पुस्तक समीक्षा

‘परस्पर भाषा-साहित्य-आन्दोलन’ पढ़ते हुए

 

भारत जैसे बहुभाषी राष्ट्र में स्वतन्त्रता से पहले और बाद में तो घोषित रूप से भाषा का मसला काफी उलझा रहा है जिसमें हिन्दी और गैर-हिन्दी भाषाओं का द्वंद्व प्रमुख है l वस्तुतः भारत में भाषा अस्मिता और संस्कृति का प्रतीक मानी जाती रही है l व्यवस्था और राजनीति के दांव-पेंच इस मसले में अपनी अलग तरह की भूमिका निभाते रहे हैं जिसकी वजह से कई बार तनाव की स्थिति भी उत्पन्न हो चुकी है l भाषा के महत्व को देखते हुए हाल ही में घोषित नयी शिक्षा पद्धति में बुनियादी स्तर की शिक्षा मातृभाषा और राष्ट्रभाषा में देने की बात कही गयी है जिसके परिणाम हमें भविष्य में देखने को मिलेंगे l

इसी प्रसंग में संयोगवश, कोरोना-काल में मुझे राजीव रंजन गिरि की लिखी पुस्तक ‘परस्पर भाषा-साहित्य-आन्दोलन’ पढ़ने का अवसर मिला l इस पुस्तक में 133 साल पहले खड़ी बोली हिन्दी को काव्यभाषा बनाने के लिए चलाई गयी मुहिम और उस समय के विद्वानों-साहित्यकारों द्वारा इस मुहिम के पक्ष-विपक्ष में अभिव्यक्त किये गये विचारों को बहुत दिलचस्प ढंग से प्रस्तुत किया गया है l आज़ादी की लड़ाई में सम्पर्क भाषा के रूप में काम करने वाली हिन्दी (हिन्दुस्तानी) को संविधान-सभा में राष्ट्रभाषा और राजभाषा का दर्ज़ा हासिल करने के लिए किस प्रकार की बहस से गुजरना पड़ा – यह भी इस पुस्तक में तथ्यपरक ढंग से सामने आया है l तदन्तर बदलते भारत के सांस्कृतिक परिदृश्य में हस्तक्षेप करने के उद्देश्य से हिन्दी की लघु पत्रिकाओं द्वारा चलाये गये असफल आन्दोलन का भी ब्यौरेवार वर्णन है l खड़ी बोली हिन्दी की लगभग 130 साल की इस यात्रा को जानना-समझना काफी रुचिकर बन पड़ा है l ‘परस्पर भाषा-साहित्य-आन्दोलन’ के कुछ नोट्स प्रस्तुत हैं:

‘परस्पर भाषा-साहित्य-आन्दोलन’ राजीव रंजन गिरि द्वारा एक अंतराल में लिखे गये तीन शोध निबंधों का समन्वित रूप है l पहले अध्याय ‘उन्नीसवीं सदी में ब्रजभाषा बनाम खड़ी बोली विवाद’ की शुरुआत में ही लेखक ने बड़े दिलचस्प ढंग से भारतेंदु हरिश्चंद्र की मृत्यु(1885) और ‘सरस्वती’ के प्रकाशन की शुरुआत(1900) के पंद्रह वर्ष की अवधि के अंतर्गत अयोध्या प्रसाद खत्री के उस प्रयास को रेखांकित किया है जिसमें उन्होंने ब्रजभाषा बनाम खड़ी बोली के मुद्दे को प्रमुखता से उठाते हुए आन्दोलन का रूप दिया l अयोध्या प्रसाद खत्री ने ही ‘काव्य भाषा के तौर पर खड़ी बोली हिन्दी को स्थापित करने के लिए एक मजबूत पूर्वपीठिका तैयार की थी l’अयोध्या प्रसाद खत्री - विकिपीडिया

इस स्थापना को पुष्ट करने के लिए राजीव रंजन गिरि ने 1887 ई. में मुजफ्फरपुर के विश्वनाथ भट्ट द्वारा प्रकाशित एवं अयोध्याप्रसाद खत्री द्वारा संपादित पुस्तक ‘खड़ी बोली का पद्य’ की अयोध्याप्रसाद खत्री द्वारा लिखित भूमिका – जिसमें उन्होंने हिन्दी की पाँच प्रकार की शैलियों का विवेचन किया है – का विस्तारपूर्वक उल्लेख और विश्लेषण किया है –“बंगला भाषा की पद्य भाषा के संस्कार की तरह हिन्दी पद्य भाषा के संस्कार की उम्मीद में खत्री ने ‘खड़ी बोली का पद्य’ (पहला भाग) छपवा कर विद्वानों, पाठकों के समक्ष पेश किया l ‘खड़ी बोली का पद्य’ छपने के साथ ही अयोध्या प्रसाद खत्री ने ब्रजभाषा कविता और खड़ी बोली (हिन्दी) कविता में खुद फ़र्क समझने की अपील की l इसके साथ ही तत्कालीन रचनाकारों से खड़ी बोली में कविता रचने की भी अपील की l” (पृष्ठ-21)

