पुस्तक समीक्षा

रुई लपेटी आग : लोक धारणा से इतर कथा धारणा

 

कोरोना के समय और उसके थोड़ा आगे-पीछे प्रकाशित उपन्यासों में से जिनकी चर्चा सोशल मीडिया में बार-बार देखने को मिली, उनमें हृषीकेश सुलभ का ‘अग्निलीक’ एवं ‘दाता पीर’, वंदना राग का ‘बिसात पर जुगनू’ , रणेंद्र का ‘गूँगी रुलाई का कोरस’ तथा अवधेश प्रीत का ‘रुई लपेटी आग’ के नाम उल्लेखनीय हैं। हालांकि ‘अग्निलीक’ का प्रकाशन कोरोना के पहले हुआ, किन्तु जल्दी ही पूर्ण बंदी (लॉक डाउन) होने के कारण, इस उपन्यास पर तब अपेक्षित चर्चा नहीं हो पायी। ऐसा ही कुछ ‘बिसात पर जुगनू’ के साथ भी हुआ। बहरहाल, इन उपन्यासों में जो बात साझा दिखायी देती है, वह है आग तथा संगीत। आग चाहे जीवन-संघर्ष की हो या सामाजिक किंवा सांप्रदायिक वैमनस्य की अथवा जुगनू की झिलमिल रोशनी सरीखी देसी चित्र कला को बदहाली से बचाने की, इन उपन्यासों केे कथानक में वह यत्र-तत्र-सर्वत्र है। इसे महज संयोग समझा जाय अथवा किसी किस्म का प्रायोजन या कि कोरोना के तांडव पर जीवन की जीत का जश्न कि इन कथाओं में संघर्ष के प्रतीक के रूप में आग है तो सृजन के प्रतीक-रूप में संगीत। वास्तविकता चाहे जो हो, यह समानता दिलचस्प है। सर्जनात्मक लेखन में ऐसी समानता चौंकाती है।

इस दृष्टि से ‘रुई लपेटी आग’ का अध्ययन महत्वपूर्ण हो सकता है। किन्तु इसके ‘कॉपीराइट पेज’ पर इसे ‘आधी हकीकत और आधा फ़साना’ कहा गया है और सलाह दी गयी है कि ‘इसे एक गल्प केे रूप में पढ़ा जाए।’ ऐसे में ‘रुई लपेटी आग’ के संबंध में कुछ कहने की गुंजाइश बचती नहीं है? फिर भी इस हकीकत और फ़साने की जुगलबंदी में जो समस्या उठायी गयी है, उसका संबंध हमारे जीवन, समाज, जलवायु, पर्यावरण, परिवेश तथा देश की सुरक्षा-तैयारियों से इस कदर जुड़ा हुआ है कि इसे सेंत-मेंत में नहीं लिया जा सकता। उपन्यास का कथा-विन्यास तथा शैली भी इतना गझिन तथा रोचक है कि इसे पढ़े बगैर नहीं रहा जा सकता और जो पढ़ लिया तो कुछ कहे बगैर भी नहीं रहा जा सकता। खैर।

‘रुई लपेटी आग’ कथाकार अवधेश प्रीत का एक महत्त्वाकांक्षी उपन्यास है। यह कथाकार के पहले उपन्यास ‘अशोक राजपथ’ के वर्षों बाद आया दूसरा उपन्यास है। इसका गल्प जिस मनोभाव, संवेदना और संबंधों को लेकर बुना गया है, वे निस्संदेह मानवीय हैं, करुणा-जन्य हैं तथा पर्यावरण हितैषी हैं। ऐसे मनोभाव, संवेदना और संबंध घिसी-पिटी राह के अनुगामी नहीं होते। ये आम भावनाओं से भिन्न एक अलग राह अपनाते हैं। ऐसे में इनके लोक-चित्त से बेमेल होने के कारण अलोकप्रिय और कभी-कभी विवादास्पद होने का खतरा रहता है। ‘रुई लपेटी आग’ की कथा कुछ ऐसी ही है।

