कथा संवेद – 22
इस कहानी को आप कथाकार की आवाज में नीचे दिये गये वीडियो से सुन भी सकते हैं:
वरिष्ठ कथाकार नासिरा शर्मा का जन्म 22 अगस्त 1948 को इलाहाबाद में हुआ। ‘सारिका’ के नवलेखन अंक में 1976 में प्रकाशित कहानी ‘बुतखाना’ से अपनी कथायात्रा शुरू करने वाली नासिरा जी की लगभग साठ किताबें प्रकाशित हैं। इनका विपुल रचना संसार उपन्यास, कहानी और बाल साहित्य से लेकर वैचारिक आलेख और संस्मरणों तक फैला हुआ है। इनके अतिरिक्त इन्होंने इराक, अफगानिस्तान, सीरिया, पाकिस्तान व भारत के प्रसिद्ध राजनीतिज्ञों और बुद्धिजीवियों के साथ जो साक्षात्कार किए हैं, वे काफी महत्त्वपूर्ण और प्रसिद्ध हैं।
हिन्द स्वराज में महात्मा गांधी ने खुद को हिन्दू और गोसमर्थक बताने के बावजूद गाय और मनुष्य में किसी एक को चुनना हो तो मनुष्य को चुनने की बात कही है। गांधी जी के इस विचार का हिन्दी कहानी पर प्रभाव कहें या तत्कालीन भारतीय समाज की मांस-मज्जा में घुले सहअस्तित्व की भावना, ‘हंस’ (अप्रैल, 1931) में प्रकाशित अपनी कहानी ‘कुरबानी’ में शिवरानी देवी ने इस विचार को जिस संवेदनात्मक तरलता के साथ रेखांकित किया था, वह हिन्दी कहानी के इतिहास का एक जरूरी अध्याय है। ‘कुरबानी’ के ठीक 92 वर्ष बाद प्रकाशित हो रही नासिरा शर्मा की कहानी ‘सबूत’ गांधी के विचार और स्वप्न तथा शिवरानी देवी की उस कहानी से बहुत दूर जा खड़ी सामाजिक-राजनैतिक नियतियों को साहसिक पक्षधरता के साथ रेखांकित करती है। तकनीकी प्रगति और समृद्धि के बूते अर्जित सूचना और संचार की क्रांतियों से जगमगाते समय में सांप्रदायिक एजेंडे के तहत सामाजिक सचाइयों और पॉलिटिकल नैरेटिव के बीच जो एक नियोजित फासला खड़ा किया जा रहा है, वह हर संवेदनशील नागरिक के लिए चिंता का सबब है। ‘ऊ पालिटिक्सि बा ई सच्चाई बा’ के यथार्थपरक संवाद को सुनकर चकराये जुबैर की मनोदशा को यह कहानी जिस सहज विडंबनाबोध के साथ पाठकों के मानस पटल पर अंकित कर जाती है, उसी में इस कहानी का मर्म छिपा हुआ है। राजनीति द्वारा निर्मित और प्रायोजित समय-सत्यों को प्रकटतः रेखांकित करती इस कहानी के पार्श्व में सामाजिक सहअस्तित्व की वर्षों पुरानी स्वाभाविक उपस्थिति को क्षतिग्रस्त किए जाने की जो छवियाँ शामिल हैं, उसे जानना और समझना आज हर नागरिक के लिए जरूरी है।
राकेश बिहारी
सबूत
नासिरा शर्मा
जुबैर की चकराहट इस जवाब से कम नहीं हुई थी- “उ पालिटिक्सि बा इ सच्चाई बा!” बल्कि उन व्यथित दिनों को जिन्हें वह भूल चुका था उसकी याद ताज़ा करा गई। यह उन दिनों की बात है जब गाय के मीट को लेकर देश में हंगामा सा बरपा था। हर जगह पकड़-धकड़, छापा, मारपीट और हत्याओें का बाज़ार गर्म था। खौफ़ के मारे घर में मुर्गा और मछली भी नहीं आती थी। बकरे का गोश्त तो बहुत दूर की बात थी, इस शोर-शराबे में भेजा सबका हिला हुआ था। बचपन से जो आदतें सहज रूप से अपना ली गई थीं वह हमारी दिनचर्या का अटूट हिस्सा बन चुकी थीं उन्हें एकाएक छोड़ देना कैसे मुमकिन था। बूचड़खाने बन्द हो रहे थे, क़स्साबों को अपना भविष्य अन्धेरे में डूबा नज़र आ रहा था। ठीक उसी तरह जैसे कबाब वालों की दुकानों पर ताले पड़ गए थे, ख़्वाचे वाले गायब थे, ज़बान का स्वाद मर चुका था। बल्कि सच कहा जाए तो वह तरंग ख़त्म हो गई थी जो तरह-तरह के व्यंजन खाकर रगों में दौड़ती महशूस होती थी।