अम्बिकादत्त व्यास के सम्पादन में प्रकाशित ‘पीयूष प्रवाह’ मासिक पत्र ने 20 जून 1887 ई. और ‘भारत मित्र’ ने 7 जुलाई 1887 ई. में इस पुस्तक के महत्व और समर्थन में टिप्पणियाँ भी प्रकाशित कीं l खड़ी बोली के प्रचार-प्रसार के प्रति बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री इतने दृढ़ और निष्ठावान थे कि “किताब छपने के बाद अयोध्या प्रसाद खत्री ने शिक्षाविदों, साहित्यकारों, साहित्य प्रेमियों, पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकों को ‘खड़ी बोली का पद्य’ मुफ्त में भेजा l जिस किसी के बारे में बताया जाता कि अमुक व्यक्ति साहित्य से थोड़ा बहुत सरोकार रखता है, खत्री उसे यह किताब जरूर भेजते थे l” (पृष्ठ-21) कुछ विद्वान् लोग अयोध्या बाबू के पास चिट्ठी भेजकर पुस्तक की सराहना किया करते थे l इससे पहले बाल कृष्ण भट्ट ‘हिन्दी प्रदीप’ और प्रताप नारायण मिश्र ‘ब्राह्मण’ में खड़ी बोली हिन्दी में लिखी कविताएँ प्रकाशित कर चुके थे l बाद में प्रताप नारायण मिश्र अयोध्या प्रसाद खत्री द्वारा चलाये गये आन्दोलन के विरोधी हो गये जिसमें उन्हें राधा चरण गोस्वामी का साथ मिला l ध्यातव्य है कि इससे पहले राधाचरण गोस्वामी भी खड़ी बोली में कविता रचना कर चुके थे l

‘बिहार बन्धु’ जैसे पत्रों और डॉ. गियर्सन जैसे विद्वानों ने अयोध्या प्रसाद खत्री द्वारा खड़े किये गये आन्दोलन का विरोध किया l यह बड़ा ही अजीब था कि इस पुस्तक के प्रकाशन से पहले ‘बिहार बन्धु’ खड़ी बोली में पद्य लिखने का समर्थक था – राजीव रंजन गिरि ने कई उदाहरणों के द्वारा यह बात बताई है l राधाचरण गोस्वामी ने 11 नवम्बर 1887 के ‘हिन्दोस्थान’ में ‘खड़ी बोली का पद्य’ शीर्षक लेख में अयोध्या प्रसाद खत्री द्वारा सम्पादित पुस्तक का हवाला देते हुए और कारण गिनाते हुए यह निष्कर्ष दिया है कि ‘हम खड़ी बोली पद्य के विरोधी हैं l’ राधाचरण गोस्वामी के उक्त लेख की प्रतिक्रियास्वरूप श्रीधर पाठक ने उसी पत्र में खड़ी बोली हिन्दी के समर्थन में लेख लिखा l

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‘हिन्दोस्थान’ के तत्कालीन सम्पादक पं मदनमोहन मालवीय ने भी सम्पादकीय में खड़ी बोली काव्य-भाषा के प्रति समर्थन प्रकट किया l इसके बाद इसी पत्र में 15 जनवरी 1888 को राधाचरण गोस्वामी का ‘प्रतिवाद’ प्रकाशित हुआ जिसका जवाब पुनः श्रीधर पाठक ने 3 और 4 फरवरी 1888 के ‘हिन्दोस्थान’ में दिया l राजीव रंजन गिरि ने सिलसिलेवार ढंग से इन दोनों विद्वानों की राय को बहुत ही सूक्ष्मता से विश्लेषित करते हुए पाठकों के समक्ष रखा है l इसी प्रसंग में उन्होंने बताया है कि राजा शिवप्रसाद ‘सितारेहिन्द’ और उनकी भाषा नीति के विरोधस्वरूप ‘भारतेंदु’ के पहले अंक में राधाचरण गोस्वामी ने जो बातें लिखी हैं वे एकसाथ रोचक, विवादास्पद और ऐतिहासिक हैं l ‘खड़ी बोली का पद्य’ का पहला भाग अभी विद्वतजनों का विरोध झेल ही रहा था कि इसी दौरान अयोध्या प्रसाद खत्री ने इसका दूसरा भाग भी प्रकाशित करवा दिया l उसे भी काफी विरोध का सामना करना पड़ा l

