फणीश्वर नाथ रेणु

एक नदी और उसके दो पाटों के उजड़ने-बसने की कहानी   

(रखवाला)

फणीश्वर नाथ रेणु अंचल की खूबसूरती को उसके धूल, फूल, शूल के साथ रोमानी अन्दाज में व्यक्त करने वाले रचनाकार माने जाते हैं। उन्होंने बिहार के सुदूर अपरिचित अनजान जगहों की खुरदुरी जमीन वाली कहानियों को मर्म और भाव के रस में पगाकर ऐसी मिठास से भर दिया है, जिसका आस्वादन आज भी पाठकों द्वारा बड़े मनोयोग से किया जाता है। रेणु की कहानियों की जमीन बिहार के छोटे-बड़े गाँव-देहात तो हैं ही; कई रचनाएँ ऐसी भी हैं जो न केवल प्रान्त अपितु राष्ट्र की सीमा लाँघकर विदेशी पृष्ठभूमि के रचाव-बसाव में भी देशज स्वाद चखा जाती हैं।

रेणु को आँचलिकता का रचनाकार ठहराते हुए हम प्रायः यह भूल जाते हैं कि उनकी रचनाओं में न केवल भारत अपितु बांग्लादेश (पूर्वी बंगाल या पूर्वी पकिस्तान के रूप में), नेपाल और पाकिस्तान की कथा-भूमि अपनी भाषागत विशेषताओं सहित उपस्थित हुई है। यथा “जुलूस” उपन्यास में पूर्वी बंगाल से आए शरणार्थी शिविर की कथा है। “पलटू बाबू रोड” में बांग्ला भाषा की बहुलता है। “दीर्घतपा” उपन्यास में नायिका बेला के संघर्ष का फैलाव पाकिस्तान के पेशावर तक है। “दिनमान” पत्रिका के लिए रेणु ने जो रिपोर्ताज लिखे उसमें “नेपाली क्रान्ति कथा” श्रेष्ठतम है। इसतरह रेणु केवल बिहार के न किसी अंचल मात्र के बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप के विशाल खण्ड के सुख-दुःख, हर्ष-पीड़ा को व्यक्त करने वाले रचनाकार सिद्ध होते हैं। रेणु को नेपाल से बहुत लगाव था। उनकी आरम्भिक शिक्षा नेपाल से ही हुई थी और उन्होंने नेपाली क्रान्ति में सक्रिय भूमिका भी निभायी थी। वहाँ के राजनीतिक घराना कोईराला परिवार से उनके बड़े घनिष्ठ सम्बन्ध रहे तथा वह नेपाल को अपनी “सानो आमा” यानी छोटी माँ कहा करते थे। ऐसे में यह स्वाभाविक है कि नेपाल के प्रति उनका अनुराग उनके ख्याति की विधा कथा-साहित्य में भी सहज ही व्यक्त हुआ है।

नेपाल की पृष्ठभूमि पर रेणु की एक कहानी है- “रखवाला”। औपनिवेशिक शासनकाल के दौरान 1942 में लिखी गयी इस कहानी के तार अनुपस्थित तौर पर कलकत्ता से जुड़े हैं लेकिन प्रस्तुत रूप में नेपाल का एक पहाड़ी गाँव है। रेणु इस गाँव का परिचय ऐसे कराते हैं, जैसे मोह-माया में लिप्त जगत से दूर परलोक की सुन्दर चर्चा लोक-समाज में की जाती है। दुनिया को रक्त की प्यासी बताकर उससे मोहभंग की स्थिति दर्शाते हुए अगले ही पद में उसे “सभ्य” कहकर जैसे दुनिया के स्वांग पर बहुत बड़ा व्यंग्य कर देते हैं। फिर उस पहाड़ पर बने झोपड़े, वृक्ष, हरियाली की ऐसी चर्चा करते हैं कि पाठक कल्पनालोक की डगर पकड़ लेता है। गोद में बच्चे को लिए स्त्री पूनो जब पूर्वदीप्ति (फ्लैशबैक) की अवस्था में जाती है तो पाठक भी उसमें खो जाता है। यह पूनो के फ्लैशबैक में डूबते-उतराते मन की कहनी है। प्रेम की सुखद स्मृतियों में पूनो खोई रहती है, इसी के साथ-साथ घर-गृहस्थी के काम-काज करती हुई कभी आज में लौटती है तो कभी ग्यारह साल पूर्व के उन क्षणों में चली जाती है जब उसका पति पैसे कमाने के लिए कलकत्ता चला गया था और फिर कभी नहीं लौटा था।

