शख्सियत

महामहिम और अपनी लंगोटिया यारी को याद करते हुए

 

-1-

उत्तरप्रदेश के देवरिया शहर में ‘देवरिया ख़ास’ इलाक़े के मूल रहिवासी… हैं तो वस्तुतः अरूणेशमणि त्रिपाठी, पर साहित्य जगत उन्हें ‘डॉक्टर अरुणेश नीरन’ नाम से जानता है और कहता है ‘नीरनजी’। मूल नाम अरुणेश तो नामकरण से मिला है और हैं ये ब्राह्मणों में त्रिपाठी। लेकिन अरुणेश के बाद ‘मणि’ लगता है, जो शायद पंक्तिपावन होने की सार्थकता (ब्राह्मणों में मणि समान) का वाचक होकर तकनीक की तरह जुड़ गया है। हालाँकि वे व्यावहारिक जीवन में कोई ख़ास पंक्तिपावनी यम-नियम-आचार निभाते नहीं। इसमें उनकी हिन्दी के डॉक्टरेट की योग्यता को मिलाकर पूरा नाम बनता है – डॉक्टर अरुणेशमणि त्रिपाठी। और ‘नीरन’ इनका स्वतः ग्रहीत ही होगा, जो विरल होते हुए भी बहु प्रचलित होकर इतना सहज हो गया है कि इसका मर्म न हमने कभी पूछा, न उन्होंने बताया – याने इस पर कभी चर्चा ही न हुई। लेकिन एक मर्म एक बार अनायास खुल गया…। असल में नीरनजी सबके साथ हँसी-ठट्टा करते रहते हैं…चर्चा आगे होगी…। इसे उनके व्यक्तित्त्व का एक स्थायी भाव कहा जा सकता है। इसमें एक दूसरे की जमके खिंचाई होती है…। अपनी इसी वृत्ति में जब उन्होंने अपने अंचल के हमपेशा एवं सरनाम साहित्यिक हस्ती रामदेव शुक्ल और भोजपुरी के उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘ग्रामदेवता’ के नाम की अदला-बदली करके उन्हें ‘ग्रामदेव शुक्ल’ और उपन्यास को ‘राम देवता’ कहना शुरू किया, तो गहरे साहित्यिक रामदेवजी ने भी इन्हें अरुणेश ‘बेपानी’ कहना शुरू कर दिया। नतीजा यह हुआ कि उसके बाद नीरनजी ने उन्हें ग्रामदेव कहना बंद कर दिया, तो उन्होंने ‘बेपानी’ भी कहना छोड़ दिया। यह दिल्लगी (जिसमें दिल लगा रहे) तो इतिहास बन गयी, लेकिन इस वाक़ये से नीरन शब्द का एक अर्थ नुमायाँ अवश्य हुआ – नीर+न याने बेपानी।

हमारे महामहिम तो वे बाद में बने, जब उन्होंने एक यात्रीदल बनाया, जिसमें हम दोनो के सिवा ब्रजेंद्र त्रिपाठी एवं डॉक्टर उदय प्रकाश पांडेय उर्फ़ प्रकाश उदय शामिल हैं। इसमें भी यात्रा कहाँ की व कब होनी है…आदि सब तो अन्तिम रूप से नीरनजी ही तय करते हैं। इसमें अब तक हमने दो-तीन बार हिमालय की यात्रा के अलावा एक बार पूर्वांचल और एक बार उत्तराखंड की यात्रा कर चुके हैं। सुंदरवन भी गये हैं, पर उसमें मैं न जा सका था। हममे सबसे बड़े नीरनजी ही हैं और ऊँची चोटियों पर वे नहीं जाते। नीचे बैठे रहते हैं। पिछली यात्रा में तो वे कुछ भी देखने गये ही नहीं – सिर्फ़ होटेल में सोते रहे…। याने सिर्फ़ हमारे लिए ही गये…। ऐसे शख़्स पर भला कौन होगा, जो वार न जायेगा? अभी पिछले दिनों पश्चिम प्रदेश की यात्रा में जाने के टिकिट बन गये थे, पर महामहिम की तबियत अचानक बिगड़ गयी और टिकिट कैंसिल हो गये…। बहरहाल, जितनी यात्रा कार से होती है, चालक की बग़ल वाली सीट नीरनजी के लिए सनातन रूप से सुरक्षित रहती है। और उस पर बैठ के वे ऐसे परम प्रमुदित (फुल्ली फुल्फ़िल्ड) होते हैं, जैसे उन्हें त्रिलोक का सुख मिल रहा हो…। और इसी सुख के सम्मान स्वरूप यात्री-दल ने उन्हें ‘महामहिम’ पदवी से नवाज़ा है…सो, हम चारो के बीच वे न नीरन हैं, न अरुणेश, न डॉक्टर साहब। न गुरूजी-उरूजी…, बल्कि सिर्फ़ और सिर्फ़ ‘महामहिम’ हैं…इति नाम-माहात्म्यम्। 

इस डॉक्टर अरुणेश नीरनजी से मेरी दोस्ती दुनिया में मित्रता के सारे पैमानों पर खरा भी उतरती है और उनके पार भी चली जाती है…। शायद हर अच्छी दोस्ती का हाल यही होता होगा…!! दोस्ती के पैमानों-मान्यताओं से अलग का एक मानक उदाहरण दूँगा…भर्तृहरि ने लिखा है –

‘आरम्भ गुर्वी, क्षयिणी क्रमेण, लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात्।

दिनस्य पूर्वार्ध-परार्ध भिन्ना, छायेव मैत्री खलु सज्जनानाम्।।’

(दुनिया में व्याप्त मित्रता की प्रकृति यही है कि जो दोस्ती शुरू होते ही अपने चरम पर पहुँच जाये, वह धीरे-धीरे क्षीण होती जाती है और जो धीरे-धीरे आगे बढ़ती हैं, वह अपने चरम तक जाती है – जैसे दिन का पूर्वार्ध और परार्ध…)

लेकिन हमारी दोस्ती ने भर्तृहरि के इस कथन को झुठला दिया। यह प्रथम मिलन के दौरान ही अपने चरम पर पहुँच गयी और फिर कभी उससे नीचे न आयी…!! मुझे खूब याद है कि तीन दिनों की पहली ही भेंट में छूटते ही उन्होंने सबके बीच बड़ी शान से कहा था – ‘अब तक मेरे परम चहेते तीन मित्र रहे – अब चौथे तुम हो गये हो। तब वे तीन थे – शंकरलाल पुरोहित (उड़ीसा), चंद्रभाल द्विवेदी (वाराणसी) और उनके गृह नगर देवरिया के आमोद त्रिपाठी। लेकिन कालांतर में यह सिद्ध हुआ – बल्कि कहें कि बोलने की रौ में हमेशा सुनायी पड़ता रहा कि किसी भी प्रिय से वे अपने चार यार गिनाते पाये जाते, जिनमे चौथा वह सामने वाला होता – और बाक़ी तीन कोई भी, जिसमें बैरिस्टर तिवारी, राजेन्द्र पांडेय, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी…आदि में से लोग होते थे – जब जो उनके सामने रहे या उनको याद आ जाये…। याने यह उनका क्लीशे है और ऐसे क्लीशे उनके पास तमाम हैं, जो मजलिस से लेकर एक-दो जनों के बीच तक चलती बातों-गप्पों में धड़ल्ले से चलते रहते हैं…। यह उनके जीवन-व्यवहार की शैली है – जीने, जम के जीने व जीने के मज़े लेने की शैली…। और हमारी दोस्ती का यही एक बड़ा राज है – खुला और सर्वविदित राज़ – ‘ओपेण्ड एंड जनरल सेक्रेट’। मेरा दोस्त (मुझसे बड़ी उम्र का) वही हो सकता है, जो अपने बारे में भी रू-ब-रू कही जाती मेरी मुँहफट्ट बातों (सचाइयों) को बर्दाश्त कर ले…और नीरनजी का दोस्त वही हो सकता है, जो उनकी ऐसी ढेरों गप्पों, किसी हानि-लाभ से रहित निरी अतिरंजनाओं-अतिशयोक्तियों भरे क्लीशों को उनके सामने सच मान के सुन ले… और हो सके, तो सराहे भी…। और हम दोनो ने शायद अनजाने-अनकहे ही इसे मान लिया, ऐसा कर लिया…और आज तक करते हुए साथ हैं…! यह अलग बात है कि मेरी मुँहफट्टई के लिए वे कभी-कभार मुझे ‘कलजिब्भा’ कहते हैं। और उनके क्लीशे का ‘चार यार’ वाला एक उदाहरण मैंने दिया – कुछ और भी आगे आते रहेंगे…लेकिन अपनी मुंहपफ़ट्टई के उदाहरण मैं क्यों दूँ – महामहिम स्वत: दें या लोग दें…। वैसे मुझे जानने वाले सभी यह जानते हैं – पुनः वही ‘सर्वविदित राज़’…!!

अब रह गया शीर्षक का शब्द – ‘लंगोटिया’, जो जाहिर है कि यहाँ शाब्दिक नहीं – आख़िर लंगोट पहनने की उमर से तो हम साथ हैं नहीं!! सो, यहाँ यह सोद्देश्य रूप से व्यावहारिक यूँ है कि अच्छी दोस्तियों में कुछ राज़ की बातें साझा होती हैं…। और मेरा मानना है कि ये राज़दारियाँ समाज-प्रदत्त हैं, वरना जो कुछ भी तन-मन से किया जाये, छिपाने का नहीं होता, लेकिन समाज ने नैतिकता के नाम पर ऐसी ढेरों वर्जनाएँ बना दी हैं, जिसे करना अनुचित व दोष-पाप माना जाता है – करने वाले बदनाम होते हैं। बक़ौल बच्चनजी – ‘मै छिपाना जानता, तो जग मुझे साधू समझता, हो रहा है वासनामय छलरहित उद्गार मेरा’। गरज ये कि वर्जनाओं का उल्लंघन सभी लोग कभी न कभी, कहीं न कहीं थोड़ा-बहुत करते हैं और छिपा लेते हैं…और ये बातें जिन दो के बीच छिपायी नहीं जातीं, वही लंगोटिया यारी हो जाती है। जैसे लंगोट पहनते हैं, पर उसे छिपाये रहते हैं, वैसे ही वर्जित को किया-कहा तो जाता है, पर उसे लंगोट की तरह छिपा लिया जाता है। ज़ाहिर है कि वह सब यहाँ भी न आयेगा। असल में हमारी जैसी दोस्ती के लिए महाभारत में कृष्ण-अर्जुन की मैत्री के संदर्भ में बहुत अच्छा शब्द आया है – ‘विक्रांतानि-रतानि च’। उसी सब को मिलाकर बना है यह लंगोटियापना, जो हमारे बीच न होता, तो यारी की कोई गति-सुगति न होती…और तब यह संस्मरण भी न होता…!! 

अब उस पहले मिलन पर आयें …हमारा वह पहला मिलन पिछली शताब्दी के अन्तिमदो-एक वर्षों के दौरान हुआ था…। इस प्रकार अब जब 2024 में यह लेख लिखा जा रहा है, हमारी मित्रता की रजत जयंती हो चुकी है – गोकि मनायी नहीं गयी, क्योंकि गिनता कौन है? यह तो लिखते हुए याद आ रहा है…। और यह लेख भी अरूणेशजी के अमृत वर्ष (75वें साल) के उपलक्ष्य में उनके अभिनंदनग्रंथ के लिए आयोजकों के अटाल्य आदेश पर लिखा जा रहा है – गोकि अब उनका 78वां चल रहा…ग्रंथ आते-आते शायद 80वां हो जाये…!! इसे हम अपने हिन्दी प्रदेश की बेपरवाह (मुम्बई का शब्द ‘बिंधास’ ज्यादा सटीक होता) प्रकृति की ख़ासियत कह लें, या ‘परम काहिली’ कह लें – कि यहाँ दो-चार साल इधर-उधर हो जाना आम बात है…। इनके 75वें का भव्य समारोह भी तो हमारी उपस्थिति में 77वें में हुआ…!! देश से उनके चुने हुए मित्र आये थे – पूरा शहर तो था ही…। और लिखने का यह प्रस्ताव भी चार साल से था…। ख़ैर,

वह पहली भेंट दिल्ली में ‘अंतरराष्ट्रीय भोजपुरी सचिवालय’ के राष्ट्रीय सम्मेलन में हुई। उसी में मैं इस संस्था से पहली बार जुड़ा था…। संगठन से मेरे जुड़ने के बायस बने थे – वरिष्ठ आई.ए.एस. अधिकारी (अब दस-बारह सालों से सेवामुक्त) सतीश त्रिपाठी, जो इस संगठन के प्रणेता रहे हैं और इसके तहत होते सम्मेलन एवं तमाम गतिविधियों के मूल नियामक भी। लेकिन इसके महासचिव के रूप में कर्त्ता-धर्ता रहे अपने यही नीरनजी…!! इस तरह नीरनजी से मिलने का सारा श्रेय तो सतीशजी को जाता है…। हाँ, इसे लंगोटियापने के आयाम तक ले आना हमारी अपनी पसंदगी व बातों-कामों की साझेदारी से बना…, लेकिन इसके अगुआ नीरनजी ही रहे – मैं तो अनुवर्ती होकर ही लगा रहा…। लेकिन हमारे मिलने से पहले सतीशजी ने मेरे बारे में नीरनजी से क्या कहा होगा ऐसा…(या बिना कुछ कहे – यूँ ही ऐसा हुआ) कि वे मुझसे इस तरह हहा के मिले, जैसे बचपन से हमारी यारी तो क्या, कई जन्मों से हमारे सम्बन्ध रहे हों…!!

