फणीश्वर नाथ रेणु

काक चरित

 

किसी कहानी को पढ़ना और चुप रह जाना या मन ही मन अच्छी या बुरी कहानी का टैग लगा कर उसे भूल जाना आसान है। लेकिन किसी कहानी से गुज़रना, उसके पात्रों के साथ चलना,उनसे बोलना – बतियाना यानी कहानी को आत्मसात कर लेना एक जटिल प्रक्रिया है। फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियों को पढ़कर कुछ-कुछ ऐसा ही महसूस होता है। उनकी कहानियों को नज़रअंदाज़ करके निकल जाना आसान नहीं होता ,उनसे गुज़रना पड़ता है। रेणु ग्रामीण जीवन के ऐसे बेजोड़ चितेरे हैं जिनका कोई सानी नहीं है। उनकी पहली कहानी ‘ बट बाबा’ 1944 में कलकत्ता के दैनिक विश्वमित्र में छपी थी और अपनी पहली कहानी से ही उन्होंने पाठकों पर ऐसा जादू किया कि आखिर तक उनका वही जादू बरक़रार रहा।

रेणु आज़ादी के पहले और बाद के गांवों और वहां के लोगों की ज़िंदगी के राग-रंग, सुख -दुख और उतार-चढ़ाव के भीतरी परतों को उकेरने वाले सबसे सफल कथाकार के रूप में जाने जाते हैं। उनकी कहानियों में सरलता और सजगता का समन्वय गजब का है। संप्रेषण के आधार पर उनकी सरलता और सामाजिक सरोकारों के प्रति उनकी सजगता उल्लेखनीय है। उन्होंने अपनी कहानियों में ‘नकार’ की गुंजाइश को बराबर क़ायम रखा। उनके पात्रों की सहजता,अक्खड़पन और बेबाकी तो देखने लायक है। रेणु की कहानियां बनावटीपन, ढोंग,आडंबर से कोसों दूर दिखाई देती हैं।

रेणु की भाषा पाठकों को एकदम अपनी सी लगती हैं। ठेठ देसीपन लिए बेहद आकर्षक किस्सागोई की भाषा। कहानियां पढ़ने से कहीं अधिक सुनने का एहसास कराती हैं। इसीलिए उनकी बरसों पहले पढ़ी गई कहानियां भी हमारी स्मृतियों में ज्यों की त्यों महफूज़ हैं, एक क़ीमती धरोहर की तरह। इधर बहुत दिनों से उनकी कोई कहानी पढ़ने को नहीं मिली थी। जब भाई किशन कालजयी जी ने मुझसे रेणु जी की एक कहानी’ काग चरित’ भेजकर पढ़ने का आग्रह किया तो मैं बहुत खुश हुआ और उस कहानी को पढ़ गया। कहानी जब खत्म हुई तो ऐसा लगा कि यह तो बहुत ही मामूली सी कहानी है। एक निठल्ले खाली-खुली दंपत्ति की दिनचर्या के अलावा इसमें है क्या? ऐसा सोचते हुए मैं कहानी दो-तीन बार पढ़ गया। हर पाठ में कुछ नया मिलता और खुलता गया। लगा कि सचमुच यह कहानी इतनी आसान नहीं है। ऊपर से सरल दिखने वाले जीवन संघर्ष की यह एक मुश्किल कहानी है। जीवन की जटिलताओं से जूझता हुआ एक दंपत्ति है सावित्री और किसनलाल। पति-पत्नी के भीतर मचे कोहराम की बड़ी धीमी सी आवाज़ में जो दर्द है ,उसे कहानी से गुज़र कर ही महसूस किया जा सकता है।

किसनलाल एक शादीशुदा बेरोज़गार व्यक्ति है जो हाथ में दर्द होने के कारण आठ महीने से बेकार बैठा हुआ है। निम्न वर्ग के लोगों में धार्मिक आस्था की गहरी पैठ को रेणु जी ने बड़े ही कलात्मक ढंग से इस कहानी में दर्शाते हैं कि सुबह बिस्तर छोड़ने से पहले वह दोनों हथेलियों को आंखों के सामने लाकर अपने इष्टदेव को याद करता है। मन ही मन दिन शुभ हो की प्रार्थना करता है। खिड़की की तरफ उसकी नज़र पड़ती है तो वह मोटे आदमी को दुलकी चाल में दौड़ते हुए देखकर मुस्कुराता है। सोचता है एक दिन इसे रसगुल्ले खिलाकर दोस्ती करूँगा। मोटे आदमी से दोस्ती करने के पीछे का जो मनोविज्ञान है उसमें बस इतना भर है कि उसकी पत्नी उस मोटे आदमी का इतना ख्याल रखती है कि बेटे को उसके साथ भेजती है ,यह देखने के लिए कि कुछ ‘अपथ-कुपथ’ न खा ले। कितना किस्मत का धनी है मोटू जो उसे इतना प्यार करने वाली पत्नी मिली है। जबकि उसकी पत्नी उसकी हर बात पर टोका-टाकी करती है। उसके हर तकलीफ को ‘वहम का नाम देकर टाल देती है। कथाकार ने किसनलाल के दर्द को कुछ यूं बयान किया है ‘जब से किसनलाल के हाथ में दर्द हुआ है,दुनिया ही उससे निराश हो गई है। सभी उसे कामचोर, बहानेबाज और झूठा समझने लगे हैं ‘

