कथा संवेद

कथा संवेद – 17

इस कहानी को आप कथाकार की आवाज में नीचे दिये गये वीडियो से सुन भी सकते हैं: 

अरुणाचल के जनजातीय जीवन की कथा सहेजने और सिरजने वाली जमुना बीनी का जन्म 20 अक्टूबर 1984 को जीरो, अरुणाचल प्रदेश में हुआ। 2008 के किसी अंक में उत्तर प्रदेश पत्रिका में प्रकाशित ‘ऑफीसर पति’ शीर्षक कहानी से अपनी कथा यात्रा शुरू करनेवाली जमुना बीनी का एक कहानी-संग्रह ‘अयाचित अतिथि और अन्य कहानियाँ’, एक लोक-कथा संकलन ‘उईमोक’, एक कविता-संग्रह ‘जब आदिवासी गाता है’ तथा एक आलोचना पुस्तक ‘दो रंगपुरुष’ प्रकाशित हैं।   

हिन्दी कहानी का भूगोल सामान्यतया हिन्दी पट्टी के जीवनानुभवों से ही विनिर्मित होता है। कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो मुख्य धारा की हिन्दी कहानी में उत्तर-पूर्व के जीवन यथार्थ, सुख-दुख, चिंताएँ और विशिष्ट सांस्कृतिक छवियाँ ठीक से दर्ज नहीं हुई हैं। जमुना बीनी की कहानियाँ उस कमी की भरपाई का प्रामाणिक जतन करती हैं। कहानी ‘बांस का फूल’ पुरुष के स्त्री रूप में कायांतरित होने के जिस अविश्वसनीय सच को पूरी विश्वसनीयता के साथ पाठकों के भीतर रोप देती है, वह मैदान और उत्तर पूर्व की सीमाओं से इतर पूरी मानव जाति का सपना है। कला के विभिन्न अनुशासन और साहित्य की तमाम विधायें स्त्री-पुरुष सम्बन्धों को प्रेम, साहचर्य और पारस्परिकता के इसी अन्यतम और उच्चतम धरातल पर विन्यस्त होने का सपना तो देखती हैं। अभाव और दुर्दिन का साक्षात्कार कई बार हमें स्वार्थी और आत्मकेंद्रित बनाता है, पर भूख और अभाव से जूझते इस कहानी के पात्र जिस आत्मीय अंतरंगता के साथ एक दूसरे का हाथ थामे दिखाई पड़ते हैं, वह इस कहानी के साथ उस खास भू-भाग की भी विशेषता है, जिसे याना, यारा और लालिन की इस कथा में आप खुद भी महसूस कर सकते हैं। 

राकेश बिहारी

बाँस का फूल

जमुना बीनी

लालिन का बाँस का बागान अपशकुनी फूलों से अटा पड़ा था। संसार के सबसे कुरूपतम फूलों में से एक- बाँस का फूल! इसलिए नहीं कि, इसका रूप-रंग बदसूरत है! 

  विचारों का रेला लालिन के दिमाग़ी-खिड़की पर खटखटाकर फिर से प्रवेश किया, वह उसी में खो गया। ऐसा फूल खिलता ही क्यों, जिसका लक्ष्य तबाही और भूखमरी हो। फूल खिलो तो ऐसा, जिससे देख आंतरिक आह्लाद फूटे..न कि चिंता और खौफ से रातों की नींद उड़ जाये। पुष्प प्रकृति का श्रृंगार और सौंदर्य है, तो यह किस प्रकार का सौंदर्य? अमंगलकारी..अहितकारी, तब तो अनिंद्य, अनुपम और अद्वितीय सुंदर क्यों न हो..निश्चित ही त्याज्य है। वह सौंदर्य जिसके मूल में विनाश, विभीषिका और संहार हो, उसके आकर्षण में कभी बंधा नहीं जा सकता। 

लालिन के पूरे शरीर में घृणा खौल रही थी। मन हो रहा था, बाँस के बागान को आग के हवाले कर दें। पर नहीं इसे जलने में वक्त लगेगा, सारे बाँस कच्चे जो थें। जिस बगीचे का हरित सौंदर्य कल तक लालिन की खुशी का सबब था, आज उसे ही धू-धू जलकर राख और खाक होते देखना चाह रहा था। 

    मन ने दूसरा तरकीब सोचा, क्यों न ‘दाव’ से एक-एक बाँस के डंडों को जड़ों के साथ काटकर उखाड़ फैंक दें। लेकिन तभी मन ने टोका भी, इन बाँसों की मृत्यु तो निश्चित है। क्यों अपनी उर्जा बेमतलब खर्च करना! खिलने के बाद इनकी तो मौत होनी ही है।

एक उड़ती हुई नज़र ‘नासुंग’ पर पड़ी। फाटक का मुँह यूँ खुला हुआ था, जैसे कई दिनों से भूखा हो और खाने के लिए अन्न माँग रहा हो। लालिन ने चलकर फाटक बंद करने का सोचा, मगर कदम उठा नहीं। उसके भीतर अब बचा क्या, जो फाटक बंद रखता। सारा धान तो चूहों के पेट में समा गया। 

      सहसा लालिन को अपनी पीठ की छालें याद आईं, जो अब तक भर चुकी थीं। खूब फसल हुई थी। खेतों से फसलों को पीठ पर लाद-लाद कर लाते वक्त छालें निकल आई थीं। कुछ दिनों तक पीठ के हिस्से पर कपड़ा नहीं डाल पाया, कपड़े के रगड़ से घाव छिल जाते थें। मगर उस पीड़ा में भी अगाध आनंद था। पर बचा क्या!! कुछ भी तो नहीं, एक दाना तक नहीं।

लालिन ने एक गहरा उच्छ्‌वास लिया। 

अकेला लालिन ही नहीं, गाँव के बाकी लोग भी इसी एक चिंता में घुले जा रहे थें। बाँस के हरे और भूरे रंग के फूलों ने लोगों की सख्त और मजबूत रीढ़ की हड्डियाँ तोड़ डालीं। बाँस यानि जीवनयापन का जरूरी साधन! इसके बिना जीवन की कल्पना भी असंभव था! जन्म से मरण तक बाँस से साबका पड़ता रहा। फूल के खिल आने से इसकी सारी उपयोगिता ही खत्म हो गई।  

    लालिन का पुराना बाँस का घर कभी भी चरमराकर औंधा गिर सकता था। बाँस के फर्श पर, कदम रखता तो बड़े संभलकर रखना पड़ता। कहीं भरभराकर फर्श टूट गया, तो पाँव छेद में धँसकर हवा में झूलता रह जायेगा। बच्चों को भी तेज उछलने-कूदने से डाँट-डपटकर मना कर रखा, कमजोर फर्श का कोई विश्वास नहीं..जाने कब धसक-खिसक जाये। सोच रहा था, पुराना घर को तोड़कर नया घर खड़ा करेंगे। लेकिन बाँस पर फूल लग आने से अब नया घर बनने से रहा! 