वे भीषण गर्मियों के दिन थे और तीन-चार दिनों के दौरान आयोजन की अपनी तमाम महती ज़िम्मेदारियों के बावजूद समय निकाल-निकाल के नीरनजी ने मुझसे खूब गप्पें मारीं…। नहीं, यह वे सबके साथ नहीं करते – कुछ-कुछ के साथ ही करते हैं। यही मेरे साथ लंगोटिया बनने का कारक बना…। बाद में पता लगा कि ऐसा सब कर लेना भी उनके लिए बाएँ हाथ का खेल है। मुझे याद नहीं आ रहा कि पहली भेंट और इतने कम समय में इतनी गप्पें कभी भी किसी और के साथ मारी गयी हों…या इतनी जल्दी में किसी से इतनी प्रगाढ़ मित्रता हो सकी हो…! और वे गप्पें ज़िंदगी के केंद्र से चलते हुए उन परिधियों तक चली गयीं, जहां आम तौर पर पहुँचना नामुमकिन होता है या काफ़ी देर से मुमकिन हो पाता है, जिसका पूरा श्रेय अपने महामहिम को ही जाता है। और वहाँ पहुँच गये, तो लौटना होता नहीं…। गप्पों की भी नियति वही कि जब नीरनजी मौजूद हों, तो गपबाज़ी के लिए विषय खोजने नहीं पड़ते…। उनकी मेधा में बाबा तुलसी के यहाँ भक्ति से प्राप्त मुक्ति के ‘अनइच्छित आवै बरियाई’ की तरह बरजोरी करके एक पर एक विषय आपोआप सहज भाव से आते ही रहते हैं। यह उनकी ‘नव नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा’ है। मै सदा सोचता हूँ और पछताता भी हूँ कि इस प्रतिभा का उन्होंने सर्जनात्मक उपयोग नहीं किया, वरना हास्य-व्यंग्य लेखन के वे बड़े न सही, ठीकठाक हस्ताक्षर तो ज़रूर होते…! लेकिन इसी से सिद्ध होता है कि इनका मामला प्रयोजनमूलक था ही नहीं, वह निष्प्रयोजन रहा – महज़ मस्ती का रहा, मस्ती के लिए रहा – भगवती चरण वर्मा के ‘मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहां चले’ की तरह। सो, अपने इस मित्र-सम्बन्ध में ये गप्पें दुर्निवार रूप से पूरे जीवन ऐसी चलती आ रहीं कि इसमें मित्रता के ‘लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात्’ (पहले कम फिर बढ़ते जाने) का अवसर और ‘क्षयिणी क्रमेण’ (क्रमश: क्षीण होते जाने) की नौबत आयी ही नहीं। सिर्फ़ ‘आरम्भ गुर्वी’ का वही पहला स्तर ही बरकरार रहा…!! मतलब यह कि हमारे सम्बन्धों की यह गाड़ी जैसे स्टार्ट ही हुई 140 किमी. प्रति घंटे के हिसाब से, वैसे ही उसी गति से अब तक अबाध चल रही है…।

दूसरी ख़ासियत भी उसी पहले मिलन में अनकहे रूप से तय हो गयी कि हमारे रिश्ते में क्या हो, क्या न हो, हम क्या करें, क्या न करें…आदि के सारे निर्णय नीरनजी ही करेंगे…और यह सब बिना सोचे हुआ – अनकही समझ (‘अंडरस्टूड’) की तरह। लेकिन इसका एक मुख्य आधार भी था – उनका बड़ा होना…। और इसके साथ ही कहना यह भी होगा कि हमारे बीच या हमारे साथ कुछ भी होने-हवाने के निर्णय लेने और उसे लागू करने-निभाने की सामर्थ्य भी उन्हीं में है। और यह सब करने-कराने की एक ख़ास शैली भी उन्हीं के पास है, जो समय व कार्य के मुताबिक़ बदल-बदल के नव-नवा रूप लेती रहती है…। इन सबसे यह मान्य हो गया कि कर्त्ता की जगह (ड्राइविंग सीट) पर वही रहेंगे… और आज तक चल रहा है…। और मेरे देखे में उनके हर रिश्ते के साथ यही है। वे जन्मजात कर्त्ता हैं। उनके कर्त्ता की ही एक फ़ितरत उन्हीं के बताये से मालूम पड़ी कि अपने ग़ुरु-गाइड-बड़के बाबू और दुनिया के बड़े विद्वान स्व. पंडित विद्यानिवास मिश्र के साथ भी तमाम मौक़ों-मामलों में इन्हीं की चलती थी…। यदि मन से कुछ चाह दें, तो उँगली पकड़कर उनसे करा ही लेते थे, जिसके उदाहरण तो कई हैं, पर उसमें लोगों के राज़ निहित हैं। लिहाजा उन्हें बताना दुनियादारी की दृष्टि से उन दोनो के लिए ठीक नहीं। और हमने तो उक्त उद्धृत दबंग आई.ए. एस. अधिकारी श्री सतीश त्रिपाठी की बात को भी बदल देते हुए नीरनजी को बारहा देखा है, क्योंकि योजनाओँ का कार्यान्वयन तो यही करते थे…, लिहाज़ा ‘क्या सम्भव न होगा’, का पुरज़ोर विवेचन करके उन्हें निरुत्तर भी कर देते…, लेकिन कभी सतीशजी के तेवर देख उनकी बात मान लेते भी देखा है और पंडितजी के आवेश पर उनकी बात भी मान लेने की बात नीरनजी के ही श्रीमुख से सुनी है…। ख़ैर,

दिल्ली सम्मेलन की सबसे यादगार व हमारे सम्बन्धों की एक मज़बूत डोर तब हाथ आयी, जब इत्तफ़ाक़न हिन्दी के प्रसिद्ध कथाकार शिवप्रसाद सिंह की चर्चा निकल गयी। पता लगा कि नीरनजी उनके अच्छे अध्येता हैं और दोनो के मित्र-सम्बन्ध भी हैं। उन पर नीरनजी ने कुछ वृत्तचित्र जैसा काम भी किया है। अब आज मुझे याद नहीं आ रहा कि उन्हें तब तक पता था या नहीं कि मैंने इस मिलन के 15 सालों पहले उनके कथा साहित्य पर पीएच. ड़ी. कर ली थी और दस सालों पहले लोकभारती से पुस्तक भी प्रकाशित हो चुकी थी। लेकिन इसने अवश्य हमारे सम्बन्धों को एक टिकाऊ धरातल पर खड़ा कर दिया, जो चिर साथ का एक मज़बूत कारक बना। लेकिन ‘नीलाचाँद’ की कुछ… और ‘शैलूश’ व ‘औरत’ उपन्यासों में आयी बहुत सारी अतिरंजनाओं-स्टंटों पर मेरे आक्षेपों को लेकर सिंह साहब से हुई मेरी कड़वी बहसों को सुनकर हंसते हुए बोले थे नीरनजी – ‘वे अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पाते’। मैं क्या बताता कि मेरे तो बहुतेरे कड़वे अनुभव हैं, लेकिन उससे कहीं अधिक मीठी यादें भी हैं…। अब यहीं बता दूँ कि आगे चलकर थोड़े ही वर्षों के अंदर नीरनजी ने उन पर किताब सम्पादित की। नाम है – ‘शिवप्रसाद सिंह’। इसमें नीलाचाँद वाला मेरा लेख संकलित किया, लेकिन ऐसी हद दर्जे की लापरवाही मैंने कहीं और कम ही देखी है कि लेख आधा ही छपा और इसका किसी को पता तक न चला…जबकि पूरा आलेख वहाँ की स्थानीय पत्रिका ‘दस्तावेज’ में भी छप चुका था। लेकिन जैसा कि आगे भी आयेगा – उत्तर भारत के साहित्य एवं शिक्षा जगत में ऐसी भयंकर भूलें या लापरवाहियाँ बहुत देखीं मैंने…और किसी के कान पर जूँ नहीं रेंगता (आप चाहें, तो रेंगती कर लें…), तो इन पर क्यों रेंगता – ये तो महामहिम ही ठहरे…!!

—2—

दिल्ली सम्मेलन से विदा होने के बाद वहाँ की लम्बी गप्पों वाली मित्रता के सुफल रूप कुछ-कुछ महीनों के अंतराल पर नीरनजी के कुछ पत्र आये, जो मुझे बहुत लुभा गये – जबकि वे प्रेमपत्र क़तई न थे, लेकिन काम-क़ाज़ी भी न थे। खूब ध्यान में आया कि सभी पत्र एक पृष्ठ में पूरे हो जाते – न कम, न ज्यादा। भावों और अभिव्यक्तियों का स्थान के साथ ऐसा संतुलन भी मुझे रिझा गया, क्योंकि ऐसा कभी मुझसे हुआ नहीं। उनकी छोटी-छोटी, सघन व समाकार में जड़ाऊ लिखावट और लोक की चासनी में पगी प्रांजल भाषा ऐसी थी कि वे पत्र बारम्बार पठनीय व बरबस ही संग्रहणीय बन कर फ़ाइल की शोभा बढ़ाने लगे…। इसके कुछ सालों पहले शिवप्रसादजी के साथ मेरे पत्राचार के भी ढेरों लम्बे-लम्बे पत्र फ़ाइल में थे। शोध के ही दौरान शिवप्रसादजी के अध्येताओं -विवेकी राय, विष्णुकांत शास्त्री, शीतांशुजी, प्रेमचंद जैन…आदि के साथ हुए पत्राचार भी मौजूद थे…। कुछ और…भी थे। फ़ाइल देखकर एक दिन मेरे मित्र अविनाश सहस्रबुद्धे ने हिन्दी शोध-दशा पर व्यंग्य किया था – ‘इसे संजोकर रखे रहो, कभी इन्हीं पत्रों पर कोई हिन्दी में पीएच.ड़ी. कर लेगा’।               

दिल्ली के उस सम्मेलन के बाद साल भर यह खतो-किताबत चलती रही …और भोजपुरी का अगला अधिवेशन आ गया, जो भोपाल में सम्पन्न हुआ। हम एक दूसरे से मिलने के लिए उत्सुक थे। ख़ास याद यह है कि दिल्ली में मैं सिर्फ़ शरीक हुआ था, भोपाल में बोला था। लगभग 35-40 मिनट बोलके जब मंच से उतरा, तो विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने चिहा के कहा था – आप खड़े हुए, तो मैं डर रहा था कि इतने दिनों से मुंबई रहने के बाद भोजपुरी में बोल पाएँगे या नहीं!! और नीरनजी ने अंकवार में भरके कहा था – ‘बोले हैं? समाँ बांध दिया था…मुझे तो पता था कि तुम सदा गाँव से जुड़े रहे – कभी गाँव से टूटे नहीं, तो बोल पाओगे…’। ये समाँ बांधने वाली बात पे बता दूँ कि यह अदा भी उनकी प्रकृति का ख़ास उत्पाद है। वे निंदा तो क्या करेंगे किसी की, कोई जायज़ कमी भी होगी, तो समूह में कभी न बताएँगे (जो आज सबकी फ़ितरत हो गयी है) – अकेले में भले कुछ कह दें…। अन्यथा तो बस, प्रशंसा से गाँज देंगे। इस वृत्ति से याद आया कि भोपाल के भोजपुरिए निवासियों की एक सूची बनी थी। कई समूहों में बँटी हमारी समितियाँ घर-घर जाकर उनसे मिलती थीं। सामूह बनाने वाले स्वयं नीरनजी ही थे, तो ज़ाहिर है कि मैं नीरनजी के समूह में ही था। वहाँ उन अजाने लोगों की भी ऐसी तारीफ़ें कीं कि महामहिम पदवी उसी दौरे में दी जा सकती थी, लेकिन तब कोई अपना मित्र समूह न बना था। दूसरी ख़ास याद आती है शाम को नदी किनारे घूमने की, नौका विहार की और किनारे पर दोनो पैर पानी में डालकर बैठ के गप्पें मारने की…। उस बार बहुतों से मेरा परिचय हुआ…। पहली बार साथ हुआ प्रसिद्ध नवगीतकार माहेश्वर तिवारी से – एक ही कमरे में थे हम। और नीरनजी के बात-व्यवहार सभी से उतने ही आत्मीय व वैसे ही खुले होते थे – गोया सब परम मित्र ही हों। यह सब देखकर तब मुझे अपने साथ उनकी यारी पर कभी वही साहिर वाला शक होता था – ‘जिसे मैं प्यार (यहाँ दोस्ती) का अंदाज समझ बैठा हूँ, वो तवस्सुम, वो तकल्लुम तेरी आदत ही न हो…’। लेकिन समय ने सिद्ध किया कि ऐसा न था।

याद है कि मैं वहाँ से सबसे पहले निकला था – समापन की शाम को ही। और मुझे अपने किसी मित्र की बहू को लेके पूना लौटना था। नीरनजी कार में मुझे पहुँचाने के लिए उसके घर से होते हुए रात को स्टेशन तक आये थे…। महासचिवी व्यस्तता से इतना समय निकाल लेने की भाव-संचालित व्यावहारिकता भी बड़ा मुतासिर करती रही…। याद है कि उस रात हम लेट थे। गाड़ी छूटने वाली थी। किसी तरह उस बहू व उसके बच्चों को सामान सहित डिब्बे में घुसा पाये कि गाड़ी खिसकने लगी थी…। मैं तेज कदम चल के चढ़ा…और उसके बाद दरवाज़े पर खड़े होकर मोहक स्मित के साथ विदा में हाथ हिलाते हुए नीरनजी को जो देखा…, वह अदा व भाव आज तक मेरे मानस-पटल पर वैसे ही जीवंत हैं…। उस विदा-वक़्त उनका अन्तिम वाक्य था – ‘चलो प्यारे, जल्दी ही मिलते हैं…’।