इन दिनों बन्द हो रही दुकानदारों की आमदनी तो भुखमरी तक पहुँच रही थी ऊपर से बेकारी के आंकड़ों में वृद्धि हो रही थी मगर सरकार कह रही थी नए रोज़गार वह मुहैया करा रही है और चन्द वर्षों में बेकारी की दर नीचे आ जायेगी। इसी बात को लेकर चाय की दुकान पर बैठे लोग गुत्थी सुलझाने में लगे हुए थे। एक ख़बर और थी जिसका ज़िक्र हुआ मगर उस पर बात ज़्यादा टिक नहीं पाई वह थी शाकाहारी व्यंजनों की, जो स्वाद में वही मज़ा दें जो मांसाहारी व्यंजन देते हैं। प्रयोग शुरू हो गए और नए कारोबार करने वाले रसोइया वजूद में आने लगे। बात ज़रा सी थी मगर ध्यान किसी का उधर नहीं जा पा रहा था कि गिलास ऊपर से देखो तो आधा भरा और नीचे से देखो तो आधा खाली।
कुछ दिनों बाद यह जमघट भी उजड़ने लगा और ज़बान पर रोक लग गई। बोलने का समय कहाँ था। इतनी खबरें, इतनी घटनाएँ, इतने क़ानून, इतने वक्तव्य, इतने वायदे, इतनी आलोचनाएँ इतनी तारीफ़ें और पिछले पचहत्तर वर्षों की खुदाई में तबाही को तलाश करने की कोशिशें, चलचित्र की तरह गुज़र रही थीं। जाने कैसी हवा चली थी जो संयत व संतुलित प्रकृति के थे, एकाएक उनके दिल व दिमाग का संतुलन बिगड़ गया और उनके अंदर से उनका दूसरा रूप प्रकट हो गया और वह दूसरे के धर्मों का खोज़ी विडियो डालने लगे, चैनलों पर विचार व्यक्त करने वालों में मारपीट, गाली-गलौज शुरू हो गई । देश, देगची के पानी की तरह उबलने लगा था। संसार भी इस हाहाकार में कैसे खामोश रहता वह भी टीका-टिप्पणी करने लगा। उसी में विकास योजनाओं को लेकर अनुबन्ध और विश्व स्तर पर यात्राओं का सिलसिला जारी था। यानी कि तीव्र गति की ट्रेनें एक दूसरे को क्रास करने लगीं। किशोर बौखलाए हुए थे कि वह क्या देखें और क्या सुनें, क्या सच है और क्या झूठ। उनके घरों में भी एक साथ तीन-तीन विचारधाराओं की टकराहटें चल रही थीं। नाना-नानी, दादी-दादा की सोच अलग माँ-बाप की उनसे अलग और बड़े भाई-बहनों की उन दोनों से अलग, गर्ज कि अन्दर-बाहर दोनों जगह शोर ही शोर था, इस शोर में दाल पनीली, सब्ज़ी गायब, की फीकी बदमजा परोसी थाली की तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता था। बस किसी तरह ज़हर मार कर पेट भर लिया जाता था, बिना इस बात की खोज-खबर के आखिर नोटबन्दी की तरह किचन से सब खाद्य सामग्री कहाँ गायब होती जा रही है।
इन सारे उठा-पटक, सारे शोर-शराबे के बीच समय दिन, सप्ताह, माह और वर्ष को पार करता आगे बढ़ रहा था। वह अब सामने जो सब देख रहा था, वह क्या था, सपना या हक़ीकत? उसके सारे बदन में झुरझुरी सी दौड़ गई और दिल घड़क उठा किसी अनहोनी के भय से मगर सुनने को मिला – ”डर काहे का? यही तो सच है, जीवन की गाड़ी तो घसीटनी पड़ती है भाई।“
क़ानून का सम्मान भी तो कोई चीज है चाचा?
”क़ानून अगर रोटी नहीं दे सकता तो काहे का क़ानून बाबू?“
“पुलिस? उसका डर नहीं?”