“काबिलेगौर है कि प्रतापनारायण मिश्र, राधाचरण गोस्वामी से लेकर डॉ. गियर्सन तक सभी भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का हवाला देकर यह साबित करना चाहते थे कि खड़ी बोली में काव्य-रचना असम्भव है l” (पृष्ठ-45) राजीव रंजन गिरि ने भारतेन्दु हरिश्चंद्र के प्रति राधाचरण गोस्वामी और प्रतापनारायण मिश्र के अंध भक्तिभाव की अच्छी खबर ली है क्योंकि इसी भाव के चलते इन दोनों महानुभावों ने भारतेन्दु हरिश्चंद्र के खड़ी बोली में कविता न कर पाने की व्यक्तिगत असमर्थता को इस घोषणा के रूप में प्रकट और प्रसारित किया कि खड़ी बोली में कविता हो ही नहीं सकती l दोनों विद्वानों की इस मान्यता को डॉ. ग्रियर्सन ने भी पुष्ट किया lजन्मदिवस पर विशेष : प्रेमचंद का ...

हालाँकि श्रीधर पाठक ने भारतेन्दु के तथाकथित सन्दर्भ को समझाते हुए इन तीनों विद्वानों की स्थापनाओं का खंडन किया l राजीव रंजन गिरि ने खड़ी बोली हिन्दी के पद्य प्रयोग को लेकर बालकृष्ण भट्ट के रवैये की भी पड़ताल की है l वस्तुतः वे स्वयं तो खड़ी बोली में रचना करते थे किन्तु अयोध्या प्रसाद खत्री की पहल को उन्होंने यह कहकर नकार दिया कि ‘पद्य में खड़ी बोली उस स्त्री के समान भाषित होती है जिसका नख से शिख तक सम्पूर्ण अलंकार उतार लिया गया हो l’ विडम्बना यह है कि अयोध्या प्रसाद खत्री के ‘हिन्दी भाषा का पद्य’ को राजा शिवप्रसाद ‘सितारैहिन्द’ का भी सहयोग-समर्थन नहीं मिला l इस आन्दोलन के प्रति तद्युगीन विद्वानों के रवैये के विषय में राजीव रंजन गिरि ने लिखा है कि वे ‘…खड़ी बोली कविता को वैसे ही खारिज कर रहे थे जैसे बीसवीं सदी में कतिपय द्विज साहित्यकारों ने दलित साहित्य को खारिज किया l” (पृष्ठ-48-49)

दूसरे भाग के प्रकाशित होने के बाद ‘हिन्दोस्थान’ में एक ओर से श्रीधर पाठक तो दूसरी ओर प्रतापनारायण मिश्र तथा राचाचरण गोस्वामी के कई लेख क्रिया-प्रतिक्रियास्वरुप प्रकाशित हुए l इसी दौरान अयोध्या प्रसाद खत्री भी लगातार इस पुस्तक की प्रतियाँ हिन्दी पढ़ने-जानने-समझने वालों के पास भिजवाते रहे l डॉ. ग्रियर्सन की उदासीनता के बावजूद भी उनके पास पुस्तक भेजना जारी रखा l इतना ही नहीं अयोध्या बाबू ने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की खड़ी बोली में पद्य सम्बन्धी मान्यता के खंडन के लिए ‘एक अगरवाले के मत पर एक खत्री की समालोचना’ पैम्फलेट प्रकाशित करके हिन्दी के विद्वानों और साहित्यप्रेमियों के बीच बंटवाया l यह अपने आप में एक साहसिक कदम था क्योंकि भारतेन्दु हरिश्चंद्र की मृत्यु के कुछ ही वर्ष बीते थे और हिन्दी के तमाम साहित्यकार उनके जबरदस्त प्रभाव में थे lसाइनबोर्ड की ग़लतियां सुधारने वाला ...

