फणीश्वर नाथ रेणु

रेणु : जीवन की धूसर छवियों का कहानीकार

 

रेणु हिन्दी की ग्रामीण पट्टी की आम जिन्दगी के कहानीकार हैं। उनके यहाँ ग्राम्य-जीवन अपनी पुरी सामाजिक जटिलता के साथ विद्यमान है। प्रेमचंद के बाद की पीढ़ी में रेणु ने गाँव की कथा कहते हुए ठेठ देसीपन का परिचय दिया है। उनके पात्र देहाती समाज की यथार्थ जिन्दगी से पलायन करने की बजाय उसे अधिक संजीदगी से जी रहे हैं। उनमें अपनी देसीयता के प्रति ईमानदारी है और जीवटता भी। हालाँकि, रेणु की अधिकतर कहानियों में यह देहात बिहार के ग्रामीणांचलों का ही है, फिर भी हिन्दी पट्टी में गुजर-बसर करने वाली निम्न-मध्यवर्गीय जिन्दगी अपनी पूरी बेबसी के साथ यहाँ दर्ज हुई है। रेणु की कहानियाँ ‘लाउड’ नहीं हैं, बल्कि उनका स्वर तरल है। वे अपनी किसी भी कथा में कोई घोषित सत्य कहने नहीं गये हैं, बल्कि रोजमर्रा की आम-जिन्दगी में घटने वाली मामूली घटनाएँ ही उनके यहाँ अपनी पूरी संजीवता से अभिव्यक्त हुई हैं। उनके यहाँ पात्र नहीं अपितु परिवेश अपनी पूरी जवाबदेही के साथ दर्ज है। आप एक कहानी से दूसरी में उतरते हुए यह महसूस करेंगे कि यह कहानीकार अपने परिवेश की जटिलताओं को दर्ज करने के लिए परत-दर-परत आगे बढ़ रहा है। उनके यहाँ दर्ज हुई आम मानवीय संवेदनाएँ चाहे वे हर्ष की हों, विषाद की हों, यौनिकता की हों या फिर आत्मसंघर्ष की, पूरी ईमानदारी के साथ उद्घाटित हुई हैं। उन्होंने अपनी कहानियों में दो विरोधी भावों को परस्पर सामने रखकर भावों के संघर्ष से जूझती मानवीय जिजीविषा की परीक्षा ली है। तभी अज्ञेय ने उन्हें ‘धरती का धन’ कहकर पुकारा है।

रेणु ने जिस दौर में कहानी लिखना शुरु किया, वह विभिन्न कहानी आन्दोलनों की उपज का समय था। हालाँकि उनके लिए तो जन-प्रतिनिधित्व की कथा कहना ही कहानी की उपलब्धि की तरह था। वे गाँव की जद्दोजहद से जुड़ी कहानी को ही उस दौर की वास्तविक कथा की तरह देख रहे थे। उन्होंने अपनी ‘एक अपात्र की कहानी’ नामक कहानी की शुरुआत में उस समय को दर्ज करते हुए लिखा था, ‘पिछले कई वर्षों से लगातार यह सुनते-सुनते कि अब कहानी नाम की कोई चीज़ दुनिया में नहीं रह गयी है – मुझे भी विश्वास-सा हो चला था कि कहानी सचमुच मर गयी। हमारा मौजूदा समय ‘कहानीहीन’ हो गया है, हठात। कहीं, किसी घर के किसी कोने में भी कहानी नहीं घट रही। सभी लोग, अकहानीमय जीवन बिना किसी परेशानी या दुख के जीये जा रहे हैं। फलतः समाज के सभी कहानीकार बेकार हो रहे हैं, हुए जा रहे हैं। मैंने इन तथ्यों के आधार पर अकहानी की एक मोटी-सी परिभाषा समझ ली थी। बेकार कथाकार बेकारी के क्षण में जो कुछ भी गढ़ता है उसे अकहानी कहते हैं। किन्तु ऐसे ही दुर्दिन में एक दिन मेरी छोटेलाल (कहानी का पात्र) से मुलाकात हो गयी और मेरा सारा भ्रम टूट गया।’ (प्रतिनिधि कहानियाँ, पृष्ठ- 44)

