पुस्तक समीक्षा
आधुनिकता के सन्दर्भ में एक बहस
- बिपिन तिवारी
आलोचनाद्वारा स्थापित मान्यताओं कोजब मूल साहित्यके साथ रखकरफिर से पाठकरने की कोशिशकी जाती हैतब आलोचना औरकठिन हो जातीहै। आलोचना कोदोतरफा टकराना होता है।एक तो पहलेसे स्थापित मान्यताओंसे और दूसरेरचना के पुनर्पाठसे। हिन्दी साहित्यमें उपन्यास औरआधुनिकता की जोपूरी बहस हैउसको इसी सन्दर्भमें देखने कीजरूरत है। वैभवसिंह की किताब‘भारतीय उपन्यास और आधुनिकता’कुछ ऐसे हीसवालों से टकरातीहै।
दरअसल भारत मेंउपन्यास लिखने की शुरुआतआधुनिकता की बहसके साथ शुरुहोती है। आधुनिकताको लेकर जोबहस बुद्धिजीवियों केबीच रही हैउसमें आधुनिकता कामूल्यांकन या तोपश्चिम को केन्द्रमें रखकर कियागया है याआधुनिकता को पूरीतरह खारिज करदिया गया है।ऐसे में भारतीयके सन्दर्भ मेंआधुनिकता का सवालअनसुलझा ही बनारह जाता है।वैभव सिंह की‘भारतीय उपन्यास और आधुनिकता’ किताब दो खंडोंमें विभाजित है।पहले खंड मेंभारतीय उपन्यासों के सन्दर्भमें आधुनिकता कामूल्यांकन करने काप्रयास किया गयाहै, दूसरे खंडमें 1857 के सन्दर्भमें उपन्यास, राष्ट्रवाद, हिन्दी–उर्दू भाषा–विवाद, सती प्रथा, हिन्दूपरंपरा और डेरोजिओंके जीवन, कवितापर विचार कियागया है।
‘भारतीयउपन्यास और आधुनिकता’किताब के पहलेखंड में संकलितनिबन्धों में उपन्यासऔर सुधारवाद, परीक्षागुरुके बहाने राष्ट्रवाद, उपन्यास राष्ट्र और स्त्री, पंडित रमाबाई औरउपन्यास, उमराव जान अदा, फकीर मोहन सेनापतिआदि निबन्ध बहुतमहत्वपूर्ण हैं। उपन्यासऔर सुधारवाद निबन्धमें आधुनिकताके दौर मेंलिखे गये उपन्यासोंको आधुनिकता कीपृष्ठभूमि में रखकरविचार किया गयाहै। ‘परीक्षागुरु’ व‘निस्सहाय हिंदू’ के अलावापंडित गौरीदत्त का‘देवरानी जिठानी’, श्रद्धाराम फुल्लौरी का‘भाग्यवती’ और उर्दूके नजीर अहमदका ‘मिरातुल अरूस’कृतियों का उद्देश्यस्त्री शिक्षा के महत्वकी स्थापना करनाहै ताकि लोगघर की स्त्रियोंकी पारंपरिक अशिक्षाको दूर करउन्हें शिक्षित बनाने परध्यान दें। यानीइस दौर मेंलिखे गये उपन्यासोंमें सुधारवाद कोप्रमुखता दी गईहै। इस बातका प्रमाण श्रद्धारामफुल्लौरी ‘परीक्षागुरु’ उपन्यास की भूमिकामें स्पष्ट रूपसे दिखाई पड़ताहै। लेकिन इसमेंभी बात बहुतस्पष्ट नहीं है।इस दौर केउपन्यासों में सुधारका जो स्वरहै वह उच्चवर्ग की स्त्रियोंको केंद्र में रखकर बनायागया है। उमाचक्रवर्ती अपने लेख‘वाटएवर हैप्पेंड टू वैदिकदासी में लिखतीहैं-‘स्त्रियों सेजुड़े सवालों सन्दर्भमें 19वीं सदीका पूरा ध्यानउच्च जाति कीहिन्दू स्त्रियों पर केन्द्रित था, चाहेअतीत में उनकीउन्नत दशा कोप्रकट करना होया वर्तमान मेंउनकी निम्न दशामें सुधार करनेकी चेतना हो।’