और सुदैव से कुछ ही दिनों बाद गोरखपुर विश्वविद्यालय में पुनश्चर्या कार्यक्रम तय हुआ और वहाँ के तत्कालीन हिन्दी विभागाध्यक्ष हुआ करते थे – विश्वनाथ प्रसाद तिवारी – नीरनजी के बहुत पुराने व स्थानीय लंगोटिया यार। सो, उनसे कहना क्या, उन्हें मित्रवत् आदेश देके बुलवाना आसान ही था। उस यात्रा के अलावा रेलगाड़ी से उतनी लम्बी यात्रा मैंने अकेले आज तक नहीं की अपने जीवन में। इसीलिए याद है कि बेहद ऊब गया था…। लेकिन ऊब को मिटाके ताज़ा कर देने वाली बात भी इसीलिए याद है कि वहाँ स्टेशन पर मेरी अगवानी करने स्वयं विभागाध्यक्ष तिवारीजी के साथ विभाग के दो और प्राध्यापक मौजूद मिले – चित्तरंजन मिश्र और अनंत मिश्र। अपने से इतने कनिष्ठ के लिए तिवारीजी का यह शिष्टाचार देख के मेरा मन तो जुड़ा गया…, लेकिन पैड़िल रिक्शा पर मुझे लेके बैठते ही तिवारीजी ने बेहद विनम्रता से माफ़ी-सी माँगते हुए जो कहा, उससे शिष्टाचार वाला मेरा वह गहन भाव तिरोहित भी हो गया। असल में पुनश्चर्या कार्यक्रम के उस समय शुरू होने वाले सत्र के लिए कोई वक्ता न था – आने वाले वक्ता किसी कारण वश नहीं आ रहे थे। और 40 घंटे की थकाऊ-उबाऊ रेल-यात्रा के बाद मुझे सीधे कक्षा में भेजने की धृष्टता को विनम्रता बनाने के लिए ही तीन-तीन लोग आये थे…। तीनो का होना सकारण भी था। तिवारीजी तो अध्यक्ष व औपचारिक आमंत्रक ही थे, चित्तरंजनजी शायद उस कार्यक्रम के समन्वयक थे और अनंतजी इसलिए आये थे कि उन्हीं के घर जाके मुझे नहा-वहा व नाश्ता-चाय-वाय करके सीधे कक्षा में जाना था…।

तब मैं युवा था। थकान-वकान वैसी आती ही न थी – फिर नये श्रोताओं के बीच गप मारने (अपने पढ़ाने को पंडित ह.प्र. द्विवेदी के अपने उपन्यासों के लिए कहे की नक़ल करके ‘गप मारना’ कहने) में मुझे बड़ा मज़ा आता है। और इसी को पंडित लक्ष्मी नारायण मिश्र के शब्दों में कहें, तो कक्षा के बुलावे में मुझे ‘प्रिया के आवाहन का रस मिलता है’। सो, मैंने कहा – जब समय हो गया है, तो नहाने-वहाने में और देर क्यों करना…? सिर्फ़ मुंह धुला के एक प्याली कड़क चाय पिला दीजिए और कक्षा में चलते हैं – वही मेरा गंगा-स्नान व पारण (व्रत के बाद का भोजन) होगा…। लेकिन यह सब कहते हुए विचार की एक अंतर्धारा तो मन में चल ही रही थी कि ये तीन के तीनो ही विभाग में प्रवक्ता हैं – कोई भी एक चला जाता कक्षा में…, तो न इन्हें समूह बनाकर मुझसे गुज़ारिश करनी पड़ती, न मुझे इस तरह कक्षा में जाना पड़ता…। यह मेरे लिए चाहे जितना अनुकूल सिद्ध हुआ हो, था तो असंगत ही!! लेकिन ऐसा न करके तीनो मिल के मुझे कक्षा में भेजने आ गये हैं…!! फिर उसके बाद तो धीरे-धीरे जब उत्तर भारत के विश्वविद्यालयों में आना-जाना बढ़ गया और काफ़ी बाद में जब ‘काशी विद्यापीठ’ में पढ़ाने ही पहुँच गया, तो पाया कि इक्के-दुक्के अपवाद अवश्य हैं, लेकिन प्रायः कक्षा में जाने से ज्यादा महत्त्वपूर्ण तो वहाँ कुछ भी है – पोते को स्कूल पहुँचाने के रूटीन काम, जो कोई भी कर सकता है, के लिए भी एम.ए. की कक्षाएं छोड़ देते हैं लोग…!! फिर उसके बदले वे कोई दूसरा क्लास ले लें, की तो संकल्पना ही नहीं हो सकती!! पूरे साल कभी कक्षा में न जाने वाले प्रोफ़ेसर भी मैंने कई देखे…और इसमें वहाँ किसी को कुछ भी महसूस नहीं होता, विभागाध्यक्ष कुछ नहीं बोलते। मेरा कयास है कि ये बातें कुलपति तक जानते हैं…। ये सब वहाँ सामान्य और सर्वमान्य मामले हैं…। मुम्बई में भी है ऐसा, पर अपवाद स्वरूप – और ऐसा करने वाला वहाँ की तरह शान से नहीं, शर्म से मुंह छिपा के रहता है तथा अधिक दिन रह नहीं पाता…। अपने खालसा कॉलेज से प्रो. नायर को ‘बड़े बेआबरू होकर’ कॉलेज से निकलते हुए देखा है। किंतु ऐसे हालात में डेढ़-दो घंटे के व्याख्यान का वह अनुभव अपवाद और इकला है, अतः अब सोचकर अच्छा लगता है और यादगार तो हो ही गया है…। बहरहाल,

अब हम कक्षा में भी चल लें…इसलिए नहीं कि मैंने क्या पढ़ाया…आदि का विवेचन करना है, बल्कि इसलिए कि वहाँ महामहिम की करामात के रूप में मेंरे जीवन की एक अनोखी सौग़ात इंतज़ार में है…। कक्षा-मंच पर पहुँच के मैं पढ़ाना शुरू करूँ कि कक्षा में से एक युवा सज्जन उठके बड़ी सावधानी व शराफ़त के साथ हौले से मेरे पास आये और नमस्कार करते हुए फ़ुसफुसाके बोले – ‘मैं उदय प्रकाश पांडेय हूँ। कक्षा के बाद आपको नीरनजी के घर चलना है, रहने की व्यवस्था वहीं है – मैं आपको लेके चलूँगा…ऐसा उनका आदेश है…’। कक्षा से निकलने के बाद पता चला कि मेरे वहाँ जाने-ठहरने का पता सबको है। लेकिन दोपहर के भोजन का इंतज़ाम प्रो. अनंत मिश्र के घर पे था, जिसके बाद रास्ते में पता चला कि डॉ. उदय प्रकाश पांडेय वाराणसी विमान तल के पास स्थित बलदेव पीजी कॉलेज, बड़ागाँव में पढ़ाते हैं (अब तो अरसे से विभागाध्यक्ष हैं और दो-एक साल में सेवामुक्त होने वाले हैं) और यहाँ पुनश्चर्या कोर्स करने आये हैं। नीरनजी के यहाँ ही ठहरे हैं, रोज़ देवरिया से गोरखपुर आना-जाना करते हैं…। यही दो दिन उनके साथ मैंने भी किया…। हम दोनो को ठहराने में भी आप नीरनजी की दोस्तानी फ़ितरत देख सकते हैं…। और उदयजी तो ऐसे शख़्स निकले कि वे जिससे मिलते हैं या जितने लोग इनके दायरे में हैं – और बहुत अधिक लोग हैं, उन सबके खासमखास ही हैं, लेकिन उदयजी के खासमखास कौन हैं, यह बताना ख़ासा मुश्किल है। बल्कि सबको यही लगता है कि वह उनका खासमखास है – ऐसा  विश्वास (जो शायद कभी मुग़ालता भी सिद्ध हो जाये) मुझे भी है। उस मुलाक़ात के बाद जल्दी ही प्रकाशजी मेरे भी खासमखास हो गये हैं…और इस होने के आधारों और उनके कौशल को मै बता तो सकता हूँ, लेकिन वह तभी होगा, जब इन पर भी ऐसा ही संस्मरण लिखने का कभी अवसर बने…और ऐसा कर पाने की मेरी हिम्मत बँधे…। लेकिन पता नहीं, वह अवसर बने, न बने, इसलिए इतना तो बता दूँ कि उदयजी से मैं गहरे मुतासिर क्यों व कब हुआ…। तो उसी बार हुआ, लेकिन ऐसे कि व्याख्यान पूरा करके गोरखपुर से मैं आज़मगढ़ में अपने गाँव चला गया और अपने समय पर गाड़ी पकड़ने के लिए वाराणसी स्टेशन पर अपरम्पार भीड़ के बीच प्लेटफ़ॉर्म की एक बेंच पर बैठा कोई पत्रिका पढ़ रहा था कि अचानक ‘प्रणाम’ की आवाज़ आयी – देखा, तो वही उदयजी – कुर्ता-पैंट (उनका सदाबहार पहनावा) पहने, कंधे पर झोला लटकाये उसी धज में खड़े हैं। मै अचंभित!! तब मोबाइल क्या, पेजर भी न थे – हमारे घरों में भी टेलीफोन न थे। उन्होंने बताया कि गाड़ी का नाम व तारीख़ आपने बतायी थी। सो, कहीं बैठकर पत्रिका पढ़ते हुए कुर्ता-चश्मा-दाढ़ी वाले शख़्स को ढूँढ लेने का विश्वास मन में लिये मै जल्दी आ गया था – बस, पूरे प्लेटफ़ॉर्म के तीसरे चक्कर में ही आप मिल गये…!! अब कौन ऐसा घामड़ होगा कि इस निराबानी अदा, इस गहन संवेदन व ऐसे अंतरिम समर्पण भाव पर न्योछावर न हो जाये…क्योंकि ऐसा कोई दूसरा तो आज तक मिला नही – फ़हमी बदायूनी के शब्दों में वही कि – ‘तुम जैसा कोई मिला ही नहीं; कैसे मिलता, कहीं पे था ही नहीं’…। हाँ, ये उदय प्रकाशजी महामहिम के ‘प्रकाशोदय’ हैं।

और इन्हीं प्रकाशोदय के साथ उस दिन कक्षा के बाद शाम को पहली बार नीरनजी के घर चले – ‘देवरिया ख़ास’… याने देवरिया का प्रमुख (प्राइम) इलाक़ा…। सो, छोटे से भूखंड (प्लॉट) पर बना तिमंज़िला मकान और इसी से इसकी संकरी सीढ़ियाँ – लम्बी घुमावदार ऐसी कि पहली बार चढ़ते हुए अजगुत-सी लगीं…। और मुझे गुजरात में पावागढ की यात्रा में मांची की बिना छत वाली वो सैकड़ों सीधी-इकहरी सीढ़ियाँ याद आयीं (और हमेशा चढ़ते हुए याद आती हैं), जहां बैठ-बैठ कर हाथ से पकड़-पकड़ कर जाना हुआ था नीचे, जहां एक चार खम्भों पर टिकी छत वाली ख़ाली बड़ी जगह है, जिसमें लगभग सौ लोग खड़े रह सकते हैं…। इसे राजा ने अपनी अंतरिम हार के बाद कुछ विश्वस्तों के साथ जाकर सुरक्षित रहने के लिए बनवायी थीं, जिन पर एक बार में एक ही आदमी -बमुश्किल सिर्फ़ तलवार लेकर- पहुँच सकता था और उन्हें एक-एक कर काट के नीचे की अपार-दुर्गम घाटियों में फेंका जा सकता था, जिनमें लाखों लाशों का पता न चले…। लेकिन यहाँ तो उस तीसरी और अन्तिम मंज़िल पर ‘नीरन-निवास’ है – उनका एकछत्र साम्राज्य…। और नीरनजी को उन सीढ़ियों पर होले-हौले व हाली-हाली (जल्दी-जल्दी) चढ़ते देखना और खट-खट, खट-खट करते हुए उनके चढ़ने को सुनना भी बड़ा लोमहर्षक होता है – एक निराबानी अहसास कराता है…।

यह ‘नीरन-निवास’ उनके ‘एकांत वास’ जैसा है। पूरा परिवार नीचे के तल्लों पर रहता है। पहले माँजी हुआ करती थीं। उनके चरण-स्पर्श करके आशीर्वाद लेने का मौक़ा मुझे कई बार मिला है। जाके एकाध दशक हो गया होगा। उनका दाह-संस्कार मणिकर्णिका के बदले हरिश्चन्द घाट पर हुआ। इस विरल कार्य का कारण उसी वक्त नीरनजी ने बताया था, जो अब याद नहीं आ रहा। दो बेटे तो दिल्ली में हैं, वहाँ भी हमारा जाना हुआ है – एक के यहाँ रात में भी ठहरा हूँ – लेकिन महामहिम के साथ ही। एक बेटा देवरिया में ही वकील है। सो, भोजन-चाय-नाश्ता…सब नीचे से वहीं आ जाता है। दो बड़े-बड़े कमरे हैं। दोनो में खूब सारी किताबें भरी हैं। हम रहते हैं, तो सोने के सिवा सारा समय उनके कमरे में ही बीतता है। एक छोटा कमरा है, जो मुझे नीरनजी के वस्त्रागार के रूप में ही याद आ रहा है – शायद कुछ और भी हो…। हाँ, उनको वहाँ रहते देखकर मैं कह सकता हूँ कि सारी मजलिसों-आयोजनो-भीड़ों…आदि से छूटकर वहाँ पहुँचना उनके लिए मुझे मुक्ति-स्थल लगता है – पावन काल लोक विश्रामा। जी हाँ, दुनियादारी के तमामो तमाम प्रयत्नों-आग्रहों-रुचियों के अलावा उनमे एक बैरागी प्रवृत्ति भी है, जब वे सब कुछ को छोड़-छाड़ के यूँ बैठ जाते हैं – गोया ‘होइहैं सोइ, जो राम रचि राखा’…। और उनमे यह वृत्ति बड़े गाढ़े मौक़ों पर किलकती है…मेरी नज़र मे एकाधिक बार आयी है। यह एकांत वास उसी का मूर्त्त प्रमाण है, स्थायी स्थल है। इस वृत्ति के नियति-प्रदत्त गाढ़े उत्स व वाजिब वास्ते को भी उन्हें क़रीब से जानने वाले संधान सकते हैं…। वह है प्रिय अर्धांगिनी का असमय चिर वियोग…!! हमे तो अपनी उस भाभीश्री को देखना ही बदा न था, लेकिन लोगों से जो थोड़ा कुछ सुना है, और गाहे-बगाहे स्वयं बड़े भाई नीरनजी से सुनने और उस वक़्त उनके मुखमंडल पर उभरती छबियों को देखने से मिला है, उससे मैं उन्हें अर्धांगिनी नहीं, अंग्रेज़ी का शब्द उधार लेकर ‘बेटरहाफ़’ कहना चाहूँगा…जो सबकी समझ में जल्दी और ज्यादा अच्छे से आयेगा, वरना शब्द तो हमारी मनीषा में भी है, लेकिन प्रचलित न हुआ…। कालिदास का है – ‘रघुवंश’ में राजा दिलीप की तरफ़ से पत्नी सुदक्षिणा के लिए ‘दयिता’ (निवर्त्य राजा दयितां दयालु…)। अंग्रेज़ी माध्यम की कक्षा में संस्कृत के हमारे चिरकुमार प्रो. व.र. अंतरकर हमें बताते थे – ‘दयिता मीन्स वाइफ़, हूम यू लव आल्सो’ फिर अपनी मर्दानी मुस्कान के साथ धीरे से कहते – ‘व्हिच इज़ क्वाइट रेयर’। बहरहाल,

