कथा संवेद

कथा संवेद – 4 

 

इस कहानी को आप कथाकार की आवाज में नीचे दिये गये वीडियो से सुन भी सकते हैं:


स्त्री मन के बारीक अंतर्द्वन्द्वों को अपनी कहानियों में किरदार की तरह जीवन्त करदेनेवाली दिव्या विजय का जन्म  20 नवंबर 1984 को अलवर, राजस्थान में हुआ। ‘कथादेश’ के जनवरी 2017 अंक मे प्रकाशित अपनी पहली कहानी ‘परवर्ट’ से ही पाठकों का ध्यान खींचनेवाली दिव्या विजय के दो कहानी-संग्रह ‘अलगोज़ेकी धुन पर’ और ‘सगबग मन’ प्रकाशित हो चुके हैं।

पिछले कुछ वर्षों में समाज के हाशिये पर छूट गये या कि छोड़ दिये गये व्यति-समूहों ने मुख्यधारा के सामने न सिर्फ अपने अस्तित्व का दावा पेश किया है बल्कि बराबरी का पहचान हासिल करने के लिए संघर्ष के सौंदर्य के नये प्रतिमान भी रचे हैं। अध्ययन के भिन्न अनुशासनों के समानान्तर रचनात्मक लेखन, खासकर कथा साहित्य की दुनिया में इन अस्मिता विमर्शों ने कहन और कथ्य दोनों के पारंपरिक व्याकरणों को सिरे से बदल इसे एक आन्दोलन का स्वरूप दे डाला है। दिव्या विजय की कहानी ‘कृष्ण-पंखुरी’ जेंडर, जाति और वर्ग के अन्तर्सम्बन्धों की बारीक तुरपई का रेशा-रेशा खोलने के कारण लैंगिक और जातीय विमर्शों  को एक नए धरातल पर ले जाती है। परिवार और समाजकी दोहरी उपेक्षाओं के बीच कहानी की नायिका सुरमा जिस तरह अपने होने और जीने के कारणों को नए सिरे से आविष्कृत करती है,उसमेंजीवन की स्वाभाविक सहजता और सृजन के सौंदर्य का नियोजन दोनों ही उचित अनुपात में शामिल हैं। इस कहानी में सुरमा के अंतरंग और बहिरंग का आमना-सामना नज़ाकत और खुरदुरेपन की जिस साझा ज़मीन पर होता है वह अपने भीतर बदलते समाज की कई-कई अंतर्ध्वनियाँ समेटे हुये है।

rakesh bihari

राकेश बिहारी

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कृष्ण-पंखुरी

दिव्या विजय  

 

सुरमा ने अपना पर्स छोड़कर जूट का झोला उठाया, बढ़ आए बालों को समेटा, जूतों की लेस बाँधी और निकल पड़ी। इधर उसने आईना देखना भी छोड़ दिया था।

“अम्मा! मैं जा रही हूँ।”  बाहर जाते हुए बुझे स्वर में वह बोली।

“अरे, खाने का डब्बा तो लेती जा।” अम्मा रसोई से चिल्लायी और चिड़िया दौड़ते हुए उसका डब्बा ले आयी। चिड़िया ने उसका उतरा हुआ चेहरा देख कहा,

“जीजी, जो हुआ सो हुआ। भूल जा।”

सुरमा के चेहरे पर कोई भाव नहीं आया। चिड़िया से डब्बा लेकर लापरवाही से थैले में डाल लिया। यह भी नहीं पूछा आज खाने में क्या है। गर्दन नीची किए वह चुपचाप बाहर निकल गयी। चिड़िया उसे जाते देखती रही। सुरमा का दुःख देख वह उदास हो गयी थी।

सुरमा और उसकी अम्मा शहर के सबसे बड़े मॉल के बाथरूम धोया करते थे। अम्मा सुबह की शिफ़्ट में और वह शाम की शिफ़्ट में। सुरमा के ज़िम्मे था तीसरे माले पर बना बाथरूम। ये बड़ा सारा, उनके पूरे घर से भी बड़ा। शांत और ठंडा। कभी-कभी ऐसा होता जब वहाँ कोई न होता और वह एक छोटी-सी नींद निकाल लेती। न डाँस मच्छरों का आतंक, न बस्ती जैसी बिसायंध, न पड़ोस के बुड्ढे की रात भर बजने वाली बलगमी खाँसी। चकाचक, फिसलनी, सफ़ेद टाइल्ज़ जो सुरमा को ताजमहल के संगमरमर से कम सुंदर और चिकनी नहीं लगतीं। गए साल उसने ताजमहल देखा था, जब कोयल की शादी में आगरे जाना हुआ था। वहाँ अंदर जाने से पहले चप्पल-जूतों के लिए कवर मिले थे। यहाँ कवर तो नहीं थे पर वह आते ही अपने जूतों को धोती थी कि उनकी कालिमा, फ़र्श की सफ़ेदी पर निशान न छोड़ दे।