(पृष्ठ 21) साथ हीइन उपन्यासों औरगद्य साहित्य मेंपश्चिमी ढंग कीस्त्रियों की आलोचनाकी गई हैजबकि पश्चिमी पुरुषोंको एक अलगढंग से देखागया है। बालकृष्णभट्ट ‘हमारी गुदड़ीके लाल’निबन्धमें लिखते हैं-‘यूरोप के नौजवानोंसे जब हमअपने यहां केनवयुवकों को मिलातेहैं तो उनमेंऔर इनमें बड़ाअंतर देखने मेंआता है। यूरोपमें ऐसी कोईबात नहीं हैजो आगे बढ़नेसे इन्हें रोकसके बल्कि हरबात सामाजिक, मजहबीतथा घरेलू डोमेस्टिक–सब इसढब से रखीगई है किउनको अपने लिएतरक्की करने मेंबाधा डालना कैसाबल्कि हर तरहका आराम पहुंचातीहैं। यूरोप केनौजवान तो हमारेयुवकों के लिएप्रेरणास्रोत बन सकतेहैं। उपन्यास औरसुधारवाद (पृष्ठ 30) यानी एकही साथ दोविरोधी विचार इन उपन्यासोंऔर इस दौरके गद्य साहित्यमें दिखाई पड़तेहैं। इसके साथ–साथ इनउपन्यासों का स्वरनए मध्यवर्ग कीचिंताओं को लेकरभी है। यहनया मध्य वर्गअपने को शहरोंकी ठगी वलूट से बचानाचाहता है। धोखेबाजी, लूट व ठगीके कई किस्सेइन उपन्यासों मेंमौजूद हैं औरसंपत्ति संरक्षण की मध्यवर्गीयचिंताएं भी। (पृष्ठ27)
वहीं‘परीक्षा गुरु केबहाने राष्ट्र विमर्श’निबन्ध में परीक्षागुरुके सम्बन्ध मेंनामवर सिंह केविचारों का उल्लेखकरते हुए उसपर सवालिया निशानलगाया गया हैं।नामवर सिंह नेअपने लेख ‘अंग्रेजीढंग का उपन्यास’ में लिखते हैं– ‘कैसीविडम्बना है किउन्नीसवीं शताब्दी में जबअंग्रेजी ओरियन्टलिस्ट कादम्बरी, कथा सरितसागर, पंचतंत्र जैसी भारतीयकथाओं के पीछेपागल थे, स्वयंभारतीय लेखक तबअंग्रेजी ढंग कानावेल लिखने के लिएव्याकुल थे। येहैं उपनिवेशवाद केदो चेहरे।’ आगेलिखते हैं–उन्नीसवींशताब्दी में भारतीयमानस का सहीप्रतिनिधित्व कपाल कुण्डला(बंकिम चन्द्र चटर्जी 1866) करतीहै, परीक्षा गुरुनहीं। परीक्षा गुरुका महत्व अधिकसे अधिक ऐतिहासिकहै वह भीसिर्फ हिन्दी केलिए।’(पृष्ठ 33) लेकिनइस बात कोवैभव सिंह एकअलग नजरिये सेदेखते हैं। वहलिखते हैं–परीक्षागुरु एक ऐसेसमाज का उपन्यासहै जो व्यापारी–बुर्जुआ समुदाय केदायरे में हीराष्ट्र, समाज औरदेशोन्नति के हरसवाल को सुलझालेना चाहता है, और भूल जानाचाहता है किकिसी भी राष्ट्रका गठन इतनेसीमित दायरे वालेसमाज व उसकेसामाजिक मूल्यों के सहारेनहीं किया जासकता है।(पृष्ठ47) दरअसल रचना कापाठ करते समययदि युगीन सीमाओंको ध्यान मेंनहीं रखा जाताहै तब निष्कर्षबहुत बार एकांगीहो जाते हैं।परीक्षागुरु उपन्यास की अपनीसीमाएं हो सकतीहैं लेकिन उसकेमहत्व को सिर्फऐतिहासिक नहीं मानाजा सकता?