और यही कारण था कि तत्कालीन साहित्यकारों ने अयोध्या प्रसाद खत्री को उनका वाज़िब श्रेय नहीं दिया जिसके वे वास्तव में हक़दार थे l राजीव रंजन गिरि ने इस बात की ओर भी संकेत किया है कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में अयोध्या प्रसाद खत्री के इन प्रयासों पर गंभीरता से चर्चा नहीं की l वस्तुतः अयोध्या प्रसाद खत्री हिन्दी और उर्दू – दोनों को खड़ी बोली की दो अलग-अलग शैलियाँ मानते थे l कालान्तर में महात्मा गाँधी ने भी अयोध्या प्रसाद खत्री की तर्ज़ पर भाषा नीति अपनाते हुए हिन्दी-उर्दू के झगड़े की सुलह के लिए ‘हिन्दुस्तानी’ की संकल्पना की थी l अयोध्या बाबू द्वारा प्रस्तावित ‘मुंशी हिन्दी’ और गाँधी जी द्वारा प्रस्तावित ‘हिन्दुस्तानी’ में केवल नाम का ही भेद है l श्रीधर पाठक खड़ी बोली हिन्दी में कविता करने के पक्षकार तो थे किन्तु अयोध्या प्रसाद खत्री की सुलहपरक नीति के समर्थक नहीं थे l इसीलिए उन्होंने उर्दू विरोधी स्वर वाली कई कविताएँ लिखीं l इतने व्यापक विरोध के बावजूद अयोध्या प्रसाद खत्री अपनी मान्यता पर दृढ़ रहे और अंततः खड़ी बोली हिन्दी काव्य भाषा बन गयी l

अध्याय दो – ‘राष्ट्र-निर्माण, संविधान सभा और भाषा-विमर्श’ की शुरुआत में ही राजीव रंजन गिरि ने संविधान सभा के गठन में सबकी भागीदारी न होने, गाँधी और नेहरू की असहमति, देश-विभाजन आदि के जिक्र से भावी विवाद की पूर्वपीठिका तैयार करते हुए बताया है कि भारतीय संविधान सभा में हिन्दी के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण वाद-विवाद 4 नवम्बर 1948 को शुरू हुआ l विडम्बना यह थी कि हिन्दी के मसले पर जो संविधान सभा विचार करने वाली थी उसके अधिकाँश सदस्य अपने विचार अंग्रेजी भाषा में रखना अधिक सुविधाजनक समझते थे l संविधान सभा में विधान की भाषा और राष्ट्र-भाषा निश्चित करने को हुई बहस को राजीव रंजन गिरि ने जिस प्रकार प्रस्तुत किया है वह काफी रोचक बन पड़ा है l वे बड़ी बारीकी से इस बहस में शामिल राजनेताओं-विद्वानों के मंतव्यों का विश्लेषण करते चले हैं l

वर्तमान समय में भाषाओं को लेकर हो रही गुत्थम-गुत्था के सूत्रों की ओर भी गिरि ने कई स्थानों पर इशारा किया है l संविधान का सर्वप्रथम ड्राफ्ट अंग्रेजी में, उसके बाद राष्ट्रीय भाषाओं में ‘अनुवाद’ होना – यह साबित करता है कि अपनी राष्ट्र-भाषा और राष्ट्रीय भाषाओं के होते हुए भी हम आज भी अंग्रेजी पर निर्भर क्यों हैं? जब हिन्दी को राष्ट्र-भाषा बनाने के मुद्दे पर बहस शुरू हुई तब प्रश्न उठा कि हिन्दी के कौन-से रूप को यह दर्ज़ा दिया जाय? हिन्दी या हिन्दुस्तानी ? और इनका भी कौन-सा रूप – संस्कृत मिश्रित या उर्दू मिश्रित? – इस बहस में राजीव रंजन गिरि ने हुसैन इमाम, एजाज रसूल, जवाहरलाल नेहरू, ज्ञानी गुरुमुख सिंह मुसाफिर, आर. शंकर, वी. पोकर, एल. कृष्णास्वामी, घनश्याम सिंह गुप्त, किशोरीमोहन त्रिपाठी, विश्वम्भरदयाल त्रिपाठी आदि के विचारों को प्रमुखता से रखा है l इनमें से कुछ विद्वान 15-20 वर्ष तक अंग्रेजी में काम होते रहने के पक्षधर थे lभारतीय संविधान एवं संविधान का ...

एम. सत्यनारायण ने संविधान निर्माण की प्रक्रिया पर सवाल खड़ा करते हुए कहा कि हमारा संविधान हमारे देश की जमीनी हकीकतों के आलोक में, यहीं की भाषाओं में बनना चाहिए न कि हम दूसरे देशों का संविधान विदेशी भाषाओं में लें l संविधान सभा में सुरेशचन्द्र मजूमदार जैसे अहिन्दी भाषी राजनेताओं ने भी हिन्दी अथवा हिन्दुस्तानी को राष्ट्रभाषा बनाये जाने की वकालत की l इस सन्दर्भ में राजीव रंजन गिरि ने लिखा है कि “ख़ास बात यह है कि दक्षिण भारत के भी कुछ सदस्यों ने हिन्दी, हिन्दुस्तानी के पक्ष में अपनी राय ज़ाहिर की l भले ही इसे एकाएक ‘लादने’ का विरोध किया हो l उत्तर भारत के कुछ सदस्यों ने हिन्दी, तो कुछ ने हिन्दुस्तानी के विरोध में अपनी बात रखी l लिहाजा दक्षिण भारत को हिन्दी या हिन्दुस्तानी के विरोध की कैटेगरी और उत्तर भारत को इसके पक्ष की कैटेगरी, मानना-बताना तार्किक और वाजिब नहीं है l” (पृष्ठ-81)