चित्र: प्रवेश सोनी

जिस रोज़ पप्पा ने नौकरी पक्की की थी वह ख़ुशी से नाच उठी थी। उसे पहली बार अपने पप्पा अच्छे लगे थे। उसने उनके सारे गुनाहों को माफ़ कर दिया था। शराब पीने, उसके लड़की होने को कोसने से लेकर मारने-पीटने तक, सब पर भारी पड़ गया था उनका यह एक कारनामा। उन्होंने वह कर दिखाया था जो इस बस्ती का कोई आदमी न कर सका। जाने कहाँ से जान-पहचान निकाल कर अम्मा और उसे, दोनों को मॉल में फ़िट करवा दिया। पप्पा अपना है तिकड़मबाज। उसकी सहेलियाँ तो घर-घर जाकर बाथरूम साफ़ करती थीं। सड़क चलते से लेकर जिनके यहाँ काम करतीं, सब उन्हें हिक़ारत से देखते। ऐसे बच-बच कर चलते जैसे गू में लिसड़ी हों। तिस पर से फटकार भी सुनतीं,

“सरफ़ जल्दी खतम कर दियो। हार्पिक की बोतल पी जावे है क्या?”

कभी कोई बचा-खुचा खाने को दे देता तो सुनाता,

“पतीला भर खाने के बाद भी काम में लद्धड़।”

जहाँ भी काम करने जातीं चप्पल, मोबाइल, पर्स सब बाहर रखना पड़ता। उनकी किसी चीज़ के लिए घर में जगह न थी। हाथ-पैर तो उतरवाए न जा सकते थे तो उन्हीं के साथ अंदर जातीं। उनके घर में घुसते ही शांति छा जाती और सब रहस्यमयी नज़रों से एक-दूसरे को देखते। जब तक वे काम करतीं, चोर निगाहें उनका पीछा करती रहतीं। ग़लती से पानी माँग लो तो जैसे सबको साँप सूँघ जाता। किनारे घिसे स्टील के गिलास में पानी मिलता, सो भी बिना फ़्रिज का। काम घिस-घिस कर लिया जाता और तनख़्वाह के नाम पर पकड़ा देते चिल्लर और तीज-त्योहार पे अपनी उतरन। बेचारी बड़ी दुखी रहतीं। जब भी मिलतीं, ग़ुस्से में भरकर शिकायत करतीं,

“शरीर का तेल निकल गया है। भरी जवानी में डामर की तरह गंधाता है।” चमेली की सुगंध वाले दिनों में वे बासी रातों-सी हो चली थीं।

“हाथ इतने रूख रहते हैं कि अलग से स्क्रबर की ज़रूरत ही नहीं पड़ती।” वे अपने हाथ दिखातीं जिनमें ऐसिड के इस्तेमाल से छाले पड़े होते।

लेकिन यहाँ ऐसा नहीं था। यहाँ किसी चीज़ की कमी नहीं थी। महीना शुरू होते ही टॉयलेट क्लीनर, टिशू रोल, फ़िनाइल की ख़ुशबूदार गोलियाँ, हाथ धोने वाला साबुन सब गिन कर दे दिए जाते।  यहाँ उसे दस्ताने भी मिलते। सारा काम प्रोफ़ेशनल। यहाँ कोई उसे बाईजी नहीं कहता था। सबको उसका नाम बहुत अच्छा लगता था। कोने में बनी अलमारी में सामान रख, चाबी सुरमा कमर में खोंस लेती। एक छल्ला ख़रीदा था पहली पगार से। वही कमर में झूलता रहता ज्यों दीवाली पर रोशनी करने वाली झालरें झूलती हैं। वह किसी कुशल गृहिणी की तरह सब सहेज कर रखती। ज़रूरत पड़ने पर ही निकालती। हर महीने कुछ न कुछ बचा ले जाती। गए बरस उसे बेस्ट एम्प्लॉई का ईनाम मिला था। क्या पार्टी हुई थी उस रोज़। सबके खाने में से ही उसने भी खाना खाया था। किसी ने उसे अलग नहीं बिठाया था, न उसे दूर से फेंक कर खाना दिया गया। शापर्ज़ स्टॉप वाले अभय ने ट्रॉफ़ी के साथ फ़ोटो निकाल दी थी। अभी तक वही उसके वाट्स ऐप की डीपी है। उस ट्रॉफ़ी ने उसका क़द बस्ती में ऊँचा कर दिया था। सब उसका उदाहरण देते हैं। अपनी वह ट्रॉफ़ी उसे प्यारी भी बहुत थी।