‘पंडितरमाबाई और उपन्यास’ शीर्षक निबन्ध में पंडितरमाबाई पर अनामिकाद्वारा लिखे गये‘दस द्वारे कापिंजड़ा’ उपन्यास को विवेचनका आधार बनायागया है। इसउपन्यास से मराठीनवजागरण की चेतनाका गहरा वभावपूर्ण परिचय हिन्दी क्षेत्रको प्राप्त होताहै। उपन्यास मेंपंडित रमाबाई केकठिन संघर्ष औरउनके द्वारा चलायेगये आंदोलनों का गहराईसे विवेचन कियागया है। उपन्यासके बारे मेंवैभव सिंह कामानना है-‘दसद्वारे का पिंजड़ा’उपनिवेशवाद के दौरका ऐसा पाठहै जिसमें आधुनिकताऐसी स्त्रियों वनिम्न जातियों कासबसे गहरा बुनियादीसरोकार है जिन्होंनेसामाजिक वंचनाओं के दंशको सबसे ज्यादासहा है।(पृष्ठ90) वहीं मिर्जा हादी रुसवाके ‘उमराव जानअदा’उपन्यास कोलखनऊ की संस्कृतिको परिभाषित करनेवाले नवाबों, कोठों, तवायफों और सामंतीशौकों को व्यक्तकरने वाली रचनाके रूप मेंही मात्र नहींकिया गया है।उपन्यास में उमरावजान की कथाके माध्यम सेलखनऊ निर्मित हुआहै, न किलखनऊ की कथाके किसी हिस्सेके रूप मेंउमराव की कहानीकही जाती है।‘उमराव जान अदामें उमराव अपनाआत्म परिचय पुरुषोंकी बनाई दुनियामें बेबस स्त्रीके रूप मेंनहीं देती हैबल्कि वह बड़ेफख्र से कहतीहै-‘मैं एकघाघ औरत हूं, घाट–घाट कापानी पिये हूं।जो जिस तरहबनाता है बनजाती हूं, लेकिनदर–हकीकत उनकोबनाती हूं, हरएक को खूबसमझती हूं। उमरावजान अदा औरउर्दू उपन्यास।(पृष्ठ113) साथ ही इसमेंदिल्ली और लखनऊकी उर्दू मेंहिज्जे आदि कोलेकर जो फर्कपैदा किया गयाउसकी भी बारीकविवेचना है। इसउपन्यास में एककोठे वाली स्त्रीके जीवन केसंघर्ष को बहुतही गहराई सेदिखाया गया है।
वहीं‘1857: औपन्यासिक आख्यान की निर्मित’ निबन्ध में 1857 को लेकरजितने भी दुष्प्रचारकिये जाते हैंउनकी गहराई सेविवेचना की गईहै। वह चाहेइस आंदोलन कीप्रकृति को लेकरहो या इसमेंकौन–कौन लोगशामिल थे इसकोलेकर। सुरेन्द्र नाथसेन अपनी ‘1857 किताब’ में इस बातकी वकालत करतेहैं कि 1857 केविद्रोही जाने–अनजानेब्राह्मण धर्म औरसती प्रथा कोबचाने व विधवाविवाह के विरोधके लिए एकजुटहोने लगे थे।इन तर्कों केजवाब में पी.सी. जोशीने ‘1857: ए सिम्पोजियम’ नामक अपनी सम्पादितकिताब में इसतर्क का खण्डनकिया है। वहलिखते हैं–शुद्धराजनीतिक प्रोपेगेण्डा के कारणब्रिटिश इतिहासकारों ने यहदावा किया हैकि अंग्रेजों कीउदारता और दयाके कारण भारतमें सुधार कानूनलागू किए गए।