शख्सियत

गोपाल सिंह नेपाली के गीतों का क्रमिक विकास

 

हिन्दी के रससिद्ध कवि गोपाल सिंह नेपाली का जन्म 11 अगस्त 1911 को बेतिया, पश्चिम चम्पारन बिहार के काली बाग दरबार, नेपाली रानी महल में जन्माष्टमी को गोरखा बटालियन राईफल्स के हवलदार मेजर रेल बहादुर के प्रथम पुत्र के रूप में हुआ। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा पेशावर अफगानिस्तान, देहरादून की सैनिक स्कूल (छावनियों) में हुई। फौजी पिता जब अफगानिस्तान, जर्मन- फ्रांस की लड़ाई में थे, तभी वे माँ से सदा के लिए बिछुड़ गए। माँ का बिछोह, विमाता की उपेक्षा ने बालक नेपाली को वेदना से भर दिया, जिसकी पर्रिणति उनके गीतों में हुई। नेपाली जी की प्रारम्भिक शिक्षा, राज स्कूल बेतिया में, तथा मैट्रिक की परीक्षा में उनका सेटअप नहीं हुआ, लेकिन इस क्षति की पूर्ति देहरादून और मंसूरी के प्रकृतिक परिवेश ने कर दिया। बेतिया के बीहड़ वन पर्वत घाटी निझरों के कल निनाद ने उन्हें कवि बना दिया। नेपाली जी की कारयित्री प्रतिभा ने उन्हें किशोरावस्था में ही चर्चित गीतकार बना दिया। श्यामल सलोने कद-काठी के नेपाली जी का कंठ अत्यंत मधुर और सुरीला था। जिसके कारण वे शीध्र ही लोकप्रिय हो गए।

   नेपाली जी की पहली कविता ‘ भारत गगन’ के जगमग सितारे पटना से निकलने वाली बाल पत्रिका में 1030 में रामवृक्ष बेनीपुरी के संपादन में छपी। इसके बाद वे युवक, ‘विशाल भारत’, ‘हँस’, ‘सरस्वती’, ‘कर्मवीर’, ‘प्रताप’, जैसी श्रेष्ठ पत्रिकाओं में छपने लगे। सन् 1931 में हिन्दी सम्मेलन कलकत्ता में नवीनतम अभिव्यक्ति,  शैली और सुरीले कंठ के कारण उन्हें कल्पनातीत लोकप्रियता मिली। शीध्र ही वे शिव पूजन सहाय, दिनकर, रामवृक्ष बेनीपुरी, बनारसीदास चतुर्वेदी, जैसे वरिष्ठ साहित्यकारों के प्रिय पात्र बन गए। उत्साहित होकर उन्होंने विद्यार्थी जीवन में सन् 1932 में ‘प्रभात’ नामक हस्तलिखित पत्रिका का सम्पादन किया। काशी नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी व्दारा आयोजित व्दिवेदी अभिन्दन समारोह में उन्हें राष्ट्रीय स्तर की ख्याति मिली। फिर तो उनकी प्रगति का व्दार खुल गया। निराला के सहयोगी के रूप में ‘सुधा’ (लखनऊ) में उन्होंने काम किया। 1934 में दिल्ली जाकर ऋषभचरण जैन के साथ चित्रपट का संपादन किया। 1935 – 39 में रतलाम टाइम्स का सम्पादक नियुक्त किया गया। प्रतिभा छिपाए नहीं छिपती। 1939 में उन्हें बतिया राज प्रेस में मैनजरी का पद मिला और गृहस्थी की गाड़ी सरकने लगी। 1939 में उनका विवाह वीणा देवी से हुआ था। 1944 में वे कालिदास समारोह बम्बई गए और चार वर्ष के अनुबंध पर फिल्म में काम करने लगे।