किसन लाल की यह सोच एक बेहद प्यार करने वाली पत्नी जो किसी तरह खींच-खांच कर घर-गृहस्थी चलाती है उसे कठघरे में ला खड़ा करती है। क्या सचमुच सावित्री ऐसी है? नहीं बिल्कुल नहीं। वह भी समझती है कि उसका पति भी एक ज़िम्मेदार इंसान है लेकिन मजबूर है क्या करे? हालात के इन सवालों से इस कहानी के दोनों पात्र बार-बार टकराते हैं, लेकिन दोनों एक दूसरे पर यह ज़ाहिर नहीं होने देते। एक दूसरे से बचना चाहते हैं या एक दूसरे को शर्मिंदगी से बचाना चाहते हैं। लेकिन एक दूसरे की तल्ख़ ज़बानी थोड़ी देर के लिए बड़ी राहत देने वाली होती है। ऐसा लगता है जैसे कि चलो कुछ तो ग़म गलत हुआ। लेकिन पाठकों को उनके संवादों की चाशनी नीम मीठी लगती है, जिनमें थोड़ी सी कड़वाहट के साथ मिठास भी है। रेणु की कहानियों में पात्रों के संवाद भी बड़े ही नपे-तुले होते हैं। ऐसी महारत कम ही कथाकारों को हासिल होती है। इस कहानी का तीसरा अहम पात्र एक शरारती कौआ है जो बार – बार इस कहानी में उपस्थित होता है और अपनी उपस्थिति से कुछ ऐसा कर जाता है जो शुभ-अशुभ के अर्थ को एक नया विस्तार दे जाता है।

किसन लाल बिस्तर पर उठकर बैठा ही था कि कौवे का कर्कश स्वर’ कांय-य-य-य़ ‘से उसकी तन्द्रा भंग होती है और फिर वह उस कौए को भगाने में जुट जाता है ताकि कौआ बिजली का तार नोच कर महीने भर के लिए अंधेरा न कर दे। महीने भर के लिए अंधेरा मतलब बिजली महकमे यानी व्यवस्था की लापरवाही की ओर इशारा करता है। जो ग्रामीण इलाक़ों में आज भी जारी है। मन ही मन वह खुद से पूछता है-‘कौआ भी तोड़-फोड़ करता है? सेबोटाज करता है? सोचते हुए वह कमरे से बाहर निकलकर कौए को किसी तरह भगाने में जुट जाता है। पहले एक कोयले का टुकड़ा उठाता है और यह सोचकर रख देता है कि कोयला महंगा है। यहां कथाकार ने उसके आर्थिक अभाव को बड़े ही सूक्ष्म तरीके से बयां कर दिया है। सावित्री बाजार से लौट आती है ‘बोआली मछली’ के साथ जिसे देखकर वह पत्नी पर झुंझला उठता है-‘ यह क्या? बोआली मछली ले आई। तुम्हीं खाना । मैं तो किसी भी हाल में नहीं खाऊंगा। जानती नहीं हो कि यह बादी है। इसे खाने से पुराना दर्द फिर से उखड़ जाता है’ पत्नी सब सुनती है चुपचाप। वह बड़बड़ाता रहता है।

बहुत देर के बाद वह कहती है- ‘तुम्हारे लिए दुनिया की हर चीज़ बादी है। तुम्हारा वहम है’ इस वाक्य से वह तिलमिला उठता है। कहानी में यह प्रसंग कथा नायक के दकियानूसी ख्यालात की तरफ इशारा करता है। लेकिन उसे दकियानूस समझने से पहले उसके भीतर मच रहे उथल-पुथल को भी समझने की ज़रूरत है। आखिर ऐसा क्यों है?इस तरह के कई प्रसंग इस कहानी में आये हैं जिसे गौर से पढ़ने के बाद ही उस प्रसंग के विविध आयाम को समझा जा सकता है। कथानायक किसनलाल और सावित्री दोनों के रिश्ते की परिपक्वता को इस तरह देखा जा सकता है कि लाख आपसी तकरार या मनमोटाव के बाद भी दोनों थोड़ी ही देर में सबकुछ भूल कर इस तरह प्यार से बातें करने लगते हैं जैसे कुछ हुआ ही न था। सब कुछ एकदम पहले जैसा सामान्य। यही है गंवई सरलता और सहजता, जो रेणु की लगभग कहानियों में आप पायेंगे। इस कहानी में भी ‘ बोआली मछली’ की बात भूलकर किसनलाल कौए के अनेकों शरारती कारनामो का बखान अपनी पत्नी से करने लगता है। ऐसा करके वह अपने दुखों से मुंह मोड़ने या थोड़ी देर के लिए उन्हें भूल जाने का असफल अभिनय करता है। मस्तमौला और बिंदास ज़िन्दगी की चाहत किसे नहीं होती।