आठ साल तक उसके विरह और प्रतीक्षा में गुजरे समय को वह बड़ी संजीदगी से याद करती है। फिर तीन साल पहले अपने जीवन  में आए उस परिवर्तन को एक-एक कर मन ही मन दुहराती है जब बलबहादुर उसके जीवन में प्रवेश करता है। ग्यारह साल पहले उसके पति के साथ वह भी कलकत्ता गया था। जब वह गाँव लौटता है तो लोगों को कलकत्ते के चमक-दमक की कहानी सुनाता है और इसी के साथ हिरण्य की भी कहानी सुनाता है, जो वहाँ जाकर पलटन यानी फ़ौज में भर्ती हो गया था। पूनो हिरण्य का इन्तजार करती रही लेकिन आठ साल बाद जब वह नहीं लौटता तो वह बलबहादुर को अपने पति के रूप में स्वीकार लेती है।

कहानी का अन्त खुला हुआ है। बलबहादुर पूनो के पीछे-पीछे एक नेपाली गीत गाता चला जाता है और गीत के इशारे से पाठकों के सामने बहुत कुछ सोचने-विचारने के बिन्दु छोड़ जाता है। “गोरी को बधैंचा मा, छैन रखवारा, चोरी भयो फल-फूल….ओ, बाबू!” यानी “गोरी के बगीचे का कोई रखवाला न होने पर उसका फल-फूल सब चोरी हो गया” यह इस कहानी की अन्तिम पंक्तियाँ हैं। रेणु अपनी कई कहानियों का सार अन्तिम पंक्ति में संग्रह करने के लिए भी जाने जाते हैं। जैसे “तीसरी कसम उर्फ़ मारे गये गुलफ़ाम” में हिरामन अपने जीवन की तीसरी कसम खाकर पूरी कहानी की अन्तिम परिणति देता है, उसीतरह रखवाला कहानी के अन्त में बलबहादुर नेपाली गीत के जरिए कहानी का अर्थ खोलने का उपकरण दे जाता है।

ऐसे में यह सवाल  मन के हर कोने में छा जाता है कि कहानी का शीर्षक नायक यानी “रखवाला” कौन है- हिरण्य या बलबहादुर ! गीत के भाव से यह तो साफ है कि जिस रखवाला के अब न होने का संकेत है वह हिरण्य है, जिसकी अनुपस्थिति में उसका बागीचा अर्थात (पत्नी- पूनो) को बलबहादुर ने हथिया लिया है। लेकिन बीते तीन वर्षों से जिसतरह बलबहादुर उस बागीचे का रखवाला बन जाता है, उससे कहानी का शीर्षक नायक बनने की उसकी दावेदारी भी पुष्ट होती है। लेकिन कहानी के अन्तिम अनुच्छेद में जब लेखक बलबहादुर को हिरण्य का सबकुछ हथिया लेने के बाद विजयी वीर की तरह गाते-झूमते चलते हुए चित्रित करता है, उसमें बलबहादुर के चरित्र में रखवाला के बजाय दूसरे की संपत्ति हड़पने वाले शातिर चालबाज की गंध आती है। इसमें बलबहादुर के मर्दवादी सोच की तरफ भी इशारा है, जिसे रेणु ने बस छाया के रूप में इंगित करके बाकी सबकुछ पाठकों के ऊपर छोड़ दिया है।

बलबहादुर को आरम्भ में एक पतित, आवारा और बदमाश के रूप में प्रस्तुत किया गया है। जो गाँव की लड़कियों को छेड़ता है और लम्बे समय तक दाम्पत्य जीवन नहीं स्थापित कर पाता। फिर हिरण्य की पत्नी के साथ गृहस्थी का जीवन शुरू करता है। इसतरह कहानी में एक तरह का अन्तर्विरोध भी देखने को मिलता है। बलबहादुर का नकारात्मक चरित्र समर्पित गृहस्थ बन जाता है और हिरण्य जैसा समर्पित पति गृहस्थी को छोड़कर पलटन का आदमी बन जाता है और कभी नहीं लौटता। यह आदर्श के पतन या विखंडन का चित्रण है। जबकि वहीं बलबहादुर में सकारात्मक बदलाव यथार्थ से आदर्श की ओर उन्मुख होने का उदाहरण है। शुरुआत में उसका जो खिलंदड़ स्वाभाव है वह काफी हद तक स्वयं रेणु से मिलता-जुलता है। रेणु एकजगह अपना आत्मपरिचय देते हुए अपने देहाती और शहरी जीवन का फर्क इस तरह लिखते हैं- “गाँव की गलियों में, खेतों, मैदानों में घूमता रहता हूँ।….. धान के खेतों से लौटती हुई धानियों (सुंदरियों) से ठिठोली करता हूँ, गीत गाता हूँ। फिर शहर में आते समय भद्रता का ‘मुखोस’ ओढ़ लेता हूँ।” बलबहादुर भी इसीतरह ठिठोली करता, गीत गाता घूमता है और हिरण्य शहर में जाकर बदल जाता है।

