फणीश्वर नाथ रेणु

सामाजिक मरम्मत की मुकम्मल कारीगिरी: रसूल मिसतरी 

 

आज़ादी प्राप्ति से लगभग अठारह महीने और आज से लगभग चौहत्तर साल पहले लिखी गयी कहानी है – ‘रसूल मिसतिरी’। कलकत्ता से निकलने वाली ‘विश्वामित्र’ पत्रिका के, फरवरी 1946 अंक में प्रकाशित हुई थी। इसी पत्रिका में रेणु की पहली कहानी ‘बट बाबा’27 अगस्त 1944 को प्रकाशित हुई। रेणु अब तक हिन्दी के कथित तौर पर मान्यता प्राप्त कथा लेखक नहीं हुए थे। अभी उनकी कहानियाँ तभी के इलाहाबाद या बनारस जैसे साहित्यक केंद्रों की नजर में नहीं आई थीं। रेणु को इसकी बहुत परवाह भी नहीं थी। अन्यथा न रसूल मिस्त्री होते, न ‘मैला आँचल’ लिखा जाता। ज़माने की बखूबी खबर रखते हुए ज़माने की तथाकथित हवा से बेपरवाह होना ही तो रेणु को रेणु बनाता है। अभी साहित्य क्या भारतीय इतिहास लेखन में सबाल्टर्न की अवधारणा का आविर्भाव नहीं हुआ था। उससे पहले ही हिंदुस्तान को केन्द्र की जगह परिधि की तरफ़ से अपनी रचनाओं में देखना शुरू कर चुके थे। कम पठित और चर्चित ‘रसूल मिसतिरी’ इसी पृष्ठभूमि में लिखी गयी एक कहानी है।

रसूल मिस्त्री रेणु द्वारा गढ़े गये कई अविस्मरणीय पात्रों में अपनी विशिष्ट जगह रखते हैं। रेणु की कहानियों की दुनिया में कई ऐसे पात्र हैं जो हमारी जिन्दगी में दाखिल होने के बाद छोड़कर नहीं जाते। करमा, संवदीया हरगोबिंद, लाल पान की बेगम (बिरजू की माँ), कारीगर सिरचरन, नैना जोगीन, पंचलाइट के भोले भाले लोग, फूलपत्ती, आइक् स्ला के तकियाकलाम वाला डोगलास, हिरामन, हीराबाई, महुवा घटवारिन यहाँ तक कि धुन्नीराम जैसे अनगिनतकिरदार रेणु की कहानियों से गुजरने के बाद साथ-साथ रहने लगते हैं। यह बतौर सर्जक रेणु की सबसे बड़ी खासियत है। हिन्दी में एक कहानीकार के तौर पर शायद ही किसी और ने इतने सारे अविस्मरणीय पात्रों की रचना की है। इसकी सीधी सी वजह है कि रेणु ने जिन पात्रों को निर्मित किया वह हमारे आसपास के चीन्हें हुए लोग हैं। जिनसे सहज ही अपनापा हो जाता है। रेणु की पत्नी लतिका जी ने भी अपने एक संस्मरण में माना है, “वे कहानी उपन्यास में वास्तविक व्यक्तियों को ही कहीं नाम बदलकर और कहीं बिना नाम बदले कथाबद्ध करते थे।” (रेणु संस्मरण और श्रद्धांजलि, पृष्ठ-142) स्वयं रेणु की स्वीकारोक्ति है कि “मैं अपने आप को खोजता हूँ। इसलिए लिखता हूँ। पर लिखता मैं भी वही हूँ जो देखता हूँ, सोचता हूँ, अनुभव करता हूँ।” (वही,पृष्ठ 30) इसी कारण उनके किरदारों की विश्वसनीयता और पाठकों से निकटता बनी रहती है। वे हमारे अपने और बेहद चीन्हें हुए से महसूस होते हैं।

