पुस्तक समीक्षा

भूमंडलीकरण के प्रभाव में रग्घू 

 

 काशीनाथ सिंह का साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित ‘रेहन पर रग्घू’ बड़ा ही दिलचस्प उपन्यास है। इसमें इन्होंने भूमंडलीकरण के प्रभाव को परत दर परत खोला है। हमारे समाज और इसमें व्याप्त प्रत्येक व्यक्ति के भौतिक सुख और आत्मीय संबंधो में दिन प्रतिदिन परिवर्तन हो रहे हैं। इस उपन्यास को पढ़ने पर पाठक वर्ग महसूस करता है, कि भूमंडलीकरण ने मानवमूल्य की परिभाषा बदल कर रख दी। रग्घुनाथ को चारों तरफ की दिवारें लाल रंग की दिखाई पडती हैं। तो वह बुदबुदाता है “इसी दुनिया में कभी हरा रंग भी होता था भाई वह कहा गया”? [1] (अर्थात भावना, संवेदना की जगह लाभ-हानी और स्वार्थ ने घर कर लिया है।)

 आज लोगों में इतनी व्यस्तता है कि उनके पास अपने आस-पास के सौन्दर्यपूर्ण धरती का हरापन देखने का भी समय नहीं है। रग्घुनाथ को अपने उम्र के अंतिम पड़ाव में प्रकृति इतनी सुंदर दिख रही है कि वे सोच रहे हैं “उनकी बाहें इतनी लम्बी क्यों नहीं हो जाती कि वे उनमें सारी धरती समेट ले और मरे या जिये तो सबके साथ ! लेकिन एक मन और था रघुनाथ का जो उन्हें धिक्कारते जा रहा था कल तक कहाँ था यह प्यार? धरती से प्यार की यह ललक? यह तड़प? कल भी यही धरती थी। ये ही बादल, आसमान, तारे, सूरज, चाँद थे। नदी, झरने, सागर, जंगल, पहाड़ थे। ये ही गली, मकान, चौबारे थे। कहाँ थी यह तड़प? फुर्सत थी इन्हें देखने की”? [2]

रचनाकर ने बताना चाहा है कि व्यक्ति प्यार करना भूलता जा रहा है। अपने भौतिक विकास में इतना लिप्त हो चुका है, कि जो सुंदरता शाश्वत और अमिट है, बिना कोई मोल लिए प्यार करना सिखाती है, उसके तरफ व्यक्ति का ध्यान ही नहीं जाता है। भूमंडलीकरण के कारण व्यक्ति अपने माता –पिता को भी अपने विकास में रोड़ा मानने लगा है। वह यह भूल जाता है कि माता –पिता भी उनकी अच्छाई के लिए सोचते हैं, मगर व्यक्ति की महत्वकांक्षा इतनी बढ़ गयी है, कि वह उसके सामने कुछ नहीं देखना चाहता या यूं कहे उन्हें दिखाई ही नहीं देता। “देखो संजू ला आफ ग्रेविटेशन का नियम केवल पेड़ों और फलों पर नहीं लागू होता, मनुष्यों और सम्बन्धों पर भी लागू होता है। हर बेटा–बेटी के माँ –बाप पृथ्वी है। बेटा ऊपर जाना चाहता है और ऊपर, थोड़ा सा और ऊपर माँ–बाप अपने आकर्षण से उसे नीचे खींचते हैं। आकर्षण संस्कार का भी हो सकता है, और प्यार का भी, मोह-माया का भी। मंशा गिरने की नहीं होती, मगर गिरा देते हैं”।[3]

आज का व्यक्ति सुविधावादी हो गया है, वह अपनी सुविधानुसार जहाँ उचित हो परम्परा और आधुनिकता को भूमंडलीकरण की शर्तों पर ग्रहण करने को तैयार है। “रग्घुनाथ ने ब्रीफकेस खोला तो भाव विभोर !बेटे संजय के प्रति सारी नाराजगी जाती रही। रुपयों की इतनी गड्डियाँ एक साथ एक ब्रीफकेस में अपनी आँखों के सामने पहली बार देख रहे थे और यह कोई फिल्म नहीं वास्तविकता थी”। [4]

