फणीश्वर नाथ रेणु

एक दिन फिर आना

 

(आदिम रात्रि की महक)

 

अपने सबसे प्रिय रचनाकार रेणु की किसी भी कहानी पर कुछ भी लिखना मेरे लिए बेहद मुश्किल रहा है। सम्भवतः इसलिए कि मैंने रेणु की करीब-करीब सारी कहानियाँ छुटपन से ले कर अब तक उम्र के अलग-अलग दौर में बार-बार पढ़ी हैं … और हर बार इन कहानियों का सम्मोहन और गहराया चला गया है। रेणु की कहानियों की सघन औपन्यासिक दृष्टि, रूप, रस, गन्ध, ध्वनियाँ, स्मृतियों का ऐसा बहुअर्थी वितान कि किसी भी कहानी पर कुछ भी लिखना अगर एक चालू मुहाबरे का सहारा लें तो ‘सूरज को दीया दिखाना’ होगा।

रेणु की कहानियों में कुछ ऐसा जादू है, ऐसी अद्भूत पठनीयता कि उन्हें बार-बार खूब चाव से रस ले कर पढ़ा जा सकता है। ये कहानियाँ तमाम उम्र आपकी स्मृतियों में बने रहते/रह सकते हैं। अपने आस-पास घटनेवाली अनगिनत घटनाएँ आपको इन कहानियों की याद दिलाती/दिलाती रह सकती हैं। आप मित्रों, परिचितों से पेट भर गप मारते हुए इन कहानियों के पात्रों, प्रसंगों की चर्चा कर सकते हैं; इनमें अपने पाठ जोड़ सकते हैं।

यह विडम्बना ही कही जाएगी कि उनकी कालजयी औपन्यासिक कृति ‘मैला आँचल’ पर उसके प्रकाशन से आज तक पिछले कई दशकों में जैसी अभूतपूर्व/विशद चर्चा होती रही है, उसकी तुलना में उनकी कहानियों पर बहुत काम बात हुई है। रेणु ने बहुत कम कहानियाँ लिखीं लेकिन सारी कहानियाँ लाजवाब। कहीं कोई एक शब्द भी अनावश्यक नहीं, जो गैरजरूरी हो या कथा-प्रवाह में बाधक हो।

इसमें कोई दुविधा नहीं कि एक उपन्यासकार से इतर रेणु उस्ताद किस्सागो भी हैं। अगर तुलना करना जरूरी हो तो इस मामले में उनकी तुलना अन्तोन चेखव से ही की जा सकती है।

लेकिन रेणु की कहानियों पर कुछ लिखना, रेणु के कथा-संसार की समालोचना टेढ़ी खीर है। खास तौर से तब, जब आप यह मानते हों कि समालोचना भी रचना है। समालोचना अगर रचना है तो उसे निश्चय ही समीक्ष्य रचना जितना ही रचनात्मक, अर्थपूर्ण और विविधवर्णी होना है। दुर्भाग्य से रेणु की किसी भी रचना की ऐसी समीक्षा मेरी नज़र से अब तक नहीं गुजरी है। रेणु की कहानियों की खरी, न्यायोचित्त आलोचना मेरे लिए ही नहीं, बड़े-से-बड़े तुरर्मखां आलोचकों के लिए भी दूर की कौड़ी है। (जैसा कि रेणु जी के बारे में प्रसिद्ध है … ताज्ज़ुब नहीं कि वे खुद साहित्य के शास्त्रीय पण्डितों/अकादमिक आलोचनाओं से दूर भागते थे)।एक आदिम रात्रि की महक - फणीश्वरनाथ रेणु - हिन्दगी | Hindagi

