लोक मान्यताओं में सनी सिरपंचमी का सगुन
- सुभाष चन्द्र कुशवाहा
फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘सिरपंचमी का सगुन’ अचर्चित कहानियों में मानी जाती है। इस पर बहुत कम आलोचकों ने गम्भीरता से कुछ लिखा है। डॉ. रामदरश मिश्र और सुरेन्द्र चैधरी ने जरूर इस ओर ध्यान दिया है मगर रेणु की अन्य कहानियों की तुलना में ‘सिरपंचमी का सगुन’, आलोचकों की निगाहों से वंचित रही है। रेणु की यह कहानी, 1959 में प्रकाशित ‘ठुमरी’ संकलन में शामिल है। इस कहानी के कथ्य और भाव को किसी खास सांचे में नहीं गढ़ा जा सकता। कहा जा सकता है कि यहाँ केवल लोक-व्यवहार को लोकप्रचलन के साथ साधने की कोशिश की गयी है।
रेणु के समय, गांवों की सामाजिकता, संरचना, संरचना के टोटकों और अंधविश्वासों को, ग्रामीण जीवन के पोर-पोर में इनके घुसे होने की तस्वीर को, इस कहानी में देखा जा सकता है। सिरपंचमी कहानी, जिस भाषा, बिम्ब और ग्रामीण संरचना को सामने लाती है, उसे समझना, पढ़ना और फिर अन्तर्मन में उतारना, हर हिन्दी पाठक के लिए संभव नहीं। इस कहानी के लिए जिस पाठक की जरूरत है, वह पाठक अगर आप नहीं हैं तो यह कहानी आप के लिए कुछ खास मायने नहीं रखती। इस कहानी में कोई चमत्कार, कोई राजनैतिक आपाधापी या व्यवस्थाजनित द्वंद की परछाईं नहीं है। यह एक सरल और गंवई मान्यताओं, सगुन-अपसगुन की लोक परंपराओं के साथ रची-बसी कहानी है। इस कहानी की भाषा को समझना तब जटिल हो जाता है जब पाठक, कथा की पृष्ठिभूमि से अपरिचित होता है। इसलिए भी यह कहानी आंचलिकता की समझ की माँग करती है।
रेणु अपनी कहानियों के बारे में कहते हैं, ‘मूलराग से आंख मिचैली खेलती छोटी-छोटी आंचलिक रागिनियाँ।’ आंचलिक रागिनियों को आंचलिकता की समझ के साथ ही समझा जा सकता है। यही कहानी की सीमा है। अगर शहरी पाठक, पूर्वांचल के गाँव के लुहरसार में खुर्पी, हंसिया या अन्य कृषि यन्त्रों को बनवाने या पिटवाने न गया हो, निहाई, धौंकनी, धौंकनी के ‘सूं-सा’ की आवाज से परिचित न हो, तो उसे इस कहानी में कोई रस न मिलेगा। रेणु को पढ़ने के लिए विभिन्न प्रकार के गंवई बिम्बों, शब्द संरचनाओं, ध्वनियों या टोटकों को जानने की आवश्यकता है।
सिरपंचमी का सगुन, विशुद्ध रूप से गंवई समाज के लोक बिम्बों पर आधारित कहानी है। कहानी, कालू कमार की लुहसार से शुरू होती है जहाँ काश्तकार सिंघाय अपने हल का फाल पिटवाने यानी धार तेज कराने गया हुआ है। पहले कई गांवों या टोलों का एक खास लुहार होता था। वह नकद पैसे पर यह काम नहीं करता। उसे रबी और खरीफ के फसल उत्पादों में से थोड़ा सा खैन या खलिहानी मिल जाती थी। उसी के एवज में लुहार पूरे साल, काश्तकारों के हर प्रकार के कृषि यन्त्रों को पीटता, तेज करते रहता। कंजूस सिंघाय ने विगत पाँच फसल पैदावार से कालू कमार को खैन न दी थी। न अगहनी फसल में से एक चुटकी धान, न रबी में से मुट्ठी भर चना। कालू को इसका बदला तो लेना ही था और उसने फाल टेढ़ी कर वह बदला ले लिया।
समय के साथ खैन का प्रचलन लगभग खत्म हो चुका है। अब नए आर्थिक सम्बन्ध बने हैं। लोहार, नकद पैसे लेकर ही यन्त्रों पर धार लगाते हैं।