उत्तर आधुनिकतावाद के व्यक्ति केंद्रित विखंडनवादी विमर्श से प्रभावित होकर यह सवाल उछालना बड़ा सरल है कि परमाणु हथियारों की जरूरत किसे है – देशों और उनकी सरकारों को? या लोगों में डर के बीज बोकर सत्ता की फसल काटने वाले राष्ट्राध्यक्षों को? या कि यह महाशक्तियों के प्रभुत्ववाद और दमन के विरुद्ध सुरक्षा की चाह में विकासशील देशों के द्वारा शक्ति का संधान है? कहने को तो ‘रुई लपेटी आग’ का कथानक इन्हीं ज्वलंत सवालों को लेकर रचा गया है। इसे उपन्यास के अंतिम कवर पृष्ठ पर दूसरे अनुच्छेद में साफ शब्दों में स्वीकारा भी गया है। किन्तु यह सच नहीं है। सच यह है कि इस उपन्यास का कथानक व्यापक भारतीय जन-मन के विपरीत भारत के परमाणु परीक्षण को गैर जरूरी तथा अमानवीय कृत्य मानता है। जाहिर है कि यह एक चुनौतीपूर्ण कथानक का उपन्यास है, जिसे रचने में कथाकार को अति कल्पना एवं कलाकारी का सहारा लेना पड़ा है। सृजन में धारा के विपरीत जाने का चुनाव सहज और सामान्य नहीं होता। सर्जक ऐसा जोखिम तभी उठाता है, जब वह कुछ बड़ा रचना चाहता है तथा उसे अपनी सर्जना पर भरोसा होता है। इसमें लाभ और नुकसान, दोनों की संभावना बराबर-बराबर होती है।

‘रुई लपेटी आग’ की कथा एक तरह से हठयोग की साधना-कथा है। परमाणु बम बनाम संगीत की संगत आखिरकार दो विपरीत ध्रुवांत ही तो हैं, जिन्हें आमने-सामने रखकर उपन्यासकार ने एक रोमानी कथा बुनने का साहस किया है। कथा में एक तरफ राजस्थान के थार रेगिस्तान का पोखरण फायरिंग रेंज एवं उसके आसपास स्थित खेतोलाई तथा अन्य गाँवों का जीवन और उसकी विडंबनाएँ हैं। पोखरण फायरिंग रेंज ही वह रेगिस्तानी इलाका है, जहाँ भारत ने 18 मई, 1974 को पहला भूमिगत परमाणु परीक्षण किया तथा पुनः 11 एवं 13 मई,1998 को परमाणु बम के तीन भूमिगत विस्फोट किए। इसी विस्फोट के फलस्वरूप भारत दुनिया में परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्रों के बीच प्रतिष्ठित हो पाया। उपन्यास में कथाकार ने इस परमाणु गाथा के समानांतर पखावज गाथा की रचना की है। इस गाथा में पखावज बजाने की साधना है, उसके इतिहास का अनुसंधान है और अंत में पोखरण में पखावज-वादन की समारोहपूर्ण प्रस्तुति है। जाहिर है कि परमाणु गाथा के समानांतर पखावज गाथा ऊपरी तौर पर एक निहायत सामान्य घटना लगती है। किन्तु ऐसा है नहीं। कथानक में इस समानांतर गाथा का निहितार्थ अत्यंत अर्थपूर्ण, सांकेतिक एवं विचारणीय है। एक किंवदंती के अनुसार पखावज वही वाद्य है, जिसे शिव के तांडव के समय डोलते ब्रह्मांड की परिणति महाविनाश में भाँपकर ब्रह्मा ने आनन-फानन में बनाया एवं उसे बजा-बजाकर तांडव को लयबद्ध किया और इस तरह से शिव के गुस्से को शांत कर सृष्टि के विनाश को रोकने में सफलता पायी। इस मिथक का कथाकार अवधेश प्रीत ने ‘रुई लपेटी आग’ में बड़ा सुंदर और सर्जनात्मक उपयोग किया है। इसमें परमाणु विस्फोट की ‘लीला भूमि’ में संगीत प्रस्तुति का मकसद संहार के समक्ष जीवन और सृजन की सर्वोपरिता को स्वीकार करना तथा उसका उद्घाटन करना है। इस प्रकार परमाणु परीक्षण और पखावज वादन के दो समानांतर छोरों में फैले इस उपन्यास का कथानक जिस संजीदगी से भारत के परमाणु अनुसंधान और विकास की गौरव गाथा रचता है, उसी मुस्तैदी से पोखरण फायरिंग रेंज के आसपास के गाँवों में परमाणु विकिरण की समस्या और उसके दुष्प्रभाव तथा कैंसर की चपेट से कराहते जनजीवन की मार्मिक कथा प्रस्तुत करता है। इस गाथा- विसंगति को उपन्यास के शिल्प में रचने का संदेश साफ है – युद्ध की मुखालफत, परमाणु बम का निषेध तथा अमन और भाईचारे का प्रसार। यह संदेश जितना भारत के लिए है, उतना ही दुनिया के लिए भी।