बाँस चखना भी कहाँ मयस्सर होगा अब..! बाँस के कोंपलों से जो तरह-तरह के मसाले और व्यंजन बना करते थें, उससे भी हाथ धोना पड़ेगा। जीभ को उन स्वादों को भूल जाना होगा। 

    लालिन की बेटी ने अपनी सहेली यापिन को बाँस का कंगन पहने देखा, तबसे जिद पर उतारू! उसे भी बाँस के बने कंगन के साथ-साथ कानफूली भी चाहिए। कानों और कलाईयों में बाँस का आभूषण धारण कर इठलाती हुई यापिन को खूब जलायेगी। बच्चों की भी अपनी अलग दुनिया, जहाँ एक-दूसरे से श्रेष्ठ होने की होड़ा-होड़ी मची हुई थी। बाँस के जेवरों के लिए लालिन ने अपनी बेटी से वायदा किया था।

मगर अब यह कैसे फलित होगा?

क्या लालिन आयास ही इन छोटी-छोटी परेशानियों में खोया रहना चाहता था! उस बड़ी चिंता का क्या? उससे सामना करने से जानबूझ कर बच रहा था? उस विपदा के समक्ष इन मामूली दुश्चिंताओं का कोई मतलब या मायने नहीं रह जाता। जब व्यक्ति के हाथों कोई समाधान न हो, कोई हल न सूझ रहा हो..तो वह देखे को भी अनदेखा करता है, अपनी आँखें सब तरफ से मींच लेता है। और पल भर के लिए खुशफहमी में जीता है मानो जीवन में सुकून ही सुकून हो!  

   लालिन भी ठीक यहीं कर रहा था। वह सोचकर भी उस बारे, सोचना नहीं चाहता। उस विपत्ति को टालने के लिए क्या उसके पास कोई रास्ता था? नहीं..! मगर सामना करना पड़ेगा और मुकाबला भी…इस भूखमरी से!

जीवन का प्रतिपल बदलता रंग! ऐसे भी दिन जीवन में आयेंगे, खाने के लाले पड़ जायेंगे, उसने ख्वाब में भी न सोचा था। यह बात नहीं थी कि, खाने-पीने की समस्या कोई पहली बार हो रही हो। कभी मौसम ने साथ दिया तो फसल अच्छी हुई और मौसम ने दगा दिया तो फसल बर्बाद! पर कठिन समय के लिए, कुछ न कुछ बचा या सहेज लिया जाता था। ऐसा कभी न हुआ, पूरा का पूरा ‘नासुंग’ खाली पड़ा रहा हो। किंतु इस बार खेतों को नष्ट करने के बाद सीधा ‘नासुंग’ ही चूहों के निशाने पर आ गया! 

         चूहों की सेना ने किसी की भी खेती को न बख्शीं। क्या धान, क्या मड़ुवा, क्या मक्कई सारे चूहों के भेंट चढ़ गयें। सबके खेतों पर चूहों का ही राज था। यह तो गनीमत थी कि बाँस खिलने से पहले ही, झील के पास वाली पहाड़ी खेती से लालिन ने मक्कई तोड़कर घर पर भंडार कर रखा था। 

लेकिन बाँस के खट्टे-मीठे फलों से रिसता मादक गंध से बौराये चूहें जो विनाश-लीला मचा रहे थें, उससे कब तक घरों की सुरक्षा हो सकती थी। महकदार फलों को खाकर जिस तेजी से चूहों की आबादी दिन दुनी और रात चौगुनी बढ़ रही थी, उससे लग तो यहीं रहा था..घर का कोई भी कोना सुरक्षित नहीं। ‘नासुंग’ पर तो मूषक सेना अपना कब्जा जमा ही चुकी थी, अगली बारी घर की थी। घर पर भी ये दुर्दांत सेना काबिज होने के लिए अड़ रही थीं। 

  लालिन ने मक्कों को एक विशाल बर्तन के भीतर दबाकर, बर्तन के मुँह को भारी पत्थर से ढक कर रखा। बच्चों को भली प्रकार से समझा-बुझा दिया था, वे भूल से भी पत्थर को हिलाये-डुलाये नहीं। लालिन के तीन बच्चे थें और चौथा संसार में अभी आने वाला था। उसकी पत्नी पेट से थी। शायद सप्ताह-दो सप्ताह के बीच ही उसको बच्चा हो जाय।

लालिन के खाली पेट से गुड़गुड़ की आवाज आई और मुँह ने खट्टी डकार के रूप में बासी-सूखी हवा छोड़ी। भूख से बदन सुन्न मालूम पड़ रहा था। दुर्बलता के मारे सिर चक्कर खाने लगा। पेट के अंदर आँतों में जो मरोड़ और खिंचाव पड़ रहा था, लालिन को उसका साफ आभास हो रहा था। अत्यधिक कमजोरी के कारण साँस भरने में भी तकलीफदेह जान पड़ रहा था। 

    लालिन अपने पैरों पर खड़ा होना चाहता था। जिस दीवार के सहारे पीठ टिकाये हुए बैठा था, उसी पर हाथ रखकर खड़े होने का प्रयास किया। लेकिन कोशिश..विफल! गश खाकर गिर पड़ता, अगर दीवार को थामे न रखा होता। लम्बे वक्त से कुछ खाया नहीं, पेट बिल्कुल खाली..भीतर कुछ था नहीं जिससे शरीर को ढोने या खींचने के लिए ऊर्जा और शक्ति मिलती।

भूख से कंपकंपाते उसके हाथों ने बड़े बर्तन के ऊपर पड़ा पत्थर को हटाया। भीतर झाँका…सारे मक्कें गायब, नदारद! मक्कें के बदले चूहें ही चूहें थें। लिसलिसाते लाल-लाल बिना रोयें वाले चूहों के असंख्य बच्चें! काले, भूरे रंग के बहुतेरे मोटे-मोटे चूहें चुहचुहा रहे थें। जाने चूहों के कितने कुनबों ने कब से बसेरा अपना डाल रखे थें।

    पत्थर का ढक्कन हटने की देरी थी, एक के ऊपर एक सवार होकर अनगिनत चूहें दौड़ते-भागते हुए बर्तन से धड़ाधड़ निकल आयें। और गहरी नींद में सो रहें तीनों बच्चों के शरीर पर जा चढ़ें। अपनी पैनी-नुकीली दाँतों को बच्चों के मुलायम-मुलायम त्वचा पर गढ़ा दियें। लगता है बर्तन भर मक्कों को चट कर जाने के बाद भी इन भुक्खड़ों की तृष्णा शांत नहीं हुई। पेट है कि कोई कुँआ! बच्चें लहुलूहान, चीख मार-मारकर रोने लगें। बच्चों के खून से अब ये अपनी प्यास बुझायेंगीं। 

रक्त पिपासु चूहों के चंगुल से बच्चों को मुक्त कराने, लालिन आगे बढ़ना चाह रहा था। मगर पैरों ने जवाब दे दिया। भूख से अधमरा वह अपने पैरों को खींच नहीं पा रहा था। जहाँ बैठा था, वही बैठा रह गया। फिर कोशिश किया, पैरों को घिसटने की…! किंतु वहीं नाकामी! बेबसी और निराशा में वह विलाप करने लगा। 

“क्या हुआ?”

पत्नी यारो ने कंधा हिलाकर जगाया।

“बच्चें, चूहें..!!”

