मध्यवर्गीय चिन्ताओं के बाहर भी
कुमार विजय गुप्त के कविता संग्रह “लौटा हुआ लिफाफा” की बहुध्वन्यात्मक कविताओं को पढ़ते हुए यह महसूस किया जा सकता है कि “इन्हें रचने वाला व्यक्ति अपनी मनुष्यता के प्रति अतिरिक्त रूप से सजग है..” संग्रह को पूरा पढ़ने के बाद फ्लैप पर दर्ज प्रभात मिलिंद की इस पंक्ति पर लौटा भी जा सकता है और इसी सिरे को पकड़कर आगे की बात भी की जा सकती है.. संग्रह की विशिष्टता यह है कि यह इकहरी कविताओं से बनकर तैयार नहीं हुआ है, काव्यात्मक कसावट के बावजूद कहीं कोई कविता बहुत ही सादी लगती है तो कहीं बांकपन से भरपूर.. कहीं वह अपनी भव्य शास्त्रीयता में प्रकट होती दिखती है तो कहीं एकदम ही मानवीय स्वरूप में.. विजय जी अपने सन्निकट संसार से जुड़ी वस्तुओं, भावनाओं, सम्वेदनाओं, बुनियादी चिंताओं, संघर्षों, त्रासदियों की बहुआयामिता को अपनी विशिष्ट शैली में एक असंभव तौर दर्ज करना जानते हैं जिसे समझना और रिलेट करना पाठक के लिए ज़रा भी दुरूह नहीं.. जिस विवेक और सम्वेदना से उन्होंने अपनी काव्य भाषा को बरता है वह कविताओं की संप्रेषणीयता को, उनके स्थापत्य को अद्भुत उठान देती है..
स्वप्न हमारे जीवन की परिधि को तय करते हैं किंतु आखिर/कहां मारते हैं सपने/आंख में/दिमाग में या पेट में/घर में/सड़क पर या संसद में/
सिगमंड फ्रॉयड और कार्ल जंग जैसे मनोवैज्ञानिकों ने सपनों का विश्लेषण करके उनके पीछे की मानसिक प्रक्रियाओं को समझने का प्रयास किया है..फ्रॉयड के अनुसार, सपने हमारी अवचेतन इच्छाओं और भावनाओं का प्रतीक होते हैं.. जीवन जीने के लिए एक महत्त्वपूर्ण रसायन.. इन सपनों को जोड़ने-सँजोने में बाह्य कारक भी उतने ही उत्तरदायी होते हैं..
“फिलहाल मरे हुए सपने का सुराग ढूंढने के लिए
एक मरे हुए आदमी की खुली आँखों में
मैं उतर रहा हूँ धीरे-धीरे..”
सपनों या टूटना उनका मरना एक ऐसी अदृश्य त्रासदी है जिसकी भरपाई संभव नहीं.. यह एक गहरा भावनात्मक घाव है जो आजीवन रिसता ही रहता है..
किंतु
जिंदगी यदि पहाड़ है तो/पहाड़ में ऊंचा मस्तक भी होगा/हौसला भरा सीना भी होगा/श्रृंखला भी होगी लहराते हाथों की/
संग्रह की यह कविता इस डिस्कोर्स को एकदम बदल देती है.. जीवन में यदि यह निश्चय-भाव न बचे तो सपनों का मर जाना बेशक एक भयावह स्थिति हो सकती है.. पहाड़ हमें धैर्यपूर्वक आत्मनिरीक्षण करते रहने का पाठ पढ़ाते हैं जो हमारे व्यक्तिगत विकास और मानसिक स्थिरता के लिए आवश्यक हैं.. उनकी स्थिरता, विनम्रता, संतुलन, अनुकूलन क्षमता, शांति, साहस और सहनशीलता हमें प्रेरित करती हैं और हमें एक बेहतर व्यक्ति बनने की दिशा में मार्गदर्शन करती हैं.. विजय जी इसी कविता में कहते हैं कि “सहृदय चरवाहे भी होंगे/निष्कलुष जनजातियाँ भी होंगी/वहीं संरक्षित होंगे छल प्रपंच रहित कोई संस्कृति” यह छल प्रपंच रहित संस्कृति दरअसल हमारी ही निर्मित्ति को वे पक्ष हैं जो अलभ्य रहते हैं, जो गुज़रते वक्त के साथ उद्घाटित होते रहते हैं..
पत्रों का भावनात्मक मूल्य और महत्व उनके व्यक्तिगत, सांस्कृतिक, और ऐतिहासिक संदर्भों में निहित होता है.. वे भावनाओं को गहराई से व्यक्त करने, संबंधों को मजबूत करने, और स्मृतियों को सँजोने का सशक्त माध्यम होते हैं.. यही कारण है कि पत्र, इस आधुनिक तकनीक के युग में भी, अपनी अनूठी विशेषताओं और प्रभावशीलता के साथ प्रासंगिक और मूल्यवान बने हुए हैं.. किंतु व्यस्तताओं और यांत्रिकता के इस युग में पत्र लिखने की परम्परा जो लगभग अब समाप्त होने की कगार पर है, उसपर अपनी चिंता व्यक्त करते हुए एक कविता में विजय जी लिखते हैं कि
“कभी-कभार दिख जाता है पत्र
तो द्रवित हो उठता हूँ कि
क्या कैद कर दिया जाएगा
अजायबघर में यह भी
अपने छोटे-से कुनबे के साथ!”