किसनलाल की भी ऐसी ख़्वाहिश तो हो ही सकती है। आखिर वह भी एक इंसान तो है ही। सावित्री एक सीधी-सादी और सहज स्वभाव की घरेलू महिला है जो अपने काम से काम रखती है। मगर उसके भीतर के बवंडर को भला कौन समझेगा? हर औरत की तरह उसके मन में भी बेहतर ज़िन्दगी के ख्याल तो आते ही होंगे। वह भी खुली आँखों से सपने तो देखती ही होगी। मगर विडंबना तो यही है कि वह किसके आगे अपना दुखड़ा रोये? जिसे सुनाना चाहती भी है तो उसे सुना नहीं सकती। सोचती है उसे सुनाकर भी होगा क्या? वह तो खुद ही परेशान है। इस कहानी में अपनी-अपनी उलझनों के साथ जीने की विवशता को बड़ी ही मार्मिक ढंग से कथाकार ने रचा है। इसमें शिल्प का कमाल शामिल है। गजब की सधी हुई भाषा का प्रयोग इस कहानी में देखने को मिलता है जो पाठकों को आसानी से अपनी गिरफ्त में ले लेता है।

‘काग चरित’ कहानी का अंत एक सुखद स्थिति में होता है। जो किसान लाल और सावित्री के जीवन को एक झटके में खुशियों से भर देता है। यहां भी किसनलाल और सावित्री की खुशी देखते ही बनती है। निम्न वर्ग बहुत अधिक की चाहत कभी नहीं करता बल्कि सिर्फ इतना चाहता है कि किसी तरह दाल-रोटी का जुगाड़ हो जाये या यूं कह लीजिए कि ‘साईं इतना दीजिए जा में कुटुंब समाए’ ऐसी चाहत भी पूरी नहीं होती है तो वे परेशान हो जाते हैं। अक्सर ऐसा होता है जैसा कि इस कहानी में किसनलाल और सावित्री के साथ होता है। हालात के साथ मनःस्थिति भी बदलती है। थोड़ी सी खुशी में लहालोट होने वाला भी यही वर्ग है। परेशानियों से जूझना – टकराना भी इन्हें ख़ूब आता है। एक ऐसी स्थिति भी आती है जब किसनलाल को लगता है कि’ कौआ साला फिर लौट आया, लगता है इस बार जानबूझकर चिढ़ाने आया है। ‘जबकि सच्चाई यही है कि कौआ अपनी स्वाभाविक अदा में सब कुछ कर रहा होता है।

इस कहानी का अंत एक खुशखबरी से होती है। एक ‘एक्सप्रेस डिलेवरी’ के आते ही सबकुछ ‘छू मंतर’ हो जाता है। पिछली तमाम गिले-शिकवे भुलाकर दोनों चहकने लगते हैं। पत्र कैसा है इसका खुलासा कहीं भी कहानी में नहीं है लेकिन पाठक आसानी से समझ जाता है कि वह पत्र एक नियुक्ति पत्र ही है। क्योंकि एक बेरोज़गार व्यक्ति को भला इतनी खुशी और किसी पत्र के आने से तो नहीं ही मिलेगी। अब दोनों खुश हैं। सावित्री पत्र को ठाकुरजी की मूर्ति के आगे रखकर शंख फूंकने लगती है और किसनलाल कौआ को बोआली मछली का पूरा चांप खिलाने के लिए आमंत्रित करने लगता है। कौआ इस बीच लगातार कांय-कांय करता रहता है। कौए की अशुभ आवाज़ अब किसनलाल को शुभ लगने लगती है। यही है मानव स्वभाव। वह सावित्री से अचानक पूछ बैठता है – सावित्री, कौआ हमेशा अशुभ ही नहीं भाखता है? कौए के प्रति बदलती धारणा को वह स्वाभाविक रूप देना चाहता जिसमें सावित्री की हाँ को भी शामिल करना ज़रूरी समझता है। इस कहानी में रेणु के कथा कहने की कला का उत्कर्ष दिखाई देता है जो इस कहानी को पठनीय तो बनाता ही है एक यादगार और न भूलने वाली कहानी की श्रेणी में भी ला खड़ा करता है।

samved संवेद

अनवर शमीम

जन्म-10 अप्रैल 1962, शिक्षा-स्नातक

दो कविता संग्रह ‘यह मौसम पतंगबाज़ी का नहीं है’ और ‘ अचानक कबीर’ प्रकाशित। ग़ज़लों की पुस्तिका ‘काँच का जिस्म’ और ‘यादें बोलती हैं’ (संस्मरण) भी छपी हैं। कुछ कविताएं अन्य भारतीय भाषाओं में अनुदित।साहित्य,समाज, कला और संस्कृति से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर छिटपुट लेखन। उर्दू पत्रिका ‘शहपर’ के समकालीन हिन्दी कविता पर केन्द्रित विशेषांक के प्रकाशन में विशेष सहयोग। तीसरा कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य। संप्रति-सरकारी सेवा में।
सम्पर्क- +919798355202, anwarshamim179@gmail.com

मिल्लत कालोनी, वासेपुर,धनबाद – 826001 (झारखंड)

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samved

साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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