हमारे नीरनजी की इस दयिता के पारंपरिक वजूद में एक स्वस्थ आधुनिक मानस निहित रहा होगा…, ऐसी अवधारणा बनी है मेरी, जिसके आधार-स्वरूप मैं (अपनी सुनी हुई ही) वह घटना उद्धृत करना चाहूँगा…जिसमें नीरनजी के कोई मित्र रात को घर पहुँच गये – फ़ोन या मोबाइल तो तब थे नहीं कि सूचना दी जाती। घर पहुँच के देखा कि पंडित नीरनजी तो घर पे हैं नहीं – अकेली भाभीश्री हैं। हमारे उत्तर भारत के गाँवों में घर की औरतों के मायके से आने वालों एवं भाँजों-नातियों के अलावा के रिश्तेदारों एवं आगंतुकों की पैठ घर के अंदर वैसी नहीं होती – और आज की आधुनिकता के बावजूद इसमें अधिक परिवर्तन अब भी नहीं हुए हैं – तब की तो बात ही क्या!! सो, लाज़मी था कि मित्रवर कुछ परिहार करें…। उन्होंने कहा – ‘खाना मैंने स्टेशन पर खा लिया है। बस, सो जाऊँगा बरामदे में’। तब उस दयिता भाभी ने कहा – ‘तो वहीं स्टेशन पर सो भी जाते, यहाँ क्यों आ गये’? फिर तो भोजन बना…सब आवभगत वैसे ही हुई, जैसे नीरन पंडित होते, तो होती…!! और यह शऊर व संवाद काफ़ी है उनमें निहित परम्परा व आधुनिकता के मेल से बने भाव-स्वभाव व एक दूसरे में रमी प्रियता को समझने के लिए। ऐसी प्रिया का असमय अवसान जितनी रिक्तता देता है और उसे भरने के जितने आसंग देता है, उसी का परिणाम है – अरुणेशजी का जीवन…उनकी मजलिसें भी और उनके गहन एकांत भी…। इस बावत इत्यलम्…अधिक कह तो सकता हूँ, लेकिन कह पाऊँगा नहीं – मुझसे होगा नहीं…!! इस बात पर तो नीरनजी भी यही कहेंगे – ‘प्यारे, अब और नहीं…। आगे बढ़ो…’। अस्तु, 

उनके इस एकांत को मैं उनका ‘एकछत्र साम्राज्य’ भी इसलिए कहूँगा कि वहाँ बिना पहले बताये या पूछे आ जाने वाले को अनुज्ञा लेनी पड़ती है, जो मैंने देखा है – पहले संदेश या चिट जाती हुई और मोबाइल आ जाने के बाद के इस यंत्र-काल में तो हर आदमी वीआइपी और हर दर्शनार्थी भी महनीय हो गया है – जाना निष्फल न हो, इसलिए समय लेकर ही आता है…। यह बड़ा मुनासिब इसलिए है कि न चाहने पर टाला जा सकता है। उनके घर की उस पहली रात भी अनंत गप्पें ही चलीं, जिसमें प्रकाशजी और मैं लगभग श्रोता की भूमिका में थे…। रात को क्या खाया, की याद नहीं, पर सुबह बाज़ार से आयी ताज़ा-रसदार जलेबी की याद स्थायी हो गयी है – साथ में पूरी-भाजी भी…। यह पूर्वी उत्तर भारत का नियमित नाश्ता ठहरा…। बचपन में खूब खाया था, फिर बाद में पूरी से मुझे एलर्जी (अरुचि कह लें) होती गयी। सो, याद धुंधला गयी थी…। उस सुबह फिर से ताज़ा हुई…। लेकिन उसे न खाना तो मेरा स्थाई भाव बन गया iहै…। मेरे गुजराती मित्र व नातेदार हमारे इस पूरी-भाजी के नाश्ते को उत्तर भारत का इकला…इसलिए एकरस (मोनोटोनस) कह-कह के मुझे कोंचते हैं, क्योंकि गुज़रात में नाश्तों का भारी वैविध्य है…।

—3—

‘विश्व भोजपुरी सचिवालय’ के सम्मेलनों के सूत्र से आगे बढ़ें…, तो संस्था की संहिता के अनुसार हर चौथे साल इसका सम्मेलन विदेश में होना तय था और इसी के तहत भोपाल वाले के बाद ‘विश्व भोजपुरी सचिवालय’ का पहला ‘अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन’ मॉरिशस के मोका शहर में आयोजित हुआ। चार लोग आइसीसीआर की तरफ़ से प्रायोजित होकर गये थे…‘ब्ल्यू ऑरकिड’ में ठहराए गये थे, जिसमें तीन हमी थे – मैं, महामहिम और प्रकाश उदयजी। चौथी थीं मालिनी अवस्थी, जो आज गायन में बड़ा नाम हैं – तब बिलकुल युवा थीं। इस आईसीसीआर से जुड़ी एक मज़ेदार और युवा-प्रौढ़ उम्र में अपने लोगों की बालसुलभ (बचकानी)-सी घटना भी बता दूँ…, जिसमें माध्यम तो में बना, लेकिन बात बनी महामहिम की कारगर मेधा से ही – याने महामहिम की एक और कला…। उस सम्मेलन के अध्यक्ष थे आचार्य पंडित विद्यानिवास मिश्र, जिन्होंने एक दिन मुझसे कहा – ‘का सत्देव, आईसीसीआर से जेब खर्च मिलल की ना’? मैंने कहा – ‘नाहीं पंडितजी, हमन के त केहू बतइबो ना कइलस कि अइसन कुछ मिला ला’। फिर उन्होंने आश्वासन दिया – ‘अच्छा हम क़हत हईं’। मैंने हहा के यह बात महामहिम व प्रकाशोदय से कही…सब ख़ुश हो गये…अटकलें लगने लगीं – कितना मिलेगा? दूसरे दिन मुझे याद दिलाने के लिए कहा गया। मैंने याद दिलाया, तो पंडितजी स्वीकार में गरदन हिला के मौन रह गये…एक और दिन बीत गया…और हमारी उत्कठाएँ दुर्निवार होने लगीं…। फिर रात को महामहिम ने कहा – ‘एइसे त गुरुअवा भुलाय जाई’ और उन्होंने एक योजना बनायी, जिसके अनुसार अगली सुबह मैं पहुँचा उनके सामने और प्रणाम करके कहा – ‘पंडितजी, ऊ जेब खर्चवा?’ वे सकारात्मकता में सर हिला के रह गये…। फिर दोपहर को खाते हुए नीरनजी पहुँचे – ‘बड़का बाबू, ऊ सत्देव कुछ जेब खर्चा वाली बात कहत रहलें…’!! पंडितजी ने कहा – हाँ, आजु कहब…। फिर शाम को प्रकाशजी अटकते-भटकते पहुँचे – ‘पंडितजी ऊ आज आप जेब खर्चा बदे कहे वाला रहनें…’? हाँ, भाई, कही ला, ऊ आज लौकल ना!! फिर अगली सुबह मैं जाके कह आया…और दोपहर को जब नीरनजी उनके पास पहुँचे, तो पंडितजी झल्ला उठे – जान के लग गइला लोगन – हम कत्तों भागल जात हईं का?  और फिर शाम को मुझे अपने पास मंडराते हुए देख के बिना मुझसे कुछ कहे किसी को बुलाया और कहा – ‘तनी जा भाई खोज के फलनवाँ (नाम लेकर) के ले आवा त, नहीं त इनहन हमैं मुआय नइहें पुछ-पुछ के…’! और हमे उसी शाम को पाँच-पाँच हज़ार रुपए मिल गये…जो इस महामहिम-योजना के बिना आसानी से न होता – कदाचित होता भी नहीं…! क्या यह योजना भी उनकी क्लीशे वृत्ति का ही एक रूप नहीं है? अब लगता है कि पैसे पाने के प्रयत्न को सुनाने में आज जो मज़ा आ रहा है, वैसा तो पैसे पाने में भी नहीं आया था – ‘मज़ा नहीं है पाने में, पा जाने ‘की यादों में’ (के अरमानों में)। लेकिन उस पैसे से हमारी ख़रीदी कुछ और शानदार ज़रूर हो गयी थी…। अभी याद आ गया कि आते हुए मुम्बई के लिए मेरी उड़ान सबकी दिल्ली की उड़ान से एक दिन बाद थी। सो, मैंने कुछ ख़रीदी अकेले की और उस दिन परिचित हो गये किसी स्थानीय के बताने से एक सस्ती वाली मार्केट (मुंबई के फ़ैशन स्ट्रीट जैसी) मिल गयी। अब 27 सालों बाद सामान के नाम-दाम तो याद नहीं, परंतु कुछ विरल चीज़ें काफ़ी परते से पा जाने के मध्यवर्गीय अहसास के साथ बेटे के लिए लाया हुआ ‘पुल ओवर’ भी याद है, जो उसने बड़े चाव से पहना। 

एक और उदाहरणीय घटना, जिसने 25 सालों पहले तब तो हमारे पारम्परिक संस्कृति में पिजे मानस की चूलें हिला दी थीं, पचती आज भी नहीं – और उसके भी माध्यम-कर्त्ता बने नीरनजी ही…। हम सभी एक ही उड़ान से साथ ही पहुँचे थे, लेकिन आयोजन के मुख्य संचालक कर्त्ता-धर्त्ता श्री सतीश त्रिपाठी अपने दस-पंद्रह ख़ास मित्रों के साथ देर से आये (यह ख़ासियत बनाना उनकी अदा भी है…) और मुझे खूब याद है कि सीधे वहीं पहुँचे, जहां हम भोजन कर रहे थे…हमारा भोजन प्रायः समाप्ति पर था। वहाँ की मुख्य आयोजक सरिता बुधू (यही नाम था शायद) वहीं मौजूद थीं। महासचिव नीरनज़ी, जिनमे महामहिम का भविष्य अभी अजन्मा था, ने अपने कर्त्तव्य भाव वश तथा अपने अतिथि (देवों भव) को समयानुसार नाश्ता-भोजन के त्वरित आग्रह की संस्कृति से प्रेरित होकर आदतन… हौले से कहा ही तो – अब चलिए, पहले भोजन लीजिए आप सब…और हवा में सम्बोधित करते हुए कहा – ‘इन लोगों के लिए भोजन लायें…’। तब तक तपाक से बड़ी सर्द आवाज़ व ठस्स अंदाज में सरिता बुधू ने कहा – ‘इनके लिए तो खाना नहीं है…’। हम सब पर यह वाक्य बज्र बनकर गिरा…सभी अवाक् रह गये – स्तब्ध!! शायद सूची में जितने लोगों के लिए आदेश था, उतना हो चुका था…। लेकिन खाना न हो – ख़त्म हो गया हो, तो भी लाख उपाय करके अथिथि को खिलाने के संस्कार वाले हम सब के लिए यह अकल्पनीय था। नीरनजी तो कह के किंकर्त्तव्यविमूढ़…!! लेकिन शानी-स्वमानी सतीशजी ने तुरत बात सम्भाल ली – ‘कोई बात नहीं, चलिए – हम सब कहीं और जाके खा लेते हैं’ कहते हुए तुरत निकल लिये…। लेकिन यह गाँठ पूरे आयोजन टीसती रही…सतीशजी ने अपने उस समूह के साथ पूरे आयोजन का खाना-रहना नहीं स्वीकारा शायद। फिर भी बिराने देश में इतना वड़ा आयोजन फना था, तो ‘चढल भंड़ेहर उतरत ना’ – उसे तो पार लगाना ही होता है…!!      