‘रसूल मिसतिरी’ रेणु की प्रारंभिक कहानियों में से है। रेणु को नजदीक से जानने और विचार करने वालों की मानें तो यह उनकी आठवीं कहानी है। रेणु के रचनात्मक जीवन के बिल्कुल शुरुआती दौर में ही कहानी तस्दीक करती है कि आने वाले समय में कई और पात्र ‘आदमी की मरम्मत’ के लिए आने वाले हैं। इस कहानी की शुरुआत एक चेताती हुई सूचनात्मक वाक्य से होती है,”बहुत कम अर्से में ही इस छोटे से गँवारू शहर में काफी परिवर्तन हो गये हैं । आशा से अधिक और शायद आवश्यकता से अधिक।” (फणीश्वरनाथ रेणु: चुनी हुई रचनाएँ -2,पृष्ठ-136) बकौल गैब्रियल गार्सिया मार्केज़ पहली पंक्ति लिखना बतौर रचनाकार सबसे चुनौतीपूर्ण होता है। इस संदर्भ में अपने रचनाकार-पत्रकार मित्र प्लीनीओ आपुलेयो मेनदोसा से अपनी बात स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं -‘ क्योंकि पहला वाक्य किसी भी उपन्यास की शैली, उसके स्वरूप और यहाँ तक कि उसकी लंबाई की भी जाँच-परख की प्रयोगशाला हो सकती है।” (समालोचन) इस पहले पंक्ति को लिखने के महत्व को आलोचक गजेंद्र पाठक ने मैला आंचल से सम्बन्धित एक लेख में उद्घाटित किया है। मेरा मानना है कि इन दोनों रचनाकारों के बीच एक निकटता दिखाई पड़ती है, जो इनकी किस्सागोई की वजह से ज्यादा है। दोनों ही अपनी-अपनी माटी और भाषा के अद्भुत क़िस्सागो हैं।

इसी साक्षात्कार में मेनदोसा जब मार्केज़ से पूछते हैं कि लेखक बनने में सबसे ज्यादा सहयोग किसका मिला? वह जो जवाब देते हैं, उसका सम्बन्ध रेणु के भी लेखक बनने की प्रक्रिया से है। मार्केज़ कहते हैं ‘सबसे पहला नाम अपनी दादी का लेना चाहूँगा।”(वही) रेणु की जब पहली कहानी ‘बट बाबा’ छपी, उसके बारे में “‘ रेणु अपनी आत्मकथा ‘ईश्वर रे, मेरे बेचारे…’ में यह कहानी कैसे लिखी गयी, इसका पूरा व्यौरा देते हुए लिखते हैं -कई सप्ताह बाद सम्पादक जी का प्रोत्साहनपूर्ण पत्र मिला और साथ में विश्वामित्र का ताजा अंक जिसमें मेरी पहली कहानी ‘बट बाबा’ छपी थी। दौड़कर दादी के पास गया। चरण स्पर्श कर बोला दादी, ‘तुमने हमें बचपन से ही न जाने कितनी कहानियाँ सुनाई होंगी।… इस बार मैं तुमको एक कहानी सुनाऊँ।…गदगद कंठ से बोली ‘बट बाबा की महिमा लिखकर तुमने समझो कि अपने पुरखों को पानी दिया है’ ।” ( फणीश्वरनाथ रेणु: चुनी हुई रचनाएँ, पृष्ठ XIII-XIV )कहने का अर्थ है कि पुरखों से चली आ रही क़िस्सागोई की परम्परा को बीसवीं सदी के इन दोनों ही कालजयी रचनाकारों ने शानदार तरीके से साधा है। अकारण नहीं है कि ‘वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सोलिट्यूड’ और ‘मैला आँचल’ के प्रकाशन और प्रसिद्धि के बाद ही दोनों के लिखे रचनाओं पर लोगों का ध्यान गया और इन्हें बीसवीं सदी के महान कथाकार के रूप में स्वीकार किया।

आजादी की दहलीज़ पर खड़े देश में शहरों और शहरी संस्कृति का विकास अवश्यंभावी था, फिर रेणु को एक ‘गँवारू शहर’ में हो रहे परिवर्तन ‘आशा से अधिक और आवश्यकता से अधिक’ क्यों प्रतीत होते हैं? क्या रेणु आधुनिकीकरण के विरोधी हैं? जिन्होंने ‘परती-परिकथा’ पढ़ी है वह इससे कभी सहमत नहीं हो सकते। असल में रेणु नगरोचित सुविधाओं को ही गांव या शहर का विकास नहीं मानते । जब तक समाज पुरानी जड़ एवं प्रतिगामी सोच से मुक्त न हो, उसकी काया शहरी हो या ग्रामीण क्या फर्क पड़ता है?गाँव गाँव नहीं रह गये थे, शहर पूरी तरह से शहर नहीं हो पाए थे, यही रेणु की दृष्टि में मूल समस्या थी । सुवास कुमार के साथ एक बातचीत में रेणु ने कहा भी था, “अब तो कितने ही गाँवों में नगरोचित सुविधाएं प्राप्त हैं – मसलन सड़कें, बिजली सुलभ-शिक्षा, पुस्तकालय, स्पोर्ट्स आदि। यदि ऐसे गाँवों को गाँव माने तो गाँवों की कोटियाँ निर्धारित करनी होगी। यदि इन्हें शहर मानें तो भारत में गाँवों की कुछ संख्या कम हो गयी है । (रेणु संस्मरण और श्रद्धांजलि,पृष्ठ-105) गाँवों की संख्या कम होना, शहरों की संख्या का बढ़ना क्या किसी समस्या का हल है? या क्या इसे वास्तविकविकास का सूचक माना जा सकता है? महज आँकड़ों के इस विकास को समझते हुए आजादी के डेढ़ साल पहले रेणु जिस तरफ इशारा कर रहे थे, आजादी के चौहत्तर सालों में हम क्या उसी तरफ नहीं बढ़ते रहें हैं? इन वर्षों में असंख्य शहर बने पर बीमारू मानसिकता से निजात नहीं मिली। हाल-फिलहाल कोरोना जैसी जानलेवा महामारी के बीच भी ‘कोरोना माता’ की पूजा होते और घंटी-थाली बजते शहर और गाँव दोनों ही जगह देखा हमने।