अब वह सहेलियों से मिलती तो अलग ही मान से। वह उनकी अघोषित रानी थी। उस से मिलने आते हुए सहेलियाँ उसके लिए कोई छोटा-मोटा तोहफ़ा लेती आतीं। चूड़ी, झुमका, बिंदी। सभी के मन में था कभी सुरमा उन्हें अपने साथ मॉल घुमाने ले जाए या नौकरी लगवा दे। वे खोद-खोद कर उस से मॉल के बारे में पूछतीं और सुरमा अपने काम का ऐसा ख़ाका खींचती कि ईर्ष्या उनकी आँखों में नंगी हो उठती। काम तो वे सब एक ही करती थीं लेकिन सुरमा उनकी नज़रों में मालकिन थी जिसके हिस्से था मॉल की तीसरी मंज़िल का बाथरूम जिसका मुक़ाबला उनके घर, उन घरों से निकलने वाली गंदी-बदबूदार गलियाँ और जहाँ वे काम करतीं उन मकानों की गंदगी के ढेर, कभी नहीं कर सकते थे। सुरमा उस ईर्ष्या का कतरा-कतरा अपने भीतर उतार लेती और ख़ुश होती। लेकिन ख़ुशियाँ निर्द्वंद्व नहीं आतीं। उसकी ख़ुशी के बीचोंबीच दाँतों में अटकी फाँस-सा दुःख बैठा था।

सब कुछ बताते हुए भी सुरमा ने बड़ी होशियारी से यह छिपा लिया था कि उसका ख़ून कैसे खौल उठता था जब कोई लड़की नाज़-ओ-अदा से कहती,

“टिशू ख़त्म हो गया। चेक क्यों नहीं करती? यहाँ बैठी-बैठी मोबाइल करती रहती हो।” उम्र में बराबर उन लड़कियों से डाँट खाते हुए उसके आगे उनके बीच का अंतर स्पष्ट हो जाता जिसे वह चाह कर भी ढक नहीं पाती।

कोई अपने होंठों पर लिप्स्टिक की एक परत और चढ़ाती हुई झींकती,

“ये वाला वाशरूम देखो। हाउ डर्टी इट इज़! इतना क्लासी मॉल पर क्लीनिंग के नाम पर ज़ीरो।” कहते हुए जब वह सचमुच ज़ीरो देकर चली जाती तो उसका दिल डूब जाता। इतनी मेहनत करती है फिर भी कोई न कोई कमी निकाल देता है। काम ही तो है। ऊँच-नीच चलती रहती है। यहाँ आकर झाँय-झाँय करने वालियों के घर जाकर देखे तो इनके सारे फ़ैशन को पलीता लग जाएगा। सब पता है उसे इन करमजलियों की असलियत। काम-धाम धेले भर का नहीं आता, बस घुमाई करवा लो। इन्हें क्या पता, कस निकल जाता है सफ़ाई करने में। आएँगी और माहवारी सने पैड्ज़ बिना लपेटे फेंक जाएँगी। बनती हैं पढ़ी-लिखीं और डिस्पोज़ करने वाली थैली नहीं दिखाई पड़ती। यह ग़ुस्सा दरअसल उस फ़र्क़ पर था जो उसे उनकी तरह होने से रोके रहता।

चित्र: प्रवेश सोनी

वहाँ आने वाली लड़कियों को सुरमा हसरत से देखती। सुंदर-सुंदर पतली-दुबली लड़कियाँ। उसे अपना भरा हुआ शरीर उनके आगे ज़हर लगता। पतली वाली पेन्सल जींस इन मोटी जाँघों पर फबती ही नहीं। अम्मा कहती है, उसके शरीर में हवा भरी है वरना ऐसा भी ज़्यादा नहीं खाती। दिन भर खटने के बाद, भूख कहाँ से हज़म होगी। कुछ तो खाना ही पड़ेगा। वह ख़ुद को समझाती। उसके सपनों को हवा देती थीं कसे कपड़ों में, ख़ुशबुओं में लिपटी, बालों को लहराती-इठलाती लड़कियाँ। वह उन्हें ध्यान से देखती, उनकी बातें सुनतीं, उनकी तरह होने की कोशिश करती। कोई लड़की नरम दीखती तो कभी-कभी कुछ बातें पूछ भी लेती। जैसे जूतियाँ कौन से बाज़ार से लायी? या नेल पॉलिश की इस शेड को क्या कहते हैं? डिस्को कॉलर पहन कर डिस्को जाते हैं? जवाब में कभी हँसी मिलती, कभी आँखों की तरेर और कभी मुँह बिचकाती उपेक्षा। कभी-कभी सही जवाब भी मिल जाता।

वह सीख गयी थी अपने पर्स में लड़कियों को क्या-क्या रखना चाहिए। छुट्टी वाले दिन अपना पर्स ठीक वैसे सजा कर घूमने निकलती। टटके फ़ैशन में होंठों को लाल नहीं चॉकलेट रंग से रंगते हैं। लाल रंग तो बस शादी-ब्याह में लगाते हैं। कानों के लिए नए फ़ैशन के लटकन निकले हैं। पायल-वायल क्या, एक पैर में ऐंक्लेट पहनते हैं। बुंदकियाँ चलन से बाहर, चौखाने नया फ़ैशन है। सहेलियाँ उसे कटरीना पुकारने लगी थीं।

