कथा-संवेद – 16
इस कहानी को आप कथाकार की आवाज में नीचे दिये गये वीडियो से सुन भी सकते हैं:
स्वभाव से किस्सागो कुंदन यादव का जन्म 4 नवम्बर 1977 को बनारस में हुआ। ‘आरोही’ पत्रिका के मई 2015 अंक में प्रकाशित ‘आवभगत’ शीर्षक कहानी से अपनी कथा-यात्रा शुरू करने वाले कुंदन यादव का एक कहानी-संग्रह गँड़ासा गुरु की शपथ प्रकाशित है।
आस्था और विश्वास के खाद पानी से अभिसिंचित धर्म जब राजनीति और व्यवसाय के गलियारों में अपनी सांसें तलाशने लगे तो सभ्यता और समय को कई तरह के विपर्ययो का साक्षी होना पडता है। कुंदन यादव की कहानी विपर्यय में गणेश गुरु और रामनरेश के जीवन मूल्य जिस सहजता से लगभग अकल्पनीय विपरीतता को प्राप्त होते हैं, उसी में इस कहानी का मर्म दीप्त होता है। आस्था और आधुनिकता का द्वंद्व सत्ता और वाणिज्य के खेल में बदलकर कैसा रूप और आकार ग्रहण करता है, उसे यहाँ एक दिलचस्प कथा के रूप में महसूस किया जा सकता है। किस्सागोई की आंच पर पकी इस कहानी के मिजाज में स्थित बनारस का ठाठ इसे सतत रोचक और कथारस से सिक्त बनाये रखता है। पाठकों को भीतर तक गुद्गुदानेवाले भाषाई मुहावरे उन्हें जिन निहितार्थों तक लेकर जाते हैं उसमें समाज की कई-कई जकड़नों और ऐंठनों का पता मौजूद है। आस्था और आस्था के व्यापार के दुकूल में स्थित मासूमियत, विवशता और धूर्तता की दुरभिसंधियो का पड़ताल करती यह कहानी एक ऐसा आईना है जिसमे समकालीन यथार्थ की कई परते बहुत साफ नज़र आती हैं।
राकेश बिहारी
विपर्यय
कुंदन यादव
श्री राम जानकी मंदिर पर घंटे घड़ियाल के साथ हो रही आरती की आवाज सुनकर रामनरेश वहीं रुक गया सोचा कि आरती लेते हुए चलूं। वरुणा नदी के किनारे से शिवपुर बाजार में आने वाली सड़क पर सबसे पहले यही मंदिर पड़ता था और मंदिर के प्राचीन होने का दावा करते हुए मंदिर के पुजारी गणेश पंडित जी या गणेश गुरु के पिताजी कंठे महाराज बताते थे कि औरंगजेब के सैनिकों ने उसको तोड़ने की कोशिश की लेकिन महादेव जी के लिंग के बगल में जो गड्ढा है,उसमें से करोड़ों ततैया और बिच्छू निकलने लगे और मुसलमान सैनिकों को काट कर भगा दिया। उसके बाद से औरंगजेब की हिम्मत नहीं पड़ी। और जब दोबारा उसने फिर से आक्रमण करने की कोशिश की तो बड़े-बड़े नागों ने फन उठाकर पूरी सेना को भयाक्रांत कर दिया। इसके बाद औरंगजेब के मौलवियों ने सलाह दी कि यहां हिंदुओं के सच्चे भगवान रहते हैं इसलिए इस इलाके को छोड़ दिया जाए। यदि उनसे कोई यह सवाल करता था कि अगर मौलवियों ने सच्चा मंदिर बताया तो इसको तोड़ना इस्लाम के हिसाब से काफिरों की जगह और बुत परस्ती का खात्मा करना होता तो फिर औरंगजेब क्यों लौट गया? तब कंठे महाराज भड़क जाते बोलते कि तुम लोग उल्टे सीधे सवाल करते हो, हर चीज पर प्रश्न। सालों को कोई आस्था नहीं है। भागो सब। ऐसे ही गधों के कारण एक दिन हिंदू धर्म के नष्ट होने की संभावना है। कभी जाकर जुम्मा की नमाज देखो कोई जना इमाम या मौलवी की कही हुई बातों पर तकरार नहीं करता, इसीलिए मुसलमानों में एकता है, लेकिन यहां ससुरे चार किताब पढ़ कर भीमराव अंबेडकर बने हैं।
मंदिर की देहरी पर आकर रामनरेश ने जूते उतारे, प्रांगण में लगे हुए हैंडपंप पर हाथ, मुंह धो कर गर्भ ग्रह की ओर पहुंचा तो देखा गणेश गुरु सिर्फ दो लोगों के साथ आरती कर रहे थे। उनकी आवाज बहुत गंभीर थी। उनके बारे में मशहूर था कि वे जवानी के दिनों में गंगा के इस पार से चिल्लाने पर उस पार के लोगों का ध्यान आकर्षित कर लिया करते थे। आरती खत्म हुई और मिश्री की एक छोटी सी डली तुलसी दल के साथ प्रसाद के रूप में पंडित जी ने रामनरेश को दिया। दोनों युवक उनका पैर छूकर अपने अपने रास्ते चले गए और रामनरेश अनन्य भाव से मंदिर के बाहर चबूतरे पर बैठा रहा।