हिरण्य नाम रेणु को बड़ा प्रिय था। “नेपाल क्रान्ति कथा” रिपोर्ताज में उन्होंने शंकर जंग एवं हिरण्य जंग नाम के दो बहादुर योद्धाओं के वीरता की बड़ी सराहना की है। इस कहानी में सैनिक बन जाने वाले पात्र का नाम वास्तविक हिरण्य जंग से प्रभावित लगता है।

इस कहानी में कम पात्रों का होना कथा की बुनावट को ठोस और मजबूत रूप देता है। इससे कहानी में किसी तरह का बिखराव नहीं आ सका है; साथ ही इससे कम पात्रों को लेकर कथा रचना संभव भी नहीं है। एक स्त्री और उसके इर्द-गिर्द दो पुरुष पात्र, जिसमें एक की अत्यंत छोटी भूमिका, जबकि दूसरे का भी सहायक पात्र के रूप में ही उपस्थित होना इस कहानी को स्त्री-केन्द्रित रचना साबित करता है। यह स्त्री पात्र पूनो की सोच से लिखी गयी कहानी है। हालांकि उसके जीवन का पहिया दो पुरुष पात्रों के होने से ही गतिशील रूप ले पाता है, लेकिन वे पुरुष उस पहिये की धुरी नहीं हैं। पूनो हिरण्य के प्रेम में अधीर तो है लेकिन कातर नहीं है। वह उसके प्रतीक्षा में स्वतंत्र और मजबूत होकर आठ वर्ष व्यतीत करती है। वह बलबहादुर को स्वीकारती भी है तो उसके ही प्रेम प्रस्ताव पर और इस आश्वस्ति के साथ कि वह पहले वाला छिछोरा बलबहादुर नहीं रहा बल्कि एक जिम्मेदार व्यक्ति बन चुका है। पूनो जैसी पात्र “कितने चौराहे” उपन्यास में शरबतिया के रूप में देखने को मिलती है, जो विधवा है और लोकनिंदा के भय से शादी नहीं करती फिर उसके जीवन में मनमोहन आता है और उसके व्यक्तित्व की पवित्रता में अपनी अतृप्त मातृ-प्रेम की छाया पाता है।

रेणु की रचनाओं में गाँव और शहर का द्वंद्व बहुतायत देखने को मिलता है। गाँव से शहर जाना और वहाँ से लौटकर गाँव में बस जाने का कथा-भाव रेणु के यहाँ स्थायी है। बलबहादुर कलकत्ते की तमाम सुविधाओं को छोड़कर गाँव लौटता है और स्थायी रूप से ठहर जाता है। रेणु भी अपने जीवन के विभिन्न पड़ावों में पटना, इलाहाबाद आदि शहरों में रहे जरुर लेकिन मौका मिलते ही अपने गाँव भाग जाते थे। एक जगह वह लिखते भी हैं कि “मैं हर दूसरे या तीसरे महीने शहर से भागकर अपने गाँव चला जाता हूँ।….सूरज की आँच में अंग-प्रत्यंग सेंकता हूँ। झमाझम बरखा में दौड़-दौड़कर नहाता हूँ|” रेणु का अपनी धरती के प्रति यही अनुराग देखकर अज्ञेय ने उन्हें धरती का धनी रचनाकार कहा था। अपनी धरती के प्रति प्रेम का यह भाव रखवाला कहानी में भी देखने को मिलता है। इस कहानी के आरम्भ की पंक्ति से लेकर पूरे कथा-विस्तार में गाँव को शहर से इक्कीस ठहराने का भाव प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से गूँथा हुआ है।