रेणु कहते हैं, खलीफा फरीद की पूरानी दुकान की जगह लत्तू मास्टर की मॉडर्न कटफिट और शाक-भाजी की दुकानों से भी ज्यादा रेस्ट्राँ-टी स्टालों की बाढ़ एक नए फैशन का अहसास तो दे सकती हैं पर इससे लोगों की मानसिकता में बदलाव नहीं हो सकता। बुनियादी रूप से जड़ सामाजिक संबंधों में आधुनिकता बुनियादी परिवर्तन के अभाव में नहीं आ सकती। रेणु आधुनिकीकरण के विरोधी नहीं है बल्कि बुनियादी जरूरतों की अनदेखी कर शीश महल का सपना बेचने वाली तिजारती सोच के विरोधी हैं। रेणु आज़ादी की दहलीज़ पर खड़े होकर जैसे घोषणा करते हैं कि गरीबी और गाँवों वाले इस देश के लिए बाज़ार न आदर्श हो सकता है और है न भविष्य। यह कितनी बारीक और गहरा अवलोकन है उनका कि ”युद्ध और महंगी के बावजूद नयी-नयी स्कीमें बन रही हैं- बिगड़ रही हैं। शहर का पूरा कायापलट हो गया है।” (फणीश्वरनाथ रेणु, चुनी हुई रचनाएँ -2,पृष्ठ – 136) औराही हिंगना में बैठे रेणु की विश्वदृष्टि भविष्य की बाजार पोषित मानव विरोधी स्कीमों कीछलावी राजनीति को बखूबी देख-समझ रही थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दुनिया पहले की तरह नहीं रह गयी थी, हिंदुस्तान को भी बदलना था। उस समय यह वैश्विक सवाल था कि हम कैसा देश और कैसी दुनिया चाहते हैं?

युद्ध और उससे पैदा हुई अकल्पनीय महँगाई के दौर में स्किम की बात करना, शुद्ध रूप से मुनाफाखोर मानसिकता का परिचायक था। युद्ध के बाद के दौर की वास्तविकता को लक्ष्य करते हुए रेणु यह सटीक अवलोकन कर रहे थे कि इतनी बड़ी वैश्विक त्रासदी के बाद भी दुनिया जिस तरफ बढ़ रही है, जिस तरह से ‘कायापलट’ करने की कोशिश हो रही है, वह असल में मानवता विरोधी है। वही मानवता जिसकी हत्या द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हुई और अब स्किम और बाज़ार के नाम पर होगी। अमेरिका कीएक पर्यावरण कार्यकर्ता हैं – एनी लियोनार्ड अपनी प्रसिद्ध दस्तावेजी फ़िल्म ‘स्टोरी ऑफ स्टफ’ (चीजों की कहानी,2007) में बेहद मार्के की बात बताते हुए कहती हैं कि सितंबर 2001 में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के बाद ‘जब सारा अमेरिका स्तब्ध था तब राष्ट्रपति बुश बहुत सारी बातें कह सकते थे। जैसे मातम मनाने,प्रार्थना करने या आशावादी होने लिए कह सकते थे। पर उन्होंने कहा खरीदो। उन्होंने और अधिक खरीदने का नारा दिया।’ मुनाफे पर आधारित व्यवस्था, आपको भी मुनाफे के बारे में सोचने के लिए मजबूर करती है। वह विकास का, बेहतरी का चकाचौंध पैदा करती है।जिसकी आवश्यकता से अधिक रोशनी में रसूल मिस्त्री जैसे मानवीय चरित्र ओझल हो जाते हैं। उन्हें बेकार या चुका हुआ मान लिया जाता है। इस मुनाफाखोर व्यवस्था की ज़द से कोई बाहर नहीं होता, हमारी छोटी-बड़ी सोच उससे प्रभावित होने लगती हैं।इसी कारण स्वयं रेणु भी शुरुआत में रसूल मियाँ के बारे में गलत धारणा पाल लेते हैं । रेणु की चिंता है कि सिर्फ अपने फायदा की सोचने वालों से कोई शहर बनेगा भी तो कैसा शहर बनेगा? उसकी सिर्फ काया ही तो बदलेगी। ढाँचा ही तो बदलेगा।