सभ्यता का जैसे-जैसे विकास हुआ, मनुष्य-जीवन की जटिलता बढ़ती गयी। आगे चलकर आधुनिक जीवन इतना जटिल हो गया कि उसकी समग्र अभिव्यक्ति कविता के संश्लिष्ट शिल्प में संभव नहीं रही। उपन्यास का उद्भव इसी मोड़ पर हुआ और इसने देखते-देखते में आधुनिक जीवन की जटिलता को समग्रता में चित्रित और उद्घाटित करना शुरू कर दिया। उपन्यास ने यह काम दुनिया की लगभग सभी भाषाओं में बखूबी किया है। अकारण नहीं उपन्यास को आधुनिक जीवन का महाकाव्य कहा जाता है। कथाकार अवधेश प्रीत ने ‘रुई लपेटी आग’ में इसी जटिलता के चित्रण का प्रयास किया है।

वैसे ‘रुई लपेटी आग’ का कथानक उपन्यासों के प्रचलित कथानक से भिन्न स्त्री प्रधान है। आमतौर पर उपन्यास का कथानक महाकाव्य की तरह नायक और नायिका के इर्द-गिर्द बुना गया होता है। एक मुख्य कथा होती है, जिसके साथ-साथ कई अनुषंगी कथाएँ चलती हैं। अनुषंगी कथाओं के भी अपने पात्र होते हैं, जो नायक-नायिका के परिचित, सहायक या परिस्थितिजन्य साथी अथवा विरोधी होते हैं। ‘रुई लपेटी आग’ में भी मुख्य कथा के साथ कई छोटी-छोटी कथाएँ हैं। पखावज की साधक और शिक्षिका अरुंधती तथा वैज्ञानिक कलीमुद्दीन अंसारी की ‘लरिकाई के साहचर्य में विकसित प्रेम कथा’ के साथ-साथ बया और दीप की कथा, गुनी-रतन और परमेसर मुखिया की कथा तथा चंदन-रज्जो और उनके बेटे राजू की कथा ऐसी ही कथाएँ हैं। इसमें पं. रामरतन रामायणी और फैजुल अंसारी की भी एक कथा है, जो निहायत संजीदा, बिंदास और मानवीय है। दोनों एक ही कस्बे के रहने वाले और बचपन के संघतिया (दोस्त) हैं। पं.रामरतन रामायणी अरुंधती के पिता हैं तथा फैजुल अंसारी कलीमुद्दीन अंसारी के। पं. रामरतन पखावज के दक्ष वादक एवं रामचरितमानस के सुमधुर (कथाकार के शब्दों में सुकंठी) गायक हैं, जबकि अबुल अंसारी करघे पर कपड़ा बुनकरी के उस्ताद। जाहिर है, ये दोनों चरित्र अपने-अपने रहन-सहन, धार्मिक पहचान और पेशागत दृष्टि से भिन्न हैं। फिर भी ये दोनों गजब के दोस्त हैं। इनकी दोस्ती आदमीयत की लियाकत तथा जमीन पर आधारित है। कथाकार ने इन दोनों चरित्रों की दोस्ती और नोकझोंक का जिस बारीकी तथा बेबाकी से वर्णन किया है, वह इतना सरस और मनभावन है कि उसका कोई मिसाल नहीं। ‘रुई लपेटी आग’ में इन आधुनिक ‘अलगू’ और ‘जुम्मन’ की कथा भले संक्षेप में और विनोदपूर्ण है, परंतु एक दूसरे के प्रति अटूट अनुराग एवं आत्मीयता से ओतप्रोत है। इसके जरिये कथाकार ने सांप्रदायिक सौहार्द और भाईचारे का बड़ा संदेश देने का प्रयास किया है, जिसकी हमारे समाज को आज बहुत जरूरत है।