इस त्रासद कथा के साथ मॉरिशस-यात्रा का समापन नहीं करना… सो, यहाँ नीरनजी का एक छोटा क्लीशे हो जाये…। रामदेव-ग्रामदेवता की लतीफेबाज़ी शुरुआत में ही आयी…। यहाँ विश्वनाथ प्रसाद तिवारी भी थे, जो इनके और भी पक्के यार हैं और इसी से नीरन-गवनई के सनातन शिकार होते हैं…। एक तो मितभाषी हैं, दूसरे गम्भीरता का चोला पहने रहने से माकूल जवाब भी नहीं दे पाते…। सो, नीरनजी प्रायः इकतरफ़ा मज़े लेते-देते हैं…। मतलब कि ये दोनो लोग हों, तो नोंक-झोंक बराबर चलती रहती है…। एक दिन किसी जगह घूमते हुए अचानक नीरनजी ने कहा – ‘बिसनाथ, एक्के इहे सिल्क का क़ुर्त्ता ले आये हो क्या? रोज़ यही पहन रहे हो’? तब हम सबका ध्यान गया कि सच ही हल्के भूरे रंग के कुर्ते के सिवा दूसरा याद न आया। फिर इसी में रामदेव शुक्ल को भी साट लिया, जो एक बंद गले और धूमिल आसमानी रंग़ का कोट लाये थे, जिसे हर अवसर पर ऊपर पहन लेते थे…!! फिर तो बचे दिनों में इन परिधानों पर रोज़ कई-कई बार अलग-अलग शब्दों-प्रतीकों के तब्सिरों में दोनो की जो ‘भाँति बहु बरनी’ में खिंचाई होती रही कि पूछिए मत…और ग़ज़ब हुआ कि दोनो में से कोई भी माकूल जावाब न दे पाया…सिर्फ़ अवांतर छींटे कसते रहे नीरनजी पर…!! बहरहाल,

अब इसी क़ुर्त्ते-कोट की कोर पकड़े महामहिम को सान (लोहा तेज करने वाला हस्तचालित यंत्र) पर ले लें…फिर आगे बढ़ेंगे…। मॉरिशस में ही एक छुट्टी के दिन नीरनजी को मैंने पहली और आख़िरी बार नीले जींस पर म्हरुन टीशर्ट में देखा…और वह नाटे क़द के बावजूद उन पर फब भी रहा था, लेकिन हाय री परम्परा, हाय रे ब्राह्मणत्व व हाय रे उत्तर भारत के गाँव-क़स्बे के शिक्षक का गुरुत्व… कि कभी मौक़े-मुहाल भी अपने देश में पहने न देख सके…। यहाँ तो कुर्ता-पाजामा और कुर्ता-धोती ही स्थायी पहनावा रहा – इसमें भी आयोजनों में कुर्ता-धोती ही रहता, जिसके ऊपर सदरी की छटा सदा बहार…। लेकिन जब मंच पर अध्यक्षता या ख़ास भूमिका हो, जो अनगिनत सभाओं में होती रही, तो कंधे पर शॉल का होना भी उनके वस्त्र-विन्यास का ख़ास अंग होता है। उसे कंधों या कंधे पर रखने की उनकी ख़ास सिफ़त भी लक्षणीय होती है। और आयोजनों में जाने के लिए जब वे तैयार होने लगते हैं – बल्कि कहें कि सजने लगते हैं, तो देखते ही बनता है…! और बहुत से कार्यक्रमों में साथ रहते हुए देखना बहुत-बहुत हुआ है। सो, कह सकते हैं कि सजने में औरतों जितना तो समय न लेते, न उतना निहारते, फिर भी एक-एक वस्त्र पहन के अपने को देखना – दाएँ-बाएँ से निहारना, अपनी धज को सामने वाले की नज़र से जाँचना काफ़ी ध्यान खींचता है और इसीलिए याद भी रह गया है…। लेकिन यह सब छिपा या शरमा के नहीं, बता-जता के करते…तभी तो कभी कहते भी – ‘देखा सत्देव, ई गमछा/शॉल ठीक लगत आ… की ई वाला…’? याने कोई हीन-उच्च भाव जैसी ग्रंथि नहीं, बल्कि सुरूप दिखने का सहज-वाजिब स्वीकार…। लेकिन यह भी वे शायद हम जैसे लँगोटियों से ही करते हैं – सबसे कहने का उदकीपना कदापि नहीं!! सब क़ुछ सहज-संस्कारित…। फिर यही मंच पर भी होता – पूरी पोशाक पहनकर बैठने की अदा ऐसी होती कि अपने को दिखाने का भाव तो नहीं, पर लोगों द्वारा अपने को देखे जाने के अहसास की सजगता बिराजमान होती – दिखावा बनकर नहीं, पर ठसक बनकर ज़रूर।

उक्त सब पहन-ओढ़कर चलते हुए उन्हें देखना और मज़ेदार होता है, हर दो कदम पर शॉल संभालना, फिर दो कदम पर दाये-बाएँ नीचे तक निहार लेना – याने अपनी शोभा के प्रति हर हाल में सचेत-सजग रहना…। यह देख कर मुझे एम.ए. में संस्कृत पढ़ाने वाले प्रो. गोडबोले याद आते, जो इसी सजगता को ही नारी का वह ‘विलास’ कहते, जिसे सम्पूर्ण संस्कृत काव्य को एक सुंदर कामिनी के रूपक वाले श्लोक में कवि ने कालिदास की कविता के लिए कहा है – ‘कविक़ुलगुरुर्कालिदासो विलास:’। सो, यह सच ही नीरनजी का विलास है। और उनकी चाल को मैं बचपन की पीटी-मार्चिंग के एक काशन (आदेश) का नाम देता हुं – ‘छोटा कदम चटक चाल’। क़द के चलते उनके डग छोटे पड़ते हैं, पर इतने जल्दी-जल्दी कि समूह में चलते हुए सबसे आगे-आगे ही रहते हैं…। ऐसा करने को मैं मनोविज्ञान के अपने सीमित ज्ञान के आधार पर ‘अभाव की क्षति-पूर्त्ति’ कहता हूँ…जिसमें उनके चेतन के अनजाने उनका अवचेतन सजग रहता है कि कोई यह न सोच ले कि नाटे क़द के होने से तेज चल नहीं पा रहे। उन्हें चलते हुए आगे से देखिए या पीछे से… कदम बढ़ाने के लिए पैरों के उठने-गिरने में एक ख़ास गति व लय होती है…और इन दोनो को मिलाकर चलने की उनकी ख़ास अदा बनती है। यही उनकी स्वाभाविक चाल है, और आगे से उन्हें चलते देखना एक अजाना नैन-सुख देता है – यूँ पीछे से चलते देखना भी कम सुंदर नहीं लगता है, क्योंकि वे धीमी चाल चलें या तेज, उनकी चाल ध्यान से देखने पर दर्शनीय होती है…।

परिधान कुर्ता-पायजामा हो या कुर्ता-धोती, पर पाँवों में सैंडिलनुमा चप्पल (याने ऊपर क्रॉस पट्टी व पीछे खुला हुआ) पहनते हैं, जिसमें घुट्ठी के नीचे वाला पाँव का हिस्सा दिखता है…। गोल-पतली एड़ी से शुरू होकर पंजे की तरफ़ थोड़े चौड़े होते पैरों की सुघर उँगलियाँ सच ही उगी हुई-सी लगती हैं – न एक दूसरे में सटी हुई, न ही एक दूसरे से हटी हुई। और अंगूठे से कनिष्ठा की तरफ़ लम्बाई के आकार में सानुपातिक भी…। इस प्रकार मंच पर पहुँचकर बैठे हुए महामहिम अपनी धज और भाव में बिलकुल महामहिम लगते…। कुछ चिंतक-दार्शनिक-सी मुद्रा हो जाती, जिसे और छबिमान बना देती मुंह में दबी पान की गिलौरी…और उसे चुलबुलाने तथा होंठों को बंद भी रखे रहने के दोहरे प्रयत्न को सहज ही साध लेना योगी का-सा प्रभाव छोड़ता…। गिलौरी के स्वाद का उनका ज़ायक़ा लेना तो ध्यान से निरखने पर पान न खाने वाले हम जैसे को भी वैसा ही ‘सवाद’ दे जाता है।

नाम अरुणेश, लेकिन रंग़ में लालिमा क़तई नहीं। जो रंग़ है, उसे गोरा तो बिलकुल नहीं कह सकते, लेकिन काला भी नहीं कह सकते – ‘पक्के पानी’ कहते हैं हमारे अंचल में – यदि आप समझते हों। वरना खड़ी हिन्दी में तो प्रचलित ही है – सांवला क्या ‘साँवरिया’ भी मूलतः यही है – सांवला प्रेमी!! लेकिन इनकी सँवराई में वह कांति भी नहीं है, जो उसे अलग ढंग से ख़ास बनाती…। फिर भी उनका रंग़ बिदकाता नहीं, मोहता है और इसी से सोहता है…। याने है कोई आकर्षक रंग़-मानक, जो मेरी भाव-समझ की सीमा में अव्यक्त रह जा रहा…। इसी तरह अति साधारण-से व्यक्तित्त्व और औसत-से कृतित्व में है कोई ऐसी अनन्य साधारण-सी बात, जो उन्हें हर-दिल अज़ीज़ व ख़ास बनाती है….! 

एक से एक अच्छे कुर्ते-शॉल-सदरियाँ…आदि ख़रीदना उनका शौक़ रहा है और एक दूसरे के साथ इनकी संगति (मैचिंग) की ठीकठाक समझ उनमें है। उनके कपड़ों का अच्छा ख़ासा भांडार है उनके घर पे। और कहना होगा कि उन्हें जितना शौक़ ख़रीदने-पहनने का है, उससे कम नहीं है मित्रों-चहेतों को यह सब भेंट करने का…। कुर्ते पहनने का अंशकालिक शौक़ मुझे भी है…और मेरे पास यदि सिल्क वग़ैरह के कुछ अच्छे कुर्ते हैं – तो कल्पनाजी की बेहतरीन ख़रीदियों के प्रति पूरे सम्मान के साथ कहूँ – कि उनमे से कुछेक तो नीरनजी से उपहार में मिले हैं। उनकी इस सुवृत्ति का परिणाम ऐसा हुआ कि एक समय मैं उनसे कुर्ते-सदरी…आदि की अपेक्षा करने लगा था…। मुझे इसका गहरा अहसास (शर्म कह लें) तब हुआ, जब वे मेरे लिए एक पूरी बाँह का स्वेटर लेके दिसम्बर (ठंडी) के महीने में बनारस आये थे। स्वेटर वे कह के लाये थे और लाके भी कहा था – तुम्हारे लिए है। काले रंग का अच्छा स्वेटर…मुझे ख़ासा पसंद भी आया; किंतु न जाने क्यों, उनकी नीयत डोल गयी – वे वापस लेने लगे…. और तब मैं तो उसके लिए बच्चों जैसी ज़िद करने लगा…। उनके परम शिष्य-मित्र संजय कनोड़िया भी थे, जो अपने गहन शिष्यत्व के बावजूद खुद को कहने से रोक न पाये – ‘गुरुजी यह तो ठीक नहीं है’। उनके इस एक वाक्य से नीरनजी मान गये। स्वेटर आज भी मेरे पास है और पुराना होकर, बहुत पहना जाकर पत्तुल हो गया है, पर हल्की ठंडी में अब भी पहना जाता है। अब उस वक्त मेरी अल्हड़ता कहिए या अपनापा…लेकिन बच्चों जैसा अपना हठ करना मुझे बाद में बहुत ख़ला। कुछ भी ख़रीद के पहनने की औक़ात व आदत के बावजूद उनसे कुछ ले लेने के शग़ल भर के लिए उस 52-54 साल की उम्र में इतना छइलाना (बचकानी ज़िद) चुभने लगा…। मुझे कबीर बेतरह याद आये – ‘सहज मिले सो दूध सम, माँगे मिले सो पानि। कह कबीर वह रक्त सम जामे ऐंचा तानि।। और यह ऐंचा-तानि नहीं, तो और क्या था? लिहाजा इस वृत्ति से मुक्ति पाने के लिए एकदम से कुछ न लेने का मन ने फ़ैसला कर लिया – और तब से आज तक कुछ न लिया, जिसका पता भी महामहिम को शायद न हो (या हो, वे भी दिखाते न हों!!)। लेकिन उनके प्रकाशोदय का तो यह शग़ल आज भी बदस्तूर है…कभी मुझसे कहा भी था – ‘धइले-धइले सड़ाय दीहें। एसे अच्छा उनसे लेके केहु के दे दीहल जाव – कपड़नो के गति बन जाय अउर केहू के भलो हो जाय’ (रखे-रखे सडा देंगे…। अच्छा होगा कि निकलवा के किसी को दे दिया जाये – कपड़ों की भी गति बन जाये, किसी का भला भी हो जाय)।   