गोपाल सिंह नेपाली

   नेपाली जी का बचपन जिन परिस्थितियों से गुजरा, उनमें साहस, निर्भयता, और स्वाभिमान जैसे गुण का होना स्वाभाविक ही है। नेपाली जी तरुणाई के ओजस्वी कवि और अल्हड़ जवानी के मधुर गायक थे। उन्होंने जीवन भर मर्मस्पर्शी गीतों की साधना की, उनके जीते जी उमंग (1933), पंछी(1934), रागिनी (1935), पंचमी (1942), नवीन (1944), नीलिमा (1944) हिमालय ने पुकारा (1963), आदि सात काव्य संग्रहों का प्रकाशन हुआ। नेपाली जी का कविता संसार बड़ा व्यापक और बहुमूल्य है, हम संक्षेप में उनकी चर्चा करेंगे जिससे उनके काव्यात्मक विकास को परिचय मिल सके।

    नेपाली जी की प्रारम्भिक कविताएं उमंग में संग्रहित है, जिनमें नव यौवन की उमंग, निश्छल प्रकृति प्रेम, नवीन कल्पना अपरूप सौंदर्य एवं माधुर्य का ताना बाना है। इसकी भाषा अत्यंत सरल,सहज, संगीतात्मक और चित्ताकर्षक है- अल्हड़ जवानी की कुछ पंक्तियां देखिए-

        है यही जवानी के दिन

        उभरा आता यौवन

        कोमल घासों पर बैठा

        इठलाता मेरा मन

एकांत प्रकृति में कवि ने अपनी आत्मा को जगाया भी है-

        सोई उमंग,  उठ जाग जाग

        जीवन से क्यों इतना विरण

इस भावुक कवि के हृदय में भी अनाम प्रेमिका की प्रतीक्षा है, जो अतं तक बनी रही-

     यह देखता हूँ जनम भर, पर न तुम्हारा हो दर्शन

     करता रहूं चाह जीवन भर,पर न मिलो तुम जीवन धन।

  पंछी सहज प्रेम की सरलतम अभिव्यक्ति है। इसमें बन राजा और बन रानी के अंकुठ प्रेम व्यापार, संयोग वियोग और अन्त में एक दूसरे पर न्यौछावर हो जाने की गीतात्मक अभिव्यक्ति है जो ऊपरी तौर पर किसी खंडकाव्य का भ्रम पैदा कराती है। नेपाली जी ने प्रेम सुधा की परिभाषा इन शब्दों में दी है-

    यही एक पारस है, जिससे बनता तन कंचन है

    सरस सुधा बरसाने वाली यही एक बस धन है।

    रागिनी की इक्कीस कविताएं सन् 1934,35 के बीच लिखी गई थी। इनका मूल स्वर गीतात्मक है। रागिनी प्रेम के पचंम स्वर की कविता है। सुख दुख की परवाह न करने वाली रागिनी प्रियतम के अन्तस में वास करती है। रागिनी के बाद ही नेपाली, दिनकर, बच्चन, जानकीवल्लभ शास्त्री, नरेन्द्र शर्मा जैसे वरिष्ठ गीतकारों की श्रेणी में समादृत हो जाते हैं। इसमें कवि की स्वच्छंदतावादी प्रवृत्ति के दर्शन होते हैं। यहाँ स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अकुलाहट है। सबकुछ न्यौछावर कर देने की चाह है, बादल राग जैसी प्रतिध्वनियाँ देखिए-

     तू चिनगारी बनकर उड़ री, जाग जाग जाता ज्वाल बनूँ

    तू बन जा लहराती गंगा, मैं झेलम बेहाल बनूं

    आज बसन्ती चोला तेरा, मैं सज लूँ लाल बनूं

    तू भगिनी बन क्रांति कराली, मैं माई बिकराल बनूं

 ‘पंचमी’ नेपाली जी की 47 कविताओं का चौथा संग्रह है, इसके अधिकांश गीतों में छायावादी रुझान है। यहाँ प्राकृतिक, सुषमा निराली है। प्रभात गान की चार पंक्तियां दृष्टव्य है-