किसी जमाने में जब वरुणा नदी के पीपे के पुल की चुंगी से शिवपुर कस्बे को जोड़ने वाला मुख्य मार्ग मंदिर के सामने से गुजरता था तब इस मंदिर की भव्यता देखते ही बनती थी। मंदिर के दरवाजे के बाहर कुछ फूल वाले प्रसाद वाले और एक आध जलपान की दुकान सुबह से लेकर शाम की आरती तक गुंजायमान रहती थी। कई बार तो दानपात्र हफ्ते भर में ही भर जाया करता था। मंदिर के पीछे प्रांगण में गणेश गुरु कबरी गाय को अपने हाथों से चारा खिलाते हुए फूले न समाते और हर सुबह पंडिताइन पूजा पाठ के बाद ब्रज की गोपियों की नकल करते हुए एक बड़ी मटकी में दही मथ कर मक्खन निकालती। एक बड़े से मटके में ढेर सारा था मट्ठा दिन भर आने जाने वालों को पीने के लिए रख दिया जाता। कोई अपने शादी विवाह या किसी मांगलिक काम में तो कोई किसी श्राद्ध कर्म या पत्रा दिखाने के लिए आया ही रहता। गणेश गुरु प्राचीन संस्कृत पाठशाला के प्रधानाचार्य भी थे जिसमें अब सिर्फ दस-पंद्रह विद्यार्थी पढ़ते थे। किसी समय में यह पाठशाला महाराजा बनारस के अनुदान से चला करती थी। गणेश गुरु हर महीने दो महीने में एक बार इलाहाबाद माध्यमिक शिक्षा परिषद के कार्यालय का चक्कर काटते कि वह पाठशाला किसी तरह मान्यता प्राप्त हो जाए लेकिन उनका प्रयास सफल नहीं हो पा रहा था, क्योंकि संस्कृत पढ़ने वाले अब नहीं मिलते थे। शिक्षा परिषद के अधिकारियों का कहना था कि जब विद्यार्थी ही नहीं है तो किस बात की मान्यता और किस बात की पाठशाला?
कुछ लोगों ने तो सलाह दी कि आप पाठशाला पर कब्जा करके इसमें कटरा बनवा दीजिए और फिर मजे से किराया उठाइए। वैसे भी यह आपकी सेवायत में है और जिस ट्रस्ट ने यह पाठशाला बनाई थी उसके वंशज न जाने कहां रहते हैं? संस्कृत पाठशाला के मुख्य बाजार के बीचो बीच होने के कारण कुछ प्रॉपर्टी डीलरों की भी नजर थी और वे सब उस ट्रस्ट के पते पर कोलकाता जाकर मालूम कर चुके थे कि उस परिवार का कोई वंशज अब नहीं है जो कि पाठशाला के मालिकाना हक का दावा करे। पिछले तीस वर्षों से गणेश गुरु उसके निर्विवाद प्रधानाचार्य थे। ट्रस्ट की अंतिम वसीयत भी गणेश गुरु के पिताजी के नाम थी। इसलिए बहुत से प्रॉपर्टी डीलर और व्यापार मंडल के लोगों ने गणेश गुरु की मनुहार की लेकिन गणेश गुरु ने सबको डांट कर यह कहते हुए भगा दिया, “शास्त्रों में सही लिखा गया है कि लक्ष्मी का वाहन उल्लू होता है। “ सब साले उल्लू इकट्ठा होकर चाहते हैं किस तरह सरस्वती के मंदिर में ताला लगा दिया जाए और देववाणी को विराम दे दिया जाए। लेकिन जब तक गणेश मिसिर के शरीर में खून का एक भी कतरा है तुम लोगों का यह सपना पूरा नहीं होगा।
फिर वे आसपास के लोगों को समझाने के क्रम में आकर कहते कि आप लोगों को पता है जर्मनी में संस्कृत को कंप्यूटर के लिए सबसे हिट और अच्छी भाषा माना गया है। अब देखिएगा जैसे जैसे कंप्यूटर और मोबाइल का प्रचार प्रसार बढ़ेगा, संस्कृत के अच्छे दिन आएंगे। आखिर देववाणी है। ई मियां और अंग्रेज इतने दिन तक शासन न किए होते तो आज देववाणी की दुर्दशा न होती। लेकिन चिंता की कोई बात नहीं भगवान सब देखते हैं और एक दिन संस्कृत को उसका असली हक प्राप्त होगा। फिर शास्त्रों