दूसरी मुश्किल। अगर रेणु की किसी एक कहानी पर कुछ लिखने बैठूँ तो उनकी तमाम दूसरी कहानियों के पात्र, घटनाएँ, स्मृतियाँ एक-एक कर अवचेतन/अर्द्धचेतन से निकल कर साक्षात सामने आ खड़े होते हैं। अगर आप ‘पंचलाइट’ पर लिखने बैठें तो ‘लाल पान की बेगम’ की बिरजू की माँ, चम्पिया, मखनी फुआ और जंगी की पतोहू सामने आ खड़े होंगे, ‘नैना जोगिन’ पर लिखने जाएँ तो ‘विघटन के क्षण’ की विजया और चुरमुनियाँ का अमिट नेह-छोह आपको भिंगो जाएगा, ‘आजाद परिन्दे’ के सुदरसन और हरबोलवा को याद करें तो उनके साथ ‘रसप्रिया’ के अभागे बाप मिरदंगिया, उससे अचानक हुई मुलाकात के बावजूद अपने जैविक पिता से अनजान रह गये उसके बेटे मोहन से आपकी मुलाकात हो जाएगी।

यहाँ रेणु की अपनी सर्वप्रिय कहानी ‘आदिम रात्रि की महक’ पर लिखते हुए पहले ही स्पष्ट कर दूँ आगे जो लिखा जाएगा, उसे कहीं से इस कहानी की समालोचना/समीक्षा/पुनर्पाठ मानने की गलती न करें। यह कई दशकों से साथ चली आ रही मीठी-सी एक याद है, जिसे नोट्स की शक्ल में जैसे-तैसे दर्ज़ करने की कोशिश भर कर रहा हूँ।

रेणु की अधिकांश कहानियों की तरह इस कथा की कुण्डली में भी ‘कस्तूरी’ बसी है। कस्तूरी अर्थात् प्रेम/ऐन्द्रिक आकर्षण की सुगन्ध ! (रेणु के कथा-संसार में इसी ‘कस्तूरी’ के इर्द-गिर्द घूमते हुए किरदारों के जीवन-व्यवहार, घटनाओं, संवादों, स्मृतियों के जरिये कुछ इस कदर सघन सामाजिक, सांस्कृतिक, प्राकृतिक परिवेश निर्मित होता चला जाता है कि हम चकित रह जाते हैं)।

अब थोड़ी चर्चा इस कहानी की …

बरसों पहले एक अनाथ बच्चा रेल के किसी डब्बे में पाया जाता है। रेलवे कर्मियों की भाषा में कहें तो ‘बिना बिल्टी रसीद के लावारिस माल’। रेलवे कर्मी गोपाल बाबू उर्फ ‘रिलिफिया बाबू’ रेलवे अस्पताल से छुड़ा कर उसे अपने साथ रख लेते हैं। उसे नाम देते हैं – करमा।

होश सम्भालते ही वह रिलिफिया बाबुओं की सेवा-टहल करना, खाना-नाश्ता बनाना सीख जाता है। बिना किसी तनख्वाह पेट भर भात पर गुजरती जिन्दगी ! लेकिन करमा को अपनी जिन्दगी से कोई शिकायत भी नहीं।

‘गोपाल बाबू के साथ, लगातार पाँचवर्ष ! उसके बाद कितने बाबुओं के साथ रहा, यह गिन कर बतलाना होगा ! लेकिन, एक बात है – ‘रिलिफिया बाबू’ को छोड़ कर किसी ‘सालटन बाबू’ के साथ वह कभी नहीं रहा। …सालटन बाबू माने किसी ‘टिसन’ में ‘परमानंटी नौकरी करनेवाला – फैमिली के साथ रहनेवाला !’

आजादी का चस्का कुछ ऐसा -‘करमा रेल कम्पनी का नौकर नहीं। वह चाहता तो पोटर, खलासी पैटमान या पानी पांड़ेकी नौकरी मिल सकती थी। खूब आसानी से रेलवे-नौकरी में ‘घुस’ सकता था। मगर मन को कौन समझाए ! मन माना नहीं। रेल-कम्पनी का नीला कुर्ता और इंजिन-छाप बटन का शौक उसे कभी नहीं हुआ।’

अनाथ बच्चे का कहाँगाँव, घर ; कैसा समाज ! रेलवे स्टेशन ही उसका गाँव, घर, समाज है और वहाँ के कर्मी गार्ड, पोटर, पैटमान से ले कर पानी पांड़े तक उसके घरवाले, दोस्त, रिश्तेदार – ‘बारह साल में एक दिन के लिए भी रेलवे-लाइन से दूर नहीं गया, करमा।’

