फणीश्वर नाथ रेणु

रसप्रिया : एक पुनर्पाठ

 

  •  रविशंकर सिंह

 

कोई भी रचनाकार केवल अपनी परम्परा का निर्वाह  नहीं करता,   बल्कि वह उस परम्परा का विकास भी करता है। परम्परा कदापि रुढ़ नहीं होती, वह सतत प्रवहमान एक धारा है। इसकी मुख्य धारा से देश – काल के लिए अप्रासंगिक हो गये तत्त्व क्रमशः छूटते चले  जाते हैं और समय सापेक्ष अनेक उपयोगी तत्त्व जुड़ते चले  जाते हैं।  परम्परा को विकसित करने वाली नयी परिकल्पना ही किसी रचनाकार की  मौलिकता होती है। उसकी यही मौलिकता साहित्य में उसका अवदान कहलाती है।

नयी कहानी के दौर में ‘राकेरा त्रयी’ से भिन्न हाशिये के त्रयी लेखक शेखर जोशी, अमरकान्त और रेणु अपनी अनवरत साहित्य साधना से प्रेमचन्द की परम्परा को विकसित करते हुए भारतीय जन – जीवन के सुख-दुख और संघर्षों को साहित्य में दर्ज कर रहे थे।

परम्परा वास्तव में  ऐसी अजस्र धारा है, जिसमें ना जानें किन – किन स्रोतों से अनन्त लघु धाराएँ आकर मिलती रहती हैं और मुख्य धारा को समृद्ध करती रहती हैं।  स्वयं रेणु  ने कहा है, ‘लोग एक बड़ा – सा नाम लेकर हम लेखकों की उपलब्धि को झुठला देते हैं, फिर भी यदि परम्परा से इतना ज्यादा आग्रह हो तो हमें हिन्दी से बाहर की सम्भावनाओं पर भी विचार करना चाहिए। बांग्ला के श्री ताराशंकर वंद्योपाध्याय मेरे अति प्रिय लेखक हैं।  श्री सतीनाथ भादुड़ी मेरे साहित्यिक गुरु हैं। उपन्यास-कला की दीक्षा मैंने उन्हीं के श्रीचरणों में पायी। अतः कहना ही हो तो मुझे उन्हीं लोगों की परम्परा का बतलाना अधिक संगत होगा।’

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि प्रेमचन्द के बाद रेणु ऐसे अद्वितीय कथाकार हुए, जिन्होंने साहित्य को  जनभाषा की मिठास में घोल कर पुनः  लोक के करीब ला दिया,  जिस  भाषा को प्रेमचन्द के बाद कुछ रचनाकार  तत्सम बहुल भाषा के कारण आम जन से दूर ले जा रहे थे। रेणु की भाषा के बारे में निर्मल वर्मा का एक कथन याद आता है, ‘मैं जब भी लिखने बैठता हूँ तो यह सोचकर मेरी रूह काँप उठती है कि इसे  फणीश्वर नाथ रेणु भी पढ़ेंगे।’

रेणु भले ही प्रेमचन्द परवर्ती कथाकार थे,  लेकिन वे प्रेमचन्द अनुवर्ती कथाकार नहीं थे। प्रेमचन्द और रेणु के साहित्य में अन्तर साफ-साफ देखा जा सकता है। प्रेमचन्द ने  सामन्ती व्यवस्था में पिसते हुए किसानों के दुख – दर्द को जरुर बयाँ किया है, लेकिन रेणु ने जनता की सांस्कृतिक विरासत को उनके सुख-दुख,  हर्ष – विषाद के साथ  साहित्य में दर्ज किया है।  रेणु अपनी ऑडियो – वीडियो शैली में ना केवल दृश्य को विजुलाइज करते हैं, बल्कि वे पात्रों के अन्तर्मन में प्रवेश कर उनकी भावनाओं के कोमल तन्तुओ के रेशे-रेशे को अत्यन्त` कौशल के साथ विश्लेषित करते हैं।

प्रश्न उठता है कि आखिर रसप्रिया है क्या? रेणु लिखते हैं, ‘विद्यापति नाचने वाले रसप्रिया गाते थे। सहरसा के जोगेन्दर झा ने विद्यापति के बारह पदों की एक पुस्तिका छपायी थी। मेले में खूब बिक्री हुई थी, रसप्रिया पोथी की। विदापत नाचने वाले ने गा–गाकर जनप्रिया बना दिया था, रसप्रिया को।’

रेणु की ‘रसप्रिया’ कहानी में हम देखते हैं कि स्वातन्त्र्योत्तर भारत में रेणु को चिन्ता है कि रसप्रिया का राग जन–जीवन से  विलुप्त हो रहा है, ‘जेठ की चढ़ती दोपहरी में खेतों में काम करने वाले भी अब गीत नहीं गाते हैं। कुछ दिनों के बाद कोयल भी कूकना भूल जाएगी क्या? ऐसी दोपहरी में चुपचाप कैसे काम किया जाता है? पाँच साल पहले तक तो लोगों के दिल में हुलास बाकी था। पहली वर्षा से भीगी हुई धरती के हरे–भरे पौधों से एक खास किस्म की गन्ध निकलती है। तपती दोपहरी में मोम की तरह गल उठती थी रस की डली, वे गाने लगते थे विरहा, चाँचर, लगनी…। हाँ..रे, हल जोते हलवाहा भैया रे… खुरपी रे चलावे..म..ज..दू..र। एहि पन्थे, धनी मोरा हे रुसलि…।’

धनी का रुठना और आदमी के द्वारा उसे मनाना मानव समाज की सनातन क्रिया है। मानिनी नायिका की तलाश में नायक घर से निकल कर रास्ते में हलवाहे से, घास गढ़ने वाले मजदूर से पूछता है, ‘इसी रास्ते से उसकी धनी रूठ कर चली गयी है। क्या किसी ने उसे देखा है ? ‘ नायक – नायिका का यह अनुराग गीत की लड़ियाँ बन कर लोक कन्ठ में फूट पड़ता है।

रामचरितमानस में यद्यपि सीता का अपहरण हुआ है, लेकिन विरही राम का कातर स्वर वहाँ भी देखा जा सकता है, ‘हे खग, हे मृग, हे मधुकर श्रेणी तुमने देखी सीता मृगनैनी?”