सिरपंचमी यानी बसन्त पंचमी के दिन सगुन का एक लोक विश्वास रहा है। इस दिन सगुन बन जाए तो सालभर शुभ ही शुभ। सिरपंचमी के दिन किसी से झगड़ा न हो, किसी की नजर न लगे, कोई छींक न दे, ऐसे अंधविश्वास लोक में रचे-बसे रहे हैं। आज भी हैं। कहानी बताती है कि ‘सिरपंचमी के दिन सभी किसान बहुत नेक-टेम करके जाते हैं लुहरसार। बाँस की नयी टोकरी में एक पसेरी धान, दूब और पान-सुपारी के साथ हल का फाल, खुरपी और हंसिया लेकर।’ सिरपंचमी के दिन कृषि यन्त्रों पर धार लगवाकर काश्तकार गाँव में आकर ‘बैलों को नहलाते, उनकी सींगों में तेल लगाते। हल, हरेस पर पीसे चावल और आटे की सफेदी की छाप लगायी जाती। औरतें उस पर सिन्दूर से माँ लक्ष्मी के पैरों की अंगुलियाँ बनातीं। गाँव के बाहर, परती जमीन पर जमावड़ा होता। किसान अपने हल-बैल और बाल-बच्चों के साथ जमा होते। नयी खुरपी से सवा हाथ जमीन छीलकर, केले के पत्ते पर अक्षत-दूध और केले का मोती-प्रसाद चढ़ाया जाता। धूप-दीप देने के बाद, हल में बैलों को जोतकर पूजा के स्थान से जुताई का शुभारम्भ किया जाता। फाल की रेफ पूजा के बीच पड़े, इसका खयाल सभी किसान करते।’
यद्यपि देशी हल से खेती अब नहीं हो रही या कहीं-कहीं देखी जा सकती है फिर भी टोटके, सगुन-अपसगुन, साइत तो समाज में जस के तस जमे हुए हैं।
सिरपंचमी के सगुन की तैयारी में सिंघाय, अपने हल का फाल पिटवाने कालू लोहार के लुहरसार गया था। कालू लोहर उस पर नाराज था। सिंघाय ने पाँच सीजन की खैन रोक रखी थी। बस क्या, लुहार ने सिंघाय की फाल पीट कर टेढ़ी कर दी। लोक मान्यता में इसे बड़ा अपशकुन माना जाता है। अगर लुहार फाल को टेढ़ा कर दे तो दूसरा लुहार उसे सीधा नहीं करता। खैन, वसूलने का यही एक जातीय तरीका है- सिरपंचमी के दिन फाल टेढ़ा कर दो। जातिगत व्यवसाय का यह अलिखित नियम था। अपमानित सिंघाय, टेढ़ा फाल लिए घर आता है। वह उदास है क्योंकि उसका सगुन तो कालू ने बिगाड़ दिया था। वह सोच रहा था, टेढ़ा फाल! टेढ़ी तकदीर!
उसकी उदासी का कारण पत्नी जानना चाहती है। वह कहता है, ‘फाल टेढ़ा कर दिया माधो की माँ! हमने उसकी खैन न दी तो उसने फाल टेढ़ा कर दिया, वह भी सिरपंचमी के दिन।’ माधो की माँ कालू की नाराजगी का एक दूसरा कारण भी बताती है। कहती है, ‘पाँच-सात रोज पहले कालू की घरवाली बिना पूछे, अपने खेत से एक बोझा ऊँख काटकर ले जा रही थी। बस उसी बात पर मुझसे टोका-टाकी हो गयी और वह ऊँख फेंककर चली गयी।’
सिंघाय पत्नी से कहता है, ‘सिरपंचमी के पहले झगड़ा नहीं करना चाहिए था। अब कोई लुहार फाल सीधा न करेगा। टेढ़ा फाल मतलब टेढ़ी तकदीर। आज सगुन खराब हो जायेगा।’
उसकी पत्नी ने कहा, ‘परेशान न हो।’ वह रेलवे पुल के पास, एक जवान और एक बूढ़ा, रेलवे मिस्त्रियों को तीन दिन दूध बेच आई थी। माधो की माँ ने जवान मिस्त्री की आंखों में पानी देखा था। वह आधा सेर दूध, सेर भर चावल, मूंग की दाल और अपना टेढ़ा फाल लेकर उनके पास चली गयी। घूंघट ऊपर सरका लिया। माधो की माँ के जिस्म को बूढ़े मिस्त्र ने गौर से देखा, ‘दोहरिया का फूल!’