‘रुई लपेटी आग’ हमारे जीवन, समाज, परिवेश एवं पर्यावरण के लिए गहरी चिंता और व्यापक बोध का उपन्यास है। इस दृष्टि से यह निहायत सामाजिक उपन्यास है। इसकी सामाजिकता को गढ़ने और स्वर देने में इसके पात्रों की महती भूमिका है। बड़ी बात यह है कि इस उपन्यास में आदि से अंत तक कथा का सूत्र महिला किरदारों के हाथ में रहता है। उपन्यास भी स्त्री प्रधान है। अरुंधती इसकी नायिका है, जो पखावज-वादन की साधना और शिक्षण में जीवन होम कर देनेवाली विदुषी है। उपन्यास की अन्य स्त्री किरदारों में बया, गुनी और मोनीषा भी अपने-अपने आचरण, विचार तथा जीवन-संघर्ष से पाठक के मन पर अमिट छाप छोड़ती हैं। ये सभी स्त्रियाँ अवयव की कोमलता के बावजूद लौह स्त्रियाँ हैं, जो अपना भाग्यलेख खुद लिखने में विश्वास करती हैं। ये स्त्रियाँ मनुष्यता की मंगलकामना में अपने निजी सुख और चैन को तिलांजलि देनेवाली साहसिक स्त्रियाँ हैं। स्वाभाविक है कि इसका खामियाजा भी इन्हें उठाना पड़ा है। इनका व्यक्तिगत जीवन समाज कल्याण को समर्पित जीवन है, जिसमें प्रेम एवं अनुराग के लिए अवसर तथा अवकाश नहीं है। इसे पखावज गुरु अरुंधती और शोधार्थी बया तथा घरेलू सेविका गुनी की जिंदगियों में तथा समाज के उत्थान एवं विकास को समर्पित इनके जीवन संघर्ष में देखा जा सकता है। वैसे, इसे विडंबना ही कहेंगे कि ‘रुई लपेटी आग’ की इन लौह स्त्रियों का सामाजिक व्यक्तित्व बेहद आभा और महिमा से युक्त है, किन्तु इनका निजी जीवन अतृप्त प्रेम का विरल उच्छवास है।

‘रुई लपेटी आग’ उपन्यास का कथानक घटना प्रधान है और इसके गोशे-गोशे में नाटकीयता देखने को मिलती है। शुरुआत ही होती है एक भीषण विस्फोट के चित्रण से। जाहिर है कि इस दृश्य के सृजन और वर्णन में नाटकीयता होगी और है। कहीं-कहीं अति नाटकीयता भी है। कथा का आरम्भ ही अति नाटकीय है। यह 9 पंक्तियों के दो छोटे-छोटे अनुच्छेदों में सिमटा एक दृश्य है। किन्तु यह दृश्य-वर्णन अगली ही पंक्ति में यथार्थ से परे फैन्टेसी में बदल जाता है, जब पाठक पढ़ता है – “अपने ही जिस्म के टुकड़ों को न पहचान पाने की यह अजीब विवशता थी। अरुंधती के लिए यह स्वीकार कर पाना कठिन हो रहा था, वह ऐसी थी? महज मांस का लोथड़ा? गाढ़े लाल खून का थक्का भर?….” पृष्ठ-13। वैसे, कथा बुनने की यह शैली चाहे जितनी ‘हिट’ हो, इससे कथा-प्रवाह बाधित होता है; क्योंकि कथा पढ़ते हुए पाठक जब ऐसे स्थलों पर पहुँचता है, तो सहसा ठहर जाता है और सोचने को विवश हो जाता है। याद रहे, औपन्यासिक कृति के वाचन में किसी तरह का शैलीगत अवरोध, पाठानुभूति तथा कलानुभूति, दोनों ही दृष्टि से अच्छा नहीं होता।