बाल भी उसने कंधों तक करवा लिए थे। कमर तक चोटी में कसे बाल अब कंधों पर झूलते थे। पार्लर वाली रेशमा ने कहा तो झिझकते हुए लाल-सुनहरे में लटें रंगवा लीं। वो क्या कहती थी,

“तुम्हारे डस्की रंग पर बहुत खिलेगा यह रंग।”

यहीं मॉल वाले पार्लर में ही तो काम करती है। दोस्त है उसकी, ग़लत क्यों कहेगी। सबके जाने के बाद आधे रेट में मेकओवर कर दिया था उसका। आईने में ख़ुद को देखा तो देखती रह गयी थी। अपने बालों को छूते उसे फुरफुरी आ गयी थी। कैसी ख़ूबसूरत लटें, गोल-गोल छल्ले बना दिए थे जो माथे और गालों पे खेल रहे थे। फ़िलिम की हीरोइन जैसे। उस दिन वाशरूम में ताला लगाने से पहले, वह ख़ुद को हर कोण से देखती रही थी। कल जन्मदिन है। कैसी प्यारी-न्यारी लगेगी। सोच कर लजा गयी।

घर पहुँची तो अम्मा ने कोहराम मचा दिया था। थप्पड़, लात, घूँसे कुछ भी तो नहीं छोड़े थे। अम्मा का क्या है। उन्हें तो लड़कियों का सिंगार-पटार ज़रा नहीं भाता। उसे पहले से मालूम था नौटंकी होने वाली है इसीलिए तो आज ज़रा मोटे कपड़े पहन लिए थे। मार पड़ती जा रही थी और वो मन ही मन सोच रही थी कल क्या-क्या करेगी। कल उसके जन्मदिन पर सारी सहेलियाँ आने वाली थीं। महीनों पहले ही उसने न्योत दिया था।

“हाथ से निकल गयी है छोरी। थोड़े दिनों में नंग नचाएगी। दुलच्छन बाँच लो इसके। सूपनखा जैसे नखून कर रखे हैं।”

उसकी हँसी छूट गयी। अम्मा भी! क्या-क्या सोच लेती हैं। उन्हें तो सीरियल वाली मम्मा की तरह ख़ुश होना चाहिए कि बेटी टिप-टाप लग रही है। लड़के क्या बोलते हैं.. हाँ, कंचा पीस। सामने वाले घर की खिड़की में अपनी छाया देखते हुए उसने सोचा।

“हाय-हाय किसी को मुँह दिखाने लायक़ नहीं रहे। करमफूटी..! सत्यानासी। ऊपर से खीसें और दिखाती है। जाने किसका साया है। चौंतरे वाले काले हनुमान जी के झाड़ा दिलवाना पड़ेगा।”

“अम्मा, अच्छी तो दिख रही जीजी।”  चिड़िया बोली थी।

“हाँ, हाँ। अंधा क्या चाहे दो आँखें। बड़ी चमक-चंदो बन के घूमेगी तभी तो छोटी के लिए राह खुलेगी। फैसन की आग लगी है सबको। अभी से ये हाल हैं तो बाद में खुलेआम खसम करेगी।” कहते हुए अम्मा चिड़िया पर भी पिल पड़ी थी।

वह पूछना चाहती थी बाद में कब लेकिन उस से पहले रज़िया बी आ गयी थीं। उन्हें कुछ रुपयों की ज़रूरत थी। जब से उनके शौहर ने उन्हें छोड़ा है, उनकी हालत कुछ ख़राब रहती है। गाहे-बगाहे अम्मा उनकी मदद कर देती हैं। उन्होंने उसे देखा तो चौंक पड़ीं,

“आय हाय सुरमा! तू तो बड़ी इस्मार्ट दिख रही है बन-ठन के।

फिर अम्मा से बोलीं,

“आपा, नये चल्ले का पहन-ओढ़ कर रहें तो हमारी छोरियाँ किसी से कम नहीं दिखतीं। अब बताओ वो नुक्कड़ वाली सरिता बहनजी की लड़की है जो फैसन की पढ़ाई कर रही और एक हमारी सुरमा। कोई फरक ही न बता सके है।”

“अरे रहन दे रज़िया। किसी की बराबरी न करनी हमें।” प्रकट में तो उन्होंने यही कहा लेकिन उनके उबलते ग़ुस्से पर ठंडे छींटें ज़रूर पड़ गए थे। और सुरमा, वो तो जैसे हवा में उड़ रही थी। सबने तारीफ़ कर दी। अब कल तो उसका ही जलवा रहेगा।

रात को अम्मा, पप्पा के कान में फुसफुसा रही थी,

“भला हो वहाँ यूनीफारम है वरना कपड़े उल्टे-सीधे पहन लेती तो नाक कट जाती। अभी तो चलो बात बालों में सिमट गयी।”

