
आखि़र के समय तो बार-बार उनका बिस्तर गीला हो जाता। इमरोज़ उन्हें गोद में उठा कर गुसलखाने में ले जाते और साफ कर देते। इतने में अलका उनका नया बिस्तर बिछा देती।
वह दिवाली से पहले का दिन था, जिस दिन शाम के समय रणुका का फोन आया, ’’अमृता जी चली गईं।’’
हम दोनों मैं और मेरी बेटी अर्पणा भागी गईं। अमृता जी के घर बस दो चार ही आदमी थे।
हमारा रोना निकल गया। ज़ाहिर है उम्र भर की दोस्ती थी, इमरोज़ ने हम दोनों को गले लगा लिया। बोले ’’वह कहीं नहीं गई। वह हमारे पास ही है।’’
एक कार तो थी ही। दूसरी रेणुका की और तीसरी शायद चन्न की। यही हमारा छोटा सा काफिला था, पंजाबी की ’मल्लिका-ए-आलिया’ को रूख़सती सफ़र पर ले जाने के लिए।
फिर इमरोज़ ने बड़े सहज के साथ, धीरे-धीरे बड़े लाड के साथ उन्हें बैड-कवर में लपेट लिया और गोद में उठा कर सीढ़ीयों से नीचे उत्तर आये।
हम सभी कारों में बैठ गये।
रास्ते में दिवाली की पहली शाम की चकाचौंध थी।
मुझे हैरानी हो रही थी ’’इन्हें नहीं पता, कि कौन जा रहा है, शमशान की ओर?’’
शमशान घाट में इमरोज़ हम सभी को दिलासा दे रहे थे, किसी पहुँचे हुए संत की तरह।
’’अमृता कहीं नहीं गई। वह मरी नहीं। वह बीज बन गई है।’’
बार-बार इमरोज़ यही कर रहा था कि ’’अमृता बीज बन गई है।’’ शैली दिवाली के दिन दिल्ली आया हुआ था। पंडित ने पूछा ’’कौन है इनका बेटा, जो अग्नि देगा?’’
शैली ने हक़ जतलाया ’’मैं’’।
अमृता जी इतने पतले और बारीक हो चुके थे कि थोड़ी सी लकड़ियों की चिता पंडित और इमरोज़ ने मिल कर चिन दी।
इमरोज़ के चेहरे पर अजीब सा सहज शांति थी, जैसे वो अपने मुरशद की चिता चिण रहा हो।
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अमृता जी अपनी वसीयत में लिख गये थे कि उनके सोने वाले कमरे के साथ वाला कमरा म्यूज़ियम बनाया जाये। इमरोज़ का कमरा, इमरोज़ का ही रहे, जितना समय वह जिंदा है उसका कमरा उसका ही रहे।
और साथ वाले कमरे में अमृता जी की पुस्तकें। क्योंकि अब वह अपनी पुस्तकें खुद ही प्रकाशित करने लग पड़े थे।
ओ! सच, यह मकान की पहली मंजिल थी, जो बाद में बनी, नीचे वाली मंजिल उन्होंने कंदला और शैली के नाम कर दी थी वसीयत में।
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परंतु उनकी मौत के बाद शैली ने वह मकान बेच दिया। मकान के साथ अमृता जी का म्यूज़ियम भी गया और बाकी सब हिदायतें भी।
शैली ने इमरोज़ को ग्रेटर कैलाश में एक छोटा सा फ्लैट ले दिया और बाकी सब पैसे लेकर मुंबई चला गया। पैसों की खातिर ही शायद उसका कत्ल हो गया।
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इमरोज़ अब कवितायें लिखने लगा।
मासूम सी कवितायें लोग सुनते। वाह-वाह करते।
प्रकाशित भी हो गईं नज्में, क्योंकि वह इमरोज़ थे। अमृता के जन्म साथी इमरोज़।
फिर उन्होंने अपने बाल लंबे कर लिये। बारीक-बारीक लटे उनके माथे पर झूलती। आँखों के आगे से वह हाथों से लटे हटाते रहते।
छोटे से फ़क़ीर नज़र आते।
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फिर शैली के बच्चे उन्हें अपने साथ मुंबई ले गये। आखिर ’बाबा के कंधों पर चढ़-चढ़ कर उन्होंने अपना बचपन बिताया था।
बच्चों ने उनकी बड़ी सेवा की। उन्हें अल्जाइमर हो गया। सारी यादाशत गुम, अपने होश भी गुम। शैली के बच्चों ने ही उन्हें संभाला, सेवा की।
फिर अचानक 22 दिसंबर की सवेर को वह विदा हो गया। अलविदा, हमारे प्यारे लाडले फकीर इमरोज़
अलविदा! अलविदा!
पंजाबी से अनुवाद : भूपिंदर कौर प्रीत
लेखिका: अजीत कौर
बहुत ही शानदार। मैं भी इमरोज जी को मुस्लिम ही समझती थी।