—4—

अब पुनः ‘विश्व भोजपुरी सचिवालय’ की जानिब से मुम्बई वाले राष्ट्रीय सम्मेलन पर आयें…, जिससे ‘आरम्भगुर्वी’ वाली हमारी दोस्ती को पक्का स्थायित्व मिला – गोया घर पहुँचकर वह ‘अचल भये, जिमि जिव हरि पायी’ हो गयी। मॉरिशस जाने तक तो मैं पूना में पढ़ाता था, लेकिन मुम्बई-सम्मेलन के थोड़ा ही पहले मेरे पुरज़ोर आग्रह पर मेरा तबादला एसएनडीटी विवि की केंद्रीय शाखा मुम्बई में हो गया था, जो सतीशजी के बिना कदापि सम्भव न होता…!! पहले तो सम्मेलन की तैयारियों के लिए बैठकें हुईं…, तो दो-तीन बार नीरनजी का मुम्बई आना हुआ। तब चाय-नाश्ते पर घर आने के बाद नीरनजी के यहीं रहने लग जाने का मुक़ाम आने में तनिक भी देर न हुई – यह घरेलू आयाम भी अपनी दोस्ती वाले ‘आरम्भ गुर्वी’ का ही अनुहारि बन गया…। उस दौरान जिस दिन भोजपुरी सचिवालय की बैठकें या अन्य काम होते, वे समय से उठके जाते…। वरना अलसिआए-से पड़े रहते…। गप्पें व खान-पान चलते रहते… मेरे विश्वविद्यालय चले जाने पर कल्पनाजी के साथ भी गप्पें होने लगीं…। शामों को घर के पास के समुद्र तट (जहू बीच) जाने के मज़े लिये जाते …। इतनी संगति के चलते ही नीरनजी के प्रति मेरी दोस्ती जैसा भाव कल्पनाजी के मन में भी रवाँ होना ही था…। फिर तो क्या…कि एक से एक सुस्वादु गुजराती भोज्य (डिशेज) -ढोकला-पात्रा-हांडवा-थेपला-कढ़ी-पूरण पूरी… आदि बनते – पुलाव तो आम था ही…। और ‘बाभन खवाए से, (बनियाँ दबाए से’) की कहावत को चरितार्थ करते हुए नीरनजी अघा-अघा के खाते ही नहीं, सरस्वती-प्रदत्त अपने वाक्-कौशल में वारे भी जाते कल्पनाजी के आतिथ्य पर…! फिर तो नीरनजी के लिए बैठक व शयनकक्ष एक हो गया। यह घरू-आचार का विकास भी हमारी दोस्ती के ‘गुर्वी’ होने में बड़ा कारगर सिद्ध हुआ। अब यहीं एक पंक्ति का क्षेपक तो आपको सुनना ही पड़ेगा…। हमारे जीवन में नीरनजी के आने के चार-छह सालों पहले ऐसा ही हमारा सम्बन्ध रामदेवजी शुक्ल (गोरखपुरी) से हो गया था। उन्होंने अपनी सहज गलदश्रु भावुकता में किसी से कहा था – ‘मुम्बई जैसे शहर के सम्भ्रांत (पॉश) इलाक़े में जन्मी-पली-बढ़ी उस कुलीन महिला ने मुझे अपने शयनकक्ष तक में आने-जाने की छूट दे दी, जो मामूली बात नहीं…’ कहते-कहते सदा पलकों पर धरे उनके आंसू ढुलक पड़े थे…।

और अब वक्त आ गया है कि महामहिम के क्लीशे या लतीफेबाज़ी का एक और ज़िक्र हो जाये…। छोटे-मोटे विश्वविद्यालय जितने बड़े उस ‘कुशीनगर स्नातकोत्तर महाविद्यालय’ में पूरे समय (फ़ुल टाइम) के प्राध्यापक और हिन्दी विभाग के अध्यक्ष का जब चाहे तब हफ़्तों के लिए मुंबई चले आना…और जब वहाँ जाओ, मुक्त भाव से घर-बाहर रहके घूमना-घुमाना कैसे सम्भव होता है, यह मेरी समझ में न आता था…!! कारण यह कि मुझे तो मुम्बई में आकस्मिक अवकाश (सी.एल.), बीमारी की छुट्टियाँ (सिक लीव) एवं कर्त्तव्य-अवकाश (ड्यूटी लीव)…आदि का सामंजस्य करते-करते कहीं भी आने-जाने के लिए सौ बार सोचना पड़ता था। सो, एक बार किसी भरी महफ़िल में यह सवाल मैंने पूछ ही लिया – कैसे सम्भव कर पाते हैं आप? और तब खाँटी भोजपुरी में जो सुना, उसे हिन्दी में कहने से बात बिगड़ जायेगी…। अस्तु, महामहिम-उवाच में अथ क्लीशे – ‘हे सतदेव, देखा… ऊ टुन-टुनिया गवैयवा होखे लें न…जवन हाथे में खजड़ी लेहले कवनो  नुक्कड़-चौराहे-दुआरे-चौबारे पर बइठ के बजावे-गावे लगे लें…। आवत-जात मनई लोग चवन्नी-अठन्नी फेंक देलें…आ दस मिनट में ऊ दुसरी ठवरीं जाके टुन-टुनावे लगे लें…। आ दुसरका ऊ होला – भीमसेन जोशी जइसन…कि उनसे समय लेके, मानदेय तय कै के, बढ़िया हॉल बुक कै के आयोजन रखाला, निमंत्रण छपेला, अख़बार-रेडियो पर सूचना दियाले…, टिकिट के अगवढ (ऐडवाँस) बुकिंग होले…ऐन समय पर सब लोग बन-ठन के आवे लें…। उनकर परिचय दियाला,.. शॉल-नारियल-गुलदस्ता… आदि से स्वागत-सत्कार होला। फिर ऊ दू-तीन घंटा गावेलें…सब कान पार के सुना ला…आ अघाय के अपने घरे जाला…। फिर अख़बारन में रपट छपेले, हफ्तन-ओकर चर्चा होखे ले…। त उहे बात हौ सत्देव…, तोहन लोगन उहे टुन-टुनवां वाला बाटा…आ हम…?? बुझाइल न?’ (हे सत्यदेव, देखो – वे टुन-टुनवाँ गाने वाले होते हैं न, जो रोज़ खजड़ी लिये किसी भी चौराहे-चबूतरे…पर बैठ के बजाते गाते रहते हैं…। और आते-जाते, खड़े-जुटे लोग चवन्नी-अठन्नी फेंके देते हैं। फिर आधे घंटे बाद वो दूसरे चौराहे पर जाके टुन-टुनाने लगता है…। और दूसरे वे होते हैं – भीमसेन जोशी जैसे…कि उनसे समय लेके, मानदेय तय करके कोई बढ़िया हॉल बुक किया जाता है। निमंत्रण-पत्र छपते हैं। अख़बारों-रेडियो…आदि में विज्ञापन व खबरें छपती हैं। निश्चित दिन-समय पर लोग अच्छे कपड़े…आदि पहन-ओढ़ के याने ढंग से तैयार होके आते हैं। जोशीजी का परिचय दिया जाता है। नारियल-शॉल-पुष्पगुच्छ…आदि से सम्मान होता है। फिर वे दो-तीन घंटे गाते हैं…। लोग सम्मानपूर्वक ध्यान से सुनते हैं। तृप्त होके घर जाते हैं…। सुबह अख़बारों में खबरें छपती हैं। हफ़्तों चर्चे होते हैं…। तो यही बात है सत्यदेवजी…। आप लोग वही टुन-टुनवां वाले हैं…और हम…? समझ गये न?’) इति क्लीशे!!

मुम्बई में दो बार सम्मेलन हुआ। इस पहले में सम्मेलन के साथ हमारे सम्बन्ध अपने उरोज पर थे…। अंधेरी मेरे घर के पास भी था। मैं अपने बहुत से मित्रों व छात्रों को भी लाया था…नीरनजी मौक़ा निकाल के आ जाते थे…कुछ औरों का भी आना-जाना यूँ होता रहा कि उन तीन-चार दिनों मेरा घर भी ‘इक प्रबिसाहिं, इक निरगमहिं भीर भूप दरबार’ जैसा हो गया था…। विशेष याद है – समापन में मुख्य अतिथि के रूप में ए.के. हंगल साहब को लाना, जिन्होंने बड़ा संक्षिप्त, पर सटीक भाषण तो दिया ही, लोगों की फ़रमाइश पर अपना ‘शोले’ वाला संवाद ‘भगवान ने मुझे दो-चार बेटे और क्यों नहीं दिये – इस गाँव पर शहीद करने के लिए’… भी सुनाया, जो भोजपुरियों के बीच खूब चर्चा का विषय बना रहा…।

लेकिन इसका सबसे ख़ास असर व परिणाम यह हुआ कि इस दौरान जो घरू-पारिवारिक नज़दीकियाँ बढ़ीं, उससे अपने याराने के अगले आयाम का मार्ग प्रशस्त हुआ, जब नीरनी मादन भाव ने अरूणेशजी के मन में इस बार कल्पनाजी के साथ मुझे आमंत्रित करने का विचार जगाया और उनके बेजोड़ योजनावीर ने इसे अंजाम देने का रास्ता खोज लिया – इस बार अपने ही महाविद्यालय में मेरे लिए काम –याने मिलने का बहाना- निकाल लिया। स्नातकोत्तर कक्षा की मौखिकी के लिए मुझे बतौर विशेषज्ञ आमंत्रित कर लिया…। शायद ज़्यादा बड़े कार्यक्रम की गुंजाइश न रही हो…या उन्हें जितनी जल्दी रही हो हमे बुलाने की, उतनी जल्दी में कोई अन्य आयोजन सम्भव न रहा हो…या फिर महामहिम की ऐसी ऐच्छिक तैयारी न रही हो…!! जो भी हो, लेकिन कहूँगा कि अपने राम को भी तबियत अच्छी मिली है। सोचा – उनका महाविद्यालय कुशीनगर में स्थित है, जो खुद ही ऐतिहासिक तीर्थ ठहरा। फिर कल्पनाजी का साथ मिल रहा था…। सो, बग़ल में स्थित नेपाल घूमने का कार्यक्रम बना लिया। और घर से निकल लिये…।

नीरनजी ने देवरिया के अपने घर के बदले कॉलेज के पास कुशीनगर में ही रहने की व्यवस्था करायी और स्वयं भी तीन दिन वहीं किसी मित्र के घर ठहर गये – दिन भर हमारे साथ रहते…रात को खाना-वाना खिला के मित्र के यहाँ सोने चले जाते…नाश्ते के लिए फिर आ जाते…। लेकिन अपने घर बिलकुल नहीं ले गये, जबकि अकेले आने पर मुझे घर के अलावा कहीं नहीं ले जाते। और मज़ा यह कि कल्पनाजी का ध्यान इस तरफ़ गया ही नहीं, क्योंकि मुम्बई में घर ले जाने की प्रथा ही नहीं के बराबर है। शायद इसीलिए हमने आपस में इस पर आज तक कभी बात नहीं की। लेकिन जीवन भले व्यावहारिकता के चलते ऐसी बातों को नज़र अंदाज कर दे, साहित्य तो इस संस्कृति-विमर्श को नहीं छोड़ सकता…। भाषा-भेद का कारण तो होना नहीं चाहिए, क्योंकि खड़ी हिन्दी तो माध्यम थी…और गुजराती-भोजपुरी के संस्कृति-भेद तो एक दूसरे की रीति-नीति को जानने की प्रक्रिया में बातचीत के अच्छे मामले बनते…। आख़िर उसके आठ सालों बाद जब हम बनारस बसने आ गये, तो प्रकाश उदय व दादा दयानिधि मिश्र…आदि के घर तो कल्पना-सहित हमारा अच्छा आना-जाना हुआ। याने ये कारण तो हो नहीं सकता…। फिर पंक्ति-पावनी नीरनजी के समक्ष कल्पनाजी भी ‘नागरण’ हैं – नागर ब्राह्मण…मतलब कि कारण कुछ दिखता नहीं…लेकिन महामहिम तो महामहिम…!! ख़ैर,

कुशीनगर में खाने-पीने एवं हर आवभगत का इंतज़ाम अपनी ख़ास देखरेख में नीरनजी करते रहे…। उन दिनों उनका यह नया रूप सामने आया – पता चला कि यह सब करना उन्हें भाता भी है और आता भी है। कल्पनाजी के साथ घर में रहकर वे उनकी रुचियों को जान गये थे, तो उसके हिसाब से सब आयोजित करते व सम्पन्न कराते रहे…। उन तीन दिनों के दौरान मैं गौण हो गया था और कल्पनाजी ही उनकी विशिष्ट अतिथि हो गयी थीं, जिसके लिए मुझसे ज्यादा खुश भला और कौन होता…? जैसे कल्पनाजी ने इन्हें व्यंजनों-पकवानों से अपने घर में तृप्त किया था, वैसे ही नीरनजी उन्हें यहाँ यूँ करना चाह रहे थे कि कोई कसर न छूटे…। पर चिड़िये का चारा खाने वाली कल्पनाजी को खिलाने से उन्हें न तृप्ति मिले, न मज़ा आये…फिर इन सबकी तुष्टि को सधाता तो मैं ही था…।

तीन दिन रहे वहाँ, जिसमें एक दिन एम.ए. की मौखिकी थी, जब कल्पनाजी को उन्होंने किसी के घर बिठा दिया था…और चूँकि हर किसी से…फिर इतनी जल्दी…ये घुलमिल नहीं पातीं, इसलिए उस दिन भरे परिवार के बीच एकाकी होके काफ़ी ऊबी (बोर हुई) थीं। लेकिन पहले से पता था, तो मानसिक तैयारी थी…फिर भी वहाँ हुआ यह अहसास आज भी याद है कि मुझे बिना मौखिकी के यह यात्रा बनानी थी…। लेकिन तब अपनी अध्यापकीय व मध्यवर्गीय मानसिकता और सबसे अधिक महामहिम की योजना ने ऐसा करवा लिया था…। छात्र बहुत थे – संख्या का अनुमान भी आज याद नहीं, लेकिन दो सौ के आसपास ज़रूर थे। सो, कम से कम दो दिन का काम था, लेकिन किया गया एक दिन में। करते हुए इस तथ्य का गहरा अहसास हुआ कि उन छात्रों के पढ़ने-लिखने की दशा अत्यंत दयनीय थी। आख़िर एम.ए. के छात्र को पाठ्यक्रम के पाठों के भी नाम याद न हों – गोदान, कामायनी जैसे ग्रंथो का पता न हो, तो इसे दयनीय से भी दयनीय ही कहा जायेगा…!! ऐसे में मैंने तो अपने आक्रोश के मज़े भी लिये। सबसे पूछा – कुछ पढ़ते नहीं, तो करते क्या हो? छात्राएँ घर के अंदर के काम बतातीं और छात्र खेती…आदि के बाहर के काम। फिर मैं उसी में से सवाल पूछता – एक एकड़ खेत में गेहूं का बीज कितना लगता है? या लौकी की भाजी में तड़का किससे देते हैं…आदि, जो मेरे किये हुए, इसलिए जाने हुए काम थे। लेकिन उन्हँ यह भी नहीं आता था। कुल मिलाकर दुखी बहुत हुआ था, लेकिन एक निश्चित प्रतिशत व कुछ ख़ास छात्रों को पास करना ही था – ज़िंदगी व कॉलेज के ‘शो मस्ट गो ऑन…’ के साथ महामहिम की अपरम्पार महिमा भी बनी रहनी चाहिए…!! और इनके बीच मैं? तो इतने महदुद्देश्यों के सामने मेरी क्या औक़ात? बस, वही शेर शिद्दत से महसूस होता रहा – ’मसलहत का ज़ब्र ऐसा था कि चुप रहना पड़ा, वरना उस्लू-ए-जमाने पर हँसी आयी बहुत…!!