लालिन की नींद टूटी, बड़बड़ाते हुए उठा। 

“सब ठीक है। कुछ नहीं हुआ बच्चों को। शाम को चावल खाने की हठ कर रहे थें। चावल है नहीं, कहाँ से लाती! मक्के उबालकर खिला दिया। मालूम होता है, आपने कोई बुरा सपना देखा!”

“हम्म! तो यह सपना था।” 

इस आश्वस्ति से लालिन का मन और शरीर, दोनों भारमुक्त हो गया। बच्चों से ध्यान हटकर गर्भवती पत्नी की ओर गया। आधी रात उसे जगी पाकर लालिन ने प्रश्न किया-

“तुम सोई क्यों नहीं?”

“घर में चूहें जमते जा रहे हैं। इनके मल और पेशाब का तीखा दुर्गंध से पीछा छूटे, तब न सो पाऊंगी। पूरे घर में बदबू फैला रखा है।”

यारो ने हाथ से नासाफुटों को ढक लिया।

“किया क्या जा सकता है! यहीं मालिक बने बैठे हैं, हमें बस तमाशा देखना है। सबके दिन फिरते हैं, समझ लो चूहों के भी…!”

कहकर उसने यारो की तरफ़ ताका। यारो का शक्ल विकृत हो गया-

“ठीक तो हो न?”

“नहीं…जी मिचला रहा है।” 

“पानी लाऊँ? पियोगी?”

“न…न..जरा उठने में मेरी सहायता करो।”

“इस हाल में कहाँ जाओगी, लेटी रहो।”

“बाहर जाकर मतली कर आती हूँ, शायद जी हल्का हो जाये।” 

यारो का कंधा थामकर लालिन ने उसे उठाया। 

यारो अपने उभरा हुआ पेट पर हाथों को गोलाकार घुमाते हुए द्वार खोलकर बाहर गई और उल्टियाँ करने लगीं। वापस अंदर आने पर लालिन ने मुँह कुल्ला करने के लिए उसे पानी वाला मग थमाते हुए पूछा-

“अब बेहतर हो?”

“हाँ..थोड़ी चैन मिली।”

“चलो दोबारा सो जाओ।”

“दोबारा? मैं सोई कब थी? आप सो जाइए। कई दिनों से देख रही हूँ, आप सो नहीं रहें। आपको मक्के वाले बर्तन की चिंता है न, फिक्र न करें। मैं नज़र रखूंगी।”

“हाँ! हर हाल में उसे शैतानी चूहों से बचाना तो है। अच्छा तुम यह रात-रात भर जागकर, क्या सोचती रहती हो? क्यों अपने शरीर को थकाती हो?”

यारो ने लालिन के हाथ को लिया और धीरे से उसे अपने पेट पर रखा-

“इस मुश्किल घड़ी में खाने के लिए एक और मुँह का इजाफा होगा..।”

“तो यह है तुम्हारे रातों को जागने का कारण?”

“न..आपको बता चुकी हूँ। चूहों ने जो गंद मचा रखा है, उससे नींच उचट जाती है। फिर इधर-उधर की ढेरों बातें दिलो-दिमाग़ में कुदबुदाने लगती हैं।”

“आने वाले के लिए शुभ-शुभ सोचो।”

“क्या शुभ सोचूँ? कुछ भी तो शुभ नहीं हो रहा!”

“ऐसा क्योंकर सोचती हो? क्या मेरे ऊपर यकीन नहीं? मैं सब जुगाड़ कर लूँगा। मेरे जिंदा रहते कोई भूखा नहीं मरेगा।” 

लालिन के भीतर से उछलता आत्मविश्वास से यारो की डूबती मन:स्थिति की नैया को किनारा मिली। 

   यारो को अपनी ओर से समझाकर आश्वस्त तो कर दिया था, मगर लालिन को अपने आप पर क्रोध आ रहा था। कैसे नींद में आँखें बुझ गईं! 

इन दिनों लालिन सोता कम, निगरानी ही ज्यादा कर रहा था। मक्के वाले बर्तन के पास जरा भी सरसराहट होती, उसके कान खड़े हो जातें। जैसे मक्के के भंडार की सुरक्षा ही उसके जीवन का एकमात्र ध्येय बन गया हो।

जाहिर है यह भंडार उसकी पत्नी और बच्चों के लिए था, न कि चूहों के फ़ौज के लिए। इस पर केवल उसके परिवार का हक था, उन पूंछधारी दुश्मनों का नहीं। इतनी आसानी से वह इन आक्रंता पशुओं के सामने घुटने नहीं टेकने वाला था।

मन की भी अपनी गति! एक ओर जहाँ साहस और दृढ़ निश्चय से बल पाकर फुलकर चौड़ा फैल जाता, तो वहीं भय और तनाव से हताश होकर सिकुड़कर दुबक जाता। लालिन के मन में भी हजार तरह की आशंकाएँ आ-जा रही थीं। तमाम इंतज़ामात के बाद भी, अगर चूहों ने सुरक्षा में सेंध लगाकर मक्कों को कुतर नष्ट कर दिया तो…तो सब खत्म!! इस विचार से ही वह अंदर तक हिल गया।

  याना बार-बार अपने सिर को खुजाती हुई, बालों को नोच रही थी। लालिन से देखा नहीं गया-

“इधर ‘बाग’ में निकलो। घर के अंदर अंधेरा है। बाहर सूरज की रोशनी में तुम्हारे सिर के जूएँ निकाल देता हूँ। इस तरह खुजाती रहोगी क्या, सिर के खाल उतर जायेगी।”

याना निकली नहीं, मूर्ति बनी बैठी रही। लालिन बोले जा रहा था-

“मना किया था न, यापिन के साथ मत सोओ। पक्का उसी के सिर से जूएँ लगे होंगे। जो बच्चे बड़ों की बात नहीं मानते, उसके कान उमेठकर लम्बे कर देने चाहिए।”

कान उमेठने की बात से बेचारी याना डर गई, फौरन बाहर आई। मुँह को जरा टेढ़ा कर बोली-

“रहने दें ‘आबु’! आप जोर से बाल खींचते हैं। बहुत दर्द होता है। मैं ‘आने’ से जूएँ निकलवा लूँगी। आपको जूएँ निकालना भी नहीं आता।”

इस बात पर लालिन को तेज गुस्सा चढ़ा, आवाज़ स्वत: ही ऊँची हो गई-

“मूर्ख लड़की!! तेरी आँखें हैं कि नहीं? तुझे दिखाई नहीं देती, आजकल तुम्हारी ‘आने’ की तबीयत ठीक नहीं रहती। खुद उस मैली-कुचली यापिन के सिर से जूएँ लगवा आई। अब ये जूएँ अपने भाईयों के सिर न डाल देना। आज से तुम अकेली सोओगी।” 

अपने ‘आबु’ के उखड़े तेवर से याना सहम गई। चुपचाप उनकी गोद में जा बैठी। लालिन को पछतावा हुआ-

“देखो, माना कि तुम छोटी हो मगर है तो घर की सबसे बड़ी बेटी.. ”

“हाँ…”

“तुम जैसा व्यवहार करोगी, छोटे भी वैसा ही करेंगें। तुम हमारी बात सुनोगी तो वे भी सुनना सीखेंगें। छोटे हमेशा बड़ों की नकल करते हैं, गांठ बाँध लो इस बात को। अब से हमारी बात मानोगी न?”