इस पूरे मामलेपर वैभव सिंहलिखते हैं–अगरब्राह्मण धर्म कीमान्यताओं की रक्षाकरना ही गदरके लड़ाकुओं कामकसद होता तोकई आदिवासी इलाकोंमें संथाल–भीलजैसी जनजातियां भीविद्रोहियों के साथन लड़ी होतीं।इसी तरह राजस्थानकी राजपूत रियासतेंगदर में नहींशामिल हुईं, जबकिसनातन धर्म कीरक्षा करने कापारम्परिक जिम्मा उन्हीं केपास रहता था।यहां तक किबुन्देलखण्ड में दलितऔर अवध मेंपासी जातियों काभी काफी खूनबहा।…ऐसे मेंसनातन धर्म कीरक्षा का तर्कदेना उस दौरके समस्त विद्रोहियोंके प्रति नाइंसाफीहोगी। (पृष्ठ 160) साथ हीइस निबन्ध मेंविलियम डेलरिम्पल (द लास्टमुगल) की 1857 कोलेकर जो विवेचनाहै उस परभी गंभीरता सेविचार किया गयाहै। यह शायदहिन्दी का पहलाकाम होगा जिसमेंविलियम डेलरिम्पल की स्थापनाओंको विवेचित करनेका प्रयास कियागया है। वह1857 के सन्दर्भ में म्यूटिनीपेपर्स का बार–बार उल्लेखकरते हैं जिसकेबारे में उनकादावा है किउन्होंने ही इसकोसबसे पहले देखाहै। म्यूटिनी पेपर्सके हवाले सेलिखते हैं-‘विद्रोहको किसी साम्राज्यवाद, राष्ट्रवाद, प्राच्यवाद अथवा किसीसैद्धांतिकी से जोड़ानहीं जा सकताबल्कि इसे असाधारणऔर त्रासदीपूर्ण मानवीयघटना मानना चाहिएऔर आम आदमीकी ओर देखनाचाहिए जो इतिहासकी उथल–पुथलसे भरी घटनाओंका शिकार होगया।’ इस तथ्यमें साफतौर सेउनके पश्चिमी हितदिखाई पड़ते हैं।एक बार फिरसवाल तथ्यों केदेखने के नजरियेको लेकर खड़ाहो जाता है।ऐसे ही कईदूसरे तथ्यों कीतरफ भी वैभवसिंह इस निबन्धमें ध्यान आकर्षितकरते हैं। इसीनिबन्ध में ‘एकयुद्ध संवाददाता कीडायरी’ के हवालेसे भी 1857 केचरित्र की भीविवेचना की गईहै। साथ हीदलित दृष्टि सेभी 1857 का पाठकरने की कोशिशकी गई है।आज जबकि अधिकांशदलित चिंतक अंग्रेजोंके शासन कोदलित समाज केलिए ज्यादा हितकारीमानते हैं औरउसके बारे मेंयहां तक कहतेहैं कि अंग्रेजदेर से आयेजल्दी चले गये, तब फुले द्वारा‘गुलामगीरी’ में इसपूरी अंग्रेजी व्यवस्थाके बारे मेंलिखी गई बातोंको जानना ज्यादाजरूरी हो जाताहै। वह लिखतेहैं-‘हमें यहकहने में बड़ादर्द होता हैकि सरकार केगैर–जिम्मेदाराना रवैयाअख्त्यिार करने कीवजह से येलोग अनपढ़ केअनपढ़ ही रहे।इन तथ्यों कोआज समझना बहुतजरूरी है तभीपश्चिम द्वारा प्रचारित ज्ञानकांडका मुकम्मल जवाबदिया जा सकताहै।