एक से दूसरे रिलिफिया बाबू के साथ ‘रमता जोगी बहता पानी’ के ढब पर करमा की जिन्दगी आगे बढ़ती रहती है – ‘‘हेड-क्वाटर में चैबीस घंटे हुए कि ‘परवाना’ कटा – फलाने टिसन का मास्टर बीमार है, सिक रिपोर्ट आया है। तुरत ‘जोआयेन’ करो। … रिलिफिया बाबू का बोरिया-बिस्तर हमेशा बंधा रहना चाहिए। कम-से-कम एक सप्ताह, ज्यादा-से-ज्यादा तीन महीने से ज्यादा किसी एक जगह जम कर नहीं रह सकता रिलिफिया बाबू। … लकड़ी के एक बक्से में सारी गृहस्थी बन्द करके – आज यहाँ, कल वहाँ। …पानीपाड़ा से भातगाँव, कुरैठा से रौताड़ा। फिर, हेड-क्वाटर, कटिहार !’’

इन रिलिफिया बाबूओं के भी अलग-अलग रूप रंग !

कोई गालीबाज – ‘घोस बाबू के साथ एक महीना से ज्यादा नहीं रह सका करमा। घोस बाबू की बेवजह गाली देने की आदत ! गाली भी बहुत खराब-खराब ! माँ-बहन की गाली।’

कोई राम बाबू जैसा – ‘भा-आ-री ‘इस्की आदमी’। जिस टिसन में जाते, पैटमान-पोटर, सूपर को एकांत में बुला कर घुसुर-फुसुर बतियाते। फिर रात में कभी मालगोदाम की ओर तो कभी जनाना मुसाफिरखाना में, तो कभी जनाना-पैखाना में … छिः-छिः … जहाँ जाते छुछुआते रहते -‘क्या जी, असल माल-वाल का कोई जोगाड़-जन्तर नहीं लगेगा ?’

तो कोई सिंघ जी जैसा ‘भारी ‘पुजेगरी’ (पुजारी) ! सिया सहित राम-लछमन की मूर्ति हमेशा उनकी झोली में रहती थी।’

यायावर जीवन जीते, तमाम रंग-ढंग के लोगों को देखते-परखते एक अनाथ बच्चा वक्त से पहले बड़ा हो गया है …

मनिहारीघाट, आदमपुर, लखपतिया, कदमपुरा … रिलिफिया बाबुओं के साथ वह जिन स्टेशनों पर रहा है, उन स्टेशनों, उनके आस-पास के गाँवों, लोगों, प्राकृतिक परिवेश … खेत-खलिहान, वनस्पतियों की तमाम स्मृतियाँ करमा की यादों में बसी हैं -‘नयी जगह में, नये टिसन में पहुँच कर आस-पास के गाँवों में एकाध चक्कर घूमे-फिरे बिना करमा को न जाने ‘कैसा-कैसा’ लगता है। लगता है, अन्धकूप में पड़ा हुआ है। … वह डिसटन-सिंगल के उस पार दूर-दूर तक खेत फैले हैं। …वह काला जंगल … ताड़ का वह अकेला पेड़ … आज बाबू को खिला-पिला कर करमा निकलेगा। इस तरह बैठे रहने से उसके पेट का भात नहीं पचेगा।’

और यहीं रेणु की एक दूसरी कहानी ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गये गुलफाम’ की तरह एक लाल साड़ीवाली लड़की इस किशोर-गुलफाम की जिन्दगी बदल देती है। सरसतिया … अपने बूढ़े बाप के लिए चिलम सुलगाते हुए जिसके गाल लाल मोसंबी की तरह गोल हो जाते हैं, जिससे करमा का एकतरफा परिचय/संवाद महज़ उसकी खिलखिलाहट से होता है … उसके लिए वह ‘सब कुछ’ (जिन्दगी की सबसे बड़ी पूँजी ! पेट भर भात और यायावर जिन्दगी) दांव पर लगा देता है … फकत एक तिनके-से भरोसे पर …