‘रुई लपेटी आग’ की चरित्र-कथा तब तक पूरी नहीं हो सकती, जबतक कि क्लासिकल सिंगर मोनीषा चटर्जी और कवि ठाकुर हरदेव प्रताप ‘बच्चू’ का जिक्र न हो। यह कथा उपन्यास के ‘उपकथा’ खंड की है। मोनीषा और हरदेव प्रताप एक ही कॉलेज में पढ़ने वाले युवा हैं। मोनीषा इलाहाबाद हाईकोर्ट के मशहूर अधिवक्ता शरदचन्द्र चटर्जी की इकलौती बेटी है, जबकि हरदेव प्रताप बच्चू इलाके के बड़े जमींदार ठाकुर इंद्रदेव प्रताप सिंह के इकलौते बेटे। इन दोनों का मिलन संगीत ऑडिशन एवं कविता की रिकॉर्डिंग के सिलसिले में आकाशवाणी में क्या होता है, इनके युवा दिलों में एक दूजे के प्रति प्रेम का अंकुरण हो जाता है। इस प्रेम को तो परवान चढ़ना ही था। कॉलेज के आखिरी साल में दोनों प्रेमी एक दिन चुपचाप आर्य समाज मंदिर में विवाह कर लेते हैं। फिर जैसा कि सामंती ठसक वाले समाज में होता है, ठाकुर इंद्रदेव प्रताप अपने बेटे को घर से निकाल बाहर करते हैं। खुद्दार हरदेव प्रताप मोनीषा के साथ किराये के घर में रहने लगता है। कुछ समय बाद मोनीषा एक अस्पताल में बेटी को जन्म देती है। यह खुश-खबर मोनीषा के माँ-बाबा को देने के लिए हरदेव प्रताप टेलीफोन बूथ जाने की राह पकड़ता है कि सहसा एक तेज रफ्तार ट्रक की चपेट में आ जाता है और वही दम तोड़ देता है। इस तरह ‘रुई लपेटी आग’ की यह खालिस प्रेम कथा अपने नाटकीय अंत को प्राप्त होती है। उपन्यास में इस प्रेम कथा के ठीक पहले और बाद के प्रसंग में बया की चहक है, जो गौरतलब है। बया ‘उपकथा’ से ठीक पहले अल्हड़ता में अपने नाना का जिक्र करती है। पूरे उपन्यास में यह जिक्र पहली और आखिरी बार है। वह दीप को छेड़ते हुए कहती है, “तुम्हें पता है, मेरा नाम बया किसने रखा?” अपने प्रश्न के साथ ही उसने उत्तर भी दे दिया था, “मेरे नाना जी ने मेरा नाम बया रखा था और मां से कहा था, इसकी उड़ान पर कोई पाबंदी नहीं लगनी चाहिए। यह बया है, इसकी चहचहाहट ही इसकी पहचान है।” पृष्ठ – 163। बया संगीत की शोध छात्रा है और वह पोखरण संगीत कार्यक्रम में नज़्म सुनाती है। संगीत और नज़्म का योग एवं नामकरण का प्रसंग इशारा करता है कि बया वही बच्ची है, जिसे मोनीषा ने जन्म दिया और जिसके जन्मते ही सर से पिता कवि ठाकुर हरदेव प्रताप का साया उठ गया तथा जिसका लालन-पालन नाना की छत्रछाया में हुआ। किन्तु उपन्यास में इस असंगत प्रेम कथा को संगति देने में न जाने क्यों कथाकार मौन है ।

‘रुई लपेटी आग’ का कथानक 7 खंडों और 280 पृष्ठों के विस्तार में फैला है। खंडों के नाम आकर्षण जगाते हैं, जैसे- पूर्वकथा, अंतर्कथा, कथांतर, परिकथा, उपकथा, अनुकथा और इति कथा। ये नाम निश्चय ही मानीखेज हैं। इन नामों में कथानक के आरंभ, मध्य, परिप्रांतर, अवांतर, अंत इत्यादि की ध्वनि निहित है। किन्तु उपन्यास पढ़े बिना ये अर्थ नहीं खुलते। जहाँ तक उपन्यास के शिल्प का संबंध है, यह आरंभ से अंत तक एक ही फ्रेम में कथा कहने के पारंपरिक ढाँचे का अतिक्रमण करता है। इसलिए इसमें कथा के एक ढाँचे (frame) और शैली (style) में होने की उम्मीद पालने वाले पाठक को नाउम्मीद होना पड़ेगा। एक ढर्रे में कही जा रही कथा, दृश्य बदलते ही दूसरा ढर्रा पकड़ लेती है। ऐसे में पाठक को सतर्क रहना पड़ता है। अन्यथा कथा सूत्र के ध्यान से फिसल जाने पर, उसे पकड़ने के लिए पीछे लौटने के सिवा पाठक के पास कोई उपाय नहीं बचता।