मोहना (रसप्रिया), गनपत (आत्मसाक्षी), गोधना (पंचलाइट) जैसे सामान्य जीवन जीने वाले अनेक पात्र ही उन्होंने अपनी कथा कहने के लिए चुने हैं। इन पात्रों के आसपास बिखरी वह बेबस जिन्दगी ही उनके लिए कथानक बनी, जिसे आज की औद्योगिक दुनिया में ‘ब्लेकलिस्टिड’ किया हुआ है। ‘पंचलाइट’ का गोधना जाति बहिष्कृत होने के बावजूद भी पंचों द्वारा पंचलैट जलाने के लिए बुलाया जाता है। ताकि अपना स्वाभिमान बचाया जा सके। सरदार उसे कहता है, ‘तुमने जाति की इज्जत रखी है। तुम्हारा सात खून माफ़। खूब गाओ सलमा का गाना।’ जिसे गुलारी काकी ने जाति बहिष्कृत कराया था वही कहती है, ‘आज रात मेरे घर में खाना गोधन’ यह ग्राम्य-जीवन की वह सामाजिक जटिलताएँ हैं, जिन्हें वहाँ रच-बसकर ही ठीक से समझा जा सकता है। रेणु इसी जटिलता के कुशल पारखी हैं। उनके यहाँ अकुंठ मानवीयता, गहन रागात्मकता और रसमयता भी इसी वजह से मुखर है, क्योंकि उन्होंने छोटे-छोटे पारिवारिक संघर्षों से जूझते पात्रों को अपनी कथा के लिए चुना है, जो मध्यवर्गीय ऊहापोह के दर्प से कोसों दूर हैं। ये पात्र कल-पुर्जों में खटने वाले रोबोट नहीं हैं, बल्कि राग-द्वेष-विद्रोह-संघर्ष में जद्दोजहद करते हाड़-मांस के जीते जागते इंसान हैं। जिनकी संवेदनाएँ किसी मिल-मालिक या अफसर के यहाँ गिरवी नहीं रखी हैं।

रेणु की कहानियों का जिक्र करते हुए अक्सर लेखकों की दृष्टि उनकी कुछ चर्चित कहानियों जैसे ‘रसप्रिया’, ‘पंचलाइट’, ‘लाल पान की बेगम’, ‘एक आदिम रात्री की महक’ और ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गये गुलफाम’ तक ही जाकर अधिकतर ठहर-सी जाती है। बल्कि इनके अतिरिक्त उनकी कुछ कहानियाँ जैसे ‘आत्मसाक्षी’, ‘आजाद परिंदे’, ‘जाने केहि वेष में’ भी किसी दर्जे कम नहीं आँकी जा सकती। रेणु वाम राजनीति को निकट से समझने वाले कुछेक लेखकों में गिने जा सकते हैं, जिन्होंने वामपंथ में आस्था और निष्ठा की कमी को महसूस करते हुए ‘आत्मसाक्षी’ जैसी कहानी लिखी। जिसमें गनपत जैसा कर्मठ कार्यकर्ता अन्ततः गाँव की गुजर-बसर के भरोसे जीवित रहने को मजबूर कर दिया जाता है। संगठन निज लाभ का पर्याय और मजदूर-किसान एकता मालिकों से पैसे वसुलने का औजार।