      किरण बन – बिहगों – सी उड़ चली

      किरण जल – लहरों सी खुल पड़ी

      खोजती फिरी गुहा से गुहा तक

      तिमिर को किरणों की फूलझड़ी

      तिमिर भाग बनकर तरु छांह

      चली किरणें तरु तरु को छान

      तिमिर बध गया सघन बन, कुंज

      बनी किरणें बिहगों के गान ।

 इस संकलन में नेपाली जी की भाषा प्रसन्न रसात्मक और मनोमुग्धकारी है। बसन्त गीत में मानवीकरण का सुन्दर प्रयोग हुआ है, यह प्रकृति चित्रण की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कविता है ” हिमालय” यहाँ उसकी विशालता उज्वलता और महानता देखने लायक है-

      हिमगिरि है गजराज,  धरा पर

      घट भर भर जल डाल रहा है

      नभ के वन में आज गरजते

      हुए मेघ के हरि को देखो।

यहाँ नेपाली जी की भावुकता, कोमलता और भौगोलिक उज्जवलता अपनी जगह है। शायद इन्हीं रचनाओं को देखकर पंत जी ने कहा था- “आपकी भाषा इतनी मधुर सरस और प्राजंल है कि वह आपकी विशेषता बन गई है।आपके निर्झर का झरना सरोवर को झील, पंछी को पंछी रिक्त को रीता बनाकर खड़ीबोली कविता को सहज सुषमा से भर दिया है।”

गोपाल सिंह नेपाली

       नवीन काव्य संग्रह की कविताओं में पाठक को सम्मोहन की अवस्था तक ले जाने वाली जो लय है, वह नेपाली के भाषा कौशल का नमूना है। इसके वर्णविन्यास तराशे गये नगीने सा भीतर से बाहर की ओर प्रकाश फेंकते हैं। उनके गीतों में छंदो का, रागरागनियों का वैविध्य है, उनकी संवेदना नौजवान की मौत से लेकर करुणा निधान के अश्रु बिन्दु के रूप में प्रवाहित होने लगती हैं। मानवता का ऐसा रसवर्षण हमारे समय के नेपाली जैसे दो चार कवि में ही पाए जाते है। नवीन में नवजीवन की तलाश है। इसमें अचेत प्राणों में स्फुरण पैदा करने की शक्ति है। नेपाली की संकल्पनात्मक शक्ति राष्ट्र की आत्मा को झकझोर देने वाली है-

      जंजीर टूटती कभी न अश्रुधार से

      दुख-दर्द दूर भागते नहीं दुलार से

      इस गंग तीर बैठ आज शब्द शक्ति के

      तुम कामना करो किशोर कामना करो।

यहाँ सौंदर्योपासक नेपाली का कवि सरल,  सुन्दर और शिव स्वरूप है उन्हें जीवन भर उपेक्षा और कटुताएं ही मिली लेकिन उन्होंने इस गरल को कंठ में धारण कर अमृत बांटने का काम किया। आत्म संघर्ष के इन गीतों में शाश्वत मूल्यों को भी गहराई मिली है, और समष्टिगत चेतना में लोक को भी प्रतिष्ठा मिली है, वे कोरे अध्यात्मिक न होकर लोक लय में तरंगित है, उनका मूल स्वर है-

     तीर पर कछार पर यह दिया बुझे नहीं

     देश पर समाज पर ज्योति का वितान हो

‘नीलिमा’ नेपाली जी का छठवाँ काव्य संग्रह है। जिसमें 33कविताएं एवं दो गद्य रचनाएं शामिल है। नीलिमा उन्होंने अपनी रानी (वीणादेवी) को समर्पित की है, इसमें रहस्यात्मक प्रेम सौंदर्य की नीलिमा पूरी भव्यता के साथ उजागर हुई है।

नेपाली जी के शब्दों में “यह दूब की ही महिमा है कि आज मेरे हाथ में बन्दूक की जगह लेखनी है।” नैसर्गिक छटा के बीच नेपाली का अल्हड़ जीवन बीता है। जिसमें मधु की मिठास और शैल शिखरों पर उमड़ने-घुमड़ने वाले मेघों का मन्द्र मन्द्र स्वर है। नेपाली की चित्र भाषा में देश भक्ति और मानवता की पुकार है।,  ओज, है, समाज के शोषित पीड़ितों का दुख दर्द है-