संविधान सभा में भाषाई मुद्दे पर हो रही गहमागहमी के समानान्तर राजीव रंजन गिरि ने पं जवाहरलाल नेहरू के लिखे एक निबंध को विस्तारपूर्वक उद्दृत किया है जिसे नेहरू जी ने एक लेखक और भाषा के सवाल में दिलचस्पी लने वाले शख्स के रूप में लिखा था l निबंध का शीर्षक था – ‘राष्ट्र-भाषा का प्रश्न’ – इसमें नेहरू जी ने गाँधीजी की भाषा-नीति के अनुरूप अभिव्यक्ति, संस्कृति, विकास आदि के लिए एक काबिल भारतीय भाषा की आवश्यकता पर बल दते हुए हिन्दुस्तानी को राष्ट्र-भाषा और देवनागरी को लिपि बनाने की वकालत करते हुए माँग के अनुसार उर्दू सीखने की भी बात कही है l 12, 13 और 14 सितम्बर 1949 को भाषा के मसले पर संविधान सभा की बैठकें हुईं l डॉ. विमलेश कान्ति वर्मा ने इन दिनों में हुए राष्ट्रभाषा सम्बन्धी वाद-विवाद को हिन्दी की ‘अग्नि परीक्षा’ कहा है l पहले दिन एन. गोपालस्वामी आयंगर ने राष्ट्रभाषा के सन्दर्भ में विस्तृत संशोधन पेश किया जिसे ‘आयंगर फार्मूला’ भी कहा जाता है l

इसके बाद सेठ गोविन्ददास ने हिन्दी के समर्थन में तार्किक आधार प्रस्तुत किये l किन्तु उनके तर्कों के विपक्ष में हिन्दी की अयोग्यता को बतलाने के लिए संविधान सभा के दूसरे सदस्यों ने काफी संगत-असंगत तर्क दिये l राष्ट्र-भाषा को लेकर हुई बहस में ये महानुभाव सक्रियता से शामिल रहे – नजरुद्दीन अहमद, एम.वी. कृष्णमूर्ति राव, मौलाना हिफजुर्रहमान, आर.वी. धुलेकर, पं लक्ष्मीकान्त मैत्र, फ्रैंक एंथनी, काजी सैयद करीमुद्दीन, लक्ष्मीनारायण साहू, टी.ए. रामलिंगम चेट्टियार, सतीशचन्द्र सामंत, अलगूराय शास्त्री, डॉ. श्यामाप्रसाद मुकर्जी, श्री कुलाधार चलिहा, डॉ. पी. सुब्बारामन, कन्हैयालाल मानिकलाल मुंशी, रेवरेन्ड जिरोम डिसूजा, बी.एम. गुप्ते, पण्डित रविशंकर शुक्ल, राम सहाय, शंकर राव देव, जी. दुर्गाबाई, सरदार हुकुम सिंह आदि l

इस बहस में हिन्दी अंकों की असंगतता, संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाने, हिन्दुस्तानी की वकालत, हिन्दीभाषियों द्वारा दक्षिण भारतीय भाषाएँ सीखने की जरूरत, हिन्दी को रोमन लिपि में लिखना, बांग्ला को राजभाषा अथवा राष्ट्रभाषा बनाना, अंग्रेजी के विरोध के साथ हिन्दी को राष्ट्रभाषा और राजभाषा बनाने की वकालत आदि मुद्दों पर गरमागरम बहस हुई l इस बहस-मुहाबिसे में राजीव रंजन गिरि एक गहरी बात कहते हैं जो वर्तमान समय में अधिक प्रासंगिक है और आज के राजनेताओं पर अधिक लागू होती है – “संविधान-सभा के सदस्यों को, संविधान-सभा के निर्णयों के साथ, अपने-अपने चुनाव क्षेत्रों में, आम जनता के बीच, जाना था l ज़ाहिर है मतदाताओं का एक अप्रत्यक्ष दबाव भी काम कर रहा था l” (पृष्ठ-98) कुछ सदस्य इस मसले के निर्णय को भावी संसद के लिए छोड़ देना चाहते थे जिनमें पी.टी. चाको, काजी सैयद करीमुद्दीन प्रमुख थे l कुछ सदस्यों के मन में दबी हुई-सी सही अंग्रेजी को समृद्ध भाषा मानने की चाह थी l बी. दास जैसे कुछ सदस्यों के मन में यह शंका भी थी कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा, राजभाषा स्वीकार करने के बाद सरकारी नौकरियों और सेवाओं में हिन्दीभाषी प्रान्तों के लोगों का प्रभुत्व हो जाएगा lMahatma Gandhi Death Anniversary why BJP leader swami raise ...