लोक जीवन चाहे जितना भी गरीब और अशिक्षित हो, परन्तु उसके पास लोक संस्कृति की अकूत सम्पदा है। आज यही लोक संस्कृति विलुप्त होती जा रही है, जो रेणु की चिन्ता का विषय है।’ पन्द्रह – बीस साल पहले तक विद्यापति नाच की थोड़ी पूछ हो जाती थी। शादी- ब्याह, यज्ञ -उपनयन, मुंडन – छेदन आदि शुभ कार्यों में विद्यापति मण्डली की बुलाहट होती थी।…. पंचकौड़ी का भी एक जमाना था।”

‘धीरे-धीरे इलाके से विद्यापति नाच ही उठ गया। अब तो कोई भी विद्यापति की चर्चा भी नहीं करता है। धूप – पानी से परे पंचकौड़ी का शरीर ठंडी महफिलों में ही पनपा था। बेकार जिन्दगी में मृदंग ने बड़ा काम दिया। बेकारी का एकमात्र सहारा – मृदंग। उनदिनों गाँव एक तरह से आत्मनिर्भर था। आधुनिकता की अन्धी आँधी ने कमेरों का काम छीन लिया। एक युग से मिरदंगिया गले में मृदंग लटका कर भीख माँग रहा है – धा- तिंग, धा- तिंग !’

प्रेमचन्द के यहाँ सामन्ती व्यवस्था ने पूस की रात कहानी के पात्र हल्कू को किसान से मजदूर बना दिया है तो रेणु के यहाँ बदलती हुई सांस्कृतिक अभिरुचि ने एक कलाकार को भिखारी बनने पर विवश कर दिया है।

गाँव में गरीबी, अभाव, भुखमरी है, बावजूद इसके लोग  गीत-गवनयी, चैता – बिरहा,  कीर्तन-भजन  और हंसी – ठिठोली के साथ बड़ी से बड़ी समस्याओं को चुनौती देते हुए अपना जीवन बसर करते थे।

रेणु को हमारे समाज में विलुप्त हो रहे उसी उल्लसित जीवन की तलाश है। वे अपनी रचनाओं में किसी काल्पनिक लोक का सृजन नहीं करते, बल्कि  ग्रामीण परिवेश, युगीन समस्याओं और अपने आस-पास के जन-जीवन की कथा को सूक्ष्म ताने-बाने में पिरो कर अपनी रचनाओं की बुनावट करते हैं।

सूर, तुलसी, संत कबीर कवि होने से पहले सच्चे भक्त थे। यह दीगर बात है कि उनकी कविताई भी उच्च कोटि की है, लेकिन अपनी कविताओं में वे अपनी भक्ति धारा के सिद्धांतों को पिरोना नहीं भूलते हैं,  उसी प्रकार बिहार सोशलिस्ट पार्टी और समाजवादी पार्टी के सदस्य  फणीश्वर नाथ रेणु पहले एक्टिविस्ट हैं उसके बाद एक सफल लेखक।  रेणु के साहित्य में सोद्देश्यता दूध मिश्री की तरह घुली- मिली  है।  उनकी रचनाओं में  विशेष प्रकार की एक मिठास  है, जो वीणा के तारों से निकली मधुर ध्वनि की तरह  मानव मन के कोमल तन्तुओं को  झंकृत कर देती है। उनकी रचनाओं में आदि से अन्त तक आदिम रागिनी पार्श्व संगीत की तरह बजती रहती है, जो वर्षा की बूंदों से तृप्त  धरती से उठती हुई सोंधी सुगन्ध की तरह  पाठकों के मन प्राण को आप्लावित कर देती है। रेणु की रचनाएँ  जीवन राग की करुण अभिव्यक्ति है।

रेणु की रसप्रिया कहानी 1959 में प्रकाशित ‘ठुमरी’  कहानी – संग्रह की पहली  कहानी  है, जो पहली बार 1955 ईस्वी में धर्मवीर भारती के संपादन में इलाहाबाद से निकलने वाली ‘ निकष ‘ पत्रिका में छपी थी। विचारणीय है कि इस संग्रह की नौ कहानियों में से ठुमरी शीर्षक से एक भी कहानी नहीं है। बावजूद इसके संग्रहीत कहानियों की प्रवृत्ति के आधार पर रेणु ने कथा संग्रह का नाम ठुमरी रखा है। ठुमरी अर्द्ध शास्त्रीय गायन की एक शैली है, जिसमें  राग की शुद्धता की तुलना में भाव सौन्दर्य को ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाता है।  रंजकता तथा भावाभिव्यक्ति श्रृंगार रस  प्रधान इस राग का मूल मन्त्र  है। अपने  प्रथम कथा संग्रह को ठुमरी नाम दिए जाने के पीछे रेणु का उद्देश्य स्पष्ट है।