सुनकर सुरमा ने हँसते हुए चिड़िया को देखा और एक आँख दबा दी।

पप्पा अच्छे थे। शराब की गिलासी हाथ में थामे, अम्मा की बात को हवा में उड़ा देते। पप्पा की चिरैया थी वह, जो अपने उड़ने की क़ीमत हर महीने उनके हाथ पर रख देती। अम्मा की पिटाई का उसने बुरा नहीं माना था। कभी नहीं मानती।

अगले दिन घर से निकली तो चाल में अलग ही खुनक थी। आज उसने छुट्टी तो ली थी लेकिन जा वहीं रही थी जहाँ रोज़ जाती थी। अपने ताजमहल की मलिका होने जा रही थी आज वह। चौक पर सभी सहेलियाँ मिल गयी थीं। मिलते ही दबी-दबी चीख़ों ने हुल्लड़ का रूप ले लिया। कोई उसके बाल छू कर देख रही तो कोई नरम-मुलायम फेशियल किए हुए चेहरे की त्वचा। कितने में कराया से लेकर मज़ा आया तक के जवाब देते-देते मॉल आ पहुँचा था। सुरमा सबकी अगुआई कर रही थी। दरवाज़े पर खड़े रमेश ने सर झुकाया तो उसकी सहेलियाँ हैरान रह गयीं।

“तेरी तो बड़ी इज़्ज़त है सुरमा।”

सुरमा ने मुस्कुरा कर उन्हें देखा। रमेश दादा का तो काम ही यही है।

वे सीधे वाशरूम पहुँचे। आज वहाँ लक्ष्मी की ड्यूटी लगी है। सुरमा ने उसे बताया कि ये उसकी सहेलियाँ हैं। वे सब अचरज से उसके काम की जगह देख रहे थे। लक्ष्मी को उन्होंने देख कर भी अनदेखा कर दिया।

“क्या जन्नत है!” मिश्री ने कहा।

“क़िस्मत है अपनी-अपनी।” गहरी उसाँस के साथ पावनी की आवाज़ आयी।

वह कपड़े बदलते हुए सबकी बातें सुन रही थी। कुछ महीने पहले कोने वाली दुकान के पुतले ने बिना बाँहों का एक सफ़ेद टॉप और बैंगनी स्कर्ट पहने थे। तभी से जी आया हुआ था। महीनों तक उसी दुकान पर लंचटाइम में जाकर सफ़ाई का एक्स्ट्रा काम करती रही थी। तब जाकर इतने पैसे जमा हो सके। बाप रे! कपड़े भी इतने महँगे होते हैं। बताओ भला, अम्मा की इतनी लम्बी साड़ी और यह बित्ते भर का टॉप। क्या ज़्यादा महँगा? यहीं अलमारी में छिपाकर रख दिए थे। घर ले जाती तो बवंडर आ जाता। बाथरूम से बाहर निकली तो सबके मुँह खुले के खुले रह गए। ऐसे कपड़े तो वे न ख़रीद सकतीं न पहन सकतीं। सुरमा तो ऊपर से नीचे तक बदल गयी। हमेशा दबी-ढकी रहने वाली टाँगें, कपास-सी सफ़ेद, वैक्सिंग के बाद ख़रगोश के फ़र-सी मुलायम। भौंहें ज्यों उन्हीं पर सवार होकर तीर आज लोगों के दिल में धँस जाने वाले थे। गर्दन में लटका पेंडल, दुपट्टे विहीन टॉप को अचरज से तक रहा था। उसने घूम-घूम कर आईने में देखा। सबने घूम-घूम कर सुरमा को  देखा। आईने ने सबका घूमना देखा। वे सब आज सच्चे मन से सुरमा की जीत का जश्न मनाना चाहती थीं। एक अनजान आवाज़ से उनकी ठिठोली को ब्रेक लगा,

“सैम रॉलिन्सन का देसी अवतार।”

दूसरी हँसी आ मिली,

“वाशरूम वालियों का फ़ैशन शो।”

तीसरी ने उस से सीधे ही पूछ लिया,

“कौन से सलून में जाती हो बाईजी? तुम्हारा तो कायापलट हो गया। मुनिया बनी मोना।”

हँसी का ज्वार आया और सुरमा को अपने साथ बहा ले गया। किनारे पर आ गिरी तो आँख, कान सब लाल। उनमें गिरी लफ़्ज़ों की रेत। आँखों को जबरन उठा कर देखा। ये तो हर वीकेंड पिक्चर देखने आने वाली लड़कियाँ थीं। वह पहचान गयी। इन्हीं को देखकर उसने नाभि का छल्ला लिया था। कसे हुए, नाभि दिखाते टॉप से दीखते, टिमटिमाते छल्ले पर उसने हथेली रख ली। उसने आँखें बंद कर लीं। पलक झपकते ही वह चीता बनी, तीखे नाखून उगे और उसने सबको चीर डाला। फिर वह एक बाज़ में बदली जो अपने शिकार को पंजों में दबाए उड़ गया। अब वह एक साँप थी जिसके विषैले दाँत किसी के भीतर धँसने को आतुर थे। उसने आँखें खोली। वह गर्दन में सिर दिए एक कबूतर हो गयी थी।

उसकी सहेलियों की गर्दन शटल कॉर्क की तरह कभी इस पाले में, कभी उस पाले में। एक फुसफुसाहट हुई और पावनी आगे आकर उसे बाहर खींच ले आयी। वह उसे धीरज देती उस से पहले अंधड़ का एक और रेला आया।

“लगता है पहली बार ऐसे कपड़े पहने हैं। हाउ अनकम्फ़्टर्बल शी इस लुकिंग!”