“हाँ!”

“शाबाश! कल या परसों मुझे शिकार पर निकलना है।”

“क्या मुझे भी साथ जाना होगा?”

“ नहीं..नहीं, तुम घर पर रहोगी। ‘आने’ बीमार रहती है, काम में उसका हाथ बँटाओगी। सारा दिन यापिन के साथ खेलती मत रहना।” 

“पर ‘आबु’ मैं अकेली कहाँ खेलने जाती हूँ! खेलती हूँ तब भी भाई को पीठ पर लादे रखती हूँ। इसलिए मेरा कद नहीं बढ़ रहा!!”

याना ने मासूम सी शिकायत की।

“अच्छा, यह तुमसे किसने कहा?”

“यापिन ने…और किसने!” 

लालिन के अधरों पर मुस्कुराहट फैल गई-

“कुत्ता तो कोई बोझा नहीं ढोता, लेकिन उसका कद बढ़ता नहीं। हाथी को देखो, कितना लट्ठ खींचता है..फिर भी कद उसका ऊँचा है।”

“ ‘आबु’ मैंने कभी हाथी को बोझा खींचते नहीं देखा…”

“कोई बात नहीं, किसी दिन तुम्हें ‘हारिंग-न्योकु’ ले चलूंगा, तब देखना।” 

यात्रा का नाम सुनते ही याना का बालमन हर्ष से तरंगित हो उठा। 

  लालिन याना के सिर से जूएँ तो निकाल रहा था, मगर मस्तिष्क लगातार दो मुद्दों में उलझा हुआ था। पहली चिंता यारो की सेहत को लेकर। उसने महसूस किया, इस बार की गर्भावस्था में यारो बहुत कमजोर पड़ गई। 

निस्तेज-मूँदी आँखें, पतझड़ के शाखों से झड़ते पत्तों सा पीला पड़ता देह और हर समय बिछावन पर सुस्त-बेजान लुढ़की रहती। खाती कम, कै ज्यादा कर रही। ज्यों अंदर डाला..त्यों बाहर उगल दिया। हाथ-पैर सूखी लकड़ी की तरह सूखता जा रहा। कहने भर के लिए शरीर में मात्र आँखें और पेट रह गईं। किसी अंधेरी सुरंग सी दिनोंदिन धँसती और फैलती आँखें। आँखों के खोह के इर्द-गिर्द काली-काली रेखाएँ! ये रेखाएँ न होती, तो शायद आँखें विस्फारित फैलकर चेहरे का वजूद ही ग्रस कर जातीं। 

कंकाल सा तना काया पर पेट के रूप में झूलता-लटकता माँस का लोथड़ा। जिसका वजन उससे उठाया नहीं जा रहा हो। इसलिए कमर झुकाए हरदम मुँह फा‌ड़े हाँफती रहती! इस गर्भावस्था में इतनी दुर्गति क्यों! क्या कोई शैतानी साया का प्रकोप है?  

जबकि पिछली तीन गर्भावस्था में वह बराबर खेती जाती, जंगल से लकड़ी और साग तोड़ लाती। इतनी चुस्त और पुर्तीली कि गाँव की औरतों को मजबूरन कहनी पड़ीं-

“सँभालो अपने को, भूलो मत…तुम्हारा पाँव भारी है।”

शायद ही यारो कभी बीमार पड़ी हो। इस दफा उसकी तंदुरुस्ती चिंताजनक रूप से गिर रही थी। 

   यारो की चिंता से मुक्त हुआ नहीं कि दिमाग़ दूसरे मुद्दे से भीड़ गया। मुद्दा था- तालो का शिकार का प्रस्ताव। प्रस्ताव वैसे बुरा नहीं था। जंगल में लम्बे प्रवास पर रहकर शिकार मारने की योजना बनाई थी तालो ने। अगर भाग्य का सितारा चमका और शिकार में कोई बड़ा-मोटा जानवर हाथ लगा तो उसके गोश्त को आग में सूखाकर कई दिनों तक खाया जा सकता था। 

इस भूखमरी में सिर्फ़ दो जगहों से खाना मिलने की हल्की और धुंधली उम्मीद थी- एक जंगल और दूसरा ‘हारिंग-न्योकु’! यारो की सेहत की फिक्र न होती तो अब तक लालिन ‘हारिंग-न्योकु’ की यात्रा पर निकल गया होता या तालो की शिकार वाली योजना को अमली-जामा पहना चुका होता। उसने तालो को सुझाव दिया, शिकार की योजना मात्र एक दिन का रखा जाये। सुबह जायेंगे, शाम को लौट आयेंगे। यारो के स्वास्थ्य से तालो भी वाकिफ था, इसलिए सुझाव न मानने का प्रश्न ही नहीं था।

  यापिन को घर की सीढ़ी चढ़ती देख, याना लालिन की गोद से उतर गई। दौड़कर यापिन के पास गई। यापिन ऊपर आई नहीं, आधी सीढ़ी चढ़कर ठिठकी। लालिन ने हँसकर कहा-

“लो आ गई जूओं की मल्लिका!”

यापिन का चेहरा तमतमाया, वहीं सीढ़ियों से उनको संबोधित कर-

“आपको कल सवेरे तैयार रहने को कहा है।” 

“इसका मतलब योजना स्थगित नहीं हुई, ठीक है..तैयार रहूँगा।”

तालो की बेटी यापिन, शिकार के लिए सूचित करने आई थी। संदेशा देने के बाद वह सीढ़ी से भागती हुई उतर गई। 

  भोर से दोपहर हो आया, दोनों को जंगल के खाक छानते हुए। शिकार के नाम पर एक गिलहरी तक मार न पाया। न जाने सारे पशु-पक्षी किस गिरि, कानन, कंदरा में जा छिप गयें। सुबह से कभी इस दिशा तो कभी उस दिशा बस भागे ही जा रहे थें, मगर एक भी शिकार हाथ न आया। आधा दिन बीत गया, अब कोई चमत्कार ही शिकार दिला सकता था! 

दिन के शुरू से ही लालिन का मन कुछ अनमना सा हो रहा था। साथ जाने के लिए हामी भर चुका था, इसलिए अनिच्छा के बावजूद तालो के साथ चल पड़ा। लालिन के ध्यान से मक्के वाला बर्तन उतर ही नहीं रहा था। रह-रहकर यह आशंका सता रहा था, कहीं बच्चे खेलते हुए लापरवाही में मक्कई के बर्तन को गिरा न दिया हो! यारो रुग्ण बेखबर सोई पड़ी होंगी, उससे कहाँ बर्तन की देखभाल हो पायेगी। मगर याना तो होंगी ही। न याना का कोई ऐतबार नहीं, वह घर पर टिकती कहाँ है!  

