प्रेम का शाश्वत मर्म
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(एक श्रावणी दोपहरी की धूप)
फणीश्वरनाथ रेणु कहानी रचते नहीं, कहते हैं और लोक की कहन–परम्परा को नये समय में नया टोन प्रदान करते हैं। ऐसा लगता है कि कोई वाचक लोगों के बीच बैठकर किस्सा सुना रहा हो। इनकी प्राय: सभी कहानियों में कहन की यह शैली दिखलाई देती है और कथा के छोटे–छोटे प्रसंग मुख्य राग से पूरी कहानी की संरचना में इस तरह घुल–मिल जाते हैं कि वे मुख्य कथा के ही अनिवार्य अंग बन जाते हैं। रेणु इसीलिए अपने समकालीनों से अलग खड़े नजर आते हैं। सुरेन्द्र चौधरी इन छोटे–छोटे कथा–प्रसंगों को आँचलिक रागिनियाँ कहते हैं–“ मूल राग और आँचलिक रागिनियाँ ! गन्धवाह का रहस्य ! मूल राग अपनी जगह पर स्थिर है, अनाहत, और छोटी–छोटी रागिनियों का वितान उनके चारों ओर लहराता रहता है–भाव–सृष्टि करता रहता है। और कहीं–कहीं ठीक इससे स्वतंत्र पद्धति का सहारा भी रेणु लेते हैं। “ये आँचलिक रागिनियाँ हैं, पर कथा का मूल राग आँचलिकता में कैद नहीं होता। इसलिए ये रागिनियाँ कथा के आँचलिक वातावरण, भाषा और चरित्रों के व्यवहार में परिलक्षित तो होती हैं लेकिन कथा की थीम और उसकी मूल संवेदना स्थानीयता के दायरे को तोड़कर बाहर फ़ैल जाती हैं और छोटी सी थीम लेकर बुनी गयी कहानी भी विराट मानवीय संवेदना की कहानी बन जाती है।
रेणु की विवेच्य कहानी ‘एक श्रावणी दोपहरी की धूप’ मूलत: एक प्रेम कथा है, इसको विशेष रूप से यहाँ कहा जा रहा है, हालाँकि प्रेम इनकी हर कहानी में किसी न रूप में कथा में मौजूद होता ही है। यहाँ जब इसे प्रेम कथा कहा जा रहा है तो इसका विशेष सन्दर्भ है, वह यह कि मूल रूप से यह दो चरित्रों पर आधारित कहानी है, पंकज और झरना नाम के पति–पत्नी पर जिन्होंने प्रेम विवाह किया है। इनके इर्द–गिर्द अन्य कई चरित्र आते हैं, कुछ बीच में उल्लेख भर के लिए आते हैं, कुछ थोड़ी देर के लिए आते हैं लेकिन ये सभी किसी न किसी रूप में कथा की मूल क्राइसिस से जुड़ते जरुर हैं। यह क्राइसिस क्या है? क्या यथार्थ से परे है? क्राइसिस यह नहीं है कि पंकज के दफ्तर के लोग, उसके छोटे साहब उसे इस प्रेम विवाह के लिए ताना मारते हैं। इन प्रसंगों को लाकर रेणु हास्य का भाव भी सृजित करते हैं, प्रेम के प्रति लोगों की हीनग्रन्थि को भी सामने लाते हैं। यहाँ कोई विशेष कटुता नहीं है, लेकिन लोगों की अपनी हीन ग्रन्थियाँ जरुर प्रकट होती हैं। इन हीन ग्रन्थियों में कुण्ठा का भाव भी निहित है, भौंडे मजाक के पीछे उनका पर्वर्सन भी दिख जाता है। ये कथा की छोटी–छोटी रागिनियाँ हैं जो इसके मूल राग को पुष्ट करती हैं और मूल राग है प्रेम, देह और दाम्पत्य जीवन का राग–बोध। पूरी कहानी में देह और मन का संघर्ष चलता है लेकिन कथा का मूल पति–पत्नी का आन्तरिक लगाव है, अनेक तरह के मानसिक टकरावों के बावजूद कहानी मूल रूप से सामाजिक यथार्थ की कहानी है, जैनेन्द्र या निर्मल वर्मा की तरह आलोचनात्मक यथार्थ की नहीं।
