आंचलिकता के घेरे से बाहर : कस्बे की लड़की
रेणु हिन्दी साहित्य के एक विलक्षण कथाकार हैं। इनकी कहानियों में एक ओर तो हैं वे पात्र जो वंचित हैं, उपेक्षित हैं, अभावग्रस्त हैं और दूसरी ओर है उन पात्रों को, उनकी बोलियों, आदतों और अदाओं के साथ आँखों के सामने मूर्तिमान कर देने की कला; साथ ही है अभाव और परिस्थितिजन्य विडम्बनाओंके बीच भी उनके अन्दर पल रहे राग को अपनी कलम के जादू से पाठकों के दिल में गहरे उतार देने का हुनर।
कथा जगत में उनको स्थापित करने और उनकी विशेष पहचान बनाने में जिन कहानियों की चर्चा की जाती है, वे हैं—‘रसप्रिया’, तीसरी कसम उर्फ मारे गये गुलफाम’, ‘पहलवान की ढोलक’, ‘लाल पान की बेगम’, ‘पंचलाइट’ आदि। रेणु इन कहानियों द्वारा एक ओर निम्नवर्गीय पात्रों की पीड़ा एवं रागात्मकता को स्वर देने वाले कथाकार के रूप में स्थापित हुए, तो दूसरी ओर उनकी रचनाओं को ‘आंचलिकता’ का भी तमगा लग गया पर जो खास बात है और जिसकी चर्चा कम हो पाती है, वह है मनोविश्लेषणात्मक कहानियों के रचनाकार के रूप में रेणु की पहचान। परिस्थितिजन्य दबाव में जीते हुये मानसिक ग्रन्थियों के शिकार पात्रों ,विशेष तौर पर महिलाओं, की ओर पाठकों का ध्यान ले जाने में वे समर्थ हुए हैं। मध्यवर्गीय समाज में स्त्रियाँ कई बार ऐसी परिस्थितियों का शिकार होती हैं जो उनकी कोमल भावनाओं, कल्पनाओं या स्वाभाविक जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति में बाधा बन खड़ी हो जाती हैं। वैधव्य, जीवन साथी के लिए कल्पना की उड़ान या पारिवारिक आर्थिक अभाव के कारण उन पर आ पड़ता दायित्व या स्वतः उपजता दायित्वबोध – ये सब ऐसी ही परिस्थितियाँ हैं । कई बार स्त्रियाँ इसे झेल नहीं पातीं और अलग अलग तरह की मनोग्रंथियों का शिकार हो जाती हैं। स्त्रियॉं की इस विडम्बना और पीड़ा की उपेक्षा को रेखांकित करते हैं रेणु । अपनी कहानियों द्वारा वे ऐसे पात्रों के लिये भी करुणा और सहानुभूति पैदा करते हैं। रेणु की ऐसी कहानियों में से ही एक है ‘कस्बे की लड़की’।
जैसे कोई चित्रकार एक एक रेखायें खीचता है और आकृति उभरने लगती है, धीरे धीरे स्पष्ट होती जाती है, वैसे ही धीरे धीरे खुलते हैं इस कथा के पात्र और उनकी स्थितियाँ, आपसी सम्बन्ध और उन सबके बीच मानवोचित गुण, अवगुण, भाव, द्वेष, संवेदना । और कहानियों की तरह बरबस अपने में उलझा लेता हुआ पात्र तुरत यहाँ नहीं मिलता लेकिन एक भावना की छुअन शुरू हो जाती है। पता लगने लगता है — लल्लन अर्थात प्रियव्रत संवेदनशील है, उसके भैया, भाभी में संवेदना की कमी है, लल्लन के पिताजी अपने मित्र के रिश्तेदार की पुत्री को स्नेह देते, उसको सहायता पहुंचाते हैं … और इधर सरोज है जो …. है संवेदना के केन्द्र में ।