‘रुई लपेटी आग’ की कथा रचने में कथाकार अवधेश प्रीत ने अपने पत्रकारिता वाले ज्ञान और अनुभव का खुलकर उपयोग किया है। इससे कथा में तार्किकता आयी है। किन्तु कथाकार जहाँ कहीं ढीला पड़ा है, तथ्य में त्रुटि आ गयी है। हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु हमले की तारीख के मामले में ऐसी त्रुटि से बचना चाहिए था। चीन के न्यूक्लियर टेस्ट और वीटो पावर हासिल करने के समय जैसे महत्वपूर्ण प्रसंग के उल्लेख में भी चूक हुई है। उपन्यास की भाषा और कहन-शैली में नफासत बरतने के बावजूद, उर्दू शब्दों का असामान्य प्रयोग खटकता है। कहन और चिंतन में गज़ल और शेर के मौजू उद्धरण उसे निश्चय ही वजनदार तथा प्रभावी बनाते हैं। किन्तु समस्या तब आती है, जब यह स्वभाव बन जाता है।

उपन्यास में एक महत्वपूर्ण प्रसंग भदोही जिले के स्थापना दिवस पर कवि सम्मेलन-मुशायरा और संगीत को समर्पित दो दिवसीय समारोह का है। महिला सशक्तीकरण थीम के इस समारोह में कवि सम्मेलन-मुशायरे की सदारत के लिए फहमीदा रियाज को आमंत्रित किया गया है और संगीत समारोह की अध्यक्षता के लिए अरुंधती को। फहमीदा से जुड़ा प्रसंग रोचक होने के बावजूद इस कदर नपा-तुला है कि अस्वाभाविक लगता है। इसी तरह का एक प्रसंग प्रोफेसर जैकब के इंटरव्यू और उनके उपदेश का है। इस ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ से मन में कई सवाल खड़े होते हैं। यह कम आश्चर्यजनक नहीं है कि तीसरी दुनिया के देशों के शक्ति और स्वावलंबन के संधान जैसे हर नाजुक मामले पर प्रवचन देने कोई-न-कोई पश्चिम का उपदेशक आ टपकता है और हमारा पिछड़ा मानस उसका जाप करने लगता है। किन्तु यही संत विकसित देशों की मुँहजोरी पर पता नहीं किस बिल में दुबक जाते हैं? सर्जक, साहित्यकार भी अपने रचना-संसार में ऐसे उपदेशकों को जब भाव देने लगते हैं, तो सवाल बनता है।

बहरहाल, ‘रुई लपेटी आग’ में घटनाओं का कोलाज है,जिसमें गाँव, कस्बा, शहर के साथ-साथ राजधानी का जीवन-संघर्ष है, तो पखावज वादन की साधना और संधान भी है। दम तोड़ते पारंपरिक करघे के कुटीर उद्योग की करुण कथा है, तो पोखरण परमाणु विस्फोट की अभिमान-गाथा भी। इसमें पखावज के इतिहास की खोज करते दो युवा शोधार्थियों की ईमानदार कोशिश भी है, जो आज के ‘कट-पेस्ट’ वाले शोध-दौर में दुर्लभ उपलब्धि की तरह है। इसमें पोखरण क्षेत्र में बसे लोगों में परमाणु रेडिएशन का विस्तृत लेखा-जोखा भी है, जो एक तरह से उपन्यास का हासिल है। इसमें कारगिल-युद्ध है और जवान शहीदों के घरों से उठती दहलाने वाली चीखें भी। एक दृश्य गंभीर रूप से घायल होकर कोमा में चले गए दीप के फौजी पिता की आर्मी हॉस्पिटल दिल्ली में चल रहे इलाज का भी है। दीप अपनी माँ के साथ वही चला गया है और इधर बया अकेली रह गयी है। अरुंधती और कलीमुद्दीन का विछोह एक बार फिर से घटित होते देख सहृदय मन आहत होता है। एक कथा में इतनी सारी उप कथाएँ और घटनाएँ, कोलाज इसे ही तो कहते हैं। इस कोलाज को पढ़ना निस्संदेह अपने हालिया इतिहास से रु-ब-रु होना है और भविष्य की शिक्षाओं से लैस होना भी है

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रुई लपेटी आग (उपन्यास)

लेखक – अवधेश प्रीत

प्रकाशन- राजकमल पेपरबैक्स

पहला संस्करण : 2022

कुल पृष्ठ – 280

मूल्य : 299 /-

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श्रीनारायण समीर

डॉ श्रीनारायण समीर वरिष्ठ लेखक एवं अनुवादवेत्ता हैं एवं भारत सरकार की शीर्ष अनुवाद संस्था 'केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो' में 9 वर्षों तक निदेशक रहे हैं। आपकी अनुवाद पर 6 पुस्तकें लोक भारती से प्रकाशित हैं। सम्पर्क - snsamir1@gmail.com, +919868202025
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