प्रेम विवाह के बाद दोनों के बीच जो एक किस्म का ठण्डापन उत्पन्न होता है वह सिर्फ यौन कुण्ठा का परिणाम नहीं है। यहाँ रेणु अपने समकालीनों निर्मल वर्मा और राजेन्द्र यादव दोनों से अलग हो जाते हैं और इसका कारण है कि सामाजिक यथार्थ इनकी चेतना की मूल भूमि है। राजेन्द्र यादव की कहानी ‘जहाँ लक्ष्मी कैद है’ की नायिका लक्ष्मी की तरह इस कहानी की नायिका झरना भी यौन अतृप्ति से गुजरती है, तन का ताप उसे भी विचलित करता है, फिर भी राजेन्द्र यादव की इस कहानी अथवा निर्मल वर्मा की कहानियों में स्त्री का जो अकेलापन या काम कुण्ठा है, उन दोनों से भिन्न है। ‘ जहाँ लक्ष्मी कैद है ‘ में स्त्री की काम कुण्ठा मानसिक विकृति की हद को पार कर जाती है और हिस्टीरिया में बदल जाती है,रेणु की इस कहानी की नायिका भी देह के ताप और यौन कामना के उद्दाम ज्वार को झेलती है, पर सामाजिकता से बाहर जाकर मानसिक विकृति का शिकार नहीं होती, न ही निर्मल वर्मा की कहानियों की अकेली नायिकाओं की तरह मन के अँधेरे कोने में बन्द होकर मनोवैज्ञानिक चित्रण का कलात्मक रूप प्रस्तुत करती है। निर्मल के यहाँ यौन समस्याएँ और स्त्री के मन की जटिल गुत्थियाँ भी कलात्मक बन जाती हैं। रेणु भी कला का सूत्र हाथ से नहीं छोड़ते, लेकिन उनकी मूल भाव–भूमि सामान्य जीवन के संघर्ष हैं जो निम्न मध्य वर्गीय लोग जीते हैं और उस क्रायसिस से गुजरते हैं।
यह याद रखने की जरूरत है कि रेणु कहानियों और उपन्यासों में यौन चित्र और प्रसंगों के मांसल वर्णन से बिलकुल परहेज नहीं करते। लेकिन इस प्रकार के प्रसंग और उनके चरित्र सामाजिक संघर्षों से दूर नहीं होते हैं और इसका कारण है सामाजिक यथार्थ में लेखक की जड़ें गहरी होना और आँचलिकता इसमें उनकी सहायता करती है। मांसल वर्णन इनकी कहानियों में सिर्फ देह के स्तर पर नहीं हैं, वे प्रेम का ही एक हिस्सा हैं, बिना प्रेम के मांसल वर्णन सिर्फ देह गाथा में हो सकते हैं और बिना मांसल वर्णन,यानी देहराग के बिना प्रेम या तो कोरा आदर्शवादी प्रेम, बल्कि वायवीय होगा अथवा सामाजिक सन्दर्भों से कटा हुआ, सिर्फ संवेगों का प्रदर्शन जैसा कि रेणु के समकालीन निर्मल वर्मा की कहानियों में है। रेणु जिस प्रेम का वर्णन करते हैं उसमें देह की अनुपस्थिति नहीं है और न ही देहराग प्रेम से विहीन है। झरना और पंकज का प्रेम विवाह हुआ और पंकज उसे लेकर शहर में आ जाता है। वह एक दफ्तर में साधारण कर्मचारी है, जाहिर है विवाह के बाद कई तरह की आर्थिक, पारिवारिक समस्याओं से उसे जूझना पड़ता है, साथ ही दफ्तर के सहकर्मियों, अपने अफसर के व्यंग्य और ताने भी सुनने पड़ते हैं जो प्रेम विवाह के कारण उनके भीतर उत्पन्न कुण्ठा को दर्शाते हैं। यहाँ रेणु मानव मन की सामान्य भावनाओं का बहुत ही बारीकी से चित्रण करते हैं। प्रेम जबतक विवाह में नहीं बदलता तबतक वह नदी की स्वच्छंद धारा की तरह प्रवाहित होता है, पर विवाह होने के साथ ही इसका प्रवाह घर की जिम्मेदारियों में बंध जाता है और मूल रूप से इसकी सघनता विवाह के बाद ही प्रमाणित होती है किन्तु इस बीच कई तरह की समस्याएँ उत्पन्न होती हैं, ये समस्याएँ वास्तव में। व्यावहारिक जीवन की अनेक ऐसी छोटी–छोटी समस्याएँ होती हैं जो प्रारंभिक दिनों में बड़ी और बहुत तनावपूर्ण मालूम पड़ती हैं।