यह इतनी-सी हुई काम की बात…। वरना उस दौरान हम खूब घूमे – छोटा ही सही, ऐतिहासिक-सांस्कृतिक दृष्टि से बेहद समृद्ध कुशीनगर की ‘विभुता, विभु-सी ‘पड़ी’ दिखायी’ के रूप में अकूत और यादगार है – फिर बताने-बखानने वाले हों – तिरुन को आसमान बना देने वाले अपने महामहिम… जिनका लगभग गृहनगर है कुशीनगर – लगभग आजीवन की कर्मस्थली… तो फिर वही ‘ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयां अपना...’ वाला हाल समझें। बुद्ध की सोयी पड़ी प्रतिमा तो अब भी वैसी ही साक्षात दिखती है। नीरनजी ने खूब कथाएँ व संस्मरण भी सुनाये – ख़ास कर अज्ञेयजी विषयक उनके यादगार व विशिष्ट संस्मरण, जो एकाधिक बार उन्हीं से सुनकर भी उनकी भाषा व अंदाज में ख़ासे जीवंत हो उठते हैं…। मेरे लिए उपयोगी भी होते हैं…। इन श्रवणों के सामयिक आनंद कल्पनाजी ने भी खूब लिये…। चौथे दिन हम नेपाल के लिए प्रस्थान कर गये…। मॉरिशस वाले भोजपुरी सम्मेलन में आये नेपाल के प्रतिनिधि, वहां के युवा संस्कृति मंत्री सभापति मिश्र को अपनी इस यात्रा के बारे में बता दिया था, तो उन्होंने विमान-तल पर पर गाड़ी भेज दी, रहने की उत्तम व्यवस्था भी करा दी और एक दिन अपने साथ चाय पर भी ले गये… यह प्रताप भी भोजपुरी व सतीशजी-नीरनजी का ही।

बाकी तो हम घूमे खूब…। तीन दिनों बाद लौटे, तो पूर्व निश्चित कार्यक्रम के अनुसार प्रो. रामदेव शुक्ल के यहाँ रुकना था। पहली रात उनके गाँव के घर जाके रहे…। वे तो सपत्नीक मेरे यहाँ रह चुके थे, तो मामला सधा हुआ था। रात को आँधी आ गयी थी, तो मैं व रामदेवजी एक ही तख़्ते पर सो गये थे। दूसरे दिन उनके गोरखपुर वाले घर रहे – भर दिन शहर घूमे और शाम को निकल पड़े वापस मुम्बई के लिए…। इन सबकी विस्तृत यादें हैं, जो यहाँ ‘नीरन-संस्मरण’ में आउट ऑफ कोर्स होंगी…। सो, प्रसंग-निर्वाह भर उल्लेख हुआ। कभी अवसर मिला, तो स्वतंत्र चर्चा होगी…।

उसी के बाद नीरनजी को अपने विवि में मुम्बई बुलाने का मौक़ा मुझे भी मिला। विभाग में नियोजित ‘पुनश्चर्चा कार्यक्रम’ का मैं समन्वयक हुआ, तो तीन व्याख्यान के लिए नीरनजी आये…। कहना होगा कि उनके भाषण काफ़ी हिट हुए। हम तो आयोजनों में बोलते हुए सुन के जानते ही थे, विभाग के लोग -खासकर अध्यक्ष डॉ. माधुरी छेड़ा, को भी पता लगा; तो कक्षा में भी उनका व्याख्यान रखा गया – उनकी पसंद से ‘कामायनी’ पर, जो इतना छात्रप्रिय हुआ कि फिर उनके एकाधिक भाषण हुए…। प्रसंगत: बता दूँ कि नीरनजी की ‘कामायनी-प्रियता’ प्रसाद-प्रेम के चलते है और प्रसाद-प्रियता बनारस-निवास के चलते…। फिर जब मैं दो सालों पहले प्रसादजी की जीवनी लिख रहा था, उन्होंने एक-एक अध्याय मेल पर मंगा के पढ़े…और प्रमुदित होते हुए बोले थे – मैं यही सब तो बताने वाला था, पर तुमने खोज लिया है…।

अब आइए चलें फिर अपनी कथा पर…तो एसएनडीटी के भाषणों-कार्यक्रमों के दौरान भी ठहरना तो घर पर ही रहा…। सो, खूब साथ रहा और तरह-तरह की गप्पें खूब हुईं, पर उन्हीं की हेला से शामों या सुबहों को जुहूतट जाने का सिलसिला लगभग रुक गया…!! याने कभी खूब मनहुक, तो कभी काफ़ी अनमने भी होते हैं अपने महामहिम – उसी एकांत-साधक व मजलिस प्रेमी की तरह …इन्हीं विरोधाभासों में बसता है उनका व्यक्तित्व, जो बहुत क़रीब गये बिना उजागर नहीं होता…! लेकिन इसके बाद किसी भी कार्यवश उनका मुम्बई आना होता, तो मेरे विभाग में व्याख्यान तय होता…। इसी त्वरा में सप्रमाण पता लगा कि नीरनजी पर्याप्त दुनियादार भी हैं। क्योंकि अगली अवाई में वे कंधे पर लटकाने वाला झोला (शबनम) मेरे लिए लाये, तो विभागाध्यक्ष के लिए भी ले आये, लेकिन बाक़ी दो सहकर्मियों के लिए नहीं। और उन्होंने झोला (व कुछ और भी था) माधुरीजी को जिस प्रमुदित भाव से अर्पित किया, उसी साध से उन्होंने लिया भी…। वह दृश्य भी हमारी स्मृति में स्मरणीय बन गया है…। 

आगे चलकर भोजपुरी का एक और सम्मेलन मुम्बई में हुआ, पर वह मेरे घर से काफ़ी दूर थाने में था। मेरा भी जाना आयोजन-समय जितना ही हुआ और उतनी दूर से किसी के घर आने का सवाल ही नहीं था – नीरनजी तक न आ सके। लेकिन सबसे बड़ा कारण बना वह राजनीतिक दखल – गोया आयोजन उन्हीं लोगों का हो। अध्यक्ष-महासचिव…कोई कुछ न कर सका। हाल हुआ बाबा के स्वयंवर वाला – ‘दुलहिनि लै गयो लच्छनिवासा, नृप समाज सब भयउ उदासा’!!

यहीं से हमारे सम्बन्धों का मिलन-सूत्र भी न रहा ‘भोजपुरी सचिवालय’, लेकिन यहीं दो बातें ऊल्लेख्य हैं…पहली यह कि  तब तक हमारे सम्बन्ध इतने प्रगाढ़ हो गये थे क़ि उसे किसी माध्यम की ज़रूरत न रह गयी थी। दूसरी यह कि इसके कुछ ही दिनों बाद वह दैवी घटना घटी कि मेरी मां असाध्य बीमार हुई और मैं उसे लेके बीएचयू में आया – भर्ती होना ही था। यहीं अयाचित रूप से उनके प्रकाशोदय भी मेरे ‘प्रिय प्रकाशजी’ हुए। वे जानते थे कि मैं रोज़ रात को नहाता हूँ। सो, मुझे बाइक से अपने घर ले जाते – मां के पास मेरा बड़ा वाला भतीजा मनोज रहता…। विद्याजी (प्रकाश-दयिता) पानी गरम करतीं। मैं नहाता और ख़ाके वहीं सोता – फिर सुबह अस्पताल पहुँचाते…। एक सुबह चलते हुए मेरे लाख ना-ना करने के बावजूद मेरी जेब में कुछ रुपए डाल दिये – रख लीजिए, ज़रूरत पड़ सकती है…। याने मेरे प्रिय प्रकाश ने वह किया, जो सगा छोटा भाई होता, तो शायद करता…। नीरनजी रोज़ सुबह-शाम मोबाइल पर सम्पर्क में ही नहीं रहे, अपने परम मित्र डॉक्टर त्रिपाठी को भेजा, जिन्होंने सुबह ही सुबह आकर मां के इलाज की स्थिति व गति का सही पता किया – फ़ाइल देखकर और डॉक्टरों से पूछ कर…। उनके आने से अस्पताल के लोगों पर हमारे साथ के सलूक में बड़ा असर पड़ा – पूरा माहौल ही बदल गया। यहाँ तक कि हमारे रहने की व्यवस्था, जो अस्पताल में सीमित कक्षों के चलते महीनों तक न हो पाती, तुरत हो गयी…। वहाँ हो रहे इलाज की दशा-दिशा त्रिपाठीजी को बिलकुल सही मिली। सो, ‘जो हो रहा है, होने दें’ की सलाह के साथ ‘आगे ईश्वर की मर्ज़ी’ कहकर वे मां की अन्तिम स्थिति के संकेत भी दे गये…।

सबसे यादगार वह है, जब नीरनजी गाड़ी करके देवरिया से लगभग डेढ़ सौ किमी हमारे घर आये – दुआर (मातमपुरसी) करने…। और उस वक़्त इकला बेटा मैं गाँव से बाहर सरोवर-तट पर श्राद्ध कर्म के विशिष्ट आयोजन ‘ख़ोरसी-कर्म’ में लगा था – उस बेदी से उठ भी न सकता था…। सो, देखा-देखी व मुख़्तसर-से हाल-चाल के सिवा कोई बात ही न हुई…। और सूतक लगे घर में बाहर के लोगों के लिए पानी पीना भी वर्जित…। गाँव के किसी अन्य घर में दाना-पानी के प्रस्ताव को विनम्रता से टालते हुए नीरनजी 10-15 मिनट वहीं तालाब-किनारे बैठ के वापस चले गये…। मन तड़प के रह गया – ‘यार, लाये  उसे ‘घर पे मेरे’, पै किस वक़्त’…!! उनके इस परिश्रमी प्रयत्न व कोमलतम भाव ने मुझे उनके प्रति जितना आर्त्त व समर्पित किया, वह अकथनीय है…। बनारस से मुम्बई तक मित्र तो बहुत थे – अस्पताल नियमित आते-जाते रहे, पर ऐसा प्रयत्न किसी का न हुआ…, तो कहना बनता है – ‘उपमाहीन रचा विधि ने’ – बस नीरन के सम नीरन हैं! 

—5—

अब फिर वहाँ से जारी करें…कि भोजपुरी-सम्मेलनों में मिलने के क्रम टूटे…, लेकिन कहने की बात नहीं कि नीरनजी के रहते सूत्रों की कमी नहीं रह सकती…। वे इतने सक्रिय और इतने सामाजिक रहे हैं…इतनों को अपनत्व की डोरी और कार्य-कौशल से बांधे रहे हैं, जिसका नजारा उनके 75वें जन्मदिन पर दिखा, जब देवरिया का शिक्षित-साहित्यिक समाज उमड़ पड़ा था…। यही कारण है कि उनसे बहुत कुछ करना सहज सम्भव हो पाता है। सो, भोजपुरी सम्मेलन जैसा ही, बल्कि उससे गहरा सूत्र जुड़ा, जब उनके गुरु व बड़के बाबू पंडित विद्यानिवास मिश्र के अनपेक्षित-आकस्मिक अवसान के बाद उनके सर्वप्रिय अनुज डॉक्टर दयानिधि मिश्र के प्रतिनिधित्व में उनके समूचे परिवार द्वारा संचालित उपक्रम ‘विद्याश्री न्यास’ के त्रिदिवसीय आयोजन में नीरनजी ने बुलवाया और संस्था के आदेश पर मैंने ‘वि. नि. मिश्र के मध्यकालीन रसबोध’ पर एक व्यवस्थित आलेख तैयार किया…। संयोग से अपराह्न के सत्र का सारा समय मिल गया और पूरा आलेख विधिवत पढ़ सका, जिसके बाद मंच से उतरते ही दयानिधिजी ने आलेख मेरे हाथ से यूँ उचक लिया – जैसे कोई हरनामी हो, जो अभी लुट जायेगी…इसे कहते हैं साहित्य से अगाध प्रेम। तब से उन्होंने ही उसे दो-तीन जगहों पर छापा-छपाया।  इन सबका गहरा ताल्लुक़ बना, जब अपने प्रदेश में रहने-पढ़ाने की इच्छा को साकार करने हेतु मैंने काशी विद्यापीठ में प्रोफ़ेसर पद के लिए आवेदन भेजा…। प्रकाश उदय के साथ मिश्र-परिवार ने भी ऐसा ही माना – गोया मैं इन्हीं लोगों के लिए बनारस आ रहा हुं…। मिश्रजी ने बादशाहबाग में अपने घर के सामने रहने की व्यवस्था करायी और तब से आजीवन के लिए हमे अपने एक ‘दादा’ (बड़े भाई वाले) मिल गये…। इस जज़्बे को सोच के आज भी मन उमड़ उठता है…। और इन सबके कर्त्ता बने नीरनजी – कह सकता हूँ कि जैसे सतीशजी के कारण नीरनजी मिले थे, इस बार नीरनजी के कारण यह मिश्र-परिवार मिला…। और मेरे बनारस आने को लेकर नीरनजी का उछाह तो ‘क़हतो न बने, देखतेई बना’…। साक्षात्कार के लिए जिस दिन बनारस रहना था, उसके दो दिन पहले नीरनजी कलकत्ते में थे। उन्हें घर जाना था, पर योजना बना दी कि मैं दो दिन पहले बनारस आ जाऊँ और वे कलकत्ते से सीधे बनारस पहुँच आये…। एक स्तर पर साक्षात्कार तो माध्यम भर बनके रह गया – नीरनजी से मिलना व एक भ्रमण-यात्रा जैसा करना प्रमुख हो गया। लक्सा रोड पर गोदौलिया के पास स्थित गंगा लॉज नीरनजी का ग्राहक के रूप में स्थायी निवास-स्थल है। उस दिन के बाद से तो नीरनी हेला से मेरा और मेरे ज़रूरतमंद परिचितों का भी हो गया है। बनारस में चंद्रभाल-मैनेजर-राजेंद्र पांडेय एवं स्वयं प्रकाशोदय जैसे कई घर अपने घर जैसे होने के बावजूद मोके-झोंके या औरों के साथ होने पर, जो इस बार मैं था, रहने के लिए इन्होंने यह घर भी बना रखा है। और यह नीरनी ख़ासियत है, महामहित्व है कि अरुणेश पंडितजी को यदि भा जाये और यदि वे चाह लें, तो बन को भी घर बना लेते हैं…!! ख़ैर,

