फणीश्वर नाथ रेणु

नित्यलीला

 

हिन्दी कहानी के इतिहास में – जो कि जाहिर सी बात है बमुश्किल सौ-सवा सौ सालों का ही है – जिन कुछेक कथाकारों ने अपने लेखन से एक लकीर खींची, जिन्हें हम हिन्दी कहानी के इतिहास में मील का पत्थर कह सकते हैं उनमें एक मुख्य नाम फणीश्वरनाथ रेणु का है। हिन्दी कहानी के इतिहास में प्रेमचन्द के बाद जिस कथाकार की सबसे ज्यादा चर्चा होती है वे रेणु ही हैं। इस चर्चा के पीछे दूसरी तमाम वजहों के बीच एक मुख्य वजह जो मुझे समझ में आती है वह है इन दोनों कथाकारों की अखिल भारतीय व्याप्ति। अपने लेखन के लिए इन दोनों कथाकारों ने जो कथाभूमि चुनी वह अलग-अलग होते हुए भी अपने सरोकारों में एक जैसी है। प्रेमचन्द के बाद रेणु अकेले ऐसे कथाकार हैं जिनके यहाँ ग्रामीण जीवन का उसके सम्पूर्ण यथार्थ के साथ चित्रण किया गया है। रेणु ने अपने कथा साहित्य के माध्यम से स्वाधीन भारत के ग्रामीण जीवन का यथार्थ तो व्यक्त किया ही है भारतीय राष्ट्र-राज्य के स्थापित मूल्यों के जनविरोधी चरित्र को भी उजागर किया है। हिन्दी साहित्य में रेणु पहले ऐसे रचनाकार हैं जिनके यहाँ स्वाधीन भारत में गाँधी और गाँधीवाद की स्वीकृति-अस्वीकृति को लेकर शुरुआती बहस देखने को मिलती है।

रेणु का लेखन जिस ग्रामीण परिवेश से जुड़ा हुआ है उसमें जीवन के बहुविध पक्षों का सहज ही चित्रण उनके लेखन की मुख्य विशेषता है। बेहद सामान्य सी घटना को कहानी में परिवर्तित कर देने की जैसी क्षमता रेणु में है वैसी हिन्दी के कम कथाकारों में देखने को मिलती है। इस मामले में भी रेणु के सामने अगर कोई कथाकार दिखाई देता है तो वे प्रेमचन्द ही हैं। प्रेमचन्द और रेणु हिन्दी कथा साहित्य के ऐसे दो स्तम्भ हैं जिनके आसपास ही हिन्दी का कथा साहित्य चक्कर लगाता रहा है। इन दोनों कथाकारों द्वारा विकसित किए गए कहानी के ढांचे को बहुत कुछ तोड़ने के बावजूद हिन्दी कहानी इनके लेखन की ऊंचाई को पार नहीं कर सकी है। आज की युवा कथापीढ़ी भी अपने इन कथाकारों से होड़ लेने की कोशिश करती सी दिख रही है। इसे हिन्दी कहानी की कमजोरी के रूप में नहीं बल्कि प्रेमचन्द और रेणु जैसे विश्व स्तरीय कथाकारों के से संवाद बनाने की कोशिश के रूप में देखना चाहिए।

यहाँ मैं रेणु की जिस कहानी के संदर्भ में अपनी बात कहने जा रहा हूँ उस कहानी का शीर्षक है ‘नित्यलीला’। रेणु के कथाकार व्यक्तित्व की पहचान जिन कहानियों के द्वारा होती है, यानी जिन्हें हम रेणु की प्रतिनिधि कहानियाँ कहते हैं उनमें ‘तीसरी कसमउर्फ मारे गए गुलफाम’,‘रसप्रिया’,‘पंचलाइट’,‘लाल पान की बेगम’,‘जड़ाऊ मुखड़ा’,‘एक आदिम रात्रि की महक’ और ‘नैना जोगिन’ जैसी कहानियाँ हैं। नित्यलीला इस सूची में आती भी है तो बहुत पीछे। यह रेणु की उन कहानियों में शामिल है जिन्हें हम समान्यतः उनकी औसत कहानियों की सूची में शामिल करते हैं। किशन कालजयी जी ने जब मुझसे इस कहानी पर लिखने को कहा तब बहुत सोचने के बाद भी मैं यह याद नहीं कर पाया कि इससे पहले इस कहानी की कोई चर्चा मैंने किसी से सुनी है? जाहिर सी बात है उससे पहले यह कहानी मैंने नहीं पढ़ी थी। कालजयी जी से लिखने के लिए हाँ तो कर दिया पर दो-तीन बार पढ़ने के बाद भी मैं यह नहीं समझ पा रहा था कि इस कहानी पर क्या और कैसे लिखूँ? यूं ही विचार करते हुए अचानक मेरा ध्यान इस कहानी में जुड़े ‘लीला’ शब्द पर गया। इस कहानी की लीला से कुछ निकलता उससे पहले ही मुझे लगा कि यह कहानी ही क्यों हमारा जीवन और समाज भी तो एक लीला ही है। आज जब हर तरफ तरह-तरह की लीलाएं हो रही हैं। तब इस नित्यलीला को इसके लीला प्रसंग से क्यों न समझा जाए?