        आज जल रही है, झोपड़ियां

        देख रहे हैं, महल तमाशा

        अपने साथ समस्त जगत

        मानव अब उध्दार करो तुम

        छोड़ चले आधार जिसे सब

        उस बेड़े को पार करो तुम

 ‘हिमालय ने पुकारा’ सन् 47 से 1962 के बीच लिखी गई युग चेतना की 28 मार्मिक और ओजस्वी कविताएं हैं। इसमें चीनी आक्रमण की आठ विद्रोहात्मक कविताएं है, इसमें विद्रोहियों को कुचलने का आह्वान है। नेपाली जी ने लिखा है।” ये वे कविताएं है जिन्हें हिन्दुस्तान के रेडियो स्टेशन पढ़ने नहीं देते और न ही अखबार छापते थे। ” किन्तु इन कविताओं की गूंज सारे देश में सुनाई देती हैं। इन रचनाओं के कारण पेंकिंग से लगातार नेपाली जी के विरुद्ध गाली-गलौज सुनाई देती थी। सैनिक सुख सागर सिंह ने लिखा है ” मुझे तथा मेरे साथियों को श्रध्देय नेपाली जी की कविताओं से काफी प्रेरणा मिलती है, उनकी कविताओं और हमारी गोलियाँ दोनों बराबर है।

‘हिमालय ने पुकारा’ में नेपाली की स्वाधीन कलम की हुंकृति है-

    ओ शिव का पुजारी है हिमालय उसी का

    जो हिन्द में जनमा है हिमालय उसी का

    ‘लद्दाख’ उसी का है, ‘नेफा’ उसी का

    भारत में लिया जनम तो लद्दाख बचा लो

    इन चीन लुटेरों को हिमालय से निकालो

नेपाली देश के कर्णधारों को भी चेतावनी देते हैं-

     वक्तव्य लिखो कि विरोध करो यह भी कागज, वह भी कागज

    कब नाव राष्ट्र की बाट लगी, यों कागज के पतवार से

    ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से

    चर्खा चलता है हाथों से, शासन चलता तलवार से

‘भूदान के याचक से’ और ‘हिमालय ने पुकारा’ है इन दो रचनाओं को लेकर नेपाली जी दिनरात देश के कोने कोने में घूम घूम कर जनता को जगाने का प्रयत्न करते थे-

     समझा न सितारों ने घटाओं का इशारा

     चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा

नेपाली जी की कविताएं राष्ट्र भक्ति, प्रेम,  सौंदर्य की अप्रतिम धरोहर है। नेपाली जी राष्ट्र भाषा हिन्दी के प्रबल समर्थक थे। पंत,निराला, प्रेमचंद जैसे महान साहित्यकार इसी कारण नेपाली जी को बहुत प्यार – सम्मान देते थे। पंत के अनुसार,  आपकी सरस्वती स्नेह,  सहृदयता और सौंदर्य की सजीव प्रतिमा है। पंछी की भूमिका में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी ने टिप्पणी की थी, वह आगे चलकर बहुत सटीक उतरी ‘ “मुझे उनके काव्य में शक्ति प्रवाह, सौंदर्य बोध तथा चारु चित्रण एक विशेषता लिए हुए दीख पड़े।” सौंदर्य, रहस्य और राष्ट्रीय चेतना से सम्पन्न नेपाली दरअसल रससिद्ध कवि थे। उनमें लोक संगीत की राग-रागनियाँ बोलती थी। उनके गीतों में अल्हड़ता, मस्ती और सौंदर्य के ऊपर भी रहस्य का एक झीना पर्दा सदैव लहराता रहता है। इसी कारण उनके गीतों का स्थायी मूल्य है। 