    इसके अलावा भी एक अनाम, अपरिचित और अजीब सा भय मन को घेर रहा था। कुछ अनहोनी, अमंगल, अशुभ घटित होने का डर! क्या बुरा घटने वाला था, उसे नहीं मालूम। पर मन कुछ अपशकुन के आभास से उद्विग्न हो रहा था। इस बेनाम और बेशक्ल खौफ़ को दिल से दूर हटाने के प्रयास में लालिन आत्मालाप में बोल पड़ा-

“बाँस के खिलने से ज्यादा अहितकर और क्या हो सकता है। मन तू धैर्य रख। यह दुर्दिन भी गुज़र जायेगा, इससे अधिक और बुरा कुछ न होगा।”

किंतु मन इस भय के जकड़न से मुक्त न हो पाया। मज़बूरी में, तब लालिन ने तालो से कहा-

“चलो, घर लौट चलते हैं। शिकार मिलना होता तो अब तक इक्का-दुक्का मिल गया होता।”

भूखमरी के विकट समय में शिकार से खाली हाथ लौटना, तालो को गवारा न था-

“तुम्हारी जैसी इच्छा, लौटना चाहो तो लौट जाओ। लेकिन मैं थोड़े समय रुके रहूँगा।”

“कोई लाभ न होगा, जंगल के जानवरों तक को भनक लग गई अकाल के बारे। इसलिए सचेत होकर छिप गयें सब। इन्हें मालूम हैं, अब आहार के लिए मनुष्य जंगल की तरफ़ दौड़े-दौड़े चले आयेंगे। हमें यह ग़लतफहमी है कि हम बड़े चतुर हैं, हमसे ज्यादा चालाक तो ये जानवर लोग हैं।”

लालिन कहने के बाद खिसियाकर हँस दिया। 

“सीधा क्यों नहीं कहते, शिकार में तुम्हारा मन नहीं लग रहा। सुबह से बुझा-बुझा और उखड़ा-उखड़ा है। कोई बात नहीं, लौट जाओ। मैं भी बस आता ही हूँ!”

तालो ने जब अनुमति दे ही दिया तो लालिन वापसी वाला राह पकड़कर मुड़ गया। जाने से पहले उसने अपने तरकश को खाली करते हुए, तीरों को निकालकर तालो को सौंपते हुए कहा-

“रख लो, शायद तुम्हारे काम आ जाये।”

   सघन पेड़ों और झाड़ियों के बीच से होता हुआ, तालो पहाड़ी सोता के पास पहुँचा। स्वच्छ जल बह रहा था। ऊपर शिखर से नीचे गिरती हुई, जब जमीन से जल की धारा टकराती तो दूधिया फेन उफनने लगती…जैसे पहाड़ी चट्टान टूटकर सफेद चूरे में बदल गया हो। तालो क्षण भर कुदरत के इस नायाब रूप को देखता रह गया। यकायक सुध आई कि प्यास से उसका गला जला जा रहा है। घुटनों के बल झुककर वह पानी पीने लगा।

तभी जमीन पर पड़ी सूखे पत्तों की खड़खड़ाने की आवाज़ आईं। तालो का हाथ अपने आप कंधा पर लटका तरकश की ओर बढ़ा। वृक्षों के झुरमुट से निकलकर, सामने गाँव का युवक नेपा आता दीखा। तालो हाथ को अपने माथे पर पीटते हुए-

“तो तुम हो, मैं समझा कि कोई शिकार है।”

नेपा ने अपने आने का प्रयोजन बतलाया-

“यारो एक बेटी को जनने के बाद, अभी-अभी चल बसी है!”

“बहुत बुरा हुआ, बहुत बुरा!!”

सुनकर तालो सकते में आ गया।

“उसी की खबर देने आया था लालिन को।”

“लेकिन लालिन तो चला गया, गाँव की तरफ़।”

“हाँ..हाँ मिला था अभी रास्ते पर, खबर सुनकर बेतहाशा भागते हुए गया।”

इस संकट के समय में लालिन को उसकी जरूरत होगी, यह विचार आते ही तालो भी गाँव की ओर भागा। 

घर पर लोगों की भीड़-भड़क्का और शोर-शराबा थी। कुछ मर्द आपस में जोर से बतिया रहे थें और कुछ कानाफूसी। यारो के मृत देह के पास जो औरतें पंक्तियों में बैठी थीं, वे चिल्ला-चिल्लाकर रोये जा रही थीं। रोती जातीं और यारो का नाम पुकारती भी जातीं। भोली याना एक साथ इतने लोगों को अपने घर में देख, एकदम अवाक्‌ और हतप्रभ थी। 

जैसे ही लालिन को देखा, वह दौड़कर उसके बाहों में झूल गई। लालिन एक बार चिर निद्रा में सोई यारो का बेजान मुख को ताकता तो कभी तालो की पत्नी यागाम की गोद में सो रही नन्हीं जान को। लालिन का मस्तिष्क उथल-पुथल से भरा और मन भावनाओं के झंझावात से घिरा था… नींद न आने की शिकवा किया करती थी, आखिर नींद आ ही गई..ऐसी नींद जो कभी टूटेगी नहीं। खाने वाला मुख बढ़ न जाये, क्या इसलिए अकाल के दौरान दम तोड़ दी? इस प्रकार के कई प्रश्न थे, पर पूछता किससे! जिनको उत्तर देने था उसने सदैव के लिए मौन साध लिया। 

   यागाम ने अपने घर से मड़ुवा का चूरन मँगवायी, फिर उसे पानी में घोलकर थोड़ा शहद मिलाया। तर्जनी उँगली को उसमें डूबो-डूबोकर नन्हीं जान की होंठो में डाल चुसवाती रही। तब जाकर नन्हीं जान चुप हुई, वर्ना चंद समय पहले भूख से चीखें मारती हुई रो रही थी। 

गाँव में सबके संतान किशोर-जवान हो चले थें। एक लालिन ही था, जिसके बच्चे छोटे-छोटे थें। और गाँव में आबादी थी भी कितनी, कोई बहुत घनी आबादी तो थी नहीं। ले-देकर कुल आठ-नौ घर ही थें। इन घरों के सारे बच्चे बड़े हो गयें। अत: माताओं के स्तन से दूध उतर आने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। 

लालिन के नयन वर्षा की झड़ी को तरसती भूमि के समान लाल-लाल, फटा-फटा और शुष्क हो चला था। आँसू का एक भी कतरा छलका नहीं! हाँ वह रोया नहीं था। जी भर कर रोने के लिए, उसके पास अवकाश ही कहाँ था। यारो चली गई और पीछे छोड़ गई चार बच्चें! अकेला आदमी बिन माँ के बच्चों का कैसे लालन-पालन होगा। तालो और यागाम भी यहीं कह रहे थें, मन को कड़ा करो। रोता-कलपता रहा तो बच्चों को कौन संभालेगा। 

  दूसरी तरफ़ गाँव के बुजुर्गों की सलाह थीं, मृत यारो को शीघ्र दफ़न किया जाय। वयोवृद्ध बोदा ने लालिन का कांधा को सांत्वना में थपथपाते हुए बोले-

“मौत अप्राकृतिक है, लाश को घर पर देर तक रखना अमंगलकारी होगा।”

“मगर…”

लालिन ने विरोध करना चाहा।

“कोई अगर-मगर नहीं, यारो दुष्ट ‘उई’ के गिरफ़्त में थी। वहीं साथ ले गई। समय रहते पूजा-अनुष्ठान की व्यवस्था हो जाती तो काश बच गई होती।”

“पर दुर्भिक्ष के समय कहाँ और कैसे अनुष्ठान का आयोजन हो पाता।”

लालिन ने अपनी विवशता जाहिर किया।

“हम समझ सकते हैं, तुम्हारा ही नहीं..हम सबके हाथ तंग हैं।”

“शक तो मुझे पहले से था, जिस तरह वह दुबलाती जा रही थी..इसके पीछे कोई दुष्ट अदृश्य ताकत ही थी।”

लालिन ने अपनी शंका से अवगत कराया।

“खैर! जो होना था, वह हो चुका। जो रह गयें उसके बारे सोचो। लाश जब तक घर पर पड़ी रहेगी, बुरी शक्तियों का मनोबल और बढ़ेगा।”

“क्या…?”