वह मध्यवर्गीय या निम्न मध्यवर्गीय परिवार की एक लड़की है, जो डीलडौल में ‘साँवली नहीं, काली है। मोटी नहीं, देह दुहरी है।चलते समय हर डेग पर अस्वाभाविक ढंग से ज़ोर देती है और प्रसन्न होकर हँसते समय मुंह से लार टपक पड़ती है, यदा – कदा’, जो अपने रूप को लेकर स्वयं कहती है ‘…अपनी कुरूपा बहन…’। वह हज़ारीबाग के पास, कस्बे के एक स्कूल मे शिक्षिका है। पिता की मृत्यु हो चुकी है । हजारीबाग में शिक्षक संघ का दफ्तर है। कभी दफ्तर के और कभी अन्य कार्यों से उसे हजारीबाग आना पड़ता है ।सरोज के पिता के एक वकील मित्र हैं, उनका उसे स्नेह प्राप्त है। हजारीबाग में आती है तो उनके यहाँ ही रुकती है। उसके, यहाँ रुकने का सिलसिला पिता के समय से ही चला आ रहा है। यहाँ आने पर, स्थानीय भाग दौड़ में सहयोग और सुरक्षा के लिये वकील साहब कभी अपने मँझले पुत्र लल्लन अर्थात प्रियव्रत को साथ भेज देते हैं या कभी स्वयं भी साथ चले जाते हैं। वकील साहब की पत्नी तो नौकर भगेलू को ही साथ भेजना चाहती है, पर वकील साहब ऐसा नहीं होने देते।
प्रियव्रत कवि है। तीन वर्ष पहले उसने एम ए किया है और नौकरी की तलाश में है। प्रियव्रत के मार्फत रेणु उस लगभग कुरूप लड़की के लिये सहानुभूति पैदा करने में सफल होते हैं। ‘‘प्रियव्रत सुबह से ही सरोज दी के विषय में सोच रहा है। ……जब से देख रहा है प्रियव्रत, सरोज दी ऐसी ही हैं। सदा से……. ।…..एक ओर सरोज दी है जो इतनी चीजें , इतने प्यार से लेकर आती हैं और दूसरे ही दिन भाई जी और भाभी जी का मुंह लटक जाता है। तीसरे दिन माँ भी उखड़ी हुई बातें करने लगती हैं उनसे ।“ प्रियव्रत भावुक है, कुछ हद तक रूमानी भी। सरोज को शिक्षक संघ के दफ्तर ले जाने के लिए जाते हुए रास्ते में जब प्रियव्रत और सरोज आम – जामुन के युग्म पेड़ के नीचे खड़े हुए और ‘झरते हुए मंजरियों के कई छोटे, जामुन के कुछ फूल सरोज के सिर पर झरे’ तो प्रियव्रत को पिछले साल रेडियो से सुना लोक गीत याद आने लगता है— ‘ओ गोरी ! ….तू आज रात फिर किसी महुए के तले जाकर खड़ी थी – तेरे बालों से महुए के दारू की बास आती है। मेरे आँखें झपक रही हैं—मतिया गई हैं – तेरा जूड़ा कैसे बांधूँ?’