“यहाँ किसी की नहीं चलती है, बस पेट की चलती है और जब बाज़ार में डिमांड हो तो उसकी पूर्ति तो करोगे न बाबू।“ उसने घबरा कर देखा सामने खेतों के बीच चौड़ी पगडंडी से गायों की कतारें चली आ रही हैं और रुकने का नाम नहीं ले रही हैं।
”यूपी से?“
”काहे यूपी से बिहार आती हैं?“
”काहे का तो हमें नहीं पता बस इतना जानते हैं वहाँ टांका जुड़ा हुआ है। आवारा गायों को गौशाला के नाम पर हमारे पंडित जी वार्डर पार करा के यहाँ ले आते हैं और उनको खरीद कर डिमांड पूरी हो जाती हैं।“
”बकरी, भेंड़ भी तो हैं?“
”हैं तो, यह भी तो हैं।“
”साल भर चाचा ऐसा ही चलता है क्या?“
”नहीं, त्योहार के तीन-दिन ऊपर से ब्याह, शादी, कमाई हरदम थोड़ी होती है।“
सुनकर वह सन्नाटे में आ गया। वह घबराया सा चुपचाप जाकर पेड़ की छाँव में बैठ गया। गायों के पैरों को आगे बढ़ता देख रहा था। और सोच रहा था।
”पंडित, गौहत्या, भूख, कारोबार, क़स्साब, बाज़ार और उसे बचपन में लिखवाया मास्टर जी का वाक्य याद आया जो उन्होंने किसी लड़के की कापी चेक करते हुए कान उमेठ कर कहा था -“
”यह तूने निबन्ध लिखा है, गाय हमारी माता है, बस! हो गया? उस दिन क्या बताया था? दिमाग़ बिल्कुल खाली।“ फिर गुस्से में बोले थे, ”गाय हमारी माता है, हमको कुछ नहीं आता है।“
उसे याद है कि उसने लिखा था कि गाय माता हमारा पालन पोषण करती है, वह हमको दूध देती है, बैल देती है जिसकी मदद से किसान हल जोतता है। हमें अनाज मिलता है। गाय-माता के सींग से बटन बनता है और … पशुओं के शिकार से लेकर हलाल तक पहुँचने की प्रक्रिया के बीच कितनी पीढ़ियाँ गुज़र गईं। जानवरों की बलि चढ़ाना, कुर्बानी में जानवर की गर्दन पर छूरी फेरना और धर्म व मान्यताओं से हट कर जब दो देश एक दूसरे के आमने-सामने खड़े हो जाते हैं तो एक इन्सान दूसरे इन्सान को अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए मूली-गाजर की तरह काट फेंकता है। थोड़े से पैसे, कभी अपने लाभ के लिए बड़ी आसानी से एक भरेपूरे परिवार वाले इन्सान का गला रेत देता है या फिर सुपारी दे बैठता है या फिरौती की माँग करवाता है, यह सब क्या है? क्या जिन्दगी की हर पर्त को हम उम्र के बढ़ने के साथ देखते हैं और यह पर्तें कभी ख़त्म नहीं होती हैं। पिछले चन्द वर्षों में हमने कितनी पर्तों को देखा, यह अनुभव हमें कहाँ ले जाकर छोड़ेगा?