जवान मिस्त्री ने बूढ़े मिस्त्री से फाल सीधा कर देने को कहा। दोनों की आंखों में स्त्री हुस्न का आकर्षण था। उन्होंने फाल सीधा कर दिया। निहाई पर पड़ती हर चोट पर माधो की माँ मुस्कुराती रही। मिस्त्री उसे निहारता रहा। स्थिति अनुकूल देख माधो की माँ, साड़ी में छिपा कर रखी एक खुर्पी भी निकालकर पीटने को दी थी। बूढ़े मिस्त्री ने भद्दा मजाक किया, ‘कपड़े के नीचे छिपाकर बैठी है, न जाने और क्या-क्या।’ दोनों मिस्त्री दस दिनों तक, वहाँ रहने वाले थे। माधो की माँ ने कहा, ‘वह रोज आधा सेर दूध देती रहेगी।’
फाल सीधा हो जाने पर सिंघाय का सिरपंचमी का सगुन शुभ हो गया मगर गाँव वाले उसकी पत्नी के रेलवे मिस्त्रियों के पास जाने की कुचर्चा करने लगे थे। पुरुष की मानसिक ग्रन्थि, सदा स्त्री को बदचलन समझती है। तभी तो गाँव वाले कहते, ‘माधो की माँ ने हाट में नयी चोली खरीदी है। वह चार घन्टे तक रेलवे पुल के पास मिस्त्री लोगों के पास बैठती है। जिन्होंने बिगड़े सगुन को शुभ किया, उनका मन रखती है माधो की माँ।’ यह कुचर्चा कालू लोहार तक गयी थी। हरखू ने भी ताना मारा कि रेलवे की गर्मी छाई है सिंघाय पर।
सिंघाय को पत्नी के बारे में लोक समाज के ताने अच्छे नहीं लगते। मिस्त्री, उसकी पत्नी के साथ दिल्लगी करते हैं। कुचक्र रचते हैं कि सिंघाय शहर कमाने चला जाए। सिंघाय सोचता है कि इनकी नीयत ठीक नहीं? ये बीवी को भगा ले जाना चाहते हैं।
ऐसे रेलवे मिस्त्रियों का क्या ठिकाना? कुछ विचार कर सिंघाय, कालू लुहार से सम्बन्ध ठीक कर लेता है। यह सम्बन्ध आर्थिक समीकरण से बनता है। रेलवे मिस्त्री, काम के दौरान पुल के नीचे, पानी में लोहा गिराते रहते हैं। उसको कालू और सिंघाय मिलकर निकालते हैं। लोहे के इस व्यवसाय में चैथाई आय सिंघाय की तय होती है। खैन जैसी गंवई आय की व्यवस्था का विकल्प, कालू ने सिंघाय के सुझाव पर लोहा व्यापार से निकाल लिया है। बिगड़ा सम्बन्ध सामान्य हो जाता है। अब खैन की भी आवश्यकता नहीं। यही बदलते आर्थिक समीकरण, लोक परंपराओं को कुतरते हैं, आदमी को दूर या करीब लाते हैं। आपसी हित में सम्बन्ध ठीक कर लेने पर बाहरी मिस्त्रियों को माधो की माँ से पूछना पड़ता है- ‘कालू कमार से तुम्हारे घरवाले का मेल हो गया क्या?’