झरना के मन में छोटी–छोटी इच्छाएँ ही हैं। पंकज उन्हें पूरी करने की कोशिश भी करता है पर झरना सन्तुष्ट नहीं होती क्योंकि उसको निम्न मध्यवर्गीय जीवन की परेशानियों का अन्दाजा नहीं है। वह सपनों की दुनिया में जीती है और उसे बिलकुल नहीं लगता कि जिन बातों को लेकर उसे पंकज से रोज शिकायत होती है, उन सबको पूरा करने के पीछे कितनी परेशानियाँ होती हैं। यह झरना नहीं समझ पाती। पंकज भी इस बात को समझने की कोशिश नहीं करता कि एक सामान्य वर्ग की स्त्री में घर बसाने को लेकर बड़ी छोटी–छोटी कामनाएँहोती हैं और न पूरा होने पर उसे लगता है कि उसकी उपेक्षा हो रही है। ऐसा नहीं है कि झरना पंकज की स्थिति को नहीं समझती है, वह जानती है कि पंकज एक सामान्य आय वाला कर्मचारी है, इसलिए बहुत उच्च रहन–सहन की कामना नहीं करती, लेकिन साधारण ही सही, एक ढंग का सम्मानित जीवन जीना चाहती है। पंकज कोशिश भी करता है लेकिन हर चीज उसके हाथ में नहीं है, यह बात झरना नहीं समझ पाती। पंकज ने उसके कहने पर कई मकान बदले क्योंकि झरना की शिकायत थी कि मुहल्ले के लोग उसे गन्दी नजरों से देखते हैं। लेकिन मकान बदलना साधारण काम नहीं है। पंकज को भी लगता है झरना अब उसे प्यार नहीं करती, इसके पीछे कारण बहुत मामूली है कि झरना अब उसको पहले की तरह नहीं चूमती। जाहिर है कि घर की जिम्मेदारियों को वहन करने में इन छोटी चीजों का ध्यान नहीं रह पाता, इसका अर्थ यह नहीं कि प्रेम कम हो गया, वास्तव में जीवन के संघर्षों से साथ–साथ गुजरते हुए प्रेम और ज्यादा गहराई तक उतर आता है, भले ही वह ऊपर–ऊपर छलकता हुआ न दिखे।
इसी उदासीनता के वातावरण में दोनों के बीच यौनिकता की दृष्टि से भी मानसिक शैथिल्य उत्पन्न होने लगता है। सम्बन्ध में उत्पन्न तनाव यौन सम्बन्ध में भी उदासीनता का कारण बन जाता है। रेणु जी इस स्थिति का खुलकर वर्णन करते हैं। पंकज काम पर जाता है और झरना के तन का ताप उसके मन को अस्थिर कर देता है। लेखक इसका खुलकर वर्णन करता है कि झरना ने साड़ी समेटकर किनारे रख दी और उसकी नंगी देह शीतलपाटी पर पड़ी है। इसके अलावे अन्य छोटे–छोटे प्रसंग भी उसकी यौनेच्छा को प्रकट करते हैं, जैसे दूध वाले के सामने थोड़ा झुकना, खिड़की के बाहर की छत पर बैठे बीमार लड़के के प्रति थोड़ा आकर्षण महसूस करना, दरअसल ये सब उसके मन की बेचैनी को प्रकट करते हैं, इसका यह अर्थ नहीं निकलना चाहिए कि वह किसी अन्य के साथ देह सम्बन्ध बनाना चाहती है।
दरअसल ये सब बातें उसके मन में इसलिए नहीं उत्पन्न होती कि वह देह के स्तर पर पति से असन्तुष्ट है। उसकी मानसिक समस्या इतनी ही है कि वह नहीं समझ पाती कि उसकी हर इच्छा को पूरी करने की पंकज कोशिश तो करता है पर उसकी भी कुछ परेशानियाँ हो सकती हैं। झरना का तनाव तब चरम पर पहुँच जाता है जब उसने पंकज से सरकारी फार्म का भुट्टा लाने के लिए कई रोज कहा पर कई दिन तक वह नहीं ला पाया। यहाँ पर कथावस्तु में गाड़ी वाले दादा की इन्ट्री होती है। दरअसल इस चरित्र की चर्चा झरना के द्वारा कथावस्तु में पहले हो चुकी है कि वह ऐयाश किस्म का आदमी है और अपनी गाड़ी में लड़कियों को घुमाता है। झरना कभी उसके झाँसे में नहीं आयी लेकिन सावन महीने की जिस उमस भरी दोपहरी का जिक्र लेखक ने मूल कथा में जिक्र किया है, उस दोपहरी में उसका अन्तर्द्वन्द्व बहुत अधिक बढ़ जाता है और उसी समय उसे गाड़ी वाले दादा की गाड़ी का हॉर्न गली में सुनाई पड़ता है। जाहिर है कि ऐसे वातावरण में उसका मन थोड़ा सा फिसलना स्वाभाविक था। वह आवाज देती है और गाड़ी वाला दादा सुन लेता। इसे उसका फिसलना भी नहीं कह सकते, कहीं न कहीं एक प्रकार की प्रतिक्रिया है जो पंकज को लेकर उसके मन में है और इसका तात्कालिक कारण है कि कई दिन कहने के बावजूद वह सरकारी फार्म का दूधिया भुट्टा नहीं ला पाया।