वह अपना सर पकड़े बैठा था। गाय उसी चाल से रास्ता तय कर रही थीं। सूरज तिरछा हो गया था। कूड़ा खाती प्लास्टिक निगलती सड़कों पर भटकती, भूखी-प्यासी गायें ट्रकों से उतरती, अब यहाँ लाई जा रही थीं जहाँ उन्हें अपनी भटकन भरी ज़िन्दगी से मुक्ति मिलने वाली थी। अगर ऐसा न हो तो बूढ़ी गायों की संख्या भारत की जनसंख्या की तरह बढ़ती जायेगी। अचानक उसे ख़्याल आया कि भारतवर्ष में इतने जंगल हैं, वहाँ इन्हें ले जाकर छोड़ क्यों नहीं दिया जाता है। कम से कम घास चरेंगी और फिर मौत आने पर अपनी मौत मरेंगी। मरने के बाद सियार, गिद्ध और कौवों का भोजन बन जायेंगी। यानी कि वहाँ भी उनका अन्त वही होगा बस फर्क यह है कि इसे इन्सान काट कर न खाएँ। एतराज़ इन्सानों पर है जानवरों से शिकायत नहीं है। उसके सर में अचानक करेन्ट सा दौड़ा।
”उ पालिटिक्स बा, इ यहाँ की सच्चाई बा बाबू!“
उसे याद आया आन्ध्र प्रदेश और राजस्थान की गौशालाएँ जहाँ भूख और बालू के मिट्टी धँसने से सैकड़ों गायों की बेबसी भरी मौतें हुई थीं और गाय का पुतला गुब्बारे की तरह उड़ाने वाले को पुलिस पकड़ने पहुँच गई थी। समय की इन घटनाओं से वह क्या सीखें और क्या समझे? कौन से पाले में खड़ा हो या फिर कबड्डी के खेल का मूक दर्शक बन जाए।
जहाँ वह बैठा था वहाँ मच्छरों ने उसे भभोड़ना शुरू कर दिया था। वह अब यहाँ बैठ नहीं सकता था। सूरज भी पेड़ों के पीछे छुपने लगा था। वह अपनी जगह से उठा और खेत की मेंड़ के ऊपर से चलता हुआ घर की तरफ बढ़ा जहाँ वह लखनऊ से ताया की बेटे की शादी में आया हुआ था। घर के क़रीब पहुँचते हुए उसे गाने की आवाज़ सुनाई देने लगी थी। शायद कोई रस्म चल रही थी। वह भी धीरे-धीरे चलता हुआ उधर की तरफ बढ़ा जहाँ चारपाई तख़्त और कुर्सियों पर बैठे लोग गप्पें मार रहे थे। कुछ खाना-पीना भी चल रहा थ। जिधर वह जाकर बैठा था वहाँ ज़हेज में मिली मोटर, नक़द रुपयों की बात चल रही थी। लड़की वाले बहुत पैसे वाले थे। उनकी शर्त थी कि लड़की गाँव में नहीं रहेगी और दूसरे उससे नौकरी नहीं छुड़वाई जाएगी। दोनों बातें मान ली गई थीं। लड़का भी शहर मुम्बई में नौकरी कर रहा था जहाँ लड़की रहती थी। इन्टरनेट की पहचान दोस्ती फिर मुहब्बत और अब ब्याह में बदलने वाली थी। मुम्बई और इस निपट पिछड़े गाँव की दूरियाँ दो इन्सानों के बीच तकनीक ने कम कर उन्हें क़रीब ला दिया था।
कुछ खाने-पीने का दिल उसका नहीं चाह रहा था। रात का खाना शानदार और मज़ेदार बना था, सुगन्ध से हवा बोझिल थी लेकिन उसकी भूख जैसे मर गई थी। तबियत खराब होने का बहाना कर वह ऊपर छत पर बिछे बिस्तरों में से एक बिस्तर पर कोने में जाकर लेट गया। जाने कैसे ज़हन में नानी का घर उभरा। वह होगा आठ दस साल का, ननिहाल में पड़ोस के घर मिश्रा चाचा के यहाँ गाय पली थी उसने एक प्यारी सी बछिया को जन्म दिया था। वह उसके साथ खेलता, उसे प्यार करता था। एक दिन सुबह उठा और उठते ही बछिया की तरफ भागा जहाँ वह सफेद काली आँखों वाली उसकी बछिया बुरी तरह से पिट रही थी और गाय अजीब सी आवाज़ें निकाल रही थीं वह घर के चौखट पर ठिठक कर खड़ा हो गया था। दिल ज़ोर से धड़कने लगा था। छोटी-सी बछिया ज़मीन पर बेसुध पड़ गई तो मारने वाले ने हाथ के थप्पड़ों को रोक, पास पड़ी पेड़ की टहनी ज़मीन से उठाई और चीखे, ”किसने बछिया खोली थी?“
