क्लासिक नाटक की क्लास प्रस्तुति – चारुदत्तम्
पिछले दिनों मुम्बई के ‘थिएटरवाला’ नाट्यसमूह ने ‘नटेश्वर’ समूह के सहयोग से मुम्बई के वर्सोवा इलाक़े में स्थित आरामनगर के ‘बेदा ब्लैक बॉक्स’ में प्रस्तुत किया – ढाई हज़ार सालों पहले के कवि-नाटककार भास लिखित नाटक ‘चारुदत्तम्’। इससे पहले भोपाल आदि में इसके और भी शोज़ हो चुके हैं। इसका निर्देशन किया है राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से प्रशिक्षित एवं अब वहीं प्रशिक्षक के रूप में कार्यरत श्री रामजी बाली ने। जानना-मिलना तो उनसे कुछ अरसे से है, काम पहली बार देखा…और बहुत अच्छा लगा – ‘प्रथम मिलन’ की तरह आकृष्ट कर देने वाला…। सो, उनके लिए मन में मान काफ़ी बढ़ गया…।
ज़ाहिर है कि ‘चारुदत्तम् जैसे क्लासिक नाटक के इन ढाई हज़ार सालों में कई अनुवाद व कई व्याख्याएँ सुलभ हैं। कुछ दिनों पहले ‘भास समग्र’ में भार्गवजी का पढ़ा, जो काफ़ी बदला हुआ व असड्ढल लगा, लेकिन किसी सुरेंद्रनाथ दीक्षित का यह रूपांतर मूल की भाषिकता को हिन्दी में निभाता हुआ उसके पर्याप्त निकट और काफ़ी सटीक लगा। इसमें भास की भाषिकता का विशुद्ध हिन्दीमयता में निर्वाह तो हुआ ही है, आम दर्शक तक के लिए सरल ग्राह्य बन पड़ा है। इसीलिए तो आज जब अंग्रेज़ी-मिश्रण के बिना बनी हिन्दी को सुनकर लोग असहज महसूस करने लगते हैं, यहाँ इस छोटे-से सभास्थल में मौजूद दर्शक समूह न ही सिर्फ़ सहजता से समझ रहा था, बल्कि उसका आनन्द भी ले रहा था। इस भाषिकता को कलाकारों ने सही उच्चारण के साथ सहज बनाने का भरपूर प्रयत्न किया, जो खूब खुला ज़रूर है, लेकिन आगे के शोज़ में अभ्यास से और निखरेगा, तो और खिलेगा भी…। इस प्रयत्न व परिणाम में निर्देशक का ‘भीतर हाथ सहारि दै’ की भूमिका भी अवश्य निहित है। श्लोकों को कविता में बाँधना भी सराहनीय है, जिसमें काव्यत्व भले कम आया हो, पर वे गेयता के साथ मनोरम बन पड़े हैं और समझने में आसान हो गये हैं…। कुल मिलाकर आज की गलबल बातचीत के बीच यह इस नाटक की उल्लेख्य विशेषता है कि आलेख के मुताबिक़ भाषा जंचती तो है ही, ‘तपन में शीतल मंद बयार’ जैसी भाती है…। अब इसके असर में इस समीक्षा की भाषा भी किंचित उसी की अनुहारि बन जाये, तो श्रेय भास एवं इस प्रस्तुति के कर्त्ताओं को ही जायेगा।
नाटक मूलतः संस्कृत का है, तो इसके अच्छे लगने के सबसे बड़े कारण के लिए भी संस्कृत की सूक्ति ही याद आ रही है – ‘क़्रिया-सिद्धि: सत्त्वे भवति महतां नोपकरणे’ – ‘महान लोगों की कार्यसिद्धि साधनों से नहीं, साधना से होती है’…। वरना इस ‘बेदा’ अड्डे की इतनी संकीर्ण (कंजस्टेड) जगह पर जहां न ठीक से मंच हो, न नेपथ्य और न ही प्रवेश-निर्गम के सुविहित द्वार…लेकिन इसी उस शाम निर्देशक द्वारा करा देने की दृष्टि और उसे साकार कर देने का कौशल एवं कलाकारों द्वारा मंच पर इसे अंजाम तक पहुँचा देने की अभिनय-क्षमता का ही कमाल है कि एक बार पर्दा उठा (यहाँ पर्दा न था; सो, बस नाटक खुला), तो अबाध गति से एक पर एक दृश्य रील की तरह अविरल आते गये, उनसे बनती घटनाएँ और घटनाओं में पिरो-पिरो उठती कथा…परत-दर-परत खुलती गयी…सारे अभिनेता चरित्रमय होकर मन में बसते चले गये…न कहीं ज़रूरत लगी रुकने की, न ही रोके जाने की याद आयी…। और बिना मध्यांतर के एक बैठे में पूरा नाटक मन में यूँ समाता गया – गोया ‘तेरी निगाह दिलों में यूँ ही उतर आयी’!!