नित्यलीला कहानी लीलापुरुष वासुदेव कृष्ण के चरित्र को केन्द्र में रखकर लिखी गयी कहानी है। हमारी परम्परा में यह मान्यता है कि कृष्ण नित्यलीला करते थे। उस नित्यलीला को लेकर हजारों कथाएँ हिंदुस्तानियों के पास मौजूद हैं। बहुत से कृष्णभक्त सम्प्रदाय में आज भी नित्यलीला की कहानियाँ सुनी-सुनाई जाती हैं। हिंदुस्तान में कई कथावाचकों ने जीवन भर कृष्ण की नित्यलीला की कथा बाँची-आज भी बाँच रहे हैं।  रेणु के पास भी एक कथा है-कृष्ण के नित्यलीला की। रेणु की कथा में कृष्ण की नित्यलीला का जो प्रसंग है वह वसुदेव-देवकी की पुत्री के मथुरा से गोकुल आने, अपने जीवित होने का प्रमाण देने और कृष्ण को बेदखल कर खुद को अपनाए जाने का प्रसंग है। इस प्रसंग में जो आधुनिक मन के अनुकूल है या कहें कि जिसे उजागर करने के लिए रेणु ने यह कहानी लिखी वह उस बेटी का प्रसंग है जो आकर अपने होने की दुहाई देती है। यूं तो कहानी में भी यह लीलामय ही है किन्तु उस लीला का निहितार्थ हमारी सामाजिक-संरचना पर किस रूप में पड़ता है यह इस कहानी का अभीष्ट है।

कहानी के कथानक के संदर्भ से अपनी बात कहना चाहूँ तो कहानी के केन्द्र में गोकुल का वह परिवेश है जिसमें कृष्ण उनकी गउवें और गोपिकाएं हैं और वह योगमाया है जो यसोदा की बेटी होने की गवाही लेकर आई है। कहानी में गोकुल का जो परिवेश रेणु ने चित्रित किया है वह चित्रपट पर चल रहे किसी चलचित्र के मानिंद बिल्कुल स्पष्ट है। कहानी पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे गोकुल सजीव रूप में हमारे आसपास आ गया हो। कृष्ण की लीलामय दुनिया और गोपालक समाज जिस खुशहाली से जी रहा है वह अभावग्रस्त भारतीय समाज के लिए एक खूबसूरत फैन्टसी जैसा दिखता है। रेणु जिस भारत में जी रहे थे, उसकी जो हकीकत थी उस हकीकत में यह गोपालक समाज एक फसाने की तरह दिखाई देता है। रेणु इस फसाने को अफसाना बनाकर हमारे सामने क्यों लाये? अपनी विचार-चेतना में आधुनिक ख़यालों के समाजवादी-गाँधीवादी रेणु को कृष्ण का यह लीलाक्षेत्र क्यों आकर्षित करता है? इन सवालों के जवाब ढूँढने के क्रम में इस कहानी का कथ्य पाठक की कोई मदद नहीं करता।

यह कहानी कोई ऐसा बड़ा सवाल भी नहीं उठाती जिस आधार पर इसे रेणु की प्रतिनिधि कहानी के तौर पर जाना जाये। कहानी का कुल जमा कथानक यह है कि मथुरा से गोकुल आई महामाया नाम की युवती -जो यसोदा की बेटी है जिसकी कथा आप सभी जानते हैं कि कंस के डर से वसुदेव-देवकी ने कृष्ण के जन्म लेते ही उन्हे मथुरा से गोकुल यसोदा के यहाँ पहुंचा दिया था और उनकी नवजात बेटी को वहाँ से ले आए थे- अपने होने का प्रमाण देती है और कहती है कि उसे उसका वाजिब हक मिले। उसे वही प्यार और अपनापा मिले जिसकी वह हकदार है। महामाया की ये बातें सुनकर यसोदा परेशान होती हैं। इसी बीच पता चलता है कि कान्हा अबतक गायें चराकर वापस नहीं आया। पूरा गोकुल कान्हा को खोजने लगता है। देर रात तक यह खोज चलती है फिर लीला से पर्दा उठता है और पता चलता है कि कान्हा जो कि महामाया की लीला कर रहा था लीला से बाहर आ गया है। इस कथानक के कहानी बनने में गोकुल का परिवेश और गोपालक समाज सहयोगी भूमिका में है।