जिस दौर में रसप्रिया कहानी लिखी गयी वह नयी कहानी के उभार का दौर था। उसी दौर में रांगेय राघव की गदल और रेणु की रसप्रिया कहानी आयी थी। रसप्रिया कहानी ने रेणु को यकायक चर्चा के केन्द्र में ला दिया था।

औपन्यासिक वितान में रची गयी,  आकार में छोटी सी रसप्रिया कहानी को एक  महाकाव्यात्मक आख्यान कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी।  कहानी की दृश्यात्मकता, प्रतीकात्मकता और बिम्ब विधान पाठकों को सोचने – समझने के लिए काफी स्पेस और स्कोप देती हैं।

कहानी का आरम्भ मिरदंगिया पंचकौड़ी और मोहना की मुलाकात से होती है। पंचकौड़ी गुनी आदमी है। ‘ विदापत’ नाच के लिए उसे एक नटुवा की तलाश है। अपने जीवन काल में उसने कई नटुवा तैयार किए, लेकिन सबने उसे धोखा दिया है। नृत्य के लिए नटुवा को ट्रेन्ड करने में उसे महारत हासिल है। कुछ हफ्तों में ही वह नटुवा को इस तरह ट्रेन्ड कर देता है कि नटुवा जब भांवरी देकर ‘ परवेश’ करता है, तो दर्शक वाह-वाह करने लगते हैं। वह सुन्दर छवि वाले नटुवा की तलाश करता है, जिसे देखकर दर्शक दीर्घा में बैठे लोग सुन्दर ब्राह्मण कन्याओं से उसकी तुलना करने लगते हैं।

अपनी बोली मिथिला में नटुवा के मुँह से ‘जन्म अवधि हम रूप निहारल’ सुनकर वे निहाल हो जाते थे, इसलिए हर मण्डली का मूलगैन (मूल गायक) नटुवा की खोज में गाँव-गाँव भटकता फिरता था। ऐसा लड़का जिसे सजा- धजा कर नाच में उतारते ही दर्शकों में एक फुसफुसाहट फैल जाए। ठीक ब्राह्मणी की तरह लगता है। है न?’

इस बिन्दु पर रेणुका समाजशास्त्रीय विश्लेषण  देखने योग्य है। रेणु संकेत करते हैं कि अमूमन खाए-पिए-अघाए, आराम तलब लोगों के घरों में ही सुन्दर चेहरे वाली कन्याएँ देखी जाती है। भूख – गरीबी की मार झेलते हुए मेहनतकश महिलाओं की छवि में श्रम का सौन्दर्य भले ही दिख जाए, लेकिन वैसे मसृण सौन्दर्य का वहाँ सर्वथा अभाव रहता है।

रसप्रिया कहानी का मिरदंगिया आर्थिक दृष्टि से विपन्न है, लेकिन उसके भीतर जो सांस्कृतिक सम्पन्नता है, रेणु की दृष्टि वहाँ तक जाती है। मिरदंगिया का सौन्दर्यबोध सुविधाग्रस्त वर्ग के सौन्दर्यबोध से भिन्न और अधिक सजीव है। उसका सौन्दर्यबोध चरवाहा मोहना छौड़ा को देखते ही ‘ अपरूप रूप ‘ कहकर फूट पड़ता है। मोहना की सुन्दरता को देखकर मिरदंगिया की आँखें सजल हो जाती हैं।  मोहना की सुन्दरता के बहाने रेणु समाज के एक कड़वे सच को भी उद्घाटित करते चलते हैं।

नैरेटर के रूप में रेणु की व्यंजना द्रष्टव्य है, ‘सवर्णों के घर में नहीं, छोटी जाति के लोगों के यहाँ मोहना जैसे लड़की-मुहाँ लड़के हमेशा पैदा नहीं होते। ये अवतार लेते हैं,  समय-समय पर जदा जदा हि….! ‘

रेणु महान कथाकार इसलिए भी हैं कि इनकी कहानियाँ सरल रैखिक नहीं होती हैं। जाति, वर्ण, वर्ग, लिंग और स्त्री समस्या को चित्रित करते समय वे संतुलन बनाए रखते हैं। विषमता मूलक समाज की विसंगतियों को उद्घाटित करते समय रेणु जब सामन्ती समाज की कमियों का उल्लेख करते हैं तो वे उस समाज के सांस्कृतिक अवदान को भी दर्शाना नहीं भूलते हैं।

‘ विदावत नाच’ सवर्ण समाज में ही ज्यादा पसन्द किया जाता था।

‘ मैथिल ब्राह्मणों, कायस्थों और राजपूतों के यहाँ भी विदावत वालों की बड़ी इज्जत होती थी।

मिरदंगिया दो साल के बाद इस इलाके में आया है। कमलपुर के नन्दू बाबू के घर आने में मिरदंगिया को चार मीठी बातें सुनने को मिल जाती हैं। एक दो जून भोजन तो बंधा हुआ ही है। कभी-कभी रस चर्चा भी यहीं आकर सुनता है वह। ‘

इसके बाद रेणु  बदलते वह समाज के  नजरिए को भी दर्शाते हैं, ‘दुनिया बहुत जल्दी जल्दी बदल रही है। ‘

यह बदलाव सकारात्मक नहीं है, क्योंकि इसी बदलते हुए नजरिये के कारण शोभा मिसिर का बेटा मिरदंगिया से कहता है, ‘ तुम जी रहे हो या थेथरई कर रहे हो मिरदंगिया ? ‘