की व्याख्या में उतर कर यह सबको बताते कि जितने भी दुनिया भर में अविष्कार हो रहे हैं सब हमारे ग्रंथों में लिखा हुआ है। लेकिन धोखे से मैक्समूलरवा भोसड़ीवाला सब ग्रंथ उठा ले गया और वहां संस्कृत से जर्मन और अंग्रेजी में अनुवाद करके अब वह लोग सब आविष्कार कर रहे हैं। यह मिसाइल क्या है अग्निबाण। पुष्पक विमान हमारे यहां कितना पहले से है ई बताने की जरूरत है? अरे भाई रामकथा के सौ से ऊपर भिन्न भिन्न पाठ हैं लेकिन सभी में रावण वध के बाद प्रभु विमान पर चढ़कर, माता सीता को लेकर अयोध्या लौटते हैं। फिर भी कुछ दुष्ट ह्रदय वालों को इन बातों पर विश्वास नहीं है। उनका गौरव ही मरा हुआ है तो हम क्या करें जाओ साले जाकर अमेरिका का तलवा चाटो।
रामनरेश ने देखा कि गणेश गुरु 10 साल में ही अचानक जैसे अपनी उम्र से 20 साल बड़े हो गए हो। गंगा जमुनी बाल पूरी तरह सफेद होने लगे थे और चेहरा पिचक गया था। उसे तुरंत निराला की पंक्ति याद आई ‘दूबर हो नहीं कबहूं पकवान के विप्र’ लेकिन यहां पर स्थिति बिल्कुल उल्टी हो गई थी क्योंकि विप्र शायद पकवान से दूर हो गया था और दुबला भी हो गया था।आरती के समय असली जरी वाली धोती की जगह एक पुरानी दबे हुए रंग की धोती पहने हुए देख उसने अनुमान लगा लिया कि “अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा। आम की यह डाल सूखी जो दिखी कह रही है अब यहां पिक या शिखी नहीं आते।“ जैसा कि उसने महाकवि निराला के बारे में पढ़ रखा था की पत्नी और बेटी की मृत्यु के बाद जो हालत महाकवि निराला की हो रही थी वैसी ही अब गणेश गुरु की थी। बल्कि ऐसा लगा जैसे महाप्राण निराला अपने पूरे तेवर के साथ गणेश गुरु के शरीर में प्रवेश कर गए हों।
मन में गणेश गुरु की गिरती हुई हादसे की स्थिति का अनुमान करके उसे थोड़ा अफसोस हुआ लेकिन फिर याद आया कि इन्हीं ब्राह्मणों ने हजारों साल सबका मानसिक शोषण किया और अब लेबल पर आए हैं। जिस धर्म का सहारा लेकर लोगों को बेवकूफ बनाते रहे अब जनता उस से मुक्त हो रही है। मुक्तिबोध का सपना सच हो रहा है, मठ और गढ़ का शिकंजा कमजोर हो रहा है अर्थात लोग प्रगतिशील होने लगे हैं लेकिन फिर उसे टेलीविजन चैनलों पर ज्ञान बघारते ढोंगी बाबाओं की याद हो आई जिनमें से कुछ बलात्कार के आरोप में जेल में बंद थे और फिर उसका मन खिन्न हो गय। धर्म के नाम पर राजनीति और सत्ता पाने के लिए उसके उपयोग के बारे में सोच कर उसका दिमाग गणेश गुरु से हटकर भारतीय राजनीति की ओर चला गया।
एक समय था कि राम जानकी मंदिर की आरती में 25-30 से अधिक लोग होते और कोई न कोई भक्त मिठाई का एक दो डब्बा ले आता था। कई बार तो बचपन में रामनरेश ने दूसरे लड्डू या बर्फी के लिए दो दो बार आरती ली। आज छोटी सी कटोरी में कुछ मिस्त्री के दाने देखकर उसे बड़ा अजीब लगने लगा। मंदिर की बाहरी दीवारों पर भी उसने देखा कि कई सालों से पेंटिंग नहीं हुई है और शिखर के भीतर मकड़ी के जाले भरे पड़े हैं जिनमें कुछ मरे हुए मच्छर जीवाश्म बनने की प्रक्रिया में हैं। एक हैं समय इसी राम जानकी मंदिर की इतनी धूम मचती थी कि जन्माष्टमी के दो दिन पहले से पूरे मंदिर को सजा कर गांव भर के लोग कृष्ण लीला गाते और धूमधाम से भजन कीर्तन करते। इसके अलावा विभिन्न त्योहारों पर गणेश पंडित जी की व्यस्तता देखते ही बनती थी।