इसी संक्रामक कायापलट की सोच से प्रभावित किशोर रेणु रसूल मियाँ के ‘अनप्रोफेशनल व्यवहार’ से खीज जाते हैं। “मैं अपना स्टोव लेकर मन ही मन प्रतिज्ञा करके वापस हुआ कि कभी इसकी दुकान में न आऊंगा और न अपने दोस्तों को आने दूंगा।” (वही,पृष्ठ-143) लगभग ग्यारह साल बाद रसूल मिस्त्री की आदमियत से प्रभावित लेखक रेणु कहते हैं “पर आज रसूल मियाँ को अच्छी तरह पहचान चुका हूँ, बचपन की उस प्रतिज्ञा पर आज भी मुझे दुःख है।” (वही)इसी पश्चाताप से निकली कहानी है रसूल मिस्त्री । अपनी गलतियों के आत्मविश्लेषण से, पश्चाताप करना आ जाए तो दुनिया की कई समस्याएँ मिनटों में हल हो जाएँ । यहाँ तक कि स्त्री-पुरुष के बीच सनातन काल से चली आ रही गैरबराबरी की समस्या भी।
रेणु बताते हैं कि इस कायापलट की आँधी में पूरा देश शामिल था ‘लेकिन सदर रोड में उस पुराने बरगद के बगल में रसूल मिस्त्री की मरम्मत की दुकान को जैसे जमाने की हवा लगी ही नहीं।” (वही,पृष्ठ-136) उस बरगद के पेड़ के तनेपर जहाँ रोज नए-नए स्कीमों के इश्तहार चमकते थे, वहीं ‘एक पुरानी टीन की तख्ती न जाने कितने वर्षों से लटक रही है, जिस पर टेढ़ी-मेढ़ी अक्षरों में लिखा हुआ है ‘रसूल मिसतिरी’ – यहाँ मरम्मत होता है।’ (वही)। न हिज्जे का ख्याल, नस्त्रीलिंग-पुल्लिंग की चिंता। भाषा की बेवजह वर्जिश की जरूरत ही नहीं। होती भी क्यों ‘अक्षरों के बीच गिरे हुए आदमी को पढ़ने’की तमीज रसूल मिस्त्री के पास आले दर्जे की थी। जिन्हें बुद्धिजीवी कहलाने-दीखने का शौक होता है, वह तब भी भाषा को बरतने का विमर्श खड़ा करने और इस साइन बोर्ड पर टीका-टिप्पणी और व्यंग्य करने में मशरूफ थे। जैसे कुछ विद्वान आलोचक रेणु को अपनी भाषा दुरुस्त करने की सलाह दे रहे थे । न रेणु ने उनकी सुनी। न रसूल मिस्त्री को ही फुर्सत थी उन्हें सुनने की।

रेणु ने इस कहानी में आगे जो लिखा है, वह उनके लिखे पर सवाल उठाने वाले हिन्दी के कई विद्वान आलोचकों को उनका जवाब भी हो सकता है, “इस साइन बोर्ड पर बहुत दिनों से पढ़े लिखे लोगों की मंडली ने टीका टिप्पणी की है, व्यंग्य कसे हैं और रसूल के सामने संशोधन के प्रस्ताव रखे गये हैं,पर आज भी वह तख्ती उसी तरह लटक रही है। हाँ किसी शैतान लड़के ने उस पर खल्ली से लिख दिया था- यहाँ आदमी की मरम्मत होती है।” (वही,पृष्ठ- 137)सम्भव हो रेणु को किसी ने आत्मीय सलाह दिया भी हो कि कहानी के शीर्षक में वे ‘मिसतिरी, की जगह ‘मिस्त्री’ कर दें। पहली पंक्ति की तरह शीर्षक भी लेखक की स्पष्टता और उसके उद्देश्य को स्पष्ट कर देता है। रेणु की खासियत है कि वे अपने लेखक की भूमिका को लेकर कभी अगर-मगर की स्थिति में नहीं रहे। उपरोक्त टिप्पणी से रेणुनए-नवेले शहर के बुद्धिजीवियों और उनकी टीका-टिप्पणी, संशोधन चाहने वाली मंडली पर सिर्फ व्यंगय नहीं कर रहे बल्कि उस मानसिकता की तरफ भी इशारा कर रहे हैं जिसका दुष्परिणाम हम आज तक भोग रहे हैं। श्रमजीवी और बुद्धिजीवी के बीच की वह खाई जिसमें पढ़े-लिखों की श्रेष्ठता का दंभ हमेशा हावी रहा, उसकी सकी वजह से हमारे समाज का न समुचित सामाजिक विकास हो पाया न ही बौद्धिक। शहर तथा उसके नसीहत बाँटने वाले बुद्धिजीवी अपनी काया पलटते रहे और कबीर के अनपढ़ होने को लिख-लिख कर ज़ोर-शोर से प्रचारित करते रहे।