सरसतिया की माँ करमा से कहती है –

‘‘एक दिन फिर आना।’’

‘‘अपना ही घर समझना।’’

इन चन्द सहज, सरल शब्दों का नेह-छोह न केवल कथा-नायक के मन-प्राण में बस जाता है बल्कि समूची कहानी की आत्मा है -‘ … सरसतिया खिलखिला कर हंसती है। उसके झबरे केश, बेनहाई हुई देह की गन्ध, करमा के प्राण में समा गयी। … वह डर कर सरसतिया की गोद में नहीं, उसकी माँ की गोद में अपना मुँह छिपाता है। … रेल और जहाज के भोंपे एक साथ बजते हैं। सिंगल की लाल-लाल रोशनी …।’

रिलिफिया बाबू का परवाना कट चुका है … गाड़ी आ गयी है … बाबू गाड़ी में बैठ चुके हैं … करमा ने उनका लकड़ी का बक्सा चढ़ा दिया है … गाड़ी सीटी दे रही है लेकिन…

‘मैं नहीं जाऊँगा।’’ करमा चलती गाड़ी से उतर गया।’

इस कहानी को पढ़ते हुए मुझे बार-बार हावर्ड फास्ट के विश्वप्रसिद्ध उपन्यास ‘स्पार्टकस’ की याद आती है।

अपनी दूसरी तमाम कहानियों की तरह यहाँ भी रेणु बिना मुखर हुए, शोषक और शोषित के वर्गीकरण/चिन्हीकरण के जबरिया प्रयास के बगैर कथा-प्रवाह में सहज घटती घटनाओं … उन घटनाओं की ऐन्द्रिक आकर्षण में परिणति के बहाने मनुष्य की मुक्ति की आदिम आकांक्षा का गहरा संकेत देते हैं … निश्चय ही प्रेम जोखिम उठाने, खुद को पहचानने, लीक छोड़ कर नये रास्ते पर चलने के साहस का भी नाम है।

अभिषेक कश्यप

जन्म:3 अक्टूबर,1977 को गोपालगंज (बिहार) के कमलाकांत कररिया गांव में। शिक्षा: स्नातक वाणिज्य।

‘खेल’, ‘सबसे अच्छी लड़की’ (कथा-संग्रह), ‘हम सब माही’ (उपन्यास), ‘देखते परखते हुए’ (समीक्षा/आलोचना), ‘सृजन संवाद’ (लेखकों के साक्षात्कार), ‘चित्र संवाद’ (समकालीन भारतीय कलाकारों के साक्षात्कार), ‘कलाकार का देखना’ (चित्रकार अखिलेश से बातचीत), ‘एक था चिड़ा एक थी चिड़ी’ (बाल कथा-संग्रह) प्रकाशित। कई महत्त्वपूर्ण पुस्तकोंका सम्पादन संकलन। ‘अनामिका: एक मूल्यांकन’ (प्रसिद्ध कवयित्री अनामिका के कृतित्व का विशद मूल्यांकन)।

सम्मान: साल 2006 में ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’ ने देश के 13 ‘आॅलमोस्ट फेमस’ युवा लेखकों में चुना। कथा-संग्रह ‘खेल’ पर सांस्कृतिक संस्था एसएएमएमएफ (उत्तर प्रदेश) का पहला ‘युवा कथा सम्मान’।

संप्रति: पूर्वी भारत के पहले कला मेला ‘धनबाद आर्ट फेयर’ के संस्थापक निदेशक। भारतीय कलाकारों के साक्षात्कारों पर केंद्रित हिंदी की पहली पत्रिका ‘प्रोफाइल’ और त्रैमासिक हिंदी साहित्यिक पत्रिका ‘हमारा भारत संचयन’ का सम्पादन-प्रकाशन।

सम्पर्क: बंगला नंबर 57, पोस्ट: भौंरा, धनबाद, झारखंड-828302

+918340441712, 8986663523 indiatelling@gmail.com

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साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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