गणेश गुरु की पत्नी भी गुरु के साथ साथ सभी अनुष्ठानों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेतीं और गांव वालों के दान दक्षिणा से उनका भंडार कभी खाली नहीं होता। कई बार तो इतना दान आ गया कि गणेश पंडित जी ने स्वयं नई फसल का दान लेने से पहले अपना कोठार खाली करने के लिए पास के मजदूरों को बुलाकर पिछले सालों का अनाज वितरित कर दिया। जब भी बेटे ने कहा कि देने की क्या जरूरत है इसी से काम चलाइए नया वाला जो भी आएगा उसको शिवलाल किराना को भेज देंगे बदले में पैसा मिल जाएगा। गणेश गुरु इस मोलभाव के सख्त खिलाफ थे। अपने लड़के को किसी धर्म शास्त्र का कोई श्लोक सुनाते हुए कहते हैं कि यह सीधा-पिसान वास्तव में इसलिए दिया जाता है कि जब हम इसे ग्रहण करेंगे तो उन परिवारों के पितरों को तृप्ति मिलेगी और तुम चाहते हो थोड़े से लाभ के लिए हम जजमानों से दगा करें। नालायक पापी कहीं के।
यह सब सोचते हुए रामनरेश मंदिर के पिछले हिस्से में गया। वहाँ देखता है कि गाय बछड़ा इत्यादि कुछ भी नहीं। एक खूंटा और नाद वैसे ही रखी है जैसे दसियों साल पहले थी। लगता है पंडित जी अब गाय नहीं रखते और अगर नहीं रखने का फैसला था तो इस नाद और खूँटे की क्या जरूरत थी? हो सकता है किसी गोदान की इच्छा में अभी तक उन्होंने यह सब बरकरार रखा हो। उसने नाद के भीतर झांका तो पाया कि कुछ कोयले रखे हुए हैं। तब तक पंडित जी भगवान की मूर्तियों के आगे पर्दा खींच कर बाहर आ गए थे। रामनरेश ने तुरंत उनके चरण छुए। गणेश गुरु ने आशीर्वाद दिया कल्याण हो सुखी भव। फिर आंखों पर जोर डालते हुए बोले – बच्चा तोहें चिन्हली नाहीं?
रामनरेश ने तुरंत उत्तर दिया- “गुरुजी हम रामसेवक पटेल बालू वाले क छोटका लड़का हई”। गणेश गुरू ने रामसेवक का नाम सुनते उत्तर दिया कि बहुत दिन से तोहरे बाबूजी दिखाई नहीं दिए, दर्शन पूजन तो छोड़िए मिलना जुलना भी खत्म हो गया है। खैर बालू का ठेका लेना और उसको चलाना आसान काम नहीं है। नेता, पुलिस, दलाल, संसद, विधायक, माफिया सबको साथ लेकर चलना पड़ता है इस बालू के व्यापार में। धंधे में पैसा बहुत है इसलिए मुकाबला भी कठिन है। उनको हमारा आशीर्वाद कहना। तुम इलाहाबाद पढ़ने गए थे न? कौनों सफलता मिली कि अभी कंपटीशन की तैयारी कर रहे हो? रामनरेश ने कहा कि गुरुजी पीसीएस की मुख्य परीक्षा देने के बाद कुछ दिन के लिए घर आया हूँ सफलता मिली तो फिर इंटरव्यू के लिए बुलावा आएगा और उसके बाद फाइनल रिजल्ट। अभी मंज़िल दूर है। गणेश गुरु यह सुनते ही तपाक से बोल पड़े कि चलो हम मनौती मान देते हैं। तुम्हारा इस बार फाइनल सिलेक्शन पक्का होगा। उसके बाद अखंड रामायण का कीर्तन होगा चलो संकल्प लो। यह सब सुनकर रामनरेश मन में ही फूला न समाया। कहा जरूर बस आपका आशीर्वाद रहे और प्रभु कृपा भी तो फिर सपना पूरा क्यो नहीं होगा? गणेश गुरु बोले कल्याण जरूर होगा बच्चा ,इहाँ देर है अंधेर नहीं।
उस वर्ष की पीसीएस परीक्षा में रामनरेश सफल नहीं हो सका और उसने मन ही मन गणेश गुरु की मनौती को याद करके कोसा। सोचता रहा कि ब्रह्मणवादी शिकंजा कितना चालाक होता है। चित भी मेरी पट भी मेरी। हो गया तो ठीक। नहीं होगा तो फिर प्रभु परीक्षा ले रहे हैं या कोई तो कोई ग्रह अड़ंगा लगा देगा। बुलशिट। इस बार घर जाकर गणेश गुरु को बताएंगे कि कर्मकांड से कुछ नहीं होता। नेपोलियन ने अपने हाथ की लकीर पर तलवार से विजयी रेखा बना दी थी। अचानक उसे गणेश गुरु के ही एक रिश्तेदार की याद आई जो कि आईएएस परीक्षा का इंटरव्यू दे रहे थे और रोज घंटा भर हनुमान चालीसा या रुद्राष्टकम पाठ करते थे उसके बावजूद परीक्षा में