बोदा ने अपना आशय स्पष्ट किया-

“गाँव की सुख-समृद्धि के लिए कायदे से हर साल पूजा-अनुष्ठान का आयोजन होना है, लेकिन इस तंगी के दौर में यह संभव नहीं। इसलिए बुरी शक्तियों ने यारो को अपना चारा बनाया। यारो का शव उनकी जीत की निशानी है। इस निशान को जल्द नहीं मिटाया तो, कल को गाँव की महिलाओं पर किसी दूसरे रूप में अपना कहर बरपायेगी।”

“मेरी पत्नी थी यारो, मेरी इच्छा है…मैं उसे पूरे सम्मान के साथ अंतिम विदाई दूँ।”

“नहीं..नहीं..वक्त बिल्कुल नहीं है, असाधारण मौत मरने वालों को विस्तार से विदाई नहीं दी जाती।” 

“ऐसे आनन-फानन में कैसे?”

“किसी बड़े सामाजिक-हित के लिए, तुम्हें अपनी निजी इच्छा का गला घोंटना होगा।”

  तालो काफी देर से दोनों की बातें कान लगाकर सुन रहा था। वह आगे बढ़ा और लालिन का बाह पकड़कर किनारे ले गया। उसने भी लालिन को समझाया-

“यह समय जज़्बाती होने का नहीं है, जी को मजबूत करो और सबके हित में फैसला लो।”

अंतत: बाँस के बगीचे के समीप ‘न्युब्लु’ खोदकर मिट्टी के कई परतों के नीचे यारो को लिटा दिया गया। ‘तुन्युम-ताह’ का बाड़ तैयार कर ‘न्युब्लु’ के चारों ओर बिछा दिया।        

‘न्युब्लु’ की मिट्टी खुश्क हो रही थी। पर लालिन के मन का घाव अब भी हरा था, भरा नहीं। जिस दर्द, पीड़ा, टीस को मन में जज़्ब कर रखा था लालिन ने। वह बूँद-बूँद रिसता हुआ, आहिस्ता-आहिस्ता शरीर के नसों में जहर बनकर बह रहा था। जिस कारण समूचा शरीर दुख रहा था। काया स्थिर, गतिहीन मानो पक्षाघात के मरीज़ हो।

  वह अपने को धिक्कार रहा था। क्यों उसने यारो को अकेला छोड़ा, उसे सदैव यारो के पास रहना चाहिए था। अपनी आँखों से वह यारो के गिरते स्वास्थ्य को देख रहा था, फिर क्यों वह आखेट पर निकला! कुछ अनहोनी घटने का पूर्वाभास तो हो ही रहा था, मन और शरीर ने प्रचुर संकेत दे दिया था। वह अनाम डर यहीं था! वह बिन पहचाने भय यहीं तो था।

उस रोज शिकार पर न गया होता तो यारो के आखिरी समय में, जब बीमार पत्नी को उसकी सबसे ज्यादा आवश्यकता थी…कम से कम वह साथ तो होता उसके बगल में। यारो को जाना भी होता तो उसके बाहुपाश का आश्रय तो मिलता, उसके महफ़ूज भुजाओं में माथा टेककर जाती। यातना में तड़पती-सिहरती एकांत, अकेली, तन्हा न जाती। पता नहीं मदद के लिए किस-किसको आवाज़ लगाई होंगी। निरी अकेली दर्दनाक मौत मर गई। 

भोजन-संग्रह की थोड़ी सी लालच ने उसे मरणासन्न पत्नी से अलग कर, दूर जंगल भेज दिया। लालच और मजबूरी इंसान से क्या नहीं कराता। पछतावे की मद्धम आँच में लालिन सुलग रहा था। उसने एक दीर्घ साँस छोड़ा जैसे भीतर की तपती चिंगारी को बुझा रहा हो।

  ‘न्युब्लु’ के निकट बैठे-बैठे शरीर अकड़ने लगा। लालिन को ध्यान आया कि वह बहुत देर से वहीं बैठा था। नन्हीं जान की रोने का स्वर कानों से टकराया। लालिन उठकर घर की ओर चल पड़ा। 

मड़ुवा का चूरन खिला-पिलाकर नन्हीं जान का पेट तो भरा जा रहा था, किंतु कब तक? किसी भी सूरत में चूहों की टोही नज़र मड़ुवा के अनाज पर पड़ सकती हैं। मक्कों के साथ मड़ुवा के अनाज की भी पुख्ता रखवाली करनी होगी। लालिन के कष्ट और विपत्तियों के तरह, चुनौतियों और जिम्मेदारियों के फ़ेहरिश्त भी बढ़ते जा रहे थें। किंतु तसल्ली थी की लालिन अपने दु:ख में अकेला नहीं था, पड़ोसियों से यथासंभव सहायता मिल रही थी।

   तालो की पत्नी यागाम ने फिर मड़ुवा, शहद और बकरी का जरा सा दूध यापिन के हाथों भिजवायी थी। जहाँ अकाल में सबके अनाज खत्म हो रहा था, वहीं मवेशियाँ भी कटती जा रही थीं। बची थोड़ी गिनी-चुनी मवेशियाँ भी लोगों के भूखे उदरों में समाने के लिए अपनी बारी की प्रतीक्षा में दिन गिन रही थीं। खाने की किल्लत बढ़ती जा रही, क्या आने वाला कल और भयावह होगा। जब खाने लायक सारी वस्तुएँ खत्म हो जायेंगी, तब क्या होगा! क्या वे सभी चीजें भी खानी पड़ेगी, जिससे उदर पचा न सकेगी। पेट का क्या है…सब हजम कर लेगा! मुख्य बात है, जिंदा बचे रहना! सोचता हुआ लालिन ने पेट पर हाथ फेरा।

लालिन उस दिन को याद कर रहा था जब मड़ुवा और शहद समाप्त हो गया था, ठीक भूख के समय घोल बनाकर नन्हीं जान को पिला न पाया था। नन्हीं जान ने रो-रोकर पूरा घर सिर पर उठा लिया था। भला हो यागाम का, जो बिन कहे खुद समझ गई और दोनों चीजें भिजवा दिया। बहुत सुलझी हुई और नेकदिल औरत है! सर्वशक्तिमान ‘दोन्यी-पोलो’ यागाम और तालो को खूब बरकत दें। लालिन ने मन के अंतरतम से दोनों दंपत्ति के लिए दुआएँ माँगा। 