रेणु की रचनाओं में मलेटरी या पलटन का उल्लेख ब्रिटिश औपनिवेशिक व्यवस्था के प्रतीक के रूप में प्रायः देखने को मिलता है। “रखवाला” में हिरण्य अपनी गृहस्थी को छोड़कर इसी पलटन का हिस्सा बन जाता है। “मैला आँचल” का तो आरम्भ ही मलेटरी के बारे में एक अफवाह से शुरू होता है। इसीतरह रेणु की रचनाओं में गीत-योजना भी देखने लायक है। रेणु को अनेक लोकगीत जुबानी याद थे। नागार्जुन ने रेणु से जुड़े अपने अनुभवों को दर्ज करते हुए लिखा है कि “मैथिलि और भोजपुरी के पचासों लोकगीत उन्हें याद थे। सारंगा सदावृज, लोरिक आदि लंबी-लंबी लोकगाथाएं गाते हुए रेणु को जिन्होंने एक-आध बार भी सुना है, वे उन्हें कभी नहीं भूल सकेंगे।” “रखवाला” में नेपाली गीत की बड़ी सुन्दर योजना है। कहानी को लोक-प्रचलित गीतों में गूँथकर गति दिया गया है। यहाँ तक कि ये गीत पात्रों का जीवन-गान भी बन जाते हैं। राम-लक्ष्मण की कथा पर आधारित गीत का एक पद पूनो द्वारा और दूसरा पद बलबहादुर द्वारा गाये जाने की कथा-योजना अपने-आप में अद्भूत है। कहानी का अन्त भी कथा-सार को गीत में व्यक्त करते हुए ही हुआ है।

रखवाला कहानी का शिल्प बने-बनाये ढर्रे या कथा समीकरण से भिन्न है। यह “मैला आँचल” की ही तरह नायक विहीन कहानी रचना है। इसमें अंचल और अनुराग की खूबसूरती तथा पूनो के सहज व्यक्तित्व का माधुर्य है। कहानी नाटकीयता से परिपूर्ण है। संवाद भावपूर्ण, चुटीले और मोहक हैं। दृश्य बिंब के साथ–साथ श्रव्य बिंब की भी बहुलता है, जोकि रेणु के रचनाओं की अद्वितीय विशेषता है। भाषा की सहजता और सरसता कथ्य के दृश्य को साक्षात् उपस्थित करने में समर्थ है। बलबहादुर द्वारा गाँव वालों के बीच कलकत्ते की कहानी सुनाने का प्रकरण बड़ा रोचक बन पड़ा है।

रखवाला कहानी रेणु के कथा-साहित्य में इस मामले में खास मायने रखती है कि इसमें रेणु के ख्याति का आधार बिहार का कोई अंचल नहीं है बल्कि अन्य भाषा और संस्कृति का क्षेत्र नेपाल है। यह नेपाल के प्रति रेणु का अनुराग ही है जो वहाँ के जमीन की एक द्वंद्व और माधुर्य मिश्रित कहानी हिंदी साहित्य के भंडार को और अधिक व्यापक तथा संपन्न बनाती है। “रखवाला” अपने रचाव-बनाव और संवेदना में जिस स्तर को छूती है वह अप्रतिम है। पूनो का प्रेम नदी की तरह है, जिसके दोनों पाटों पर दो अलग स्वभाव के पुरुष खड़े हैं। वह किसी को छोड़ नहीं पाती क्योंकि उसके अस्तित्व के लिए इन दोनों का नदी के दो पाटों की तरह ही बने रहना जरुरी है। वह बलबहादुर के साथ होकर भी हिरण्य और उसके प्रेम को निष्कपट व निर्मल रूप में अपनी स्मृतियों में संजोई हुई है। इसतरह आदर्श के टूटने और यथार्थ के आदर्श रूप में निर्मित होने के संकेतों में यह जीवन के स्पंदन की कहानी है।

 अमित कुमार सिंह

शिक्षा- एम.ए. (हिंदी), बी.एड.(बीएचयू), रचनात्मक लेखन में डिप्लोमा

रचनात्मक गतिविधि- विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, निबंध, कविता, कहानी प्रकाशित एवं पुरस्कृत

अद्यतन- केन्द्रीय विद्यालय (क्र.-1) वायुसेना स्थल गोरखपुर(उ.प्र.) में पीजीटी (हिंदी)

पता- द्वारा विनय कुमार सिंह, खलीलपुर, डाक- सँवरा, जिला- बलिया पिन-221701 (उ.प्र.)

सम्पर्क- 8249895551, samit4506@gmail.com

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साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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