उन्हें सफलता नहीं मिली। कई बार मनौती भी मानी थी लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ। उसने सोचा अब जब गणेश गुरु से मिलना होगा तब उसी रिश्तेदार की याद दिलाते हुए कहूँगा कि जब भगवान उनके ऊपर कोई कृपा नहीं किए और आप तो उनका कुंडली पत्र सब देखे थे तो हमारे ऊपर क्यों करते? मनौती तो उन्होंने भी सच्ची श्रद्धा से मानी होगी इसलिए यह सब कहने की बात है। कभी मौका मिले तो भगत सिंह की किताब पढ़ लें कि मैं नास्तिक क्यों हूं। नौकरी मिलना होगी मिलेगी नहीं तो ना मिले लेकिन कभी अखंड कीर्तन या रामायण का सुंदरकांड का पाठ इत्यादि में नहीं कराऊंगा।
इस घटना को धीरे धीरे 5 साल बीत गए। इस बीच रामनरेश ने दो बार असफल होने के बाद तीसरी बार में पीसीएस की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी और लखनऊ में ही डिप्टी कलेक्टर के पद पर कार्यरत था। दो वर्षों की नौकरी के बाद उसने पिताजी के कहने पर फैजाबाद के पूर्व सांसद की पोती से विवाह का रिश्ता स्वीकार किया जो कि स्वयं दांतो की डॉक्टर थी। घर में विवाह की तैयारियां पूरे जोरों पर थी। रामनरेश छुट्टी लेकर घर आया हुआ था और अपने पसंद की कपड़े इत्यादि की खरीदारी में व्यस्त था, तभी कार्ड छप कर आ गए और मेहमानों के नाम की सूची बनने लगी। किस को बुलाना है किसको नहीं? इस पर पिताजी और उसकी मां विचार विमर्श कर रहे थे कि तभी बीच में गणेश गुरु का नाम आया। पिताजी को उसने बोलते हुए सुना कि, ऐसा है गणेश गुरु को रहने देते हैं। जब से संस्कृत पाठशाला पर ताला लगा है तब से वह विक्षिप्त रहने लगे हैं और वैसे भी शुगर के मरीज हैं दवा ठीक से करते नहीं हैं कहीं बारात में कुछ हो हवा गया तो कौन जिम्मेदार होगा? और अब तो ठीक से पूजा पाठ भी नहीं करवा पाते। जबसे पंडिताइन गुजरी हैं तब से और बेसुध रहते हैं। उनको बरात में नहीं रिसेप्शन में बुला लिया जाएगा।और हां गांव से ज्यादा बुजुर्ग लोगों को मत ले चलना क्योंकि वैसे भी आजकल शहर के होटल में कमोड रहता है ये लोग परेशान हो जाते हैं। याद है लखनऊ में फूफा जी के बेटे की बरात में तुम्हारे मौसा जी के बाबू और कई लोग होटल से निकलकर सामने वाली रेलवे लाइन के पीछे निपटने जा रहे थे। यह सुनकर वहां उपस्थित लोग हंस पड़े लेकिन गणेश गुरु के बारे में जो बात पिताजी ने बताई उसने रामनरेश के कान खड़े कर दिए।
उसने बाबू जी से पूछा कि क्या हुआ गणेश गुरु को?
पिताजी बोले, क्या कहा जाय अब जमाना बदल गया है लेकिन यह लोग वही पोंगा पंथी विचारधारा पर जी रहे हैं। जब देखो तब देववाणी और संस्कृति की डीलिंग देते रहे। आखिर संस्कृत पढ़ता कौन है आज के दौर में? वह तो बस परीक्षा में नंबर पाने के लिए बच्चे ले लेते हैं। इतना कठिन कि शब्द रूप और धातु रूप रखने के चक्कर में हम लोग शास्त्री जी से कितनी बार कुटाई खाते थे। आजकल तो बच्चों को पीटना भी मना है तो ऐसे में बिना छड़ी के संस्कृत कैसे सीखा जा सकता है? और फिर बोलने वाला कौन है? न तो संस्कृत पाठशाला को मान्यता मिली और न ही गणेश जी ने लोगों की सलाह मानी। पिछली सरकार में विधायक जी की नजर लगी हुई थी। बस कब्जा करवा दिए अपने किसी चेले को। गणेश गुरु मुकदमा भी करें तो कैसे वकील का खर्चा कौन देगा? और लड़ेंगे कहां तक? किस-किस से लड़ेंगे? विधायक जी ने सब कागज पूरे करवा के बैक डेट में वसीयत भी करवा ली और लगा दिए अपने भतीजे को। जाकर देखो संस्कृत पाठशाला की जगह कितनी गहरी नींव