इस कहानी को पढ़ते हुए कहानी सुनने का रस तो मिलता है पर कहानी अपने समय के यथार्थ को उस रूप में व्यक्त नहीं करती जिस रूप में रेणु की दूसरी कहानियों में व्यक्त होता हुआ दिखता है, मसलन जिस तरह ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम’ या दूसरी कहानियाँ अपने समय-समाज के सामाजिक-जीवन के यथार्थ से अपनी संबद्धता जाहिर करती हैं वैसी कोई संबद्धता इस कहानी में नहीं दिखती। इसलिए बहुत सम्भव है कि जो कहानी को इसलिए पढ़ते हों कि उसमें उनके समय का यथार्थ दर्ज मिलेगा उन्हे इसे पढ़कर निराश होना पड़ सकता है। कहानी में सीधे तौर पर कोई मैसेज नहीं है। यह जरूरी भी नहीं कि हर कहानी कोई मैसेज ही दे। कोई कहानी इसलिए भी तो पढ़ी जा सकती है कि वह कहानी है।

रेणु की यह कहानी उनके लोकमानस से संपृक्त होने की भी गवाही देती है। लोकजीवन से आत्मीय और गहन जुड़ाव न होने की दशा में नित्यलीला जैसी कहानी लिखना सम्भव ही नहीं है। इस कहानी में जिस तरह गायों और उनके छोटे-छोटे बछड़ों तक के मनोभावों को अभिव्यक्त किया गया है वह अन्यत्र दुर्लभ है। इस दृष्टि से रेणु की यह कहानी प्रेमचन्द की ‘दो बैलों की कथा’ से भी आगे की कहानी है। कहानी में एक चरित्र है ज्योतिषी का जिसका नाम ‘गर्ग’ है।गर्ग जब भी गोकुल आता है तो एक तो वह बहुत सारा अनाज लेकर जाता है दूसरा जसुमति और नन्द को कृष्ण के बारे में ऐसी बातें बताता है जिससे वे परेशान हो जाते हैं। जाहिर सी बात है वे बातें कृष्ण के दैवीय रूप के बारे में ही होती होंगी। गर्ग के माध्यम से रेणु ने पौरोहित्य कर्म करने वाले ढोंगी पंडितों के चरित्र को भी सामने लाने का काम किया है। एक तरफ गर्ग की विद्या है तो दूसरी तरफ गोकुल के लोगों का कृष्ण के प्रति प्रेम दोनों दो ध्रुव की चीजें हैं। गर्ग भी कृष्ण की शिकायत करता है और गोपियाँ भी लेकिन जहाँ गर्ग की शिकायत से नंदमहरि और यसोदा दोनों विचलित हो जाते हैं वहीं गोपियों की शिकायतें दैनंदिन जीवन की एक जरूरी घटना की तरह हैं।

कहानी में महामाया का प्रवेश कहानी को एक नया मोड़ देता है। महामाया के आगमन से गोपियाँ और ग्वाल-बाल वैसे ही असहजता का अनुभव करते हैं जैसे गर्ग के आगमन से करते हैं। महामाया, गर्ग, कृष्ण और गोपालक समाज इस कहानी के मुख्य चरित्र हैं। सलोना बछड़ा भी एक चरित्र के रूप में उपस्थित है। गउवों के बिना तो कान्हा की कल्पना भी नहीं की जा सकती इसलिए उन्हे अलग से रेखांकित करने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। इन चरित्रों के माध्यम से रेणु एक ऐसा लोक निर्मित करते हैं जहाँ मानवीय जीवनबोध के सहज भाव सृजित क्ये हुए दिखाई देते हैं। अपने उद्देश्य में किसी बड़े सामाजिक परिवर्तन की चेतना का निर्वाह न करते हुए भी यह कहानी अपनी पठनीयता और लोकसंबद्धता की वजह से एक जरूरी कहानी बनती है। रेणु की कथाभाषा और उनका वर्णन कौशल इस कहानी में अपने शीर्ष पर दिखाई देता है। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि रेणु की जिन कुछेक कहानियों में उनका वर्णन कौशल शीर्ष पर है उनमें यह एक मुख्य कहानी है। इस कहानी को इसके उद्देश्य से ज्यादा इसके कहनीपन में समझने की जरूरत है।

जगन्नाथ दुबे

शोध छात्र, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी।

तद्भव,वागर्थ,पाखी, साखी, बया समेत प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में आलोचनात्मक लेख प्रमुखता से प्रकाशित।

पता- बिरला छात्रावास ‘ब’ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी- 221005

सम्पर्क- 6389003142, jagannathdubeyhindi@gmail.com

.

samved

साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x