  नन्हीं जान को लालिन के शरीर की आदत पड़ गई थी। उसे छोड़कर खाने का सामान, तलाशने-जुगाड़ करने लालिन कहीं आ-जा नहीं पा रहा था। कभी पीठ तो कभी आगे छाती पर सदा लालिन उसे बाँधे रखता। कभी-कभार याना अपनी भोली सी गोदी में नन्हीं जान को उठाती, तब वह बिना रुके शोर करती हुई…इस तरह रोती, जैसे किसी ने चिकोटी काट दिया हो। डर से बेहाल याना उसे पिता लालिन को फौरन सौंप देती। 

    देह की भी अपनी सत्ता होती है, अपनी यादें और अपनी पहचान होती है। कठोर, मुलायम, रुखा, तरल, सपाट, उभार..जाने त्वचा की कितनी सतह हुआ करती है। हरेक देह की अपनी खास महक है…पसीने से तरबतर, धुँआ से गमकता, पुरवाई झोंको से सरसराता, पहाड़ी चश्मों से धुला-धुला! प्रत्येक देह का स्वाद भी अलग…ईख सी मीठी, मौसंबी सा खट्टा और नमक सा नमकिन! देह के स्पर्श और छूअन के भी अनेक अर्थ हुआ करते…ला‌ड़-दुलार, पुचकार, दुत्कार! 

शिशुओं को इसकी सूक्ष्म समझ होती है! जाना-पहचाना तन, उसका आत्मीय संसार होता है। ज्यों ही किसी अज़नबी देह का प्रवेश होता है, शिशुओं के इस स्नेहिल संसार में खलबली हो जाती है। धीरे-धीरे सही..लालिन को यह तथ्य समझ में आ रहा था।

याना मात्र छह बरस की थी, मगर दोनों छोटे भाईयों का इस प्रकार देखभाल कर रही थी जैसी कोई बूढ़ी नानी करती हो! सवेरे उठकर भाईयों के हाथ-पाँव धुलाकर साफ करती, मक्कों को पानी में उबालती। मक्के से दाने को खुरचकर कटोरी में उतारती और अच्छी तरह दाँतों से चबा-चबाकर दोनों भाईयों को खिलाती। जब से यारो का इंतकाल हुआ, वहीं माँ बनकर नित्य दोनों की सेवा में लगी हुई थी। सच! लड़कियाँ कितनी जल्द समझदार हो जाती है। अच्छा हुआ जो पहले संतान के रूप में यारो ने बेटी जन्मी। यह सोचता हुआ लालिन गर्व से फूलकर कुप्पा हुआ जा रहा था।

एक दिन वह लालिन को घोर निराशा में देखकर बोली-

“ ‘आबु’ आप यूँ दु:खी मत हो।”

“हम्म!”

“भाईयों का मैं ध्यान रख रही हूँ न।

“ वह मैं देख रहा हूँ।””

“ ‘आबु’ हम नन्हीं जान का क्या नाम रखेंगे?”

“ जिरमा..”

“ यहीं नाम क्यों?”

“ यह तुम्हारी परदादी का नाम था, उन्हें बहुत लम्बी उमर मिली थी। उन्होंने अपने नाम के अनुसार ही जिया। जिरमा मतलब कली, ताउम्र कली की तरह तरोताज़ा, हसीन और पावन बनी रही। कहते हैं कि बुढ़ापे में भी न उनके चेहरे पर झुर्रियाँ आईं और न बाल पककर सफेद हुआ।”

“इसका मतलब बहुत सुंदर थीं!”

“हाँ बहुत ज्यादा सुंदर!”

“हमारी नन्हीं जान भी कोई कम नहीं, कितनी सुंदर है! एक बात बोलूँ ‘आबु’?”

“बिल्कुल..।”

“आप हमारी फ़िक्र छोड़कर, अपना पूरा समय नन्हीं जान को दीजिए।”

इतना सुनना था कि वह फूट-फूटकर रो पड़ा। याना की धाढ़स भरी बातों से निहाल हो गया। किश्त दर किश्त जो ग़म कर्ज़े की भाँति मन में संचित होता जा रहा था, उससे उऋण आज हुआ। बहुत दिनों से जिस दर्द की दरिया को अपने अंदर सोख रखा था, आज उसमें सैलाब आ गया। और उफनती दरिया ने बाहर आने का राह खोज लिया। याना को सीने से लगाकर, लालिन पहली बार जी भरकर रोया। 

   जिस दिन से नन्हीं जान पैदा हुई, लालिन जैसे घर में बंदी होकर रह गया। उसे अपनी करीब नहीं पाती तो नन्हीं जान, इतना अधिक रोती कि रोते-रोते चेहरा कोयला के मानिंद स्याह पड़ जाता। पल भर के लिए भी उसे छोड़कर, पेशाब-पाखाना जाना लालिन के लिए मुश्किल हो गया। 

अपनी छाती पर ‘नेपिंग’ से नन्हीं जान को बाँधकर, डोलता हुआ बेसुर-ताल में लोरियाँ गाता। बड़े जतन के बाद वह सो जाती और उसे बिछौना पर लिटाकर लालिन जैसे ही खाने को बैठता, नन्हीं जान कुनमुनाती हुई उसे खोजना शुरू कर देती। अगर जल्द गोद में उठाने के लिए देरी हो जाती तो रो-रोकर आफत मचा देती। अब तो सोते-जागते, खाते-बोलते चौबीसों घंटे लालिन उसे बदन से चिपटाये रखता।

   गाँव के सभी घरों का एक ही हाल, खाने की किल्लत दूज की चंद्रमा के समान बढ़ती रही थी। जो कुछ भंडार कर रखा था, सारा खा-पीकर हजम कर डाला। तालो ने लालिन को बताया, गाँव से एक दल दरिआ पर्वतों से होता हुआ तीन दिन की पैदल यात्रा कर हारमती जा रहा है। वहाँ से अनाज की बोरियाँ उठाकर लाने की योजना है। सुनते ही लालिन ने कहा-

“मैं भी साथ चलूँगा।”

“तब तो दल में शामिल हो जाओ, अपने चारों बच्चों को यागाम के पास छोड़ देना।”

लालिन ने संशोधित करते हुए बोला-

“चार नहीं, तीन…! सबसे छोटी जान को अपने साथ ले चलूँगा।”

“होश में तो हो? तुम पागल हो क्या? इतनी कष्टदायक यात्रा में दूधमुँही बच्ची को लेकर चलोगे। खुद भी मरोगे और अबोध बच्ची को भी मरवाओगी।”

“तुम समझ नहीं रहे हो, नन्हीं जान को मेरे शरीर की लत पड़ चुकी है। यहाँ छोड़ गया तो रो-रोकर मर जायेगी।”

“और वहाँ निर्जन वनप्रांतर में? यह कोई एक दिन की यात्रा नहीं है। सोच लो!“

“सोचा, काफी सोचा।”

“तुम्हें नहीं लगता, यह बच्ची के साथ ज्यादती होगी?” 