डालकर शापिंग कॉम्प्लेक्स टाइप मॉल बनाया जा रहा है। दामाद के मरने के बाद से बिटिया और उसके दोनों छोटे बच्चे भी इन्हीं के घर आकर रहते हैं। बड़ा लड़का कुछ करता नहीं और छोटा वाला कहीं-कहीं पूजा पाठ होने पर सौ पचास कमा लेता है। पंडिताइन भी बीमार रहकर बिना उचित इलाज के खत्म हो गई और पंडित जी को भी शुगर की वजह से कभी-कभी दिखाई देना बंद हो जाता है। मानते तो है नहीं। प्रसाद के नाम पर कुछ भी दे दो मीठा खट्टा बिना खाए रहेंगे नहीं अब क्या किया जाए। अब उनको शादी विवाह में भी कोई नहीं बुलाता है क्योंकि भूलने की बीमारी हो गई है। भूल जाते हैं कि कौन सा मंत्र पढ़ना है या कम क्या करना है। फिर उनको संभालना अलग। हम से बस पाँच सात साल बड़े हैं लेकिन देखो तो शरीर ढल गया है। कुछ कहो तो सुनते नहीं हैं कहते हैं कि जो प्रभु की इच्छा। सब कर्म फल का दोष है। अब कौन समझाए इन पंडितों को। वैसे तुम चाहते हो बुलाना तो तुम्हारी मर्जी लेकिन बरात में मत ले चलना नहीं तो डिस्टर्ब होगा। यह कह कर राम जी के पिताजी किसी और काम में लग गए।
रामनरेश ने कार्ड निकाला गणेश गुरु का नाम लिखा। वास्तव में गणेश गुरु का नाम किसी को पता नहीं था। इस चक्कर में उसने संस्कृत पाठशाला से पढ़े हुए अपने एक मित्र को फोन करके उनका असली नाम पता किया जोकि अष्टभुजा मिश्र था। शाम को उसने पंडित अष्टभुजा मिश्र उर्फ गणेश गुरु लिखा और साथ में मिठाई का डब्बा लिया तथा पंडित जी को निमंत्रित करने के लिए श्री राम जानकी मंदिर की ओर चल दिया।
सूर्य ढल चुका था। कुछ देर में अंधेरा होने वाला था उसे उम्मीद थी कि शाम की आरती थोड़ी देर में होगी लेकिन वैसी कोई तैयारी नजर नहीं आ रही थी। दरवाजे पर पहुंचकर उसने आवाज लगाई सामने बरामदे में लेटे हुए गणेश गुरु धीरे-धीरे पंखा हिला रहे थे। दाढ़ी बहुत बढ़ गई थी और आवाज काफी कमजोर हो गई।
के हो भैया?
जैसे ही राम नरेश ने अपना परिचय दिया पंडित जी ने कहा, आवा आवा
यह सुनकर रामनरेश गुरुजी के पास गया। चरण छुए। गणेश गुरु ने बगल की कुर्सी पर बैठने का इशारा किया। हालचाल के दौरान पंडित जी ने बताया कि तबीयत खराब रहती है शुगर की वजह से और कुछ और बीमारियों के कारण। शरीर अब इतना मजबूत नहीं है लेकिन पाठशाला इत्यादि की कोई चर्चा नहीं की। रामनरेश ने सोचा कि शायद गणेश गुरु को यह पता हो कि मुझे सब कुछ मालूम है। गर्मी लग रही थी लेकिन ऊपर पंखा नहीं चल रहा था जबकि बाहर देख कर पता चल रहा था कि बिजली आ रही है। रामनरेश ने सोचा कि शायद तबीयत ठीक नहीं है इसलिए पंखा नहीं चला रहे हैं लेकिन जब कुछ देर बाद अंधेरा घना होने लगा तब उनके बड़े नाती ने एक लालटेन जला कर वहां रख दिया। यह देख रामनरेश को बड़ी आसानी से समझ में आ गया कि बिजली कनेक्शन बिल न चुकाने के कारण काट दिया गया है। राम नरेश ने अपने विवाह का कार्ड देते हुए मिठाई का डिब्बा बढ़ाया। गणेश गुरु लालटेन की रोशनी में कार्ड पढ़ने लगे। वर तथा वधू के कामकाज के बारे में कार्ड में पढ़कर गणेश गुरु के भीतर जैसे फुरती आ गई। वे करवट बदल कर तुरंत उठ गए और बोले कि देखो हम कहे थे ना कि प्रभु के यहां देर है अंधेर नहीं तुम्हारा काम जरूर बनेगा। सफलता जरूर मिलेगी। बहुत बहुत खुशी की बात है बच्चा।