यहाँ रचनाकार ने मनुष्य की प्रवृत्ति को रेखांकित किया है, खासकर अपने समाज के मनुष्य की जो सुविधावादी बना बैठा है, आधुनिकता को पूरी तरह ग्रहण नहीं कर पाता और न ही परम्परा को छोड़ पाता है। एक के साथ लालच और सुख है, तो दूसरे के साथ मोह और गर्व। सुख, सुविधा, और बाजारीकरण ने इस प्रकार मनुष्य को ग्रस्ति किया है कि अब वे अपनी दयनीय स्थिति पर शर्म कर रहे हैं, अपने को बड़ा समझने के लिए घर में सारी भौतिक सुविधा जुटा रहे हैं। “पहले तो इनसे कहो कि ये कंजूसी और दरिद्रता छोड़े अब हँसी उड़ाते हैं लोग। यह ढिबरी और लालटेन छोड़ो और दूसरों की तरह तार खिंचवा के कम से कम आँगन और दरवाजे पर लट्टू लगवा लें ताकि रोशनी हो घर में। इसके साथ फोन भी लगवा रहें हैं लोग, ताकि घर में फोन होगा तो संजू भी बात कर लेगा। तुम भी सरला दीदी से ही बात कर लिया करोगी। दीदी से हिन क्यों भाभी से भी”। [5]   

   भारत कृषि प्रधान देश है जहाँ पारंपरिक रूप से खेती होती थी किन्तु मजदूरों के हड़ताल के बाद मशीनों ने यहाँ भी घर कर लिया है। अब खेत ट्रेक्टर से जोते जाने लगे हैं। “सबको एहसास हो गया कि बैल सिरदर्द और बोझ है फालतू है, दुआर गंदा करते हैं उन्हें हटाओ। उनके गोबर भी किस काम के? उनसे उपजाऊ तो यूरिया हैं”। [6]

   वैश्विकरण के कारण रहन-सहन और पूरी व्यवस्था में एक बदलाव आया, युवावर्ग अब केवल मौज-मस्ती और थोड़े समय में अमीर बनने की महत्वकांक्षा पालने लगा है। वह सबका मोल पैसे से लगाने लगे। “ये नई नस्ले पैदा हुई थी गाँव में तभी से जब से गाँव में बिजली के खम्भे, केबुल, ट्यूबवेल, पंपिंग सेट, दवाखाने आए थे, जातियों की पार्टीयां आई थीं। तीसरे घर से फौज में किसी न किसी की भर्ती हुई थी। सवर्णों में एक नस्ल रिसर्च और कोचिंग करने वाले लड़कों की थी जो शहर से या किसी फौजी के घर से बोतल हासिल करते और रात पंपिंग सेट पर बिताते”। [7]

इसी के कारण देश की राजनीति में भ्रष्टाचार ऐसा पैठ गया और जड़े इतनी गहरी होती चली गयी कि अब उससे निजात पाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपनी पात्रता टटोलनी पड़ेगी याचना करने वाले और याचना सुनने वाले को भी। जब रग्घुनाथ को दस बारह दिन दौड़ना पड़ा तो “कुर्सी सबने दी, सम्मान सबने किया, ध्यान से सुनी उनकी बातें और अंत में कहा ‘मास्साब’!आप विद्वान हैं, शरीफ हैं, आपकी सब बातें सही है, लेकिन किस झमेले में अपने को डल रहे हैं ? वे सब अच्छे आदमी हैं क्या? मुंह से बोल कर तो कुछ कहा नहीं, इशारों से जरूर समझा दिया (कि कुछ खर्च करे तो काम बने) कि कर तो सकते है कुछ न कुछ, लेकिन बातों से तो सिर्फ बातें ही कर सकते हैं न”। [8]

   इसके अलावा नवजवान पीढ़ी जो जल्द से जल्द अमीर बनना चाहती है। जो पैसा कमाना चाहती, जिनको अपनी जमीन से कोई लगाव नहीं वह कहती है, “जितना इस जमीन की कीमत है, उतना तो उनके एक महीने की तनख्वा है, तो क्यों व्यर्थ करे उस जमीन पर अपनी ताकत, अपना श्रम मगर वे भूल रहे हैं कि इसी जमीन के कारण वे खाते हैं, पैसे और डालर नहीं खाते हैं। ये भी भूल जाते है कि “जिस माँ का दूध पी कर बड़े हुए है, उसी माँ की महतारी है यह जमीन”। [9]

अब जमीन और खेती उनके लिए कोई माईने नहीं रखती थी। “ये सारी बातें बेटों की नजर में ‘बुढ़भस’ थी। आप माटी में ही पैदा हुए और एक दिन उसी माटी में मिल जाएँगे। कभी उससे छुटने या ऊपर उठने या आगे बढ़ने की बात ही आपके दिमाग में नहीं आई क्योंकि उसमें भी गोबर नहीं तो माटी ही थी। क्या कर लिया खेती करके आपने? कोन सा तीर मार लिया? खाद महंगी, बीज महंगा, नहर में पानी नहीं, मौसम का भरोसा नहीं, बैल रहे नहीं, भाड़े पर ट्रेक्टर समय पर मिले न मिले, हलवाहे और मजूरे रहे नहीं किसके भरोसे खेती करो? और खेती भी तभी करो जब बाहर से चार पैसे आएँ? क्या फायदा ऐसी खेती से? ” [10]