बड़े-बूढ़े ही नहीं, बल्कि ऊँची जाति के बच्चे को भी ऐसी अपमान जनक बातें करने का अधिकार जिस समाजिक व्यवस्था ने दे रखा है,  उस  व्यवस्था में ’……..मोहना को देखकर मिरदंगिया के मुँह से बेटा सम्बोधन निकलना चाहता है, लेकिन वह  ‘ बे ‘ कह कर ही रुक जाता है, उसके आगे ‘ टा ‘ जोड़ने का साहस वह नहीं कर पाता है। इस बेबसी की वजह यह है कि एक बार पर मानपुर में उसने एक ब्राह्मण के लड़के को प्यार से बेटा कह दिया था, सारे गाँव के लड़कों ने उसे घेर कर मारने की तैयारी की थी—बहरदार होकर ब्राह्मण के बच्चे को बेटा कहेगा। मारो साले बुड्ढे को घेर कर ! मृदंग फोड़ दो।’

लड़कों के इस उग्र तेवर को भी मिरदंगिया कितनी सहजता से झेल लेता है, ‘अच्छा इस बार माफ कर दो सरकार! अब से आप लोगों को बाप ही कहूँगा। ‘

कितनी चुभन है इस संवाद में ! रेणु का समाज जिस रूप में था, आज भी कमोबेश वहीं  रुका हुआ है।  पंचकौड़ी  जब मोहना को देखता है,  तो उसके पेट की तिल्ली को देखकर उसे बहुत चिन्ता होती है।  एक गुणवान को तिल-तिल मरते हुए देखने की कल्पना भी वह नहीं करना चाहता है।

’मिरदंगिया जानता है, मोहना जैसे लड़के के पेट की तिल्ली चिता पर ही गलती है ! क्या होगा पूछकर कि दवा क्यों नहीं कराते हो ?”

जहाँ रोटियों के ही लाले पड़े हों, वहाँ डॉक्टरी इलाज भला कैसे सम्भव है।  गरीबी की मार झेलते हुए लोगों के पास नीम हकीम और देसी नुस्खे के अलावा अपने इलाज के लिए उपाय ही क्या बचता है?  मिरदंगिया  वैद्य भी है।  एक झुण्ड बच्चों का बाप धीरे-धीरे एक पारिवारिक डॉक्टर की योग्यता हासिल कर लेता है। विदापत नाच के नटुआ के लिए मिरदंगिया ने बाप की तरह सेवा और स्नेह देकर एक नृत्य के लिए तैयार किया है।’ वह अपने साथ नमक सुलेमानी, चाँद मार पाचन और कुनैन की गोली हमेशा साथ रखता था। …लड़कों को सदा गर्म पानी के साथ हल्दी की बुकनी खिलाता। पीपल, काली मिर्च, अदरक वगैरह को घी में भूनकर शहद के साथ सुबह-शाम चटाता।.. गरम पानी।’

चिकित्सा और दूध पीने के लिए मिरदंगिया अपनी गाढी कमाई का जमा किया हुआ चालीस रुपया मोहना  को यह बताते हुए देता है कि ये रुपये भीख के नहीं हैं। मिरदंगिया स्वयं गरीबी की बीमारी से जूझ रहा है, लेकिन उसे मोहना की तकलीफ से कष्ट होता है। इस स्थल पर उसकी मानवीयता छलक कर बाहर आ जाती है।

जिन्दगी के कड़वे अनुभवों ने मिरदंगिया को निर्वेद की उस दशा तक पहुँचा दिया है, जहाँ उसके लिए अब अपना और पराया का भेद समाप्त गया है। मोहना  के प्रति उसका प्यार उमड़ आता है।

‘अपने बच्चे को भी शायद वह इतना प्यार नहीं दे सकता। ….और अपना बच्चा ! हूँ !… अपना- पराया ? अब तो सब अपने, सब पराए।’

लोग मिरदंगिया को भिखमंगा समझते हैं, उसे दसदुआरी कहते हैं, लेकिन मिरदंगिया को अपनी कला पर नाज़ है। वह मानता है कि ‘किसन कन्हैया भी नाचते थे, नाच तो एक गुन है, अरे जाचक कहो या दसदुआरी, चोरी डकैती और अवारागर्दी से अच्छा है अपना अपना गुन दिखा कर लोगों को रिझाकर गुजारा करना।

लोक संस्कृति पर इस लोक कलाकारों को स्वाभिमान ही नहीं गर्व भी है। जब ऐसे स्वाभिमानी कलाकार पर लांछन के पत्थर फेंके जाते हैं तो उसका स्वाभिमान आहत हो उठता है। मोहना जब उसका मूढ़ी आम खाने से इनकार कर देता है कि यह भीख का अन्न है तो  मिरदंगिया का स्वाभिमान उग्र रूप धारण कर लेता है। वह तुरन्त प्रतिकार कर उठता है, ‘ कौन भीख माँगता है ? ‘

रेणु लिखते हैं, ‘मिरदंगिया के मन की झाँपी में कुँडली मार कर सोया हुआ साँप फन फैलाकर फुफकार उठा, एस्साला मारेंगे वह तमाचा कि…।’

कलाकार भूखा नंगा रह सकता है, लेकिन अपना अपमान बर्दास्त नहीं कर सकता। इसलिए तो मोहना जैसे गुणी बालक को भी मिरदंगिया गाली दे बैठता है और उसे मारने के लिए भी तैयार हो जाता है।