यहाँ हम मुख्यतः रेणु की अलक्षित कहानी ‘ना जाने केहि वेष में’ पर कुछ चर्चा करेंगे। यह कहानी मुख्यतः एक कवि की ट्रेन यात्रा पर आधारित है। कवि निर्झर किसी समारोह में हिस्सा लेने के लिए यह यात्रा कर रहे हैं। उन्होंने यात्रा करने से पूर्व आज का राशिफल देखकर यह निश्चित किया है कि आज कोई शुभ फल प्राप्त होगा। गाड़ी के कटिहार स्टेशन पर पहुँचने तक तो उनकी यह आशा ज्यों-की-त्यों धरी रहती है, किन्तु कटिहार स्टेशन से एक सज्जन जब उनके डिब्बे में आकर उनकी प्रशंसा करते हुए उन्हें देश का श्रेष्ठ साहित्यकार कहकर सभी से परिचित कराता है, तो उन्हें किसी शुभ घटना के घटने का भरोसा होता है। जो सज्जन डिब्बे में आया है, वह किसी कचनारजी से उनके बारे में हुई चर्चा का जिक्र करता है, जिन्होंने हाल ही में एक उपन्यासिका लिखी है। कहानी के अन्त में पता चलता है कि यह कवि भौंरा हैं, जिन्होंने हाल ही में एक महाकाव्य लिखा है, जिसे वे निर्झर जी को समर्पित करना चाहते हैं और उनसे अपनी प्रशंसा में कुछ शब्द लिखवाना चाहते हैं। हालाँकि, दूसरी ओर अपनी इस पूरी यात्रा में वे निर्झर जी की इतनी प्रशंसा करते हैं, जिससे उन्हें कोफ्त होने लगती है और वे उसके मुक्ति पाने के लिए एक स्टेशन पहले ही डिब्बे से उतर जाते हैं, किन्तु कवि भौंरा उन्हें दूसरे स्टेशन से ही वापस लौटकर पुनः पकड़ लेते हैं और फिर प्रशंसा करना शुरू कर देते हैं। इसी छोटी-सी यात्रा और कथा-विन्यास के इर्द-गर्द यह पूरी कहानी बुनी गयी है।

अपने आकार और कथानक में छोटी होने के बावजूद भी रेणु ने इस कहानी में साहित्यकारों की मनोदशा और भाषा संबंधी कुछ तीखे प्रश्न उठाए हैं। यहीं साहित्य में लगातार बलवती होती चाटुकारिता का एक उदाहरण पेश करते हुए रेणु लिखते हैं, ‘मैं अवाक् होकर उनकी ओर देखने लगा तो वे तनिक दुख और नाराजगी जाहिर करते हुए रुआँसी आवाज में बोले, ‘मैं कल से ही आपकी प्रशंसा करता रहा, सभी अपरिचितों से आपका परिचय देता रहा। किन्तु आपने एक बार भी मुझसे मेरा परिचय तक नहीं पूछा।’ टाट की छोली से उन्होंने एक मोटी कापी निकाली–यह रहा मेरा महाकाव्य। यों इसे कचनारजी को समर्पित करना चाहता था, किन्तु वह तो उपनियाँस-लेखक हैं, सो भी लघु-उपनियाँस-लेखक…अब आप मिल गये हैं तो आपके ही कर-कमलों को सादर।’ (रेणु रचनावली, पृष्ठ-473) यहीं यह प्रश्न उठता है कि क्या साहित्यिक अभिरुचियों के अतिरिक्त केवल भोंथरी प्रशंसा ही पुस्तक समर्पण का पर्याय हो सकती है?

साहित्यिक गुणवत्ता का आपसी मेल-मिलाप से कैसा सम्बन्ध? क्या केवल क्षण भर का साथ ही पुस्तक के समर्पण का पर्याय हो सकता है या फिर किसी चर्चित लेखक को पुस्तक समर्पित करने से ही पुस्तक की गुणवत्ता बढ़ जाती है? आजकल औसत पुस्तकों पर भी लिखी जाने वाली टिप्पणियाँ क्या इसी मानसिकता की उपज नहीं हैं? रेणु ने 1966 में लिखी अपनी इस कहानी से यह समझ लिया था कि साहित्य की उपयोगिता का प्रश्न जन-प्रतिनिधित्व की अपेक्षा आपसी पसन्द-नापसन्दगी का पर्याय होता जा रहा है। साहित्य जनता के लिए मन-बहलाव का नहीं, बल्कि उसे अधिक संवेदनशील और विवेकवान बनाने का कार्य करता है। किन्तु जो कविता और कवि केवल अपने अग्रजों की प्रशंसा की मोहताज हो वो समाज को क्या विवेकवान बनाएगी।