इस प्रकार आज की पीढ़ी खेती से अपने संबंध काटे दे रही। इसी भूमंडलीकरण ने शिक्षा व्यवस्था को भी तार-तार किया अब बच्चे डोनेशन के सहारे पढ़ना चाहते हैं। उनमें काबिलियत तो है नहीं “वह शार्टकट से बड़ा आदमी बनना चाहता है। उसके लिए बड़ा आदमी का मतलब है धनवान आदमी। वह महत्त्वाकांक्षी लड़का है, लेकिन वह लालच को ही महत्त्वाकांक्षा समझता है। वह बहुत कुछ हासिल करना चाहता है आनन-फानन में लेकिन बिना पढ़े-लिखे, बिना अच्छे नंबर लाए डिवीजन लाए बिना प्रतियोगिता दिए, बिना खटे और नौकरी किये”। [11]

समाज के सभी क्षेत्र में कोई प्रत्यक्ष तो कोई अप्रत्यक्ष रूप में इसकी चपेटे में है। दांपत्य सम्बन्ध में भी कई बदलाव दिखाई पड़ रहे हैं। इसमें भी सबकी मान्यताएँ अलग हो रही हैं, जो सहृदय है, जिन्होंने सच्चे मन से प्यार किया है, उनके लिए विवाह की अलग परिभाषा है। मीनू जिसने दूसरी जाति के लड़के से प्रेम किया किन्तु विवाह में उसके घर और समाज वाले ने उसका साथ नहीं दिया, अंतत:लड़के ने ह्त्या की इसलिए मीनू का तर्क है कि “तुम दोनों एक साथ कर ही नहीं सकती यह समाज ही ऐसा है। प्रेम करो या विवाह करो, और जिससे प्रेम करो उससे व्याह तो हरगिज मत करो। व्याह की रात से ही वह प्रेमी से मर्द होना शुरू कर देता है। अगर मुझसे पूछो तो मैं हर पत्नी को एक सलाह दे सकती हूँ। वह अपने पति से घर के बाहर प्यार पाना चाहती है तो, उसे घर से बाहर प्रेम करने की छूट दे, उकसाए उसके लिए क्योंकि वह कहीं और किसी को प्यार करेगा, तो उसके अंदर का कड़वापन रूखापन भरता रहेगा और इसका लाभ उसकी बीवी को भी मिलेगा”। [12]

इसके अलावा पति संजय की तरह भी है, जिनके लिए पत्नी का मतलब होता है, पैसा पाने का तरीका, जहाँ प्यार नहीं रहता संजय ने अमेरिका जाने के लिए सोनल से शादी की, अब उस आरती के साथ विवाह करने की सोच रहा क्योंकि “वह इकलौती सन्तान है, करोड़पति एन . आर . आई व्यावसायिक की, एक्सपोर्ट- इम्पोर्ट कंपनी आरती इंटरप्राइजेज़ के मालिक की। संजय तो सीधे कहता है “तुम भी क्यों नहीं ढूंढ लेती एक बॉयफ्रेण्ड?             

अच्छा लगेगा तुम्हें, उसने सीधे संजय की आँखों में देखा। ‘अच्छा क्या कहती हो? निश्चिन्त हो जाऊंगा हमेशा के लिए। हा हा हा…..”। [13]

 ये है दांपत्य का सच, 21वीं सदी में पीढ़ी इतनी आगे बढ़ गयी है कि धनंजय तो अपने ऐशो आराम और पैसे के लिए एक दक्षिण भारतीय लड़की से (लिविंग रिलेशनशिप) संबंध रखे हुए है, ताकि जब अपना काम निकाल जाएगा तो बिना किसी कोर्ट कचहरी दबाव के वे दोनों अलग हो सकते हैं। शायद उस लड़की को भी एक पुरुष की जरूरत है, जो रखवाला बने उसकी बेटी का ताकि वह अपनी नौकरी कर सके, इसलिए दोनों ही समझौता किये हुए है।  