मृदंग के सुर- ताल के पारखी पंचकौड़ी ने एक बार सामदेव झा के यहाँ जनेऊ में गिरिधर पट्टी मण्डली वालों का मृदंग छीन लिया था।  बेताल बजा रहा था। वह मोहना को भी सीख देता है, ‘हाँ बेटा ! बेताले के साथ कभी मत गाना- बजाना। जो कुछ भी है सब चला जाएगा। समय कुसमय का भी ख्याल रखना।’

इस कहानी में प्रकृति के सौन्दर्य के अनेकानेक चित्र सायास और प्रतीकात्मक रूप से चित्रित किए गये हैं। एक चील को कभी आकाश में उड़ाया जाता है, तो कभी वृक्ष पर बैठाया जाता है। उसकी बोली को रेणु शब्दाकिंत करते हैं— टिं – टिं  – हिंक। अकारण नहीं है कि अपने कार्य में बाधक मान कर मिरदंगिया चील को गाली देता है। पहली बार चील को ‘ शैतान ‘ कहता है, दूसरी बार  ‘ए स्साला!’ कह कर वह अपनी भड़ास निकालता है। पंचकौड़ी की गाली क्रम-क्रम से अपना भाव बदलती है।

ग्रीष्म की निचाट  दोपहरी में दो शातिर शिकारी अपने अपने शिकार के लिए निकले हैं।  आसमान में चील चक्कर काटती हुई अपने शिकार की तलाश कर रही है तो मिरदंगिया जमीन पर मोहना जैसे गुणी लड़के के जाल बिछा रहा है।

’रसपिरिया नहीं सुनोगे?….. अच्छा सुनाऊंगा। …..खेत के ‘ आल ‘ पर झरजामुन की छाया में पंचकौड़ी बैठा हुआ है, मोहना की राह देख रहा है।

एक बार उसे लड़के की चोरी भी करनी पड़ी थी।….. बहुत पुरानी बात है इतनी मार लगी थी कि….. बहुत पुरानी बात है।’

गाँव में बच्चों और बूढ़ौं के बीच चिढ़ने-चिढ़ाने की एक परम्परा रही है। मोहना को पता है कि पंचकौड़ी को करैला नाम से चिढ़ है। वह इस मौके को अपने हाथ से नहीं जाने देता है। … और यही बात पंचकौड़ी के मन में मोहना के प्रति जिज्ञासा और कौतूहल उत्पन्न कर देता है।

मोहना जब रमपतिया को मिरदंगिया के बारे में बताता है तो रमपतिया के माथे पर बँधा हुआ घास का बोझा गिर कर खुल जाता है। मोहना की माँ खेत की मेड़ पर बैठ जाती है। जेठ की शाम से पहले जो पुरवइया चलती है,  धीरे-धीरे तेज हो गयी है, मिट्टी की सुगन्ध हवा में धीरे-धीरे घुलने लगी है। घास का बोझ प्रेम की पीड़ा का बोझ है जो प्रियतम के आगमन  की बात सुनकर मन की धरती पर खुल कर बिखर जाती है। पुरवइया बयार और मिट्टी की सुगन्ध विरहाग्नि को सुलगाने के लिए उद्दीपन का कार्य करती हैं।

रसप्रिया कहानी मूलरूप से प्रेम कहानी है।  जोधन गुरु जी के पास रसप्रिया सीखने और मूलगैन बनने के कला सीखने के लिए पंचकौड़ी अपने जीवन का आठ वर्ष होम कर देता है।  जाति आधारित इस सामाजिक व्यवस्था में पंचकौड़ी जाति के प्रति लोगों की कमजोरियों से परिचित है, इसलिए लोभ के वशीभूत होकर वह  गुरुजी से झूठ बोल कर अपनी जाति छिपा लेता है। मिरदंगिया ‘ मूलगैनी ‘ सीखने गया था और गुरुजी ने उसे मृदंग थमा दिया था।

‘जोधन गुरु जी की बेटी रमपतिया ! जिस दिन वह पहले – पहल जोधन की मण्डली में शामिल हुआ था रमपतिया बारहवें में पाँव रख रही थी। बाल – विधवा रमपतिया पदों का अर्थ समझने लगी थी। काम करते-करते वह गुनगुनाती, ‘ नव अनुरागिनी राधा, किछु नहीं मानय बाधा।’

तत्कालीन समाज में प्रचलित बाल-विवाह जैसी कुरीति पर भी कथाकार रेणु की दृष्टि है। विचारणीय है कि रमपतिया बारहवें में कदम रख रही है। इस कच्ची उम्र में ही उसे वैवाहिक बन्धन में बाँध दिया गया था, जब उसे विवाह क्या होता है यह भी ज्ञान नहीं रहा होगा। उसके जीवन की यह विडम्बना ही है कि समझदारी की दहलीज पर कदम रखने से पूर्व ही वह विधवा हो जाती है।

रमपतिया पंचकौड़ी के रसप्रिया गीतों से अभिभूत होकर उसकी ओर आकर्षित होती है। मिरंदगिया ने भी अपने प्रेमोन्मत्त जवानी का उपयोग किया है। ‘आठ वर्ष तक तालिम पाने के बाद जब गुरु जी ने स्वजाति पंचकौड़ी से रमपतिया के चुमौना की बात चलाई तो मिरदंगिया सभी ताल – मात्रा भूल गया।