बहस में पं नेहरू ने महात्मा गाँधी के भाषा सम्बन्धी सुझाव का उल्लेख करते हुए एन. गोपालस्वामी आयंगर द्वारा प्रस्तावित सुझावों का किंचित सुधार के साथ समर्थन किया l वे अंग्रेजी जैसी व्यावहारिक भाषा और संस्कृत जैसी गौरवशाली अतीत वाली भाषा के महत्त्व को स्वीकारने के बाद हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के पक्ष में थे l उन्होंने अंतरराष्ट्रीय अंकों के प्रयोग का समर्थन किया l बहस के दौरान जी. दुर्गाबाई ने भाषा को ‘धर्म’ या ‘भावना’ का मुद्दा बनाये जाने का विरोध किया वहीं जयपाल सिंह ने आदिवासियों की भाषाओं का प्रश्न उठाया –“जयपाल सिंह की माँग बिलकुल वाजिब थी l लोकतन्त्र को मजबूत बनाने के लिहाज से यह ज़रूरी था कि आदिवासी भाषाओं को भी तवज्जो दी जाय l आदिवासी भाषाओं की तरफ, संविधान-सभा के अन्य सदस्यों का ध्यान नहीं जाना, संविधान-सभा के चरित्र की बानगी है l” (पृष्ठ-110) हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने और अंकों के मुद्दों के साथ ही अंग्रेजी भाषा को राज-काज में कितने वर्षों तक रखा जाय – इस विषय पर भी संविधान सभा में खूब बहसें हुईं l

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने अंग्रेजी हटाने की समयावधि, हिन्दी-उर्दू-हिन्दुस्तानी, अंतर्राष्ट्रीय अंकों पर अपनी राय रखी जिसका मुखर विरोध हिन्दी के समर्थक डॉ. रघुवीर और उर्दू के पक्षधर मौलाना हसरत मोहानी ने किया l मौलाना मोहानी इनके वक्तव्य से इतने नाराज़ हुए कि उन्होंने अपने भाषण के अधिकार का परित्याग करते हुए समस्त बातों के विरोध की घोषणा कर दी l इस पूरे घटनाक्रम का विवरण देने के बाद राजीव रंजन गिरि ने सुचिंतित टिप्पणी दी है – “भारत-विभाजन के पश्चात् हिन्दुस्तानी का पलड़ा कमजोर हो गया था l हिन्दुस्तानी पर जिस हिन्दू-मुस्लिम एकता का दायित्व था, मुल्क के बँटवारे ने उसे बड़े हद तक पीछे धकेल दिया था l यही वजह है कि नेहरू, पटेल, राजेन्द्र प्रसाद और आज़ाद सरीखे बड़े नेताओं के समर्थन और महात्मा गांधी की विरासत के बावजूद ‘हिन्दुस्तानी’ की बजाय ‘हिन्दी’ नाम अपनाया गया l यह दीगर बात है कि जो अपेक्षा ‘हिन्दुस्तानी’ से की जाती थी, वही ‘हिन्दी’ का उत्तरदायित्व बना दी गयी l देश-विभाजन ने हिन्दुस्तानी की वैधता को कमजोर कर दिया था, इसका अहसास हिन्दी के मुखर समर्थकों को भी था lडॉ राजेन्द्र प्रसाद जी की जीवनी Dr ...