इस बड़ी ख़ासियत के चलते ही मैं कहूँगा कि यह सच्चे अर्थों में नाटक है, वरना आज तो नाटक को नाटक बनाने के लिए बहुत सारे नाटक किये जाते हैं…। इस नाटक में गुंजाइश भी खूब थी। जैसे – नाटक की नायिका है – वसंतसेना नाम की एक प्रख्यात गणिका, अनिंद्य सुंदरी। उसके बहव: इस्तेमाल हो सकते थे। फिर राजा का बदमाश साला शकार उसे पाने की फ़िराक़ में रहता है। एक शाम उसे अकेले पाकर अपने पट्ठों के साथ पीछा करता है। अब इस दृश्य का तो मनचाहा उपयोग अनगिन तरह से किया जा सकता था, लेकिन उन सब चटकारेपनों से बचकर जिस नाटकीयता से इसे दिखाया गया है कि शब्दों-अदाओं में इरादे व कोशिशें खूब दिख जाती हैं, बात दर्शक तक पहुँच जाती है और दृश्य-नियोजन की निर्देशन-कला ऐसी कि न फूहड़ता आती, न बदमजगी उठती – दृश्य ज्यादा समय-खाऊ भी नहीं होता…। याने कुछ खुलता भी नहीं और सब कुछ दृश्यमान भी हो जाता है। यूँ इस थीम के उपयोग बढ़ भी सकते थे – दुबारा भी पीछा हो सकता था, पर जहां तक मुझे याद आ रहा – इस पूरे मामले पर वही एक दृश्य है। इसमें सत्ता की भ्रष्टता परवान भी चढ़ जाती है, नाट्यमयता उड़ान भी ऊँची भर लेती है।
भासजी ने नाटक में संयोगवश हुए इस मिलन-दृश्य का दोहरा-तेहरा उपयोग किया है…कहानी में दो प्रेम के तीन कोने (त्रिकोण) बनते हैं, जो संक्षेप में यूँ हैं…कि शकार से बचकर भागते हुए वसंतसेना जिस घर में सहसा पहुँच जाती है, वह नाटक के नायक चारुदत्त का घर है और ये दोनो किसी उत्सव में पहले मिल भी चुके हैं और मन ही मन एक दूसरे के प्रति आकृष्ट भी हो चुके हैं। ऐसे संयोगों का खूब उपयोग हुआ है नाटक में, जो उस युग की नाट्य-प्रवृत्ति थी और आधुनिक विद्वत्-समाज के लिए शायद यह आलोच्य भी हो। भेंट होने के इस पहले दृश्य में प्रेम का परमान दैहिक या किसी भी स्तर पर कुछ पाने का नहीं, बल्कि देने का होता है – याने भोग नहीं, त्याग। घर आकर वसंतसेना जान जाती है कि चारुदत्त बहुत गरीब है, तो बाहर लेके जाने में लुट जाने का ख़तरा बताकर वह भारी क़ीमत वाले अपने गहनों की पोटली चारुदत्त को दे जाती है। याने जो प्यार सिर्फ़ मन में है, अभी ज़ुबान पर उतरा तक नहीं…उसकी यह क़ीमत अदा हो रही…, तो कितना बेशक़ीमत होगा वह भाव…!!