बहरहाल दादा आता है और अपने स्वभाव के अनुरूप फूहड़ बातें करता है। उसे उम्मीद हो जाती है कि झरना उसके प्रति आकर्षित हो गयी है। झरना उससे कहती है कि वह उसके साथ अपनी माँ से मिलने जाना चाहती है और तैयार होकर चल पड़ती है। प्रतिक्रिया में उसने यह कदम तो उठा लिया है, किन्तु बरतने का अवसर आने पर उसके मन की क्षणिक प्रतिक्रिया को पहला झटका गाड़ी पर बैठते समय लगता है, वह आगे दादा के पास बैठने के बजाय पीछे बैठ जाती है। गाड़ी चल पड़ती है और बाजार से गुजरते समय कथावस्तु में एक नाटकीयता उत्पन्न होती है। सिग्नल के पास गाड़ी रूकती है तो वहाँ सरकारी फार्म का भुट्टा बिक रहा है और उसी भीड़ में उसे पंकज दिख जाता है, भुट्टा खरीदते हुए। अचानक वह गाड़ी का दरवाजा खोलकर दौड़ पड़ती है, दादा की पुकार सुनती ही नहीं। पंकज भी उसे देखकर चौंक जाता है, वह झूठ बोल देती है कि आज सोचा कि मैं ही ले आऊँ। हलकी बारिश हो रही है, पंकज रिक्शा बुलाता है और बैठते–बैठते भी दोनों भीग जाते हैं। सूक्ष्म संकेतों में बात कहने में रेणु जी को महारत हासिल है। यहाँ भींगना सिर्फ बारिश में देह का भींगना नहीं है, असल में दोनों मन से भींग जाते हैं, सारे गिले–शिकवे दूर हो जाते हैं। इस प्रकार कथाकार यह दिखलाता है कि पति–पत्नी के रिश्ते में जो छोटे–मोटे तनाव उत्पन्न होते हैं वे क्षणिक होते हैं, प्रेम की डोर इतनी कच्ची नहीं होती कि इन मामूली बातों से टूट जाए। जाहिर है कि रेणु स्त्री विमर्श को उस रूप में स्वीकार नहीं करते जहाँ अस्मिता इतनी महत्त्वपूर्ण हो कि छोटी–छोटी बातों से रिश्ते टूट जाएँ। पारिवारिक और मानवीय सम्बन्ध में रेणु को गहरा विश्वास है इसीलिए उनकी अधिकतर कहानियों में अनेक तनावों, आपसी द्वन्द्वों, लड़ाई- झगड़ों के बावजूद सम्बन्ध टूटते नहीं, किसी न किसी रूप में कोई नाटकीय परिवर्तन घटित होता है और अन्तस् का मानवीय लगाव जग जाता है, चाहे वह पारिवारिक पृष्ठभूमि की कहानियाँ हों या सामाजिक वर्णन की, हर कहानी का अन्त मानवीय सम्बन्ध की आत्मीय संवेदना में ही होता है। जाहिर है कि वे संवेगों को बहुत महत्त्व देते हैं और उनका कलात्मक वर्णन करते हैं, लेकिन इस प्रक्रिया में वे विचार और भाव की उपेक्षा नहीं करते और यह यथार्थवाद की मूल विशेषता है अन्यथा ऐसी कोई परिभाषा यथार्थवाद की नहीं होती जिसे सर्वमान्य कहा जा सके।
रेणु जी आँचलिक कथाकार के रूप में प्रसिद्द हैं लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि वे स्थानीयता में बंधे हैं। उन्होंने शहरी मध्यवर्गीय जीवन को भी केन्द्रित करके कहानियाँ लिखी हैं, यह कहानी इसका प्रमाण है। यह पटना की पृष्ठभूमि पर लिखी गयी कहानी है और इसकी भाषा में आँचलिकता नहीं के बराबर है।
अजय वर्मा
लेखक लम्बे समय से आलोचना के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। कथालोचन के अलावा सामाजिक-सांस्कृतिक विषयों पर कई लेख प्रकाशित। भाषा विज्ञान एवं मीडिया की आलोचना में भी गहरी रुचि।सम्पर्क +919431955249
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