सम्भवतः यही वजह है कि संविधान-सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद द्वारा भाषा के सवाल पर सामूहिक राय (Conesensus) निर्मित करने की सिफारिश को हिन्दी के दूसरे बड़े समर्थक सेठ गोविन्ददास ने ख़ारिज कर मतदान पर जोर दिया था l” (पृष्ठ-115) अंततः ‘मुंशी आयंगर फार्मूले’ को कुछ संशोधनों के साथ संविधान सभा ने अधूरे मन से स्वीकृत कर लिया l “’राष्ट्रभाषा’ से ‘राजभाषा’ की यात्रा में न तो हिन्दी-समर्थकों की सभी बातें मानी गयी और न विरोधियों की l असफल ‘हिन्दुस्तानी’ के पक्षधर भी हुए l सफल हुआ, तत्कालीन अंग्रेजीदां तबका l इस वर्ग की कामनाएँ, बड़े हद तक, पूरी हो गईं l दिलचस्प बात है कि फ्रैंक एंथनी को छोड़ दें तो इस तबके ने भाषाओं की सूची में ‘अंग्रेजी’ नाम रखा जाय, इसकी कोशिश नहीं की l पर, वह सब हासिल करा लिया, जो चाहिए था l संविधान-सभा में सभी भारतीय भाषाएँ हारीं, विजयश्री तिलक अंग्रेजी के ललाट पर लगा l”(पृष्ठ-117-118) कहना न होगा आज भी यह स्थिति बदस्तूर जारी है I

अध्याय तीन ‘बीच बहस में लघुपत्रिकाएँ’ : आन्दोलन, संरचना और प्रासंगिकता’ के अंतर्गत राजीव रंजन गिरि ने ‘लघु पत्रिका’ आन्दोलन के पीछे छिपी परिवर्तनकामी दृष्टि और उसके नामकरण से सम्बन्धित विभिन्न विद्वानों के मतों के विवरण के साथ पुस्तक के सन्दर्भ में दी गयी टिप्पणी के अंतर्गत प्रियंवद द्वारा दी गयी लघु पत्रिका की परिभाषा का बिन्दुवार विश्लेषण करते हुए ‘लघुता’ और ‘प्रतिरोध’ की अवधारणा पर स्पष्ट शब्दों में असहमति दी है l लघु पत्रिका आन्दोलन की सामाजिक परिवर्तन की पक्षधरता का उल्लेख करते हुए गिरि ने रामकृष्ण पाण्डेय, भारत भारद्वाज, वीर भारत तलवार के लेखों के हवाले से साठ-सत्तर के दशक से इस आन्दोलन की ‘अचेतनावस्था’ का उल्लेख किया है l

लघु पत्रिकाओं के संगठन और सचेत आन्दोलन का आरम्भ 29-30 अगस्त 1992 को कलकत्ता में कथाकार ज्ञानरंजन और आलोचक शम्भुनाथ के प्रयासों से आयोजित ‘लघु पत्रिकाएँ:नयी चुनौतियाँ और दिशाएँ’  विषयक संगोष्ठी से माना जाता है जिसमें हिन्दी के कई लेखकों-सम्पादकों ने हिस्सा लिया था l इस संगोष्ठी में बड़े व्यावसायिक घरानों से निकालने वाली ‘रंगीन’ पत्रिकाओं की पथभ्रष्टता और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की बढ़ती लोकप्रियता के बीच बौद्धिक सजगता, नैतिक दृढ़ता और इंसान की इंसानियत बनाये रखने के संघर्ष में सांस्कृतिक क्षेत्र में सार्थक हस्तक्षेप के लिए लघु पत्रिकाओं की आवश्यकता पर बल दिया गया ताकि विभिन्न चुनौतियों और समस्याओं का समाधान ढूँढा जा सके l संगोष्ठी में कवि अरुण कमल ने लघु पत्रिकाओं का दायित्व आलोचनात्मक और साहित्यिक विवेक की रक्षा करना कहा l इसरायल और पुन्नी सिंह ने पाठक के लिए भी चिंता व्यक्त की l

इस संगोष्ठी में ‘लघुपत्रिका समन्वय समिति’ भी गठित की गयी जिसमें कई साहित्यकारों-संपादकों की सदस्यता के साथ ज्ञानरंजन संयोजक और शम्भुनाथ संयुक्त संयोजक बने l इस समिति का दायित्व था – ‘लघु पत्रिकाओं के बीच तालमेल और साझा लक्ष्यों की दिशा में काम करना’ ताकि सांस्कृतिक जागरण की ओर बढ़ा जा सके l समिति की पहली बैठक 18 अप्रैल 1993 को रायपुर में हुई l “बैठक में कलकत्ता सम्मेलन के बाद के सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य का बहुआयामी विश्लेषण किया गया एवं सामाजिक जीवन के उच्चतर मूल्यों एवं आदर्शों के सामने साम्प्रदायिकता से उत्पन्न हो गये ख़तरों को रेखांकित किया गया l इस सन्दर्भ में सांस्कृतिक माध्यमों, विशेषकर लघु-पत्रिकाओं की बढ़ी हुई जिम्मेदारियों को महसूस करते हुए संकट की इस घड़ी में मिलजुल कर अपनी प्रखरतम भूमिका का ऐतिहासिक दायित्व निभाने की राय क़ायम की गयी l” (पृष्ठ-130)