रसूल मिस्त्री के चरित्र को उद्घाटित करते हुए रेणु बताते हैं किसाठ साल के चुस्त-दुरुस्त रसूल मिस्त्री अव्वल नंबर के गप्पी और अपने काम में उतने ही ज़हीन हैं। “कभी हाथ पर हाथ धरकर चुपचाप बैठना वह जानता ही नहीं गप्पी भी एक नंबर का पर अपनी जिम्मेदारी को कभी न भूलने वाला।”(वही) उनके काम करते हुए बातचीत करते जाने का एक जीवंत चित्र रेणु ने खींचा है।
“ठुक्-ठुक्-ठुक्-ठुक्-ठुक्-ठुक्’ तो समझे न जी दोजख- बहिश्त, सरग-नरक सब यहीं है, यहीं। अच्छे और बुरे का नतीजा तो यहीं मिल जाता है। रामचन्दर बाबू को देखो न।…अरे रहीम जरा पेशकश फेंकना तो…रामचन्दर बाबू… अरे भाई छोटावाला। रह गये पूरे भोंक तुम, इससे भला…हाँ यही।”(वही)। रेणु अपनी रचनाओं में फिल्मों के दृश्य की तरह चित्र खींचने के उस्ताद हैं। यह प्रवृत्ति आगे चलकर और विकसित होती है और हिन्दी कथा साहित्य की थाती बनती है।इसी खासियत को लक्ष्य करते हुए नागार्जुन ने रेणु के बारे में एक बार कहा था कि ‘वह कोलकाता में पैदा होते तो सत्यजीत राय सरीखा फिल्मकार बनते’। (रेणु श्रद्धांजलि और संस्मरण, पृष्ठ-19-20)

रसूल मिस्त्रीगाँव में रहते हैं, शहर से दो कोश दूर। पत्नी, बहु, बेटे और एक नटखट पोते के साथ। रसूल मिस्त्री के पत्नी की शिकायत है कि जमाना देख कर चलना रसूल मिस्त्री को कभी नहीं आया। रसूल मिस्त्री के लिए भी कैलेंडर का बदलना या घड़ी का कांटा बदलते रहना, जमाने का बदलना नहीं है। तभी तो रसूल मिस्त्री के दुकान की ‘दीवार पर डनलप और गुड ईयर तथा वॉच कंपनियों के 34 36 और 38 के पुराने कैलेंडर…दो दीवाल घड़ियाँ – एक बिना डायल की दूसरी बिना पेंडुलम की। बिना पेंडुलम वाली घड़ी पता नहीं कितने दिनों से तीन बजा रही है दूसरी ..उसके स्प्रिंग के पास ही मकड़ी ने अपनी जाली लगा दी है।’ (फणीश्वरनाथ रेणु,चुनी हुई रचनाएँ-2, पृष्ठ- 137)यह अपने समय से उसकी कथित उपलब्धियों से एक तरह का अघोषित इंतकाम है। जैसे ‘विकी क्रिस्टीना बार्सिलोना’ फ़िल्म का एक चरित्र कविता तो लिखता है पर छपवाता नहीं है। कारण पूछने पर वह कहता है कि हजारों सालों के मानवता के इतिहास में हम अब तक प्यार करना ही नहीं सीख पाए हैं। इसलिए प्रेम विरोधी दुनिया से इंतकाम लेने का उसका यह अपना तरीका है। रसूल मिस्त्री को भी घड़ी बनानी आती तो है पर समय को वह घड़ी की कैद नहीं समझते। ज़माने की हवा नहीं लगने वाली उनकी पत्नी की शिकायत को रेणु रसूल मिस्त्री की उमर खय्यामी फिलॉसफी कहते हैं। इस तरह के संदर्भ रेणु अपनी रचनाओं मेंविद्वान आलोचकों के लिए सप्रयोजन दर्ज करते जाते हैं।