   इसके बावजूद भी भूमंडलीकरण का दूसरा पहलू है। समाज को सिर्फ पतन में ही नहीं ले गया बल्कि समाज में नवजागरण नई चेतना तथा अपने अधिकारों के लिए लड़ना भी सिखाया है। आज तक जहां सामंती मूल्यों पर दलित वर्ग और स्त्रियाँ पिछड़ती जा रही थी, उन्हें ज्ञान से वंचित रखा गया, वे अब सचेत हैं। इस उपन्यास में मजदूरों ने ठाकुरों के खिलाफ हड़ताल किया तथा अपना आक्रोश छ्ब्बू पहलवान की ह्त्या करके उजागर किया। अब वे खेती करने के लिए उनकी मामूली सी दिहाड़ी पर कतई तैयार नहीं क्योंकि उद्योग-धंधों और कम्पनियां खुलने से उनका रुझान शहर की तरफ हो रहा है। वे अब जागरूक हैं। रग्घूनाथ के घर काम करने वाला चमार कहता है कि “ठाकुर के लिए छूत तो रोटी और भात में ही है, आटा और चावल में तो है नहीं”?  [14]

इसके अलावे स्त्रियाँ जिन्होंने पुरुष के शासन, उसकी आज्ञा को ही अपना जीवन माना हैं, वे अपनी तरह से जीवन को देखना चाहती हैं। सरला अपनी शादी को लेकर कहती है “आप दूसरों की शर्तों पर शादी कर रहे थे, यहाँ मैं करूंगी लेकिन अपनी शर्तों पर आप मेरी स्वाधीनता दूसरे के हाथ बेच रहे थे, यहाँ मेरी स्वाधिनता सुरक्षित है, आप अतीत और वर्तमान से आगे नहीं देख रहे थे, हाँ मैं भविष्य देख रही हूँ, जहां स्पेस ही स्पेस है”। [15] यहाँ वह स्वछन्द होना चाहती है, थोपी गयी जिन्दगी नहीं जीना चाहती।

  इस तरह रेहन पर रग्घू उपन्यास ने भूमंडलीकरण के प्रभाव से प्रभावित परिवेश का जो दिग्दर्शन कराया है वह अपने आप में महत्वपूर्ण है। जहां रग्घुनाथ को यह समझ आता है कि “शरीफ इंसान का मतलब है निरर्थक आदमी, भले आदमी का मतलब है कायर आदमी। जब कोई आपको ‘विद्वान’ कहे तो उसका अर्थ मूर्ख समझिए और जब कोई सम्मानित करे तो दयनीय समझिए”। [16]

लोगों के लिए अब अपनों का कोई मतलब नहीं सभी मशीन बन गए हैं, पैसे के आगे सभी संबंध छोटे “ऐसा नहीं कि अपने नहीं थे–थे लेकिन तब जब समाज था, परिवार था, रिश्ते-नाते थे, जब भावना थी। भावना यह थी कि यह भाई है, यह भतीजा है, भतीजी है, यह काका है, यह काकी है, यह बुआ है, भाभी है। भावना में कमी होती थी तो उसे पूरा कर देती थी लोक लाज या ऐसा नहीं करेंगे तो लोग क्या कहेंगें? धुरी भावना थी गणित नहीं, लेन देन नहीं”। [17]

आज तो नौकरों के संग भी कोई भावना नहीं दिखता जब शीला ने बासी रोटी और पराठे नौकरानी को देने की बात कही तो सोनल ने डांटते हुए कहा “मान लीजिए कल आप कहीं और चली जाएँ यहाँ न रहें। वह हमसे भी यही उम्मीद करेगी और हम नहीं दे पाएंगे तो उसे बुरा लगेगा, ठीक से काम नहीं करेगी, है न”? [18]

   भूमंडलीकरण ने समाज के मूल आधार को तो तोड़ा किन्तु समाज में नवजागरण भी लाया परिवर्तन और चेतना का भी कारण बना तो इसके प्रभाव को पूरी तरह गलत बताकर, इसे खारिज नहीं किया जा सकता है।

संदर्भ ग्रंथ सूची :

[1] सिंह काशीनाथ, रेहन पर रग्घू, गद्य कोश (गूगल सर्च)

[2] खंड-1, भाग-1

[3] खंड-1, भाग-3

[4] खंड-1, भाग-4

[5] खंड-1, भाग-4

[6] खंड-2, भाग-4

[7] खंड-2, भाग-5

[8] खंड-2, भाग-5

[9] वही

[10] वहीं 

[11] खंड-2, भाग-6

[12] वही

[13] वही

[14] खंड-2, भाग-2

[15] वही

[16] वही

[17] वहीं

[18] खंड-3, भाग-4

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पूजा पाठक

लेखिका आसनसोल गर्ल्स कांलेज में प्राध्यापिका (SACT) हैं। सम्पर्क pujapathak018@gmail.com
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