यहाँ राजीव रंजन गिरि ने सोवियत संघ के विघटन, भारत में मण्डल आयोग की सिफारिशों का लागू होना, मंदिर-निर्माण के लिए आन्दोलन, आर्थिक उदारीकरण की सरकारी नीतियों के समानान्तर ‘संवेद’ पत्रिका के लघु पत्रिकाओं की भूमिका पर केन्द्रित अंक के कई लेखों और ‘आवाज’ पत्रिका में लघु पत्रिकाओं और उनके संपादकों द्वारा अपनाये जा रहे व्यावसायिक पहलू के द्वैत के बीच पाठक तक पहुँचने की चुनौती का उल्लेख किया है l इसके बाद प्रियंवद, कर्मेन्दु शिशिर, शम्भुनाथ के उद्धरणों के माध्यम से गिरि ने लघु पत्रिकाओं के संगठनात्मक-संरचनात्मक ढाँचे, साहित्यिक स्तर, सामाजिक चेतना और व्यावसायिक दृष्टि पर समय-समय पर उठने वाले सवालों पर भी प्रकाश डाला है l

उप-शीर्षक ‘आन्दोलन का आधार’ के अंतर्गत गिरि ने समन्वय समिति के 14-15 मई 1999 को जमशेदपुर में हुए राष्ट्रीय सम्मलेन के विवरण में ‘लोकप्रिय बनाम व्यावसायिक पत्रिका’ की बहस से शुरुआत करते हुए डॉ. वीर भारत तलवार और शम्भुनाथ के कई-कई उद्धरणों को परस्पर आमने-सामने रखकर आन्दोलन के आधार और आज़ादी के बाद के साहित्य के सम्यक अध्ययन में लघु पत्रिकाओं की महत्वपूर्ण भूमिका की बात प्रबलता से रखी है l इसके बाद 1994-1997 तक विभिन्न सम्पादकों-साहित्यकारों द्वारा लघु पत्रिकाओं पर केन्द्रित संगोष्ठियों और समन्वय समिति के तीसरे राष्ट्रीय सम्मलेन में उभरे विचारों का भी ब्यौरेवार विश्लेषण किया है l ‘स्वायत्तता के साथ सहयात्रा में बिखराव’ उप-शीर्षक के अंतर्गत 24-25 फरवरी 2001 को जयपुर में आयोजित चौथे और आख़िरी सम्मलेन में 9 सितम्बर को ‘लघुपत्रिका दिवस’ मनाने का प्रस्ताव पारित होने की जानकारी गिरि ने दी है l लघु पत्रिका आन्दोलन के तथाकथित बिखराव और सम्पादकों की आपसी संवादहीनता के साथ सांस्कृतिक प्रदूषण के दौर में लघुपत्रिका आन्दोलन की विकल्पहीनता के विभिन्न कारणों की ओर भी संकेत किया गया है l इस अध्याय में ऐसी कई पत्रिकाओं के नाम आये हैं जो अब प्रकाशित नहीं हो रही हैं l

‘परस्पर भाषा-साहित्य-आन्दोलन’ में हिन्दी भाषा की उस यात्रा का चिन्तनपरक शैली में क्रमिक वर्णन किया गया है जो उसने काव्य-भाषा, राजभाषा और राष्ट्रभाषा व लघु पत्रिकाओं के आन्दोलन में तय की l इस यात्रा के महत्वपूर्ण पड़ावों और उन पड़ावों के उतार-चढ़ावों के पूरे विवरण जुटाते हुए लेखक ने तटस्थ होकर सम्पूर्णता में पाठक के सामने रखने की ईमानदार कोशिश की है l ख़ास बात यह है कि सन्दर्भों की प्रामाणिकता का विशेष ध्यान रखा गया है l जिस भी साहित्यकार, राजनेता, व्यक्ति और पुस्तक, पत्रिका का नाम आया है उसके विषय में संक्षिप्त जानकारी दी गयी है l संविधान-सभा की कार्य-प्रणाली और उसके सदस्यों के मत-वैभिन्नय से लेकर हिन्दी के साहित्यकारों-सम्पादकों के रवैये को तार्किक ढ़ंग से विश्लेषित करने का प्रयास पुस्तक में दिखता है l हिन्दी भाषा के विमर्श में थोड़ी-सी भी रूचि रखने वालों को यह पुस्तक बहुत रोचक और उपयोगी लगेगी l

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लेखिका अदिति महाविद्यालय, दिल्ली में हिन्दी की असिस्टेंट प्रोफेसर हैं|

सम्पर्क-  +919871086838, drasha.aditi@gmail.com

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samved

साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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