जैसे 1945 ई. में लिखित ‘प्राणों में घुले हुए रंग’ कहानी मेंशोलोखोव के उपन्यास ‘क्वाइट फ्लोज़ द डान’ और 1972 ई. में प्रकाशित ‘अगिनखोर’ कहानी में ‘मेटाफोरफिस’ उपन्यास का ज़िक्र आता है। उमर खय्याम ईरान के कवि थे जो कवि होने के साथ-साथ गणितज्ञ दार्शनिक और खगोलविद भी थे। उन्होंने न सिर्फ रुबाइयां लिखीं बल्कि क्यूबिक इक्वेशन दिया और एक प्रकाश वर्ष की दूरी का दशमलव के छह बिंदुओं तक पता भी लगाया। निदा फ़ाज़ली ने लिखा है कि जीवन की अर्थहीनता में उन्होंने व्यक्तिगत अर्थ की खोज की। रसूल मिस्त्री भी सिर्फ चीजों के मिस्त्री नहीं हैबल्कि ज़िंदगी की सार्थकता और उसे खोजते रहने में सर्वदा संलग्न रहने वाले व्यक्ति हैं । तभी तो वह लगभग उमर खय्याम को दोहराते हुए कहते हैं “तो समझे न जी दोजख-बहिश्त, सरग-नरक सब यहीं है, यहीं। अच्छे और बुरे का नतीजा तो यहीं मिल जाता है।” (वही,पृष्ठ-138) उमर खय्याम की एक रुबाई है-“धरती और दूर आस्मान से परे/स्वर्ग और नर्क खोजने की कोशिश करता हूँ/ तब मुझे एक गंभीर आवाज सुनाई देती है, जो कहती है/ स्वर्ग और नरक अंदर हैं।” (अंग्रेजी से अनुवाद मेरा)

इसी समझ के कारण रसूल मियाँ अपने आस-पास को ही सँवारने की कोशिश करते हैं। लोगों की छोटी सी भी परेशानी उन्हें उद्विग्न कर देती है। तत्काल उसे दुरुस्त करने की कवायद में लग जाते हैं। इसी कारण वे घर से दुकान के लिए निकलते तो सुबह हैं पर लोगों की खैरख्वाह लेते दोपहर का खाना लेकर घर से बाद में चले बेटे रहीम के बाद दुकान पहुँचते हैं। कभी कभी रात में ही किसी ‘कॉल’ पर जाना हो जाता है और रात भर रोगी के पास बैठकर बितानी पड़ती है। किसी की खेती कैसी चल रही है, उसकी चिंता रहती है।किसी का बैल बीमार है तो तत्काल इलाज करने निकल पड़ते हैं। मलेरिया के फैले प्रकोप के बीच गाँव-गाँव घूमकर जड़ी-बूटियों की दवा बनाकर कुनैन की पैदा हुई कमी को दूर करने में जुट जाते हैं। रसूल ‘मिसतिरी’ के हाथों लोगों की मरम्मत मुसलसल जारी रहती है। ज़माने के पीछे भागने वाले या दूसरों की देखी ज़माने की लहर पर सवार होने वाले नहीं बल्कि ज़माना जहाँ से ख़राब छूट जा रहा है उसकी वहीं से मरम्मत करने में यकीन रखने वाले मिस्त्री हैं रसूल मियाँ।

ऐसा नहीं है कि वे मजबूरी में ऐसा करते हैं कि ज़माने से ही ग़रीबी झेली है और ग़रीबी को ही अपना नसीब मान बैठे हैं। कभी जायदाद भरी पड़ी थी, पर लोगों का ख्याल इतना तारी हुआ कि अपना ख़्याल रखने की ज़रूरत ही महसूस नहीं की कभी। खाओ,पीओ,आनन्द करो कि उमर ख़य्यामी फिलॉसफी से समझौता भी नहीं किया कभी। रेणु लिखते हैं, “आमद का यह हाल है कि जिस दिन दुकान बंद उस दिन खाना बंद और खर्च नवाबी। तीसों दिन कवाब और कलिया, हलवे और सेवइयाँ ही पकती हैं।” (वही,पृष्ठ-138) उनमें हुनर भी बेमिसाल है। उनका शागिर्द रघ्घू उन्हीं से सीखकर अपनी दुकान खोलकर मालामाल है। ‘जाना तो अर्थोगमोपाय/ पर रहा सदा संकुचित काय/ लख कर अनर्थ आर्थिक पथ पर/हारता रहा मैं/स्वार्थ समर’ निराला की तरह रसूल मियाँ भी स्वार्थ समर में हार जाना ही चाहते हैं।

ये दुनिया उन पर थोपी नहीं गयी है बल्कि उन्होंने अपनी मर्ज़ी से चुनी है। यहाँलोगों की तकलीफेंखुद की दुनियावी जरूरतों से कहीं बड़ी थीं। सोचिए बरगद के पेड़ के सामने जिस दुकान को ‘ज़माने की हवा नहीं लगी थी’, जिसमें कोई नवीनता नहीं थी, वही पूरे शहर में एक जगह बची थी मुसीबत के मारे लोगों के लिए। जहाँ उनके दुख-तकलीफों पर रोगन चढ़ाकर चमकाया नहीं जाता था बल्कि कायदे से मरम्मत की जाती थी। सब की सुनी जाती थी और मिलकर जूझने की कोशिश की जाती थी। रसूल मियाँ भी ‘ईदगाह’ के हामिद की तरह बाज़ार से गुजरते हुए भीबाजार की शर्तों पर नहीं जीते और न निराला की ही तरह अपने हुनर का इस्तेमाल अपने और परिवार वालों की स्वार्थ-सिद्धि के लिए करते हैं। हामिद अगर बड़ा होकर किसी कहानी में ढलता तो वह जरूर रसूल मियाँ जैसा ही होता, इन्हीं की तरह बाज़ार के बीच रहते हुए भी, बाज़ार को धता बताता।