फिर अपने बड़े नाती को बुलाकर मिठाई का डिब्बा पकड़ाया और उससे कुछ कहा। धीरे से उठकर मंदिर में गए। तब तक वह बच्चा पूजा का सामान ला चुका था। उन्होंने रामनरेश को भी भीतर बुलाया और कुछ मंत्र पढ़ते हुए उसे तिलक लगाया मिठाई का डिब्बा खोल कर भगवान को भोग भी लगाया और पूजा के उपरांत बाहर निकल कर अपने बड़े नाती और रामनरेश को प्रसाद दिया और स्वयं भी एक बड़ी सी मिठाई मुंह में डालते हुए बोले- आज एतना खुशी क बात है। इसलिए शूगर की ऐसी की तैसी। नाती ने टोका अरे नानाजी पूरा चमचम खा रहे हैं? थोड़ा सा ले लीजिए। गुरु ने रोबीले स्वर में कहा- चुप बे!! खुशी में खंडित प्रसाद नहीं खाया जाता, पूरा समूचा प्रसाद लिया जाता है। फिर बोले कि प्रसाद भीतर लेते जाओ और अपने तखत पर आ गए और पालथी मार कर बैठ गए।
घर और मंदिर की हालत देखकर तथा पिताजी के द्वारा पूरी कहानी सुनने के बाद गणेश गुरु के परिवार के आर्थिक संकट का पूरा परिचय रामनरेश को मिल चुका था और वह कोई बात करना नहीं चाहता था कि गणेश गुरु किसी बात पर दुखी ना हो जाए। इसीलिए ना तो उसने पंडिताइन के मृत्यु के बारे में कुछ पूछा और ना ही संस्कृत पाठशाला के बारे में। कुछ देर इधर-उधर की बातचीत के बाद उसने कहा कि आप अगर हो सके तो बारात में चलिएगा। गणेश गुरु कुछ ऊंचे स्वर में बोले, क्यों नहीं बिल्कुल चलेंगे। वैदिक रीति से एकदम राम-सीता की तरह तुम्हारा ब्याह कराएंगे। लड़की वाले भी ससुरे मान जाएंगे कि बनारसी पंडित से पाला पड़ा है। हा हा हा। स्वर तंत्री में स्पष्टता ना होने के कारण आवाज में दम नहीं लेकिन भरोसा जरूर था।
रामनरेश ने कहा कि गुरु जी चलता हूं। वे बोले कि चाय पीकर जाओ। लेकिन रामनरेश ने कहा कि बहुत लोगों को निमंत्रण देना है और कल तक ही छुट्टी है इसलिए जाने दीजिए फिर कभी आऊंगा। इसके बाद वह खड़ा हुआ कि गणेश गुरु ने कहा कि बेटा एक बात कहनी है।
रामनरेश ने कहा, जी बोलिए
पंडित जी पहले तो लगभग एक मिनट चुप रहे। इस बीच राम नरेश ने सोचा कि वह जरूर कुछ पैसे वगैरह मांग सकते हैं और उसने यह भी सोचा कि यदि उन्होंने कोई सहायता मांगी तो दूंगा
लेकिन पंडित जी ने कहना शुरू किया कि बेटा, मैंने अपनी जिंदगी में कभी किसी से दुर्व्यवहार नहीं किया। किसी का फायदा नहीं उठाया। पुरखों से जो व्यवसाय और पुरोहित गिरी सीखी उसी पर गुजारा किया। किसी को कर्मकांड आदि की गलत सलाह नहीं दी और ना ही धर्म के नाम पर बेवकूफ बनाया। लोगों ने धोखे से संस्कृत पाठशाला पर कब्जा कर लिया। हम भी थक हार कर कहां तक लड़ते? सब कोर्ट कचहरी नेताओं और पैसे वालों के लिए है हम जैसे गरीबों के लिए नहीं। जबसे पीपे का पुल बंद होकर आगे नया पुल बना तब से इस तरफ लोग भी कम आते हैं और दूसरी तरफ कई मंदिर बन गए हैं। इसलिए उतने जजमान भी अब नहीं रह गए और जब हर तरफ रोटी-रोजगार की चिंता हो तो कोई क्या दान दक्षिणा देगा? बेटा 60 साल की उम्र गुजर गई, किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया; हमेशा अपने भाग्य में जो था, उसमें संतोष किया और प्रभु की सेवा में जिंदगी लगा दी। हमारी आर्थिक स्थिति बहुत खराब है। तुमसे बस इतनी प्रार्थना है किअब इस उम्र में शरीर कमजोर हो चुका है लेकिन लिखा-पढ़ी जैसा कोई काम हो मेरे लायक तो दिलवा दो। बहुत जरूरत है बेटा। हम लोग तो किसी तरह चना चबेना गंग जल से गुजर बसर कर लेते हैं, लेकिन जब प्रभु के भोग के लिए कुछ नहीं होता है तो दिल टूट जाता …. कहते-कहते गणेश गुरु फफक कर रो पड़े।