“नहीं..हर्गिज नहीं! मेरे साथ जायेगी तो कुछ न होगा। मड़ुवा, शहद और पानी सब लेता चलूँगा। भूख लगने पर घोल बनाकर उँगली से चुसवाता जाऊँगा। यकीन करो कोई परेशानी नहीं होगी।”

इस दलील से भी तालो राजी न हुआ-

“इसकी कोई जरूरत नहीं। हम जो बोरी उठा लायेंगे, उसमें से कुछ अनाज तुम्हारे घर भी पहुँचा देंगे।”

“रहने दो, मुझे नहीं चाहिए। वह अनाज तुम अपने विकलाँग भाई के परिवार में बाँट देना। देखो बात यह नहीं है कि कौन मेरे लिए अनाज लायेगा, बल्कि मुझे अपनी सहायता आप करने दो। जब तक बच्चें समझदार उमर के नहीं हो जातें, मैं उनकी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकता। तब तलक बच्चों का बहाना बनाकर, मैं अपने आपको पंगु नहीं बना सकता।”

“करो…करो, अपनी मनमानी करो।”

तालो की नाराज़गी बरकरार थी।

“देख पिछली बार भी मन मारकर, यारो को अकेला छोड़कर गया था तो क्या हुआ! समझो तुम। मेरा दिल नहीं मान रहा, नन्हीं जान को पीछे छोड़ जाऊँ।”

इस बात से तालो का हृदय पिघल गया और उसने सहमति में ‘हम्म!’ कहा।

   तीनों बच्चों को यागाम को सुपुर्द कर बेकली सा लालिन यात्री दल के साथ बढ़ चला। सो रही नन्हीं जान को ‘नेपिंग’ से पीठ पर बाँध रखा था। कंधे के झोले में खाने-पीने का सामान ठूँसा पड़ा था। 

दरिआ पर्वत श्रृखंला के ढलान पर हारमती कस्बा बसा था। इन्हीं पर्वत माला पर स्थित छोटे-छोटे न्यीशी गाँवों के लिए हारमती ही मुख्य व्यापारिक केंद्र था। अक्सर न्यीशी लोग पर्वतों से उतरकर यहाँ सामानों की अदला-बदली किया करते थें। पहाड़ की आड़ी-तिरछी पगडंडियों से होकर यात्री दल आगे बढ़ा जा रहा था। कुछ फुटने-छटकने का शोर सुनाई पड़ा। लालिन रुककर देखने लगा। दूर कहीं बाँस के पेड़ों में आग दहक रही थी। चूँकि फूल खिलने के कारण बाँसों की मौत हो चुकी थी, अत: सूखे बाँस हवा के थपेड़ों से आपस में टकराते हुए रगड़ खाकर आग पकड़ रहा था।

लालिन सोचने लगा, पता नहीं ये बाँस के फूल और क्या-क्या तबाही के मंजर दिखायेगा।

लालिन को ने गौर किया कि उसके सारे साथी बहुत आगे निकल गयें। आस पास कोई नहीं, सिवाय लालिन और नन्हीं जान के। लालिन घबड़ाकर तेजी से दौड़ने लगा। राह पर एक मझौला आकार का पत्थर धँसा था, घबड़ाहट में देखा नहीं, पाँव जाकर भिड़ गया। और लालिन मुँह के बल गिर पड़ा। गिरते ही उसके कंधा का झोला उछलकर किनारे ही अंधेरी खाई के नीचे चला गया। पीठ पर आराम से सोई नन्हीं जान भी जग गई और रोने लगी। 

  लालिन ने असहाय भाव से अपना माथा पीटा, ‘पुदुम’ को नोंचने लगा। अब क्या होगा?? नन्हीं जान के खाने-पीने का सारा सामान उसी झोला में पड़ा था। झुंझलाहट में हाथ मलने लगा। बच्ची को लेकर खाई में उतरना कम घातक नहीं होगा। न मालूम खाई कितनी गहरी हो।

इतने में नन्हीं जान गला फाड़-फाड़कर रोने लगी। उसकी रोने की आवाज़ प्रशांत, निस्तब्ध जंगल में बिखेर गई। प्रतियुत्तर में जानवरों की विविध ध्वनियाँ गूँज उठीं। नन्हीं जान की रूलाई मानवेतर संगीत से जा मिलने लगी। पूरा वन भिन्न-भिन्न प्राणियों के चीत्कार और पुकार से दहल उठा। लालिन और घबड़ा गया।

       वह नन्हीं जान को चुप कराने के लिए कभी थपकियाँ देता, झुलाता तो कभी लोरी गाता। फिर भी चुप नहीं हुई। रोते मुँह में लालिन ने अपना अंगुठा डाला, तनिक देर चुसती रही। लेकिन खाली अंगूठा से पेट कहाँ भरता! जब से चला तब से कुछ खाई नहीं, भूख तो जोरों से लगी है बच्ची को। निरुपाय लालिन का जी कर रहा था, वह भी नन्हीं जान के संग रो पड़े।

अब तो केवल तेज-तेज चलकर किसी तरह से यात्री दल के पास पहुँचना होगा। वहाँ तालो के पास पर्याप्त मात्रा में चूरन, शहद और पानी है। जब चला था तो तालो ने यह कहकर आधा से अधिक सामान अपने पास रख लिया था-

“तुम बच्ची की बोझ उठा रहे हो। ज्यादातर सामान मेरे हवाले कर दो।”

   लालिन ने नन्हीं जान को ‘नेपिंग’ से दोबारा कसकर सीने से बाँधा और अपना दाहिना चुचक उसका दूध को तरसता खुला मुँह में डाला। वह रोती जा रही थी और लालिन चीता की गति से दौड़ता जा रहा था। दौड़ लगाते-लगाते अहसास हुआ कि नन्हीं जान का रोना बंद हो गया। क्या वह सो गई? सोती तो इतना जोर से चुचक को चुस नहीं रही होती। भागा-दौड़ी के वज़ह से लालिन का पहना कपड़ा अस्त-वस्त होकर नन्हीं जान के मुख को ढक गया था।

लालिन रुका और मुख से कपड़ा को हटाया। 

नन्हीं जान की संतुष्ट नज़रें उसकी नज़रों से मिलीं। पूरे मुख पर परम तृप्ति का भाव पसरा था। लालिन अपना कौतुक दबा न सका। उसने चुचक को नन्हीं जान के अधरों से खींचकर निकाला। यह क्या! अद्भुत..! आश्चर्य..! चुचक से सफेद-सफेद दूध की अविरल धारा बह रही थी। बिल्कुल गाढ़ा, एकदम फव्वारा बनकर फूट रही थी। क्या है यह! कोई चमत्कार, करिश्मा, जादू! प्रकृति की लीला…कुदरत का अजूबा! 

   लालिन अकबकाकर रह गया! अचरज में उसकी आँखें फटी रह गईं! इस विस्मयकारी घटना से वह कांप उठा। चुचक का मुँह से जुदा क्या हुआ, नन्हीं जान चींखती हुई रो पड़ी। लालिन ने चुचक को वापस उसके मुँह में डाला और दोनों हाथों से हौले-हौले थपकियाँ देता हुआ थके चरणों को घिसटता यात्री दल की तरफ़ बढ़ गया। 

जमुना बीनी

संपर्क: हिन्दी विभाग, राजीव गांधी विश्वविद्यालय, रोनो हिल्स, दोईमुख, अरुणाचल प्रदेश, पिन- 791112

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साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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