इस कहानी का एक बेहद महत्वपूर्ण पक्ष है कहानी का स्त्री-पक्ष। जिस पर अलग से विचार करने की जरूरत है । इस कहानी के केन्द्र में रसूल मिस्त्री हैं, इसलिए कहानी में स्त्री पात्र कुछ ही जगह पर आई हैं। रेणु के पात्रों की खासियत है कि कहानियों में एक पल के लिए भी आने वाले अपनी पूरी सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के साथ हाजिर होते हैं। इस कहानी में रसूल मिस्त्री की पत्नी, उनकी बहू, सुदामी और सब्जी बेचने वाली स्त्रियाँ सीमित समय के लिए कहानी के पटल पर हाजिर होती हैं। इसके बावजूद रेणु की इस शुरुआती कहानी से उनकी स्त्री दृष्टि का बखूबी परिचय मिल जाता है।

रेणु ने रहीम को इस कहानी में एक आदर्श पुत्र के रूप में चित्रित किया है । बात-बेबात पिता के डाँटने-‘पिनकने’ पर भीवह शांत भाव से मुस्कुराता हुआ अपने काम को अंजाम देता रहता है। वही रहीम माँ के द्वारा यह पूछने पर कि बाजार सेवह क्या लेकर लौटा है? ‘कलेजी है- रहीम भिनभिनाकर उत्तर देता है।’ (वही,पृष्ठ-138)यह पहला दृश्य है, जहाँ एक स्त्रीइस कहानी के पटल पर उपस्थित होती है। सौम्यता की प्रतिमूर्ति वाले रहीम की चिढ़ी हुई प्रतिक्रिया को कहानीकार बारीकी से दर्ज करता है और स्त्रियों की वस्तुस्थिति को बयान कर देता है। रेणु करीम मियाँ के मार्फत स्त्रियों की अवस्था को बहुत संजीदगी से चित्रित करते हैं। करीम, रसूल मिस्त्री का डेढ़ दो साल का एक पोता है। वह बेहद नटखट और शरारती है । भारत यायावर कहानी की खासियत को रेखांकित करते हुए लिखते हैं “इस कहानी में रेणु ने उसके पूरे परिवार का दिलचस्प रेखाचित्र प्रस्तुत किया है। सबसे दिलचस्प है डेढ़ -दो साल के नन्हे-मुन्ने पोता करीम मियाँ का चित्रण। बेहद जीवंत और मनोरंजक।” (रेणु का है अंदाजे बयां है और, पृष्ठ-114)

रेणु की चिंता में उनका समाज समग्रता में रहा है। ऐसे में उनके समाज की स्त्रियों का जीवन और उनकी तकलीफ उनकी मर्मभेदी नज़रों से उपेक्षित कैसे रह सकती थीं। करीम मियां का चित्रण सिर्फ मनोरंजक नहीं है, रहीम की पत्नी के संदर्भ में तो बिल्कुल भी नहीं। बाल कृष्ण जब यशोदा से यह पूछते हैं कि वे राधा की तरह गोरे क्यों नहीं हैं, तब यह बाल सुलभ मासूमियत से ज्यादा उस समाज के मनोविज्ञान को प्रतिध्वनित करने वाला होता है। उसी तरह डेढ़-दो साल के करीम मियाँ का व्यवहार भी उस समाज की परतों को खोलने में मदद करता है, जिसमें उनकी अम्मी जैसी स्त्रियाँ रहती हैं। करीम मियाँ को जब किसी शरारत पर उनकी अम्मी झिड़कती हैं तो वे रेणु के शब्दों में ‘पजामे से बाहर’ हो जाते हैं। रेणु उस समय के समाज में स्त्रियों की दशा को रेखांकित करते हुए लिखते हैं, “करीम मियाँ भला अम्मी की बात को कैसे बर्दाश्त करें?अम्मी तो घर भर में सबसे कमजोर और हेय प्राणी है। करीम मियाँ ने उसकी खुशामद न कभी की है और न करेगा। और उसकी यह हिमाकत की धमकी दे।” (फणीश्वरनाथ रेणु, चुनी हुई रचनाएँ-2,पृष्ठ-141)