उनके घर में सन्नाटा छाया रहा पिटने को कोई तैयार न था। सब के चेहरों पर नागवारी के भाव झलक रहे थे। उसको कुछ समझ में नहीं आया। वह रुहाँसा सा लौट कर बिस्तर पर आकर चुपचाप लेट गया और आँखें बन्द कर लीं, मगर कान खुले थे। बछिया माँ का दूध पी गई थी और थन में न के बराबर दूध बचा था। आज उनके किसी ग्राहक के यहाँ कोई उत्सव था जहाँ उन्हें दूध पहुँचाना था। माँ कमरे में रोते हुए छोटे भाई को लेकर आई और बिस्तर के किनारे बैठ उसे दूध पिलाने लगी तभी नानी ने उन्हें आवाज़ दी तो पास बैठी छोटी बहन से वह बोली, ”जाकर कहना भैय्या दूध पी रहा है।“
यह सुनते ही उसके बदन में जैसे करेन्ट दौड़ गया और उठ कर बैठ गया। कुछ पल माँ के चेहरे को देखता रहा फिर धीरे से बोला, ”अम्माँ, गाय का बच्चा क्या अपनी माँ का दूध नहीं पी सकता है?“
माँ ने चौंक कर बेटे की तरफ देखा। पहले तो चुप रहीं फिर बेटे ने जब उनका बाज़ू हिलाया तो उन्होंने गर्दन हाँ में हिला दी।
”तो फिर उसे मारा क्यों अम्माँ?“
”दूध के लिए ही तो उन्होंने गाय पाली है न।“
”हाँ, मगर वह अपनी माँ का ही तो दूध पी रहा था फिर उसे मारना नहीं चाहिए था।“
”तुम ठीक कहते हो, गलत किया उन्होंने।“ माँ इतना कह कर चुप हो गई। सुबह उसने नाश्ते में थोड़ा-सा कुछ खाया और दूध पीने से इंकार कर दिया। उसके हल्क़ में कुछ अटक रहा था। कुछ बाहर आना चाहता था। वह चुपचाप घर से निकला और पड़ोस के गाय के छप्पर के पास जाकर खड़ा हो गया फिर धीरे-धीरे वह ज़मीन पर पड़ी बछिया के पास गया और उसका बदन सहलाने लगा। उसका बदन स्पर्श पाकर हिला और वह उठ कर खड़ी होने की कोशिश करने लगी। उसने बछिया के मुँह पर प्यार किया और उसके गले में बाहें डाल दी तो वह उसे चाटने लगी। पास बैठी गाय चुपचाप बैठी थी उसने सुबह से नाँद में मुँह नहीं डाला था। आसमान पर खिले तारे और यादों के गुज़रते क़ाफिले को देखते-देखते जाने कब उसे नींद आ गई।
तीन दिनों तक दावतों का दौर चलता रहा। आस-पास के गाँवों से ठाकुरों का आना भी बड़ी संख्या में हुआ। इस इलाके के हिन्दू मुसलमानों के बीच आज से नहीं, पीढ़ियों से यह रस्म चली आ रही है कि वे न सिर्फ एक दूसरे के ब्याह-शादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं बल्कि हर तरह की व्यवस्था में सहायता भी करते हैं। पंडितों के लिए शाकाहारी पकवान भी बनते हैं। किशोर जुबेर यह सब देख समझ रहा था। वह पहली बार बाप के साथ यहाँ रिश्तेदारी में आया था। स्कूल में छुट्टी भी थी।
उसे याद आ रहा था, लगभग दो साल पहले उसके अब्बा घर के लिए गाय खरीदने गये थे। घर में जब से दोनों जवान गायें मय बछड़ों के साँप काटने से मरी थीं, उससे सब का दिल दुखा हुआ था। दूध बिकना बन्द हो गया था और हाथ तंग। किसी तरह पैसे का जुगाड़ बना चचा और अब्बा मवेशी बाज़ार गए थे और लौटते हुए दो सुन्दर सी गायें लाने का वायदा हम सबसे करके गए थे। घर में एक खुशी सी फैल गई थी। अम्माँ और फूफी ने सूने छप्पर के नीचे का हिस्सा साफ कर लिपाई की और भूसा घर ठीक किया तो हम तीनों बहन भाई भी पास के मैदान से घास उखाड़ने दौड़ गए। जैसे-जैसे सूरज ढ़ल रहा था वैसे-वैसे सबकी आँखों में गाय देखने की बेताबी बढ़ रही थी।