वह दिनभर सरोज को जहां जहां उसकी जरूरतें हैं, कभी रिक्शे पर, कभी घोड़ागाड़ी पर ले जाता है। इस दिन भर के साथ में रेणु बहुत बारीकी से शारीरिक संवेदनाओं को लेकर उस कुआँरी लड़की की मनोवैज्ञानिकता को रखने में सफल होते हैं, जिसका चरम उस समय होता है जब दिन ढलने के समय दोनों थोड़ा वक़्त कन्हैरी पहाड़ी की तलहटी में बिताते हैं।स्वाभाविक जैविक आवश्यकता से उपजी ऐसी स्त्रियों की मनोव्यथा का चित्रण रेणु की ‘टेबुल’ और ‘कभी न मिटनेवाली भूख’ जैसी अन्य कहानियों में भी है। इन दोनों कहानियों को ‘कस्बे की लड़की’ के साथ देखा जा सकता है।
इस तरह रेणु उस आवश्यकता की ओर इशारा करना चाह रहे हैं, जिस पर भूख, आवास और जीवन की अन्य जरूरतों पर आवाज़ उठाने वालों का ध्यान ही नहीं जा पाता। … जीवन के अन्य अभावों के बीच जैविक आवश्यकता भी सिर उठाती है, …और परिस्थिति के दबाव में उसकी उपेक्षा मनुष्य के व्यक्तित्व को प्रभावित कर डालती है। रेणु यह भी ध्यान दिलाने में सफल दिखते हैं कि कम उम्र में वैधव्य झेलती या पारिवारिक स्थितियों को लेकर विवाह से वंचित स्त्रियों के साथ जो यह मनोवैज्ञानिक समस्या उठती है, इस पर या तो नज़र ही नहीं पड़ती या इससे उठती स्थितियों को गलत ढंग से देखा जाता है। बुरी मंशाओं या बुरी नज़रों का सामना ऐसी स्त्रियों के साथ एक निरन्तर समस्या रहती है। ‘कभी न मिटनेवाली भूख ‘ की गर्ल्स स्कूल की प्रधानाध्यापिका श्रीमती उषादेवी उपाध्याय – उर्फ दीदीजी – को जब स्कूल में ठहरे बारातियों की ओछी टिप्पणी – ‘जहां की सड़कों पर ऐसी परियाँ मारी फिरती हैं, खिड़कियाँ बंद कर बैठनेवाली मल्लिकाएँ कैसी होंगी?’ – के साथ ज़ोरों का कहकहा सुनना पड़ता है तो यह वाक्य और कहकहा ‘खिड़की की लकड़ियों को छेद कर दीदी के अंतस्तल में घुस‘ जाता है’, या जब स्कूल की दीवारों पर ‘खिड़कियाँ तुम्हारी बन्द रहीं पर मैंने तुमको देख लिया‘, ‘रानी अब अध्यापन छोड़ो, मेरे दिल पर राज करो’ पढ़ना पड़ता है , तो वह तिलमिला उठती है। उसी प्रकार ‘कस्बे की लड़की’ सरोज को बार बार शिक्षक संघ के अधिकारी रामनिहोरा सिंह की बदनीयती का सामना करना पड़ता है जो दफ्तर में उससे बातें करते, स्वाभाविक हंसी के बीच कभी ‘पीठ पर थप्पड़’ मार देता है , कभी ‘बाल पकड़ कर खीच’ देता हैं, जब कि है वह सरोज के ‘बाबूजी’ का दोस्त। सरोज समझती है, उसे बुरा भी लगता है पर कुछ मजबूरी होगी कि वह विरोध नहीं कर पाती। जब लल्लन(प्रियव्रत) साथ रहता है तो सरोज उसे मन में पल रहे इस पीड़ा को बता पाती है । ऐसा ही कुछ सरोज तब भी महसूस करती है जब स्टेशनरी की दुकान का छोकरा रखालचन्द्र उर्फ याबला उसे किसी न किसी बहाने घंटा भर ‘अटका’ लेता है और ‘जबर्दस्ती दर्जनों मीठी गोलियां’ उसकी ‘झोली में डाल देता’ है और ‘जिद्द करके एक गोली दुकान पर बैठ कर ही चूसने को कहता’ है।
रेणु जिस समस्या की ओर ले जाना चाह रहे हैं, यह तो उसका छोटा और सामान्य सा पक्ष है। असल पक्ष तो शारीरिक मांग को दमित करने से उत्पन्न वह त्रासद स्थिति है जिसका सामना करती ‘न मिटनेवाली भूख’ की श्रीमती उषादेवी उपाध्याय (दीदीजी) को दौरे पड़ने लगते हैं और वह किसी दवा से ठीक नहीं हो पाती या फिर ‘टेबुल’ कहानी की मिस दुर्बा दास एक अजीब मनोविकार की शिकार हो जाती है। मिस दुर्बा दास को दफ्तर में, उस टेबुल से अस्वाभाविक लगाव पैदा हो जाता है, जिस पर वह वर्षों से काम करती रही है। टेबुल पर कील ठोके जाने की सूचना पर वो व्यथित हो उठती है, टेबुल पर के लगे किसी दाग से उसको वैसी ही पीड़ा होती है, जैसे उसके किसी प्रेमी को कष्ट पहुंचा दिया गया हो और जब कहानी का अन्त होता है तो ‘मिस दुर्बा दास, ए बी एम , टेबुल पर बाँह पसारे , काँच पर गाल रखकर , खिलखिला रही है या रो रही है ! आँखों में आँसू हैं और ओठों पर यह कैसी हँसी? यह कैसा सुख पा रही है मिस दुर्बा दास ?’