अपने अरूणेशजी ऐसे ग़ैर दुनियादार भी नहीं कि मै इंटरव्यू के लिए आऊँ और वे इसकी बावत कुछ न कहें-करें…। हाँ, ऐसे कामों में उनके अपने सोच-सम्बन्ध के गणित भी होते हैं। एक बार ऐसा भी हुआ कि जिस विद्वान से अपने वसीले की चर्चा करते आघाते न थे, वही जब साक्षात्कार लेने आ गये, तो कह न सके, क्योंकि उन्हें किसी बालिका के लिए कहना था…जिसके सामने देश का उनका चौथा प्रिय मैं कट गया था…ऐसी क़ुदरतें भी हैं अपने अरूणेशानंदजी की…। पर इतने गहन रिश्तों में ऐसी बातों पर ध्यान नहीं देते – सबको अपने लिए स्थान (स्पेस) दरकार होते हैं, जिसे मानकर ही रिश्ते चलते हैं। शायद इस हादसे का असर भी रहा हो क़ि बनारस में दूसरी सुबह ही लेकर चल पड़े अपने सहपाठी, जो मेरे साक्षात्कार की समिति के एक प्रमुख सदस्य थे, से मिलवाने…। वे इन्हें देखकर बड़े खुश हुए और मेरा नाम सुनते ही तारीफ़ करने लगे…। फ़ाइल देख रखी थी। सो, मेरे ‘फ़ोर फ़र्स्ट क्लास’ और नीरनजी के आने की महनीयता को रेखांकित करते हुए सहयोग की सहर्ष हामी भरी…। लेकिन बाहर आते ही नीरनजी ने मुझसे कहा – इनसे कहना ज़रूरी था, कह दिया, वरना बाद में कहते कि कहा नहीं…। लेकिन ये (जाति का नाम लेकर) लोग किसी के होते नहीं…और वही हुआ। चयन तो मेरा हुआ, पर उनकी विरोधी भूमिका ऐसी कि वे दस्तख़त के लिए भी तैयार न थे – किसी सजातीय एवं महिला के प्रबल पक्ष में थे। ख़ैर…, इसके अलावा तो अपनी मस्ती रही तीनो दिन…। नीरनजी के उक्त सभी यार-दोस्त मिलने आये – राम सुधार सिंह से पहली भेंट वहीं हुई। एक रात सबने साथ भोजन किया – आतिथेय बने राजेंद्र पांडेय, जिनके पते पर ही बाद में मेरा सारा सामान आया…और इस सबमें ‘महिमा उसकी ही रही, नीरन जिसका नाम’!!

मेरी नियुक्ति की ख़ुशी नीरनजी को मुझसे अधिक हुई – फ़ट-फ़ट कर फूट रही थी – चहरे पर, आँखों में, बातों में, पुलक और हँसी में…। कहा कि यह घर हुआ मेरा बनारस में – अब यहीं रहने के लिए भी बनारस आया करूँगा…और आये भी…। खाना बनाने के लिए मुन्नी नाम की अपने घर से नातिदूर रहने वाली महिला को रखकर ही कल्पनाजी वापस मुम्बई गयी थीं। लेकिन नीरनजी आते, तो उसे बाहर से मदद करने वाली (हेल्पर) बना देते और खाना खुद बनाते…। उनकी इस पाक-कला की भनक भी न लगती, यदि बनारस में घर लेकर रहना न होता…। भोजन तो अच्छा बनता ही, बनाने का उनका उत्साह व ख़ुशी देखकर मन ज्यादा तृप्त होता…!!

लेकिन दो-दो, तीन-तीन दिनों के ऐसे दो-तीन कार्यक्रम ही बन पाये…कि मात्र नौ महीने के अंतराल में हमने निजी मकान में रहने की अपनी वृत्ति के अनुसार घर ख़रीद लिया, जो स्टेशन से 5-6 किमी. दूर हो गया – जबकि यह तो स्टेशन-रोडवेज़ से 5-5 मिनट और काशी विद्यापीठ से मात्र दो मिनट की दूरी पर था…। सो, नीरनजी ने साफ़ कह ही तो दिया – उतनी दूर कौन आयेगा? और फिर अपने पहले की तरह राजेंद्रजी के यहाँ डेरा जमाने लगा। वहाँ मुझे भी बुला लिया जाता…और वहाँ के विविधतापूर्ण व समृद्ध-स्वादिष्ट भोजन की याद घर वालों से ज्यादा आती है…। लेकिन नीरनजी के प्रेम की इस संकीर्णता को मेरे अंतर्मन की कचोट कोसती रही और कबीर को याद करती रही, जिनने प्रेम में ज़मीन-आसमान की दूरी को भी धता बता देने वाला उदाहरण पेश किया है – ‘कमोदिनी जलहरि बसे, चंदा बसे अकास। जो जाही को भावता, सो ताही के पास’। लेकिन वाह रे अपने नीरनजी, जो देवरिया से वाराणसी की डेढ़ सौ किमी की यात्रा तो कर सकते हैं, लेकिन हाय रे उनका प्रेम, जो एक-दो महीने में कभी 5 किमी की दूरी भी तय न कर पाया…!!

अब तो ‘नीरन पदेन काशी वास: की इति का समय आ गया, लेकिन बड़ी देर से उनके क्लीशे की बारी नहीं आयी। तो एक हो जाये – परम साहित्यिक और काशी से गहरे जुड़े एक शीर्ष साहित्यकार द्वारा योजित एवं वहीं के एक श्रेष्ठ साहित्यकार द्वारा साधित…। कह दूँ कि अब तक के क्लीशे उनके किये-जिये से जुड़े रहे…, लेकिन इसे उन्होंने अपनी मौजूदगी में घटा, अपने कानों सुना हुआ बताया है…। हुआ यह कि पंडित हज़ारी प्रसाद द्विवेदी किसी प्रयोजन से गोरखपुर आमंत्रित थे। कार्य ख़त्म होने की शाम को उनके ढेरों बड़े-बड़े नामी शिष्य मौजूद थे। रात के 12 बजे तक गप्पें होती रहीं …। सुबह 3 या 4 बजे की गाड़ी थी। तो यह तय हुआ कि क्या सोया जाये – चलने के समय तक मजलिस जारी रहे…। ढेरों बातों-बहसों, किस्से-कहानियों के बीच पंडितजी को क्या सूझी कि उन्होंने एक साहित्यिक-स्पर्धा का खेल शुरू कर दिया, जिसमें वे प्रश्न या पहेली रखते थे – सारे लोगों को हल करना या पूरी करना होता…। इसी में उन्होंने एक पहेली रखी – ‘तोरी पतली कमर पे’। इसे रामचरित मानस की पंक्ति से सिद्ध करना था…। सभी ने कुछ न कुछ कहा…ज्यादा सराहा गया किसी का कहा – भूप सहस दस एकहि बारा – तोरी पतली कमर पे…। लेकिन प्रथम पुरस्कार मिला नामवर सिंह को। पंक्ति थी – एकहि बार आस सब पूजी – तोरी पतली कमर पे…। अब आप ही दहाइए कि यह अपनी आँखों देखी, कानों सुनी है, किसी और से सुनी हुई का बयान है अथवा स्वयं महामहिम की गढ़ी गप्प है…!! 

—6—

वैसे जीवन में ‘महामहिम-लीला पुराण’ तो ‘हरि अनंत हरि-कथा अनंता’ जैसा है, लेकिन अब उसकी इस चर्चा के सम्पन्न होने का मुक़ाम और नहीं टाला जा सकता…। संस्कृत के सूक्तिकार कवि ने इसी जीवन में स्वर्गिक सुख के तीन आयाम बताये हैं…। पहला – ‘यस्य पुत्रों वशीभूतो’…और मेरा चाक्षुष-भुक्त सच है कि नीरनजी के तीनो बेटे हैं ऐसे और उनके पास खुला है वृहत विकल्प कि साल में कुछ-कुछ महीने ‘देवरिया-दिल्ली’ सकल सुख, रहहु जहां मन मान’ – और वे ऐसा करते भी हैं…। दूसरा – ‘भार्या छंदानुगामिनी’, जो मेरा श्रुत-सिद्ध सच है कि स्वर्गीया भाभी थीं ऐसी। तीसरा है – ‘विभवे यस्य संतोष:’ और मैंने नीरनजी को ज्ञान-प्रेम के लिए तो प्यासे देखा है – कभी यश-कामना भी सहज दिखी है; लेकिन कभी ऐसे-वैसे कमाने या धन पाने के लिए सोचते भी नही देखा – आतुर होते देखने की तो बात ही क्या? बल्कि बाँटते देखा है। और ये तीनो नेमतें जिसके पास हों, कवि के अनुसार – ‘तस्य स्वर्गमिहैव हि’…। इस तरह अपने महाहिमजी स्वर्गिक सुख भोग रहे हैं, जो हम मित्रों के लिए परम ख़ुशी का सबब है।

लेकिन संस्कृत के इस कवि ने मानवीय रिश्तों व मूल्यों की बात की – स्वास्थ्य व यथार्थ की बात नहीं की। और नीरनजी की क़द-काठी कुदरत ने ऐसी दी, जो उम्र के सात दशकों तक बिलकुल निरोग रही…लेकिन उसे रोगी नहीं, पर अशक्त बनाने में महामहिम ने स्वतः योगदान किया है…। यहाँ हमने देखा – उनके स्वभाव में एक मस्ती रही है शुरू से ही…और हमारी मनीषा में आमिष व नशे की सारी चीजों पर रोक लगाने के साथ ही भांग का एक नशा ऐसा निकाला गया, जिसका सेवन अपने सबसे नामी, देवाधिदेव शिव से कराते हुए इस पर उनका एकस्व (पेटेंट) स्थापित करके इसे भक्ति से जोड़ दिया गया। सिद्ध भक्त के माँगे वरदानों की सूची में पहला स्थान देकर बाक़ायदा महनीय बना दिया गया – ‘खाये के भंग, नहाये के गंग, चढ़े के तरंग, ओढ़े के दुसाला’…। इतिहास-विश्रुत है कि जब शेरशाह ने कड़ी शराबबंदी कर दी थी, इसके आशिक़ लोग बीस-बीस किमी बियावान जंगलों में जाके पी आते थे…इधर नीरनजी बनारस से अच्छी भांग मंगाने के लिए अपने देवरिया में आयोजन रख देते रहे हैं और अपने ‘प्रकाशोदय’ को आमंत्रित कर लेते हैं – आगे आप समझ लीजिए…। नतीजा यह है कि जो शामें गुलज़ार हुआ करती थीं – बहसों से, गप्पों से, उनके मस्ती भरे क्लीशों से…उन शामों को अब वे बुत हो जाते हैं…। और हालत यह है कि ‘हुई शाम ‘उसका’ ख़्याल आ गया है’ की तलब ऐसी हो गयी है कि ‘यहीं ज़िंदगी का सवाल आ गया है’। बहरहाल,

अभी तक तो हर दस-पंद्रह दिनों में फ़ोन पर जब बात होती है, यात्री-दल की अगली यात्रा की चर्चा ज़रूर होती है…चौथेपन के द्वार पर मैं भी खड़ा हूँ…अन्तिम यात्रा के पहले और भ्रमण-यात्राओं के आकांक्षी व मुंतज़िर हैं हम…।

अब तक तो आपको भी कयास हो ही गया होगा कि हमारी मिताई का विराम हममें से किसी की अन्तिम यात्रा के साथ ही होगा…। लेकिन तब भी न होगा – बचे हुए की स्मृति और चर्चाओं में यह यात्रा उसी गति से चलती रहेगी…।

ईश्वर में मेरी आस्था क़तई नहीं, वह कल्पना की ईजाद ही सही, लेकिन दूसरा तो कोई है भी नहीं, जिसके हुज़ूर में मैं अपने महामहिमजी की दीर्घायु की कामना करूँ…!! लेकिन उतनी ही कि मेरे जाने से पहले वे चले जायें…क्योंकि जिसने अपनी यारी की छाँव तले आजीवन आनंद ही आनंद दिया हो, उसे मैं अपने चिर-वियोग का दुःख नहीं देना चाहता…बल्कि उनके बिछोह को उन्हीं के दिये-सिखाये आनंद भाव से सहना, उसे आनन्दमय करना चाहूँगा…। याने जिस कला का पाठ उनके साथ रहके पढ़ा है, उसे उनके बग़ैर साधना चाहूँगा – सिद्ध करना चाहूँगा…।

और फिर कभी तो हम दोनो उस दुनिया में होंगे ही…तो सम्मेलन-सेमिनार-यात्राएँ वहाँ भी कहाँ रुकने वाली…!!

 

सत्यदेव त्रिपाठी

लेखक प्रसिद्ध कला समीक्षक एवं काशी विद्यापीठ के पूर्व प्रोफ़ेसर हैं। सम्पर्क +919422077006, satyadevtripathi@gmail.com
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x