शाम ढल गई। सबके मुँह लटक गए। अम्माँ और दादी को चिन्ता सी लग गई तभी पड़ोसी दशरथ काका परेशान से आए और जो ख़बर उन्होंने दी वह हम सबको सुन्न करने वाली थी।
”अरे, गज़ब हो गया वह दोनों भाई हवालात में हैं। अभी-अभी उनका फोन मेरे पास आया था।“
”हुआ क्या?“ घबराई सी अम्माँ बोलीं। जो दशरथ चाचा ने बताया वह हम सबको अजीब सा लगा। हुआ यूं कि जब चाचा व अब्बा खुशी-खुशी गाय खरीद कर गाँव लौट रहे थे तो रास्ते में कट्टा लिए दो हट्टे-कट्टे मुँह पर अंगोछा लपेटे खड़े मिले और मारपीट कर गाय छीन ले गए। जब यह दोनों थाना शिकायत करने पहुँचे तो उल्टा उन पर आरोप लग गया।
अब्बा और चाचा के लाख सफाई देने के बाद कि हमने पालने के लिए गाय खरीदी थी मगर उन्हें यक़ीन नहीं आया। गाय हाथ से गई तो गई, ऊपर से वे बन्द भी आर दिए गए। गाँव के बाकी ग्वालों ने सलाह मशविरा आपस में किया और दूर का थाना जहाँ करीम और शरीफ बन्द हुए थे जाने को सोचा ताकि मामला सम्हल जाए और उन दोनों को छुड़ा लाएं। मोटर सायकिलों पर वह चल पड़े। हालात कुछ ऐसे थे कि हवा एकदम अलग बह रही थी। हवालात में बन्द करीम व शरीफ जी भर कर पिट-पिटा कर लाचार से बैठे थे। गाँव वालों को अचानक वहाँ देख उनकी ढाढस बंधी। बात जब पुलिस व उन ग्वालों के बीच हुई तो पुलिस वाले ने अकड़ते हुए कहा, ”भई, अपराधी को सज़ा मिलनी ही है।“
”मगर साहब, अपराधी तो वह है जो गाय छीन कर ले गए हैं।“
”उन्होंने छीना नहीं, तुम जैसे हत्यारों से बचाया है।“
”आप जो कह रहे हैं ठीक है मगर हमारी एफआईआर तो लिखिए पहले “
”सबूत क्या है तुम लोगों के पास कि यह जो कह रहे हैं सच कह रहे हैं? पुलिस वाला भड़क उठा।
”हम ग्वाले हैं, दूध बेच कर ही हम अपना परिवार पालते हैं। आपको कोई ग़लतफहमी हुई है। सारा गाँव जानता है कि यह दोनों भाई नई गाय खरीदने गए थे।“ जिनसे खरीदी है हम उनका नंबर देने को तैयार हैं। उनसे बात कराने को तैयार हैं।“
”ठीक है, ठीक है।“ इतना कह कर उनके आसपास हल्की सी भीड़ जमा हो गई और उन्होंने कानाफूसी शुरू कर दी और आखिर में हज़ार रुपया लेकर वह दोनों छोड़ दिए गए। इस भारी चपत से माली तौर पर दोनेां भाई उबर नहीं पाए, क्योंकि शरीफ ने डर के मारे अपनी पाँचों गायें बेच दीं और काम की तलाश में शहर की तरफ चला गया जहाँ उसकी बीवी का बड़ा भाई किसी आफिस में क्लर्क लगा हुआ था। अपना धन्धा वह भी ख़ानदानी, इन दोनों भाइयों को छोड़ना नहीं बहुत अखरा। साथ ही एक दो और ग्वालों को भी भय लगाने लगा इस घटना के चलते। अब उनका मन भी इस दूध बेचने की प्रक्रिया से खट्टा हो गया था।
शादी ख़त्म हुई। मेहमान वापस जाने लगे। दोनों बाप बेटे भी जाने की तैयारी करने लगे।
ज़़ुबैर जितना सोच कर आया था कि शादी के पकवान खायेगा, खूब मज़ा करेगा, इधर उधर गूमएगा, दूल्हा-दुल्हन को देखेगा, ऐसा कुछ नहीं हुआ उल्टा उसका दिल व दिमाग़ अनेक तरह के सवालों से घिर गया और कोई अनहोनी होने की घबराहट से वह बेहाल था। लौटते हुए उसे य़कीन था कि वह फिर उस दुखदायी दृश्य को देखेगा जहाँ सूखी मरियल बूढ़ी गायें लड़खड़ाती, डगमगाती, कच्चे रास्ते को तय करती हुई नज़र आयेंगी। अब्बा भी उन्हें देखेंगे। उसने घबरा कर आँखें बन्द कर लीं। रास्ता सूना था। कोई आहट न पाकर उसने आँखें खोलीं तो देखा वहाँ खेतों के अलावा कुछ न था। न कोई निशानी ना कोई सबूत!
***
अच्छी लगी कहानी