कस्बे की लड़की की सरोज के अंदर भी कुछ ऐसा ही मनोवैज्ञानिक घुटन पल रहा है ,जो मनोनुकूल परिस्थिति पर उभर जाता है । शाम में ,कन्हैरी पहाड़ी की तलहटी में पुटुस की झड़ियों और कदम्ब के पेड़ के बीच सरोज की देह छूकर प्रियव्रत लगभग जगाते हुए जब कहता है ‘किस सोच में पड़ गयीं सरोज दी?’… ‘चलो अब लौट चलें। पानी बरसेगा।’, तो सरोज हँसते हुये कहती है ‘ पानी बरसे ! हँह ! हम रुई नहीं हैं।‘ फिर सरोज जिस मांसल कल्पना में खो जाती है वह स्वाभाविक आवेग का सफल चित्रण है। ‘लल्लन जी, यह क्या कर रहे हो? लल्लन ….पगला….बचपन की आदत…. हँह….ठीक इसी तरह गोदी में सिर रखकर …इसी तरह मेरी छाती से सिर रगड़ते थे तुम….. मैंने रामभाई से भी कहा है … हँह…..हँह… तुम अभी भी पाँच साल के शिशु हो …. लल्लन जी ….. तुम जानवर हो … जानवर … हँह…..हँह…कवि …एम॰ ए॰… सुन्दर-सुपुरुष तुम ….इतने प्यारे …इतने प्यारे तुम…. तुमको… हँह….. मैं जानवर नहीं बनने दूँगी … मैं ही जानवर हो गई हूँ …. लल्लन जी , मुझे माफ कर दो …. इस कुरूपा बहन पर दया करो ….. मुझे लजौनी लता की तरह मत रौंदो …!!’
इस संदर्भ में इब्राहिम शरीफ की कहानी ‘पुरजे’ याद आती है। कहानी में विधवा मां के साथ उनका बेटा और बी ए पास बेटी हैं। इस लड़की की अभी शादी नहीं हुई है और यह प्रश्न उसके भाई के मन में घर की आर्थिक विपन्नता से जुड़ी समस्याओं के साथ इस तरह कौंधता है — ” बहन बी ए है खूबसूरत है, कहती है — ‘अपने ही स्टेटस के लड़के से शादी करूँगी’ — ढंग का लड़का मिलता नहीं और मिलता है तो हम उसकी मांग पूरी नहीं कर पाते — जनता हूँ बहन की बी ए की डिग्री और जिस्म में टकराहट हुआ करती है।” कोमल कल्पनाओं और जैविक आवश्यकता की ओर इशारा है यहाँ।
क्या कस्बे की लड़की सरोज भी इन्ही कशमकश के बीच पिस रही है? ये स्थितियाँ किसी पात्र की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से जुड़ी हो सकती हैं, पर हैं तो हमारी सामाजिक व्यवस्था से उपजी स्थितियाँ !