रेणु के रचना संसार पर डॉ. रामदरश मिश्र लिखते हैं-‘रेणु की अलग-अलग कहानियों को पढ़ने से लगता रहा कि उन्होंने ग्राम-परिवेश और उसकी चेतना को बहुत गहरी अभिव्यक्ति दी है; किन्तु इनके संग्रहों को एक साथ पढ़ लेने के पश्चात इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि नयी कहानी की अधिकांश कहानियों की तरह, रेणु की कहानियों की भी धुरी प्रेम या सेक्स ही है।’
मुझे लगता है कि डॉ. रामदरश मिश्र का यह कथन पूरी तरह सही नहीं है। रेणु के पात्र शारीरिक तृष्णा तक नहीं बढ़ते। रेलवे मिस्त्रियों की माधो की माँ के प्रति कुदृष्टि, ऐसी ही है। यह सही है कि इस कहानी में नारी-पुरूष का आकर्षण प्रकट हुआ है। कुछ हद तक माधो की माँ, मिस्त्रियों पर डोरे डालकर काम निकाल लेती है। लोक समाज का शेष निष्कर्ष, पुरुष मन की ग्रन्थियाँ हैं। लोक समाज में तो इतनी दिल्लगी होती रही है, हंसी-मजाक और द्विअर्थी बातें भी।
माधो की माँ कहीं भागने नहीं जा रही। पति से आसक्ति लेश मात्र कम नहीं। वह एक मजबूत पात्र है। अपसगुन को सगुन में बदलना जानती है। लोगों के कुप्रचारों की परवाह उसे नहीं है। वास्तविकता जानते ही सिंघाय को अन्त में अपने संदेह पर लज्जा आती है। वह रो देता हैं। वहाँ भी माधो की माँ कहती है, ‘छिः माधो के बाबू!… क्या हो गया तुमको? रोते क्यों हो?’
सिरपंचमी का सगुन कहानी का मुख्य आकर्षण इसकी लोक भाषा की खनक है। लुहसार की अपनी अलग गन्ध, भाषा और ध्वनि होती है। निहाई पर पीटते गर्म लोहों से जो सुर-ताल निकलते हैं उसे रेणु, अद्भुत कलात्मकता से व्यक्त करते हैं- ‘ठां-ठां-ठां! ठां-ठुन्न!’ लुहसार में गर्म लोहे के यन्त्रों को एक लकड़ी के बरतन में रखे पानी में डालकर ठंडा करना होता है। पानी में गर्म लोहे को डालने पर एक अद्भुत आवाज निकलती है जिसे रेणु लिखते हैं-छुं-छुं-छुं-ऊं गड़र्र-र्र। उससे एक गन्ध भी निकलती है जिसे रेणु ने लोहाइन नाम दे दिया है यानी लोहे से निकलने वाली गन्ध को लोहाइन। हथौड़े की निहाई पर सुरताल-‘ए-ठांय! ए-ठांय! ए-ठांय! ए-ठ-र्र-क्!
कहानी का प्राण इसकी लयबद्ध भाषा है। भाषा में एक राग है जो विराग को भी साध लेता है-
‘राम-रा..। माधो का बाप!’ बूढ़े मिस्त्री ने सिंघाय को गौर से देखते हुए कहा।
जवान मिस्त्री ने कहा, ‘दूधवाली का घरवाला?’
‘ओ-ओ! दूधवाली का घरवाला, टेढ़े फालवाला?’ बूढ़े मिस्त्री ने गा-गाकर कहा, ‘बैठो-बैठो, क्या नाम है तुम्हारा?’
सिंघाय को बूढ़े मिस्त्री की बात अच्छी नहीं लगी…. दूधवाली का घरवाला, टेढ़े फालवाला!’
कुल मिलाकर इस कहानी का वातावरण, लोकव्यवहार ओर लोकविश्वासों के केन्द्र में रचा गया है। कहानी में वर्तमान समाज और समय के साथ बनते-टूटते आर्थिक सम्बन्धों की झलक दिखाई देती है। यह नए जमाने का बदलाव, आर्थिक कारणों से हो रहा है। एक नया वातावरण रचा जा रहा है। इसलिए सुप्रसिद्ध आलोचक सुरेन्द्र चैधरी कहते हैं-‘रेणु अपनी कहानियों के वातावरण को बड़ी सावधानी से, पर अत्यन्त सहजता के साथ संयोजित करते हैं।’ सिरपंचमी का सगुन कहानी की आंचलिकता के सहारे पाठक, बहुसंख्यक गंवई समाज की रीति-नीति, सम्बन्ध-संस्कार, व्यवहार और राग-द्वेष को समझता है। एक नए वातावरण में प्रवेश करता है।
सुभाष चन्द्र कुशवाहा
कहानी संग्रह- हाकिम सराय का आखिरी आदमी, बूचड़खाना, कथा में गाँव, जातिदंश की कहानियां, होशियारी खटक रही है
लोकसाहित्य- लोकरंग सृजन सम्मान, प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान, परिवेश सम्मान