‘डेरोजिओ: कविता और जीवन’ निबन्ध में डेरोजिओंकी जिंदगी औरउसकी काव्य यात्रापर गंभीरता सेविचार किया गयाहै। डेरोजिओ कलकत्ताके हिन्दू कालेजमें अंग्रेजी काप्राध्यापक था। यहीहिन्दू कालेज आगे चलकरप्रेसीडेंसी कालेज में तब्दीलहो गया। डेरोजिओने अध्यापन करतेहुए यंग बंगालजैसे आंदोलन काआधार भी तैयारकिया। उसने अपनेछात्रों को रेडिकलसोच अपनाने केलिए प्रेरित कियाथा। सर्कुलर रोडपर स्थित उसकाघर विद्यार्थियों वकलकत्ता के अन्यनामी गिरामी बुद्धिजीवियोंका शाम कीबैठकी का अड्डाबन गया। उसकीअकादमिक एसोसिएशन नामक नईसंस्था धर्म, विज्ञान, साहित्य, दर्शनशास्त्र के बारेमें बगैर किसीपूर्वाग्रह के चर्चाकरती थी। इतिहासकारसुशोभन सरकार (डेरोजिओ एंडयंग बंगाल, स्टडीजइन द बंगालरिनेसां) ने तोइसे पहले ‘डिबेटिंगक्लब’ का दर्जाप्रदान किया है।डेरोजिओ ने कवितासहित बहुत सासाहित्य रचा है।डेरोजिओ की कविताओंका पहला संग्रह‘पोयम्स’1827 में प्रकाशितहुआ था। डेरोजिओकी कविताओं कापरिदृश्य वैश्विक है। जिसकाप्रमाण ‘मैराथन के ग्रीक्स’ ‘गुलाम की आजादी’ आदि कविताएं हैं।‘उसने कैसा अनुभवकिया होगा जबबताया गया होगा/अब वहगुलाम नहीं रहगया है/उसकादिल धड़का होगामहान गर्व से/जब पहलीबार सुनी होगीउसने अपनी आजादीकी खबर/चमकउठी होगी उसकीआत्मा की पवित्रतमभावना सहसा…’ (गुलामकी आजादी) इसकविता की आरंभिकपंक्तियां-‘और जबगुलाम की विदाईहोती है तोमनुष्य की वापसीहोती है’ अपनेआप में हीएक बहुत बड़ाविचार हैं। ऐसेही अनेक कविताएंहै जो डेरोजिओकी काव्य प्रतिभाका परिचय देतीहैं। ‘राष्ट्रवाद औररवीन्द्रनाथ टैगोर, फकीर मोहनसेनापति: सृजन कीनई कला दृष्टि, पहला अंग्रेजी उपन्यासऔर बंकिम आदिआलोचनात्मक निबन्ध किताब कोसमृद्ध बनातेहैं। यह किताबसिर्फ हिन्दी साहित्यको केन्द्र मेंरखकर नहीं लिखीगई है। इसमेंउडि़या के साहित्यकारफकीर मोहन सेनापतिहैं तो बांगलाके रवीन्द्रनाथ टैगोर, उर्दू के मिर्जाहादी रुसवा, गुजरातीके गोवर्धन रामत्रिपाठी के उपन्याससरस्वती चंद्र आदि उपन्यासोंको सम्मिलित कियागया है। ऐंग्लोइंडियन द्वारा लिखे गयेउपन्यासों को भीशामिल किया गयाहै। साथ हीइसमें हिन्दू–उर्दूप्रेस विवाद, सतीहिन्दू परम्परा और साहित्यतथा रवीन्द्रनाथ टैगोरके राष्ट्रवाद सम्बन्ध्ीविचारों की गहनतासे पड़ताल कीगई है। लेखकने यह किताबगंभीर शोध करकेलिखी है। इसलिएकिताब में दीगई स्थापनाएं गंभीरविवेचन और व्यापकपाठ की संभावनालिए हुए हैं।
पुस्तक: भारतीय उपन्यास और आधुनिकता(नवजागरण और 1857 का विशेषसन्दर्भ)
लेखक: वैभव सिंह
प्रकाशन: आधार प्रकाशन पंचकूला(हरियाणा)
मूल्य: 350 रुपये
बिपिन तिवारी, पीएच.डी. शोध छात्र, हिन्दीविभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली
मो0-09990653770