     आज से साठ पैंसठ वर्ष पूर्व फिल्म जगत में उर्दू का ही बोलबाला था । उस समय फिल्म में हिन्दी के लेखक कम ही थे। प्रेमचंद और भगवती चरण वर्मा जैसे सिध्द हस्त लेखक वहां साल दो साल से ज्यादा नहीं टिक सके. हिन्दी में उर्दू जैसी रवानगी होते हुए भी संगीत निर्देशकों की उदासीनता के कारण हिन्दी के गीतकार कम ही थे, परन्तु नेपाली, भरत ब्यास, और प्रदीप के आगमन से फिल्म में हिन्दी विशेष रूप से लोकप्रिय हुई, और आज तो जमाना ही बदल गया है। आज वहां हिन्दी वालों की संख्या काफी है। सन् 1943-44 में नेपाली जी महाकवि कलिदास समारोह में भाग लेने बम्बई आए थे, लेकिन उनके स्वर माधुरी ने जादू जैसा कर दिया, वे रातोंरात लोकप्रिय गीतकार हो गए। उन्हें चार वर्ष के लिए दो हजार प्रतिमास पर टेस्ट बेसिस पर रखा गया. नजराना, सनसनी, खुशबू, मजदूर, सफरनामा, गजरे,शिवरात्रि, शिवभक्त, तुलसीदास, नागपंचमी, गौरी पूजा, नरसी भक्त, नई राहें, जय भवानी, के गीतों के व्दारा उन्होंने लोकप्रियता की सीमा का अतिक्रमण किया। भक्ति, प्रधान गीत लिखने में तो वे बेजोड़ ही थे। मुझे याद है 1945 से 1975 के बीच टाकीजों में सबसे पहले उन्हीं का यह गीत बजता था-

    ऊँ नमः शिवाय ऊँ नमः शिवाय

  आरती करो हरिहर की,करो नटवर की

  भोले शंकर की आरती करो शंकर की

नेपाली जी बचपन से ही शिव भक्त थे। उन्होंने भोलेनाथ पर कई हिट गीत लिखे, जिसमें ‘भोलेनाथ से निराला, गौरानाथ से निराला’, विशेष उल्लेखनीय है। पवनपुत्र का यह गीत तो आज भी लोगों की जुबान पर है। ‘ हे राम मुझे अपना शरण में ले लो राम’, भक्ति भावना से परिपूर्ण शास्त्रीय गीत लिखने में तो नेपाली जी आज भी बेजोड़ है-

   ‘ दर्शन दो घनश्याम आज मेरी आँखयाँ प्यासी रे

    मन-मंदिर में ज्योति जगा दो,घट घट वासी रे

नेपाली जी की भक्ति परक गीतों के अलावा श्रृगारिक गीत लिखने में भी अभूतपूर्व सफलता मिली है-तुलसीदास के गीत,  गृहस्थ जीवन के सर्वोत्कृष्ट गीत है-

     “नैया जल्दी ले चलो मुझे सैया के अंगना

     उसके लिए दोड़ के ले आया हूँ मैं कंगना

नेपाली जी संयोग श्रृंगार के गीत लिखने में जितने सक्षम थे उससे भी अधिक विरह श्रृंगार में उनको सफलता मिली है-

     धरती से गगन तक ढूंढू रे मेरे पिया गये तो

     कहाँ गये, ओ चाँद, सितारों, तुम बोलो

     वो मेघ मल्हारों तुम बोलो

     मेरे पिया गये तो कहाँ गये

आज लोगों की जुबान पर है और मदर इंडिया का यह दर्दीला गीत क्या आज भी भुलाया जा सकता है।

        नगरी नगरी, व्दारे व्दारे

        ढूंढू रे संवरिया

नेपाली जी जैसा लोकप्रिय गीतकार फिर दुबारा नहीं आया

लेखक – डॉ. बलदेव

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बसंत राघव साव

प्रस्तुतकर्ता : बसंत राघव साव, प्रकाशक, श्री शारदा साहित्य सदन, रायगढ़, छत्तीसगढ़ 496001 सम्पर्क: +918319939396, basantsao52@gmail.com
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