“एंड सी हर बॉडी लैंग्विज। लुक्स लाइक सम मेड इस ट्राइंग टू शो ऑफ़।”

“फ़र्गेट इट! इट्स चीप स्टफ़ शी इज़ वियरिंग। यू नो सेकंड कॉपी।” कहते हुए उसने अपनी ज़ुल्फ़ों को झटका।

सुरमा और उसकी सहेलियाँ हकर-बकर से उन लड़कियों को देख रही थीं। वे कुछ कहतीं तब तक लड़कियाँ ये जा, वो जा। सुरमा सब कुछ नहीं समझ पाई थी पर जितना समझी वह उसे रुलाने के लिए काफ़ी था.. पर वह रोयी नहीं। मिश्री का दुपट्टा ओढ़ा और अपने ताजमहल की बाँहों में जा गिरी। बेमन से कपड़े बदले और अपने लिए धीमी आवाज़ में जन्मदिन का गीत गाया। कपड़े अलमारी में रखे लेकिन ताला नहीं जड़ा। सहेलियों ने हँसाया पर उसके कान बंद हो गए थे। किसी की आँखों में न देखकर, सड़क के कंकड़ गिनती हुई घर पहुँची। तोहफ़े नहीं लिए, अम्मा के हाथ का हलवा नहीं खिलाया, सबको बाहर से विदा कर दिया। सामूहिक आवास के साझे छत पर गयी और दीवार पर सर रख कर बैठी रही। दोपहर उगी। चिड़िया बुलाने आयी तो ख़ाली आँखों से देखती रही। शाम ढली। पप्पा आए तो आँखें बंद किए पड़ी रही। रात चढ़ी। अम्मा आयी तो रो पड़ी,

“मैं कल से काम पर नहीं जाऊँगी।”

दिन भर इन शब्दों को उसने बार-बार बोला था। अकेले में, ख़ुद से। अब जब अम्मा से कहा तो वैसे जैसे निन्यानवेवीं बार ख़ुद के आगे दोहरा रही हो। लेकिन अम्मा ने सुना। सुनकर बिफर पड़ी। ऐसा चिल्लायी कि पूरे मोहल्ले ने सुना।

“हम तो पहले ही कहें। छोरी को इतनी छूट देना सही नहीं। तुम ही सर पर चढ़ाए रहे। अब उठाओ इज्जत का टोकरा और चलो। जाने क्या कांड कर आयी। कहती है नौकरी पर न जाएगी। सोने का हिंडोला है घर में जिस पर महारानी झूला झूलेगी और हम इसको झोटे देंगे।” अम्मा के मुँह से झाग निकलने लगे थे। उस दिन पप्पा ने बहुत दिनों बाद उस पर हाथ छोड़ा।

“नौकरी नहीं करेगी? बोल? तेरा यार खिलाएगा तुझे?”

बाल टूटे, टखने फूटे, आँखें सूजीं। वह अड़ गयी, काम पर नहीं जाना तो नहीं जाना। यह तो उस से भी बुरा है जो उसकी सहेलियों के साथ होता है। सबको क्या बताए कि वह, वह है ही नहीं जो वह सोचती थी। घर वाले तो उसे वही समझते हैं जो वह सचमुच है। वह क्या है यह सोचकर उसे दुःख नहीं हुआ लेकिन वह क्या नहीं है यह सोचकर उसकी ख़ुशी छन्न से टूटी थी। टूटी ख़ुशी, पानी बन कर बहती गयी। छत पर वह अकेली रह गयी।

फिर आठ बजे और जैसे चलती-फिरती हर चीज़ पर ब्रेक लग गया। कोई नामुराद बीमारी आयी थी विदेश से। कई महीनों के लिए रात, रात में ठहर गयी। दुनिया घर की चारदीवारी में सिमट गयी। दरवाज़ों के भीतर की दुनिया, बाहर की दुनिया से कट गयी। समंदर बनी दुनिया में, घर टापू हो गए। हरियाले नहीं, खुरदुरे, बंजर। उसे नौकरी छोड़ने की क़वायद नहीं करनी पड़ी। उसी की नहीं सबकी नौकरी पर पूर्ण विराम लग गया। पप्पा उदास, बीड़ी फूँकते। अम्मा अख़बार की तह के नीचे छिपे पैसे गिनतीं। शुरू में लड़े-झगड़े फिर शांति छाती गयी। दोनों की आँखों में हिक़ारत थी ज्यों इस बीमारी के लिए वही दोषी हो। पूरे देश का काम उसी ने ठप्प किया हो। अम्मा रोते-रोते बुदबुदाती रहती थीं,

