पुस्तक समीक्षा

तेरे शहर में (उपन्यास)

       

‘तेरे शहर में’ उपन्यास की लेखिका डॉ. सारिका कालरा का जन्म मुंबई में हुआ। दिल्ली में पली-पढ़ी लेखिका वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय के लेडी श्रीराम कॉलेज में सहायक असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं। गढ़वाल के एक छोटे-से गाँव से सम्बन्ध रखने वाली डॉ. सारिका कालरा को बचपन से ही लिखने का शौक रहा है। यह लेखिका का पहला उपन्यास है जो 2017 में प्रकाशित हुआ। इससे पहले भी लेखिका की कई कहानियां और कविताएं लेख आदि भी प्रकाशित हो चुके हैं। उनका नया कहानी संग्रह ‘भोर के उजाले’ अभी हाल ही में प्रकाशित हुआ है।

 उपन्यास के कथानक का ताना-बाना विश्वव्यापी और इंसानियत की दुश्मन आतंकवाद की भयानक समस्या को लेकर बुना गया है। आतंकवाद भारत के साथ-साथ पूरे विश्व के लिए एक बहुत गंभीर समस्या है। आज विश्व के अनेक देश इस समस्या से ग्रस्त हैं। भारत में लम्बे समय से आतंकवादी गतिविधियाँ जारी हैं। बावजूद इसके अपनी जान की परवाह किए बैगर भारतीय सेना आतंकी षडयंत्रों को विफल कर आतंकवादियों के मनसूबों पर पानी फेर देती है।

पूरा भारत अपनी सेना के जवानों की बहादुरी और संघर्ष पर गर्व करता है और जवानों की शहीदी को नमन करता है। इन आतंकी गतिविधियों ने भारत की सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक स्थिति को किस तरह से प्रभावित किया है? ये हम सब जानते हैं। इसके अतिरिक्त आतंकवाद का एक और प्रभाव भी है, जिसके बारे में अक्सर हम कम ही विचार करते हैं। लेखिका ने उपन्यास में मुख्य रूप से पाठक को उसी प्रभाव से रूबरू कराया है। घाटी का एक सामान्य-सा, छोटा-सा परिवार किस तरह आतंकवाद से प्रभावित होता है, उसकी क्रूरता का शिकार बनता है,ये हमें इस ‘तेरे शहर में’ उपन्यास को पढ़ने से पता चलता है।

आतंकवाद का साया जिस घर पर पड़ता है, वह उस घर-परिवार की खुशियां, माँ से उसका दुलारा, बहन से उसका सपना और बूढ़े पिता से उसका सहारा, उसका आस-पड़ोस, उसकी रिश्तेदारी, उसका मान-सम्मान, उसकी मर्यादा, अर्थात जो एक सामाजिक मनुष्य को जीने के लिए चाहिए या जिनके होने से उसे ख़ुशी मिलती है, वो सब कुछ छीन लेता है, बेटे के आतंकवादी बनने पर एक पिता द्वारा सामाजिक और प्रशासनिक यातनाओं को झेलने की मजबूरी का अहसास करना ही पाठक को बहुत भयानक लगता है, उपन्यास को पढ़ते हुए उस अहसास की दूर से ही अनुभूति करने पर पाठक के रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

इसके अतिरिक्त लेखिका ने उपन्यास में सेना के संघर्षी जीवन, पहाड़ी क्षेत्र में जीवनयापन की कठिनाइयों, मैदानी महानगरीय समस्याओं, फौज की नौकरी की चुनौतियों, प्राकृतिक सौन्दर्य तथा जीवन के दूसरे विभिन्न आयामों के साथ-साथ, आत्मनिर्भरता की पगडण्डी पर चलने वाली लड़कियों पर पड़ने वाला पारिवारिक एवं सामाजिक दबाव आदि अनेक समस्याओं पर भी प्रकाश डाला है।

 उपन्यास का आरम्भ ‘शुरुआत से पहले…..’ नामक शीर्षक से लिखी एक कविता से होता है, इस कविता को उपन्यास की रूह कहा जा सकता है क्योंकि उपन्यास में जो दर्द है वो दर्द इस कविता में भी है। इसके शब्दों की अर्थछवियाँ कहीं न कहीं उपन्यास के कथ्य को ही बयां करती हैं। उपन्यास का पहला किस्सा ‘जीवन और मृत्यु की सीमारेखा’ नाम से हैं। कहानी की शुरुआत सीमा से सटी घाटी में, जहाँ कभी भी आतंकवादी हमला हो सकता है, जहाँ की शांति भी खतरे से ख़ाली नहीं है, जहाँ का सन्नाटा कब किस सैनिक की जान ले ले कहा नहीं जा सकता, ऐसी घाटी में अपनी पंजाब रेजिमेंट की टुकड़ी के साथ सर्द रातों में देश की सीमाओं की रक्षा कर रहे इंडियन आर्मी के अफसर मेजर आलोक बतरा के किस्से से होती है।