इस प्रसंग से यही लगता है कि मिरदंगिया ने बहुत बड़ा फरेब किया था। रमपतिया भी आकाश की ओर हाथ उठाकर बोलती है, ‘हे दिनकर ! साच्छी रहना, मिरदंगिया ने फुसलाकर मेरा सर्वनाश किया है। मेरे मन में कभी चोर नहीं था। हे सुरुज भगवान ! इस दसदुआरी का अंग अंग फूटकर …..।’

अपमान और दुख की आग में जलने वाली रमपतिया को भी नहीं मालूम हो सका कि वास्तव में मिरदंगिया फरेबी नहीं है। पंचकौड़ी की कोई विवशता थी, जो उसे रोक रही थी। चुमौना का प्रस्ताव सुनकर वह गुरु जी की मण्डली छोड़कर रातों-रात भाग गया। उसने गाँव आकर अपनी मण्डली बनाई, लड़कों को सिखाया – पढ़ाया और कमाने – खाने लगा, लेकिन वह मूलगैन नहीं हो सका कभी। मिरदंगिया ही रह गया सब दिन। मूलगैन बनने और मृदंग सीखने के लोभ में उसने गुरुजी से अपनी जात छिपा रखी थी।

इस स्थल पर महाभारत कालीन कर्ण और परशुराम – प्रसंग याद आता है। कर्ण परशुराम के पास धनुर्विद्या सीखने के लिए जाता है। कर्ण के दिव्य ललाट को देखकर परशुराम उसे ब्राह्मण जाति का बालक समझ लेता है और उसे धनुर्विद्या में निष्णात कर देता है। कीट – प्रसंग के बाद परशुराम को शक होता है और सच्चाई जानकर वह कर्ण को अन्त काल में अपने अमोघ अस्त्र के भूल जाने का श्राप देता है।

महाभारत प्रसंग में यद्यपि कर्ण अपने गुरु से झूठ नहीं बोलता है, लेकिन विद्या – ग्रहण करने तक उसका मौन रह जाना भी आधा झूठ ही है। अन्त में परशुराम के पूछे जाने पर वह अपनी जाति का उल्लेख करता है।

यहाँ  ‘ चुमौना ‘ जैसी प्रथा को समझने की जरूरत है।  चुमौना एक आंचलिक शब्द है,  लेकिन यह प्रथा देश के कोने- कोने में अलग-अलग नामों से प्रचलित है। इस प्रथा को कहीं  चूड़ी पहनाना, चुनरी ओढ़ाना जैसे नामों से भी अभिहित किया गया है। तथाकथित पिछड़ी जातियों में चुमौना जैसी प्रगतिशील प्रथा पहले से ही प्रचलित थी, जिसे राजा राममोहन राय और विद्यासागर जैसे समाज सुधारकों के प्रभाव में आकर कालान्तर में अगड़ी जातियों ने भी अपनाया।  यह कहा जा सकता है कि हम जिस पुनर्जागरण की बात करते हैं, वह अगड़ी जातियों के लिए पुनर्जागरण था।  ढोल – ढाक, बाजा – बाराती और पंडित के मंत्रोच्चारण के बिना  विधवा कन्या को किसी पुरुष के साथ पति-पत्नी के रूप में रहने की सामाजिक मान्यता को चुमौना कहा जाता है।

पंचकौड़ी के सामने जब चुमौने की बात आती है तो वह स्थापित समाज की जाति व्यवस्था को तोड़ने का साहस नहीं कर पाता है। कैसी है यह समाज व्यवस्था, जो व्यक्ति के सिर पर जाति की पगड़ी बाँध कर उसके व्यक्तिगत प्रेम को भी हड़प लेती है।

कथाकार रेणु  के पात्र  टाइप्ड नहीं होते हैं।  श्वेत – श्याम वर्णों के  समिश्रण के बिना न तो कोई चित्र मुकम्मल बनता है और ना ही व्यक्ति का चरित्र। रसप्रिया कहानी का नायक पंचकौड़ी भी एक इंसान है। उसके चरित्र की भी खूबियाँ और खामियाँ हैं।

‘..….जोधन गुरु जी की मृत्यु के बाद एक बार गुलाबबाग मेले में रामपतिया से उसकी भेंट हुई थी।  रमपतिया  उसी से मिलने आयी थी। पंचकौड़ी ने साफ जवाब दे दिया था, ‘क्या झूठ फरेब जोड़ने आयी है? कमलपुर के नन्दू बाबू के पास क्यों नहीं जाती, मुझे उल्लू बनाने आयी है। नन्दू बाबू का घोड़ा बारह बजे रात को ….।

यहाँ रमपतिया ने पंचकौड़ी के सामने अपने गर्भ ठहरने की बात का कोई जिक्र नहीं किया है। वह तो प्रेम के रेशमी डोर में बंधी हुई अपने पहले प्यार की तलाश में उससे मिलने के लिए चली आयी है। मेले में पंचकौड़ी के मुँह से अपने ऊपर लगाए गये चारित्रिक लांछन को उसका नारी मन स्वीकार नहीं कर पाता है।

चीख उठी थी रमपरिया, ‘पांचू! …. चुप रहो।’

यह है रेणु के नारी पात्र की मिलिटेंसी, जो अपने प्यार पर अपना सर्वस्व निछावर कर देती है, वही नारी अपमान और लांछन को सुनकर नागिन की तरह फुफकार उठती है।