रेणु ने इस कहानी के सहारे ‘भाषा की राष्ट्रवादी पहचान’ और ‘एक देश एक भाषा’ जैसे जुमलों की खूब आलोचना की है। जैसे किसी दक्षिण भारतीय मुसाफिर द्वारा पुस्तक का अंग्रेजी अर्थ पूछे जाने के अवसर पर कवि भौंरा की मानसिकता देखिए- ‘ऊपरवाले बर्थ पर सोये एक सज्जन दक्षिण भारतीय थे। अतः उन्होंने मुझसे मेरी किताब के नाम का अंग्रेजी मतलब पूछा। और यहीं बात झटके के साथ दूसरी ओर मुड़ गयी। मेरे मेहरबान ने घनघोर विरोध के स्वर में कहा, ‘आप भी साहब खूब हैं। यह अपमान…।’ मैं कुछ कहूँ, इससे पहले ही कम्पार्टमेंट में भाषा और प्रांत और जाति और सभ्यता तथा संस्कृति के नाम पर एक खण्डयुद्ध की तैयारी शुरू हो गयी।’ (रेणु रचनावली, पृष्ठ- 471) यह वही संघर्ष है, जो शुद्धतावादी मनोवृत्ति की उपज है। जिनके लिए भाषा पहले स्वयं को सही से अभिव्यक्त करने का माध्यम नहीं है, बल्कि अभिमान का पर्याय है। किसी भी भाषा, प्रांत, राष्ट्र और धर्म के प्रति ऐसा दृष्टिकोण निश्चित रूप से हिंसा के रास्ते पर ही लेकर जाता है। रेणु की इस कहानी को पढ़कर इस रास्ते की अंदेशा साफ लगाया जा सकता है।

हालाँकि, रेणु की किसी भी कहानी में आप वैचारिक उधेड़बुन को सीधे तौर पर नहीं देख सकते, बल्कि वह कई बार तो पात्रों की मनोदशा तक में ही आपको दिखाई देगी। इसके ठीक से समझने और अभिव्यक्त करने के लिए आपको उनकी रचनाओं के धीमे पाठ तक करने पड़ सकते हैं। जिनके लिए कहानी किसी सरपट घुड़दौड़ की तरह है, जिसे आनंद के लिए आजमाया जा सकता है, उन्हें रेणु से निराशा होगी। किन्तु जो यह जानते हैं कि कहानी हमारे सपने देखने, जन इतिहास को पुनः रचने और क्षुद्र कुंठाओं से मुक्त होने के लिए गढ़ी जाती हैं, वे रेणु की कथाओं को पढ़ते हुए अपने आसपास को सही-सही परिभाषित होता पाएँगे। निःसंदेह रेणु हमारे ग्रामीण जीवन की धूसर छवियों के महान कथाकार हैं। उन्होंने बिहार के छोटे से भूखंड के सहारे ही समस्त उत्तर भारत की नियती को उजागर करके रख दिया है।

अंकित नरवाल
जन्म – 6 अगस्त 1990
शिक्षा – महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, रोहतक से बी.ए., हिन्दी ऑनर्स, पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ से एम.ए. (हिन्दी) और फिर यहीं से पीएच-डी (हिन्दी)
लगभग चार वर्षों तक हरियाणा शिक्षा विभाग में रिसोर्स पर्सन के रूप में कार्य किया और फिर अध्ययन-अध्यापन हेतु वहाँ से स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली।
पुस्तकें – अठारह उपन्यास : उठारह प्रश्न (किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली), हिन्दी कहानी का समकाल (आधार प्रकाशन, पंचकूला), यू. आर. अनंतमूर्ति – प्रतिरोध का विकल्प (आधार प्रकाशन, पंचकूला)
पत्र-पत्रिकाएँ – हंस, वागर्थ, कथादेश, पल प्रतिपल, बनास जन, पाखी, परिशोध, समावर्तन, देस हरियाणा, कथन, पुस्तक वार्ता,अनुसंधान, जनसंदेश टाईम आदि हिन्दी की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं के लिए निरंतर लेखन।
पुरस्कार – आधार पाठक मंच का प्रथम युवा आलोचक पुरस्कार
सम्प्रति – असिस्टेंट प्रोफ़ेसर (हिन्दी), विधि विभाग, रिजनल सेंटर, पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़
संपर्क – #198, सेक्टर– 7, पंचकूला, पिन कोड- 134109,
दूरभाष- 9466948355,
ईमेल- ankitnarwal1979@gmail.com

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साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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