आलोक एक समझदार और अनुशासनप्रिय अफसर है, फ़ौज में रहकर उसका भोलामन कोठर बन चुका है और उसकी पत्नी ‘मनस्वी’, जो दिल्ली में रहती है। वह एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करती है तथा सरकारी नौकरी के लिए प्रयासरत है। मनस्वी का शुरू से ही अच्छी नौकरी करने और आत्मनिर्भर बनने का सपना है, वह चाहे तो नौकरी छोड़ कर आलोक के साथ रह सकती है, लेकिन वह ऐसा नहीं करती। आलोक भी मनस्वी को अच्छे से समझता है और वह उसकी इच्छाओं का सम्मान करते हुए उसको अपनी मर्जी से जीवन जीने की पूरी छूट देता है।

  उपन्यास का दूसरा किस्सा फ़ाएजा नामक लड़की के परिवार से शुरू होता है, जो घाटी के एक छोटे से गाँव में रहती है। फ़ाएजा का गाँव आतंकवाद के साए में जी रहा है। फ़ाएजा के घर में बस दो ही व्यक्ति हैं- एक फ़ाएजा और दूसरे उसके अब्बू करीम अली। फ़ाएजा का भाई भी करीब चार साल से लापता है। इसी दुख के कारण फ़ाएजा की अम्मी अल्लाह को प्यारी हो चुकी है। इसी कारण फ़ाएजा का स्कूल भी छूट गया है। फ़ाएजा को पढ़ने का बहुत शौक था, वह कॉलेज जाना चाहती थी, उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहती थी लेकिन उस घटना के कारण अब उसका सपना केवल सपना ही बन कर रह जाता है। फ़ाएजा का घर मेजर आलोक की पोस्टिंग के क्षेत्र में ही आता है।

एक दिन रात को तेज बारिश के चलते एक मुसाफिर ने करीम अली के घर शरण ली थी। मेजर आलोक को पूछताछ के लिए फ़ाएजा के घर कई बार आना पड़ता है, इस दौरान आलोक की नजर फ़ाएजा पर पड़ती है, ना चाहते हुए भी फ़ाएजा आलोक के सपनों में आने लगती है, फ़ाएजा और आलोक के बीच जब प्रेम का अंकुर फूटने लगता है, तब लगता है कि अब कहानी नया मोड़ लेगी। लेकिन लेखिका ने जिस तरह आलोक की परवरिश में भारतीयता का संस्कार भर रखा था उससे वह ये गलती करने से बच जाता है। इसी संस्कार के बलबूते उसने न केवल अपने परिवार को बचाया बल्कि फ़ाएजा के सपने को भी हकीकत में बदला “आज उसने अपनी भावनाओं को पूरी तरह से काबू में रख कर फ़ाएजा की नशे से खुद को निकाल लिया था।

आज वह उस परिवार में एक हमदर्द की तरह गया था और एक सुझाव उसने करीम अली को अपनी तरफ से दे डाला था, अपनी इस हिम्मत के लिए आज उसने कई बार अपनी पीठ थपथपाई थी। वहाँ से आकर एक जिम्मेदार और गंभीर अफसर की तरह वह अपने जवानों के साथ पेश आया था। जैसे कोई काम गलत करते-करते वह अपने को उस से साफ बचा गया हो। अपनी उस जीत की खुशी को उसने रात को अपने साथियों के साथ सेलिब्रेट भी किया था। अपनी मनु से देर तक बातें भी की थी।”

इस प्रकार मेजर आलोक बत्रा और फ़ाएजा की कहानी एक साथ, लेकिन अलग अलग पटरियों पर चलती हुई प्रवाह के साथ आगे बढ़ती है। लेकिन घीरे-घीरे उपन्यास के मध्य तक पहुंचते-पहुंचते आतंकवाद से पीड़ित फ़ाएजा के परिवार की पीड़ा पाठक के लिए मुख्य बन जाती है। फिर तो अंत तक आते आते आलोक मुख्य कहानी को आगे बढ़ाने और कृति को अपने उद्देश्य तक पहुँचाने का एक जरिया बन कर रह जाता है।