… तब क्या पंचकौड़ी नन्दू बाबू को अपना रकीब मान कर रमपतिया के प्रेम की उपेक्षा करता है? सतही तौर पर देखने से तो ऐसा ही प्रतीत होता है, लेकिन इसकी दूसरी व्याख्या भी हो सकती है। जाति बन्धन की जिस गाँठ को वह पहले नहीं तोड़ सका था, शायद आज भी वह उस कुंठा से नहीं ऊबर  पाया है।  अपने हृदय में उमड़ते हुए प्यार के सागर को छुपाते हुए वह  रमपतिया के मनुहार की उपेक्षा करने के लिए विवश  है। ब्राह्मणवादी  जाति व्यवस्था की जड़ परतदार सामाज में गहराई तक समायी हुई है, जिससे कोई भी जाति मुक्त नहीं हो पायी है।

पंचकौड़ी मिरदंगिया  रमपतिया के प्रेम की अवमानना कर के अपने जीवन को नर्क बना लेता है। उसका सामाजिक प्रायश्चित भी तो होना चाहिए। इसलिए गाँव के बच्चे मिरदंगिया को गाली देते हैं, अपमानित करते हैं। इतना अपमान सह जाना पंचकौड़ी के लिए प्रायश्चित ही हो सकता है। उसके प्रेम की एकनिष्ठाता इस बात से भी समझी जा सकती है कि वह अपने जीवन में फिर दूसरा विवाह भी नहीं करता है और खुद रमपतिया से आँखें मिलाने का साहस भी नहीं जुटा पाता है।

मोहना मिरदंगिया से आग्रह करता है, ‘मेरी माँ खेत में घास काट रही है। चलो ना !’

मिरदंगिया रुक जाता है। वह कुछ सोच कर बोलता है, ‘नहीं मोहना ! तुम्हारे जैसा गुणवान बेटा पाकर तुम्हारी माँ महारानी है। मैं महाभिखारी दसदुआरी हूँ। जाचक,फकीर ….!

यह मिरदंगिया का कन्फेशन नहीं तो और क्या है ? बावजूद इसके पंचकौड़ी का पुरुषवादी  शंकालू मन को  लगता है  कि ‘मोहना की बड़ी-बड़ी आँखें कमलपुर के नन्दू बाबू जैसी हैं। ‘

मोहना से यह जानकर कि  सहरसा में स्थित उसका गाँव तीसरे साल कोसी मैया के पेट में चला गया था, तब से उसकी माँ अपने ममहर में बाबू लोगों के घर कुटाई – पिसाई करती है और मोहना नन्दू बाबू के यहाँ नौकरी करता है। उसका बाप अजोधादास जो कीर्तन मण्डली में गठरी ढ़ोता था,  अब इस दुनिया में नहीं रह गया है।

बाढ़ में घर के कट जाने का दुखद परिणाम रमपतिया के जीवन में दीखता है।  उसे अपने गाँव से विस्थापित होकर अपने ममहर मोहनपुर आना पड़ता है और गुजारे के लिए लोगों के घर में कुटाई- पिसाई करनी पड़ती है।

कीर्तन मण्डली में गठरी ढोने वाला अजोधादास मृत्यु पर्यन्त रमपतिया को भी एक गठरी की तरह  ढोता है।

‘ बिना पैसा का नौकर बेचारा अजोधादास।’

सवाल उठता है कि रमपतिया किसकी गठरी है और उसकी कोख से उत्पन्न मोहना किसका बेटा है?  मोहना के जन्म से पहले एकबार  मेले में पंचकौड़ी ने रामपतिया के द्वार पर रात में नन्दू बाबू के घोड़ा के बंधे होने की बात उठाई थी तो रंपतिया ने उसे जोरदार फटकार लगाई थी। कालान्तर में बूढ़े अजोधादास से रमपतिया का विवाह होता है। पंचकौड़ी को मोहना की आंखों में नन्दू बाबू का अक्स नजर आता है।  पुरुष प्रधान समाज में पराश्रित और पुरुषों द्वारा छली गयी रमपतिया की कोख में किसका बीज पड़ा, यह महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि यह महत्वपूर्ण है कि वह रमपतिया का बेटा है।

मोहना से संवाद के क्रम में  मृदंगिया को भान होता है कि उसकी खिचड़ी दाढ़ी मानों अचानक सफेद हो गयी है। खिचड़ी दाढ़ी का अचानक सफेद हो जाना  सामान्य मुहावरा नहीं है। यह प्रतीकात्मक है।

उसी रात की घटना है कि रसपिरिया बजाते समय पंचकौड़ी की उंगली टेढ़ी हो जाती है।  रमपतिया ने गुस्से में पंचकौड़ी के अंग–अंग फूटने की बात की थी, लेकिन मिरदंगिया की ऊँगली टेढ़ी हो जाने की बात सुनकर वह दौड़ी आती है और ऊंगली पकड़ कर घन्टों रोती है, ‘ हे दिनकर ! किसने इतनी बड़ी दुश्मनी की? उसका बुरा हो।  मेरी बात लौटा दो भगवान ! गुस्से में कही गयी बातें .….! नहीं – नहीं पांचू, मैंने कुछ नहीं किया है। जरूर किसी डायन ने बान मार दिया है।’

मिरदंगिया और रमपतिया आत्मा के धरातल पर जुड़े हुए थे,  मगर समाज व्यवस्था के डर ने उन्हें एक नहीं होने दिया।

रेणु की मानवीयता का स्रोत लोक संस्कृति है। रसप्रिया कहानी में लोक संस्कृति और आँचलिकता का गहरा रंग साफ–साफ दिखता है। मिरदंगिया को रसप्रिया के लिए जो प्यास है,  वह वास्तव में कहानीकार के मन में लोक संस्कृति की प्यास का सूचक है।