दूसरा कोण यह कि वसंतसेना की सेविका मदनिका से सज्जनक नामक एक व्यक्ति प्यार करता है, लेकिन जब तक मदनिका दासी है, विवाह नहीं कर सकती। उसे दासत्व से मुक्त कराने हेतु धन के लिए चोरी करने वह चारुदत्त के घर ही पहुँचता है – एक और संयोग, जो निर्णायक साबित होता है। उस काल में चोरी भी कला होती थी – चौर्य कला। अतः सज्जनक सेंध भी कलात्मक ढंग से काटता है। अभिनय के लिए मिले कम समय में भी विमलकुमार ने मूल चरित्र का आभास करा दिया है और मदनिका भी दासी के प्रायः दबे पात्रत्व में भी छाप छोड़ जाती है। ये चोर और गणिका लोग समाज में आदृत वर्ग के नहीं हैं, लेकिन इंसान बड़े हैं। ‘कहीं एक मासूम-सी रहगुज़र पर फटेहाल मुफ़लिस वफ़ादार निकले’ को साधती हुई यह भास के सृजन की ख़ासियत है। कथ्य का तीसरा कोण यह कि गहनों की चोरी की भरपाई के लिए चारुदत्त अपनी पत्नी का एकमात्र बचा मुक्ताहार अपने परम मित्र मैत्रेय के हाथों भेजता है। मैत्रेय की रचना भी अच्छे फ़न का एक मानक है, जिसे काफ़ी हद तक विमल कुमार अंजाम तक पहुँचाते हैं। इधर मैत्रेय पहुँचता है, उधर सज्जनक के लाये गहने को देखते ही मदनिका पहचान जाती है…और स्वामिनी को दिखाने पहुँचती है। सबके अपने-अपने सदुद्देशय से किये गये सत्कर्म सबके सामने हो जाते हैं…। अब बताने की बात नहीं कि ‘चारुदत्तम्’ नाटक में सबको अपनी-अपनी मुराद अपनी-अपनी तरह से मिल जाती है…।
सिद्ध होता है कि नाटक में खलपात्रत्व जिस तरह बस कथा को शुरू कराने आया था…कारण अवश्य बन गया पूरे नाटक के बनने का, उसी तरह नाटक में नायक-नायिका के रूप में चारुदत्त-वसंतसेना स्थापित तो हो जाते हैं, लेकिन मंच पर उन्हें भी समय लगभग समान ही मिलता है। और इनके लिए आधार शर्मा और अदनिका का चयन भी कोई रूप-रंग़ देखकर किया गया नहीं लगता। इस सजगता-सहजता का बहुत अच्छा असर पड़ता है। दोनो अपने पात्रत्व के नाम से पहचाने जाते अवश्य हैं, लेकिन याद आ रहे हैं अपने सादे-सधे काम के कारण। और यह बात भी इस नाटक को नाटकोचित दर्जा देती है।
इतने पुरा काल को आज का बना देने के लिए कोई दृश्य प्रयत्न दिखता नहीं – शायद वह इस कथा एवं अन्तर्वस्तु में निहित है, समायी है…लेकिन उसका पता कराने के लिए परिधान व उसके रंगों का जैसा अनायास एवं सांकेतिक उपयोग किया गया है, वह दिखता तो आदि से अन्त तक है, भाता भी है, लेकिन इसकी समझ अनुभूति के रूप में आलोकित अब हुई है – लिखते हुए उस लोक में विचरण करने की मानसिक प्रक्रिया – याने यादों में…।
इस प्रकार ढाई हज़ार सालों से अधिक पुराने नाटक ‘चारुदत्तम्’ को देखना मेरे लिए अत्यंत लोमहर्षक अनुभव रहा…। पूरे नाट्य-दल को बधाई…और अधिकाधिक शोज़ होने तथा इसी संगति के साथ प्रस्तुति के मंजने-निखरने-बेलसने की मंगलेच्छाएँ…!!