रामनरेश आधुनिक होती जा रही इस दुनिया में आस्थावान धार्मिक की यह दशा देख भीतर से द्रवित होकर चरमरा उठा। वह कुछ भारी मन लिए हुए अपने घर पहुंचा। रात का भोजन किए बगैर वह सो गया। सुबह उठकर वरुणा किनारे सैर करते हुए उसने अपने प्रशासनिक अनुभव व ज्ञान का उपयोग करते हुए एक योजना बनाई और योजना का खाका खिंचते ही उसकी आंखें चमक उठी। योजना कुछ ऐसी थी;
पहले वह कल गणेश गुरु के पास जाकर बोलेगा कि उसके एक प्रोफेसर दोस्त किसी विदेशी विश्वविद्यालय में है जो भारत के उपेक्षित या अंजान प्राचीन मंदिरों पर रिसर्च कर रहे हैं। संस्कृत भाषा में भोजपत्र या प्राचीन हस्तनिर्मित कागज़/ कपड़े पर इस मंदिर का इतिहास लिखने का पचीस तीस हज़ार रुपया दे देंगे। वह उस मंदिर से जुड़े हुए कंठे महराज के दावों के आधार पर गणेश गुरु से एक लेख तैयार करवाएगा, जिसका प्रकाशन सभी प्रमुख अखबारों में किया जाएगा।
इसके बाद मंदिर पर एक क्लिप बनाकर किसी पीआर एजेंसी द्वारा व्यापक रूप से ट्विटर, यूट्यूब और व्हाट्सएप पर उसको व्यापक रूप से चलाया जाएगा। फिर गणेश गुरु को विश्वास में लेकर उनकी अध्यक्षता में मंदिर का एक ट्रस्ट बनाया जाएगा जिसके महासचिव उसके पिताजी होंगे और कुछ अनुदान भी दिलवा दिया जाएगा तथा ऐसे प्राचीन मंदिर के जीर्णोद्धार के नाम पर चंदे की रसीद निकाली जाएगी। गणेश गुरू द्वारा लिखे गए इतिहास में यह भी जोड़ा जाएगा कि प्राचीन काल में पांडवों ने यहाँ रात्रि विश्राम किया थाया महाभारत कालीन कोई घटना यहाँ घटी थी। इसके अलावा अयोध्या से चित्रकूट के मार्ग पर यह मंदिर पड़ता था और जब राम को खोजते हुए भरत जी यहां से गुजरे तो आगे सई और वरुणा के संगम पर नदी देखकर वे तय नहीं कर पा रहे थे कि किस दिशा में रामचंद्र जी गए होंगे अतः जब यहां के लोगों से पूछताछ की तो उन्होंने सही दिशा का ज्ञान कराया। निषादराज गुह का इलाका यही था। गोस्वामी जी ने मानस में इसका जिक्र भी किया है – “सई तीर बसि चले बिहाने, श्रुंगबेरपुर सब नियराने”
मंदिर के ट्रस्ट के महासचिव उसके पिताजी होंगे और फिर पर्यटन विभाग की वेबसाइट पर इस मंदिर का जिक्र करने में कोई दिक्कत नहीं होगी क्योंकि विशेष सचिव उसका ही बैचमेट है। पत्रकारों को बीच-बीच में कुछ दान दक्षिणा देकर मंदिर की महिमा के बारे में छापते रहने को कहा जाएगा। अगर सब कुछ ठीक रहा तो पिछड़ी जाति और ब्राह्मण एकता बनाकर पिताजी के विधायक का टिकट की दावेदारी भी कोई कठिन बात नहीं होगी। क्षेत्र में गणेश गुरु का असर बहुत है। आखिर मरा हुआ हाथी भी सवा लाख का होता है और गुरु तो अभी जिंदा है।
चेहरे पर मुस्कान लिए हुए वह घर लौटा और सुबह नाश्ते पर पिताजी को पूरी योजना बता दी।
पिताजी ने आशंका व्यक्त की, “इतनी आसानी से यह सब कैसे हो पाएगा जितनी आसानी से कह रहे हो?”
तब रामनरेश ने थोड़ा मुस्कुराते हुए पूरे भरोसे के साथ कहा बाबूजी ,‘जब एक विवादित मस्जिद के भीतर रात के अंधेरे में मूर्ति डालकर देशव्यापी आंदोलन खड़ा हो सकता है, और वहाँ भव्य मंदिर की शुरुआत हो सकती है, लोकसभा में दो सीट जीतने वाली पार्टी विश्व की सबसे बड़ी पार्टी बन सकती है तो क्या हमारी किस्मत इतनी खराब है कि हम उस पुराने मंदिर से यह सब नहीं कर पाएंगे।‘ और फिर हमारे पास खोने को है क्या?
पिताजी आमलेट खाते हुए एक बारगी रुके और पूरी बात समझ में आते ही फिर खुशी से उछल पड़े और रामनरेश को गले से लगाकर माथा चूमते हुए बोले- बेटा तुमपर मुझे नाज़ है।
रामनरेश की प्रगतिशील आँखों में भावी भव्य मंदिर के गुम्बद की पताका शान से लहरा रही थी…
कुंदन यादव
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