मिरदंगिया लोक गीत को जीवित रखना चाहता है,  इसलिए वह मोहना के तान पर अभिभूत हो जाता है। इस जमाने में भी इतनी शुद्ध रसप्रिया गानेवाला कहीं कोई है, और वह है मोहना। वह मोहना पर मन प्राणों से निछावर हो जाना चाहता है, क्योंकि वही उसकी परम्परा को बढ़ाने वाला भविष्य है।

जब मिरदंगिया कहता है कि अब से मैं पदावली नहीं, रसप्रिया नहीं, निरगुण गाऊँगा।  यह एक प्रकार से अगली पीढी में सही गुण पाकर संतुष्ट पिछली पीढ़ी का वानप्रस्थ ग्रहण जैसा लगता  है। मोहना के पास रमपतिया को आते हुए देखकर वह निर्गुण गाता हुआ झरबेरियों की झाड़ी में छुप जाता है। अपनी बेवशी के कारण वह रामपतिया से आँखें मिलाने का साहस नहीं जुटा पाता है। अब तक कोशी नदी से ढ़ेर सारा पानी बह गया है, जिन्हें चाहकर भी लौटाया नहीं जा सकता है। रेणु देश-काल से परे अपने पात्रों  के द्वारा उनके जीवन में अस्वाभाविक रुप से क्रान्ति नहीं करवाते हैं, बल्कि उनके जीवन में बग़ैर हस्तक्षेप किए पात्रों की प्रकृति के अनुरूप उन्हें समय की धारा में प्रवाहित होने देते हैं।

‘अरे, चलू मन,  चलू मन – ससुरार जइवे हो रामा,

कि आहो रामा,

नैहरा में अगिया लगायब रे – की….!’

मोहना से मिरदंगिया के आने की बात सुनकर रमपतिया के हृदय के किसी कोने में छिपा हुआ प्यार उमड़ आता है। वह बीमार मोहना को आह्लाद से अपनी छाती में सटा लेती है।

रामपतिया के हृदय में आह्लाद की यह लहर अकारण नहीं उत्पन्न हो गयी है। अपने जीवन के समस्त प्रेम को निचोड़ कर वह बूंद-बूंद अपने बेटे मोहना के ऊपर बरसा रही है।

उस प्रेम रस में भीग कर मोहना अपनी माँ से कहता है, ‘तू तो हमेशा उसकी टोकरी भर शिकायत करती थी। बेईमान है,  गुरु – दरोही है, झूठा है।’

‘है तो  !  वैसे लोगों की संगत ठीक नहीं। खबरदार जो उसके साथ कभी गया। दस दुआरी जाचकों से हेल – मेल करके अपना ही नुकसान होता है।’

‘है तो !’, रमपतिया के इस उपालंभ में उसके प्यार,  मनुहार और मान की व्यंजना द्रष्टव्य है। ‘ दस दुआरी जाचक ‘ शब्द द्विअर्थी है।

मोहना  बोझ उठाते समय कहता है, ‘जो भी हो, गुनी आदमी के साथ रसपिरिया …!’

‘चौप ! रसपिरिया का नाम मत ले।’

रामपतिया की यह फटकार बेटा के प्रति है या अपने हृदय के किसी कोने में अब तक सांप की तरह कुंडली मारकर बैठे हुए उस ना भुलाये जाने वाले प्रेमातुर मन को  ?

‘अजीब है माँ ! जब गुस्साएगी तो बाघिन की तरह और जब खुश होती है तो गाय की तरह हुँकारती हुई आएगी और छाती से लगा लेगी। तुरत खुश,  तुरत नाराज।’

नारी हृदय का यह मनोविज्ञान मोहना जैसे बालक की समझ से परे है।

दूर से मृदंग की आवाज आती है, ‘धा- तिंग,  धा – तिंग !’

मृदंग की आवाज प्रेमाकुल मन की पुकार है, जिसमें तड़प है, विवशता है, आत्मग्लानि और क्षोभ की मिश्रित ध्वनि है।

रमपतिया  मोहना से मिरदंगिया के बारे में बहुत कुछ सुनना चाहती है। यह जिज्ञासा उसके मन के आकाश में उठ रहे प्रेम के बगूले हैं, जिन्हें वह चाह कर भी नहीं छिपा पाती है।

‘मृदंगिया और कुछ बोलता था बेटा? ‘मोहना की माँ आगे कुछ नहीं बोल सकी।

रमपतिया का बाहरी मन अपने प्रेमी के प्रति प्रकट रूप से घृणा प्रकट करता है और उसके आन्तरिक मन में प्रेमी के प्रति बहुत कुछ जानने का कौतूहल बवंडर की भांति हहास मारता है।

‘कहता था, तुम्हारे जैसा गुणवान बेटा…..”

‘झूठा, बेईमान ! ‘मोहना की माँ आँसू पोंछकर बोली, ‘ऐसे लोगों की संगत कभी मत करना।’

रामपतिया के संवाद में  नारी हृदय की पीड़ा है, प्रेम की तड़प है, उसका मान छिपा हुआ है। उसके प्रेम की पीर को कोई प्रेमी-हृदय  ही महसूस कर सकता है।

 

‘घायल की गति घायल जाणै, जो कोई घायल होय,

जौहरी की गति जौहरी जाणै कि जिन जौहर होय।’

लेखक कथाकार और शिक्षक हैं|
सम्पर्क- +919434390419, ravishankarsingh1958@gmail.com

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samved

साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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3 years ago

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