“ग़लत सोचे हैं तो ग़लत ही हो जावे। अब पता चलेगा क्या होता है भूखों मरना।”

वह ईश्वर के न्याय पर ख़ुश थी। अब कहीं जाना नहीं पड़ेगा। लेकिन अम्मा-पप्पा की चिंता देखकर दुखी भी। अपनी और चिड़िया की गुल्लक फोड़कर अम्मा की हथेली पर सारी बचत रख दी थी। अम्मा खोखली हँसी हँसी थी।

आज तीन महीने बाद वह फिर यहाँ है। मॉल बहुत दिनों बाद खुला है। महीनों की नींद के बाद अपनी धूल झाड़कर, अंगड़ाई लेते हुए वह उठ खड़ा हुआ है। आज उसकी चमक से धूप भी चौंधिया रही है। चढ़ते जेठ की गर्म सुबह भी भीतर की दमकती ठंड पर कोई असर नहीं डाल रही। लेकिन इसी चमक-दमक के पीछे बैठी है सीलन भरी चुप। अंदर दुकानों के शटर खुलने की आवाज़ें आ रही हैं। तड़ाक-तड़ाक शटर उठ रहे हैं और दुकानदार अपनी दुकानों में प्रवेश करते जा रहे हैं। इतने दिनों बाद खुली दुकानें अजगर की तरह उन्हें निगल रही हैं। सब ठीक दिखाई देने और व्यापार फिर शुरू होने का उछाह होने पर भी माहौल भीत-भीत सा ही है। लोग एक-दूसरे से निश्चित दूरी बनाए हुए है। महामारी के मामलों में कहीं कोई कमी नहीं है किंतु बाज़ार अंततः जीत गया है। मरता हुआ बाज़ार, मृत्यु की देहरी छूकर लौट आया है। मरते हुए लोग, बाज़ार की नब्ज़ की सहारे अपनी धड़कन सुन रहे हैं।

मॉल बड़ा है तो इंतज़ाम भी बड़े हैं। ऐसा लग रहा है किसी उन्मादी युद्ध से पहले का प्रबंध किया जा रहा हो। मुख्य दरवाज़े के पास गहमा-गहमी है। पिछले एक हफ़्ते से वहाँ काम करने वालों को ताक़ीद और ट्रेनिंग दी जा रही थी। आज वे सब पीपीई किट पहनकर मुस्तैद हैं। रमेश दादा मॉल के बाहर तैनात हैं, मशीन के पास। वह निगरानी रखेंगे कि आने वाला हर व्यक्ति इस मशीन के भीतर से ही प्रवेश करे। मशीन को उन्होंने गंगा मैया मान लिया था जो आदमी के पाप धो देती है। सबको दो-दो हाथ दूर रखने की ज़िम्मेदारी भी उन्हीं पर है। फ़र्श पर बड़े-बड़े कलात्मक वृत्त देखकर उन्होंने बड़े साहब लोगों की पसंद की दाद दी।

जगन सबका नाम और नम्बर नोट करेगा। उसे यह काम मिलने पर ख़ुशी हुई थी। सुंदर लड़कियों के नम्बर बिना माँगे जो मिलने वाले हैं। उसने तय किया था कोई बहुत अच्छी लगी तो हिम्मत करके बात कर लेगा। सुशीला देखेगी सब लोग हाथ सैनिटाइज़ कर ही आगे जाएँ। ठंडा, तरल, मख़मली सैनिटायज़र। बोतल में भरा था चमत्कार, जो कुछ दिनों बाद वह अपने बच्चों के लिए ले जाएगी। और सुरमा के हाथ में है तापमान मापने के लिए थर्मामीटर। पहली बार तो वह अचरज से देखती रह गयी थी। किसी को छूना भी नहीं पड़ेगा और बुखार माप लेगा।

“ ससुरा थर्मामीटर है कि बंदूक़, दूर से दाग देंगे और ढिच्क्याऊँ.. गोली हो गयी पार।”

ट्रेनिंग के दूसरे दिन जगन ने गोली दागने का अभिनय किया था। सुरमा को छोड़ सब हँस पड़े थे पर आज कोई नहीं हँस रहा है। सब गम्भीरता से हाथ बाँधे हुए हैं। ठीक दस बजे से ग्राहक भीतर आ सकेंगे। दस बजने का आज जितना इंतज़ार कभी किसी ने नहीं किया।

मैनेजर साहब का स्पष्ट निर्देश था। किसी के पास मास्क न हो तो अंदर नहीं आने देना है। कोई मास्क ख़रीदना चाहे तो इस बटन को दबाए, मास्क निकल आएगा।