संकेत से बातों को पहुंचाने का जो कौशल रेणु के पास है , वह इस कहानी में भी दिखता है। ‘जाड़े के मौसम में भी सरोज के ब्लाउज का बगल भीगा रहता है’ इस चर्चा से जहां एक ओर सरोज की जिस्मानी जरूरत की ओर संकेत मिलता है; वहीं, रिक्शे पर और नेशनल पार्क में, प्रियव्रत के इस बात पर गौर करने से उसकी भी मनःस्थिति का पता चलता है। इसी प्रकार जब प्रियव्रत सरोज के सामने ‘पुटुस की डाल की छड़ी से पहले एक क्रौस बनाता है’ लजौनी पत्तियों को ‘छड़ी छुआता जाता है, पत्तियाँ मुँदती जाती हैं। अन्त में, अंधाधुन्ध छड़ी चलाकर सबको सुला देता है’ तो मांसलता की कशमकश व्यंजित होती है।
कस्बे की एक लड़की , जो कुरूप है ,जिसके पिता नहीं रहे और जो शिक्षिका बन जीवन बिता रही है, जिसे अपने काली तथा मोटी होने की ग्रंथि भी है, की मनोवैज्ञानिकता को रख कर शायद रेणु समाज की अन्य विसंगतियों के साथ इसे भी जोड़ना चाह रहे हैं ताकि सामाजिक पुनर्संरचना में इस समस्या को भी तरजीह दी जाय , या यह ध्यान दिलाना चाह रहे हैं कि वंचित वर्ग की, विशेषकर स्त्रियों के अन्दर यह भी पलती एक व्यथा है, जिसे या तो नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है या जिसका उपहास उड़ाया जाता है। ‘न मिटने वाली भूख’, की दीदी की हालत पर यह कथन – ‘जाकर अपना दीदी को दूसरा विवाह कर दो ठीक हो जाएगा’ या ‘कस्बे की लड़की‘ की सरोज दी पर मिठाई की दुकान तथा पार्क में लोगों द्वारा शरीर केन्द्रित उपहास इसी स्थिति को इंगित करते हैं। इस पक्ष को रखने वाली रेणु की कहानियाँ मनोवैज्ञानिक ढांचे की कहानियाँ हैं, जिनमे रेणु कथा लेखन की अपनी सारी खूबियों के साथ इस मनोवैज्ञानिक समस्या की ओर ध्यान ले जाने में सफल दिखते हैं।
गौर करने वाली बात यह है कि ‘सरोज’, ‘मिस दुर्बा दास’ या ‘दीदीजी’ ऐसी पात्र हैं, जो किसी भी क्षेत्र के मध्यवर्गीय या निम्न मध्यवर्गीय परिवार में मिल जाएंगी, चाहे उत्तर भारत हो या दक्षिण भारत। जहां कहीं अभाव है, परिवार और जीवन को संतुलित ढंग से ले चलने में कठिनाइयाँ हैं, वहाँ ऐसे पात्र मौजूद हैं, परिस्थितियों की शिकार ऐसी स्त्रियाँ उपस्थित हैं। ।ये किसी अंचल विशेष की पात्र नहीं हैं , न उनकी मनोव्यथा किसी अंचल या भूगोल की रेखाओं में सीमित है।
रेणु जब ऐसे पात्रों का मनोविज्ञान सामने रखते हैं, संवेदनात्मक रूप से उनकी पीड़ा से पाठक को जोड़ने में सफल होते हैं तो वे ‘आंचलिकता‘ के घेरे से बाहर दिखाई देते हैं। ये कहानियाँ, इसलिए भी, रेणु की महत्वपूर्ण कहानियों में शामिल किए जाने की काबिलियत रखती हैं।
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प्रकाश देवकुलिश
लेखक कवि एवं मीडियकर्मी हैं तथा ‘सबलोग’ के संयुक्त सम्पादक हैं। ‘वागर्थ’, ‘कथादेश’ ‘प्रसंग’, ‘युद्धरत आम आदमी’, दैनिक भास्कर, आवाज़ (दैनिक) आदि में कवितायें प्रकाशित। ‘सबलोग’ में आलेख एवं अंग्रेजी से अनुवाद प्रकाशित। कवितायें ,नाटक, रूपक, साक्षात्कार एवं साहित्यिक पत्रिका (संपादित)। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से अखिल भारतीय कार्यक्रम में प्रसारित। पूर्व कार्यक्रम अधिशासी (हिंदी कार्यक्रम एकांश) आकाशवाणी कोलकाता, रांची एवं अन्य।
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