लेकिन ये भी सच है कि अगर उपन्यास में सच्चा, मेहनती, ईमानदार ह्रदय वाला आलोक नहीं होता तो करीम अली और फ़ाएजा हार मान लेते, न ही वह आलोक के शहर आती, करीम अली फ़ाएजा का निकाह कर देता और इस तरह उपन्यास सुखांत न बनता। वाकई प्रेम में बहुत बड़ी ताकत होती है। प्रेम टूटे हुए या हारे हुए व्यक्ति को फिर से खड़ा होने की ताकत देता है। जहाँ एक तरफ आतंकवाद इंसान को तोड़ता है वही दूसरी तरफ प्रेम इंसान को जोड़ता है। जहाँ एक तरफ आतंकवाद के कारण भय और निराशा का भाव पैदा होता है तो दूसरी तरफ प्रेम जीवन में आशा की किरण लेकर आता है, खुशी का स्रोत्र बन जाता है प्रेम। 

तेरे शहर में (उपन्यास) में मेजर आलोक और फ़ाएजा दो मुख्य पात्र हैं। गौण पात्रों में मनस्वी, कर्नल खां, करीम अली, पायल ओझा आदि हैं। उपन्यास में गौण पात्रों की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। ये जीवन के विभिन्न आयामों को उद्घाटित करते हैं और इनके माध्यम से जीवन सपने बुनता है, मुख्य कथा विस्तार पाती है। पूरे उपन्यास को तीससे भी अधिक शीर्षकों के अंतर्गत किस्सों में लिखा गया है। इसके पीछे के कारण को रेखांकित करते हुए लेखिका स्वयं लिखती हैं- “कहानी लिखना चाहती थी पर इतना कुछ जुड़ता गया कि विधा ही बदल गई।” उपन्यास की संरचना और शैली को देखकर धर्मवीर भारती के उपन्यास ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ की याद आती है।

लेखिका ने वर्णनात्मक शैली का प्रयोग किया है। उपन्यास की घटनाओं के तार कश्मीर घाटी, दिल्ली ,लखनऊ, मेरठ और रानीखेत जैसी कई जगहों से जुड़े हैं। लेखिका स्थान, वस्तु, पात्र के आंतरिक और बाहरी पहलुओं या कहें तो अच्छा-बुरा, सब कुछ कहना चाहती हैं, कुछ नहीं छोड़ना चाहती। उन्होंने उपन्यास में एक तरफ दिल्ली की आपा-धापी वाली लाइफ, खड़ी भाषा, दिल्ली की लाइफलाइन मेट्रो, रहन-सहन, राजमार्गों पर उभरे गड्डों से होने वाली परेशानी को बताया है, तो दूसरी तरफ पहाड़ों में पल-पल रंग बदलती प्रकृति का चित्रण भी किया है। उपन्यास में एक तरफ भूकम्प और जलप्रलय से उत्तराखण्ड की तबाही और सेना का बचाव कार्य है तो दूसरी तरफ लखनऊ का सलीका भी है और उसकी भाषा की रवानगी भी है।

रानीखेत की प्राकृतिक सुंदरता भी है तो धरती का स्वर्ग कहलाने वाले कश्मीर का सौन्दर्य भी है, ये चित्र अनकहे भी बहुत कुछ कहते हैं – “सुबह आसमान साफ था, बिल्कुल नीला धुला धुला सा, निखरा हुआ पत्ता पत्ता खिला हुआ। घाटी में जैसे पुराने कपड़े उतारकर चमकते हुए कपड़े पहन लिये थे।” यही कारण है कि उपन्यास में सबकुछ स्वाभाविक-सा लगता है। लेखिका की भाषा के विविध रंग भी उपन्यास में उभरे हैं। भाषा सरल और सहज तो है ही साथ ही पात्रों के अनुकूल भी है, साथ ही कहानी के देश-काल और वातावरण को ध्यान में रखते हुए लेखिका ने हिन्दी-उर्दू मिश्रित शब्दावली का प्रयोग किया है। “कौन करेगा आतंकवादी की बहन से निकाह।” यह संवाद पाठक के दिल और दिमाग दोनों को सोचने पर मजबूर कर देता है। बीच-बीच में शायराना अंदाज भी है जो ‘तेरे शहर में’ उपन्यास की भाषा को प्रभावपूर्ण बनाता है- “किसी ने सुनी न होगी, मेरे दिल के दरकने की आवाज चलो अच्छा है, कुछ किस्सों को अनकहा ही रह जाने दो।” 

सटीक शब्द चयन, वाक्य-विन्यास अर्थात लेखिका की भाषा हर प्रकार की अनुभूति और अहसास को भी व्यक्त में समर्थ है। इस तरह कुल मिलाकर ‘तेरे शहर में’ उपन्यास सामाजिक होने के साथ-साथ देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत है

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अनिता देवी

लेखिका मैत्रेयी कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) में सहायक प्रवक्ता हैं। सम्पर्क anita.bsd@gmail.com
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