दस-दस रुपए के मास्क, वेंडिंग मशीन में जाकर दो सौ के होकर बाहर निकल रहे हैं। सुरमा की अम्मा और बहन ने ही तो मास्क बनाए हैं। हर मास्क पर पाँच रुपया मिलते हैं। तीन महीने से आधी पगार मिल रही थी। दो हफ़्ते पहले छँटनी हुई तो आधी तनख़्वाह भी मारी गयी। गिड़गिड़ाने पर सब ठीक होने पर वापस बुलाने का आश्वासन और मास्क बनाने का काम थमा दिया गया। पड़ोस की रज़िया बी की सिलाई मशीन पर दोनों लगी रहती हैं। सुरमा यहाँ लौटना नहीं चाहती थी पर यहाँ आने से अम्मा की निगाह से कुछ देर के लिए तो छुटकारा मिला। जानती है पप्पा ने मैनेजर की चिरौरी की होगी। सारा स्टाफ़ कम कर दिया गया है। दो वाशरूम खुले रहेंगे बस।

इन तीन महीनों में उसका ग़ुस्सा तले में जम गया था। जीवन का हर भाव भूख में बदल गया था। पहचाने जाने का भय, मास्क के पीछे छिप गया था। घड़ी की छोटी सुई ने दस के अंक को छुआ। सब सावधान की मुद्रा में खड़े थे। जीवन की गति को जैसे किसी ने नया मोड़ दे दिया था। हर क्षण जीने की कामना और मृत्यु की आशंका के बीच भयावह पर अपरिचित उत्सुकता से भरा।

सुरमा का ध्यान लड़कियों पर था। किसी का चेहरा नहीं दिखाई पड़ रहा था पर वह सबको ध्यान से देख रही थी। सब साधारण दीख पड़ रही थीं.. रंग उड़ गये फूलों सरीखी। क्या हुआ इनके कपड़ों का, मेकअप का। वह प्रकृति के इस मज़ाक़ पर अचंभित थी। यहाँ लौटने की उलझन जाती जा रही थी। अब वह मन से सबका तापमान माप रही थी। नए काम में उसे मज़ा आ रहा था कि एक तीखी आवाज़ सुनाई थी,

“जल्दी करो, आय एम गेटिंग लेट। मॉल है कि ड्रामा! ख़त्म ही नहीं हो रहा।”

सुरमा की भवें तन गयीं। थर्मामीटर उठाया। रीडिंग ली और उस लड़की को वापस बाहर जाने का इशारा कर दिया। लड़की की आँखों में ग़ुस्सा था।

सुरमा ने धीरे से शब्दों को सहलाते हुए कहा,

“आपका टेम्प्रेचर लिमिट से ज़्यादा है।”

“इसमें मेरी क्या ग़लती है। धूप में खड़े-खड़े यही होगा न?” लड़की फिर चिल्लायी, सुरमा के शब्दों की मुलायमियत से आहत होती हुई। “सारा कम्प्लेक्शन धूप में ख़राब हो गया।”

“प्लीज़ बाहर जाइए। थोड़ी देर बाद दोबारा आइएगा। टेम्प्रेचर ठीक हुआ तो अंदर जा सकेंगी।”

सुरमा को अपने स्वर की सख़्ती पर आश्चर्य हुआ। ऐसे तो वह आज तक नहीं बोली थी। किसी से भी। लड़की की आँखें सिकुड़ गयीं। उनमें अपमान की रेख कौंधी लेकिन लड़की चुपचाप बाहर चली गयी थी। उसकी पीठ पर जैसे उसके ग़ुरूर का बेताल बैठा था।

सुरमा काँच से बाहर खड़ी लड़की को देख रही थी। चिलचिलाती धूप उस लड़की के चेहरे पर पिघल रही थी। हाथों की ओट से ख़ुद को बचाती हुई वह बेचारगी से भरी थी। एक पैर से दूसरे पैर पर अपना वज़न डालते हुए वह बार-बार अपने माथे को छूकर देख रही थी। मॉल का ऑटोमैटिक दरवाज़ा खुलता तो वह भागकर ठंडी हवा का झोंका लेने दरवाज़े के नज़दीक पहुँच जाती कि ठंडी हवा के स्पर्श से शायद उसका तापमान जल्दी नीचे आ जाए। सामने खड़ी सुरमा को देख एक खिसियानी-सी, चिरौरी करती मुस्कुराहट उसके होंठों पर आ रही थी।

अचरज से सुरमा ने थर्मामीटर देखा, जैसे वह थर्मामीटर नहीं, जादू की छड़ी हो…  उसके सामने दूसरी लड़की खड़ी थी। वह चाहे तो उसकी प्रतीक्षा करती आँखों में उजाला भर सकती है, चाहे तो वहाँ अँधेरा रख सकती है। भीतर इतने समय का जमा सब कुछ, मास्क के पीछे छिपी उसकी हँसी में पिघल रहा था।

दिव्या विजय

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samved

साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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