इस संग्रह में भावनात्मकता के पक्ष में खड़ी यह एक अनूठी कविता है..
संग्रह में कईं कविताएँ ऐसी हैं जिनमें अद्भुत वैचारिक चमक है.. जो समाज में बढ़ती सांप्रदायिकता का कईं कोणों से उद्घाटन करती नज़र आती हैं.. ऐसी ही एक कविता “रंग यात्रा” में कवि कहते हैं
“रंगों की इस अद्भुत यात्रा में
घुसपैठ करने लगे
रंग बदलने में महारत हासिल किए हुए
रंगों के कुछ उस्ताद
जो रंगों की इस मनभावन यात्रा को
नए किस्म के खेल की तरह खेलना चाहते थे
किस्म किस्म के रंगीन चश्मा लगाकर
पूरे दाँव-पेच के साथ..”
रंगों का बढ़ता सांप्रदायिक उपयोग एक जटिल मुद्दा है.. समाज की विविधताओं और संवेदनाओं को ध्यान में रखा जाए तो हर रंग की एक यात्रा है, महत्व है, उससे जुड़ा एक विशिष्ट मनोभाव है.. रंग अपने आप में निर्दोष हैं, लेकिन उनका संवेदनहीन और स्वार्थपरायण प्रयोग किया जाए तो निश्चित तौर पर यह तरीका और संदर्भ उन्हें सांप्रदायिक बना सकता है.. इसलिए समाज में सकारात्मक और समरसता बढ़ाने के लिए रंगों की अस यात्रा में कम से कम दखलअंदाज़ी की जानी चाहिए…
इसी तर्ज पर”बड़ा ही फिसलनभरा समय है भाई” एक बेहद विचारशील और संवेदनशील कविता है, जो इस समय में हमारे सामाजिक परिवेश की दशा और उसकी विडंबनाओ की ओर इशारा करती है..
“फिसलने को बेहतरीन करतब समझा जा रहा है फिसलने को अक्लमंदी का पर्याय माना जा रहा है फिसलने को आधुनिक होने की शर्त मानी जा रही है.”
इन पंक्तियों में बड़ी सूक्ष्मता से विजय जी ने बुनियादी मानवीय मूल्यों के बढ़ते ह्रास को दर्ज किया है.. साथ ही वे व्यक्ति के खुरदरे और मनुष्यतर संस्करण के पक्ष में खड़े नज़र आते हैं चूँकि वे हर दृष्टि से अधिक विश्वसनीय हैं.. इस कविता में व्याप्त भावनात्मक तत्व व इसमें निहित संवेदनशीलता हमारे समय की जटिलताओं की ओर इशारा करती है.. यह कविता हमें सोचने पर मजबूर करती है कि कैसे अराजक समय में जी रहे हैं व हमें अपने भीतर बचे मनुष्यत्व की शिनाख्त करते रहने की कितनी आवश्यकता है…
“बाज़ार के रैम्प पर कैट-वॉक करती हुई मँहगाई” एक अलहदा किस्म का सैटायर है.. बाज़ार को एक व्यापक रैम्प है जिस में मँहगाई अपूर्व तौर पर उपस्थित है.. सैंडल की पेंसिल हील से/खींच रहीं वे/आड़ी तिरछी लकीरों वाले/सूचकांकों के ग्राफ/.. आर्थिक तंत्र को एक दिलफरेब खेल बताते हुए और उसके इम्प्लिकेशन्स को लाक्षणिक तौर पर इंगित करने का प्रयास इस कविता में किया गया है..
संग्रह में कई कविताएँ मध्यमवर्गीय चिंताओं और आकांक्षाओं को समर्पित हैं जिन्हें मुकम्मल करते-करते व्यक्ति का एक पूरा जीवन चुक जाता है.. हमारा असंतोष, हमारी उद्विग्नता, हमारी बेचैनियाँ हमें निरंतर सालती हैं.. थिर होकर सोचने, समझने का धैर्य हम खो चुके हैं.. लगातार निस्संग होते हम अपने उस खोए हुए बचपन की ओर लौट जाना चाहते हैं जो “कागज़-सी निपट कोरी है”, जहाँ ” दुनिया का मौसम नहीं बदलता”, जो निष्कलुष है, निर्द्वन्द है, जीवंत है, सजीव है.. जहाँ रोमांच है, कौतुक है, उड़ाने हैं, इन्द्रधनुषी आभाएँ हैं.. जहाँ रातें कुछ ज़्यादा, दिन कुछ कम हों..
समग्र तौर पर इस संग्रह में कवि ने अपनी कविताओं के माध्यम से पूरी गहनता, पूरे साहस और पूरी करुणा के साथ जीवन व उससे जुड़े उपक्रमों के विभिन्न आयामों को छूने का प्रयास किया है जिसे पढ़कर आत्म-निरीक्षण करने की एक अमूर्त इच्छा मन में उपजती है…
***********************
पुस्तक : लौटा हुआ लिफाफा
समीक्षक : मीनाक्षी मिश्र