अपनी इस टिप्पणी से रसूल मिस्त्री की उस कमी की तरफ भी इशारा करते हैं जिसके अभाव में मानव परोपकार की भावना और उमर ख़य्यामी फिलॉसफी भी पर्याप्त नहीं है। रहीम की पत्नी उसीरसूल मिस्त्री की बहू है जो स्त्रियों के आत्मनिर्भर होने की जोरदार वकालत करते हैं और सुदामा ग्वालिन के पक्ष में उसके पति और ससुर से मार-पीट तक करने को तैयार हो जाते हैं। रेणु बहुतहौले से मगर पूरी प्रतिबद्धता से स्त्रियों की स्थिति को सामने लाते हैं। इस कहानी में पितृसत्तात्मक व्यवस्था के एक छोर पररहीम कीनिस्सहाय पत्नी है (जिसका अपना नाम तक नहीं है) तो दूसरे छोर पर स्वावलंबी सुदामी है। ” युवती ग्वालिन सुबकती हुई आकर खड़ी हो जाती है- देख्अ त्अ भला रसूल काका दूध के बरतन फोड़ देलन, हाथ पकड़ के लक्को झक्को …?”(वही, पृष्ठ-142 )

वह जब सुदामी के घर जाने को हो रहे होते हैं तब उनकी दुकान पर आया ‘जमाने की समझदारी’ से भरा एक अपरिचित व्यक्ति उन्हें ‘सचेत’ करते हुए कहता है, “अरे मिसतिरी इन छोकड़ियों को कम मत समझो । एक ही खेली खिलायी होती हैं। भला ऐसी जवान लड़की को शहर में दूध बेचने के लिए आने की क्या जरूरत ?” (वही )ऐसे समझदार लोग 1946 ई. में भी थे और 2020 ई. में भी हैं, आगे नहीं रहेंगे इसकी भी कोई गारंटी नहीं है। ये पुरुष होने की श्रेष्ठता के बोझ तले ताज़िन्दगी दबे रहते हैं, इन्हें स्त्रियों के घर से बाहर काम करने और स्वावलंबी होने से समाज के बिखरने का भय सताने लगता है, इन्हें किसी भी अनजान स्त्री तक को पलक झपकते चरित्रहीन कहने का वीटो पावर प्राप्त होता है। ऐसे सभी दायित्त्ववान मर्दों को 1946 ई. में खड़े होकर रसूल मिस्त्री जैसे 2020 ई.में डाँटते हुए कहते हैं, “चुप रहिए साहब। यह लड़की मेरी बेटी दाखिल है।…मैं पूछता हूँ जहाँ दूध की आमदनी से ही पेट चलता हो – घर में इस लड़की को छोड़कर सब बीमार हों तो डाक्टर बुलाने, दुधर बेचने जवान लड़की नहीं आवे तो कौन आवेगा? और भले आदमी का यही धरम है कि दूसरे की बहु-बेटी को मुसीबत में देख कर उस पर जुल्म करे!”(वही, पृष्ठ- 142) ‘हर एक बात पर कहते हो तुम कि तू क्या है’की तर्ज परनसीहत देने वाला अपरिचित रसूल मियाँ को तू कह कर उपेक्षा भाव से संबोधित करता है। अपने को तज़ुर्बेदार और रसूल मियाँ को मिस्त्री होने की वजह से ही बेवकूफ समझता है। जवाब मेंरसूल मियाँ का उसके लिए ‘साहब’ और ‘भला आदमी’ का संबोधन का टोन बहुत कुछ प्रतिध्वनित कर जाता है। रेणु पूरी प्रतिबद्धता से सुदामीके रसूल काका की बगल में कामकाजी और स्वावलंबी स्त्रियों के पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं, जिन्हें आज़ाद भारत में अपनी क्षितिज का अभी विस्तार करना था।

रसूल मिस्त्री के व्यक्तित्व में भी कई अंतर्विरोध हैं। इसलिए कि रसूल मिस्त्री भी हमारे ही समाज की नुमाइंदगी करते हैं। रेणु किसी चरित्र को महान या आदर्शवादी बनाने की कोशिश भी नहीं करते। इसी कारण रसूल मिस्त्री विश्वसनीय लगते हैं। रसूल मियाँ अपने अंतर्विरोधों के साथ हीबेहतर समाज बनाने की कोशिश में शामिल हैं। तेजी से विघटित हो रहे तिजारती माहौल में, सबसे पहले और सबसे अंत में बखूबी मनुष्य हैं। रसूल मिस्त्री उन बीमार,कमजोर, मेहनतकश, सताए हुए लोगों के पक्ष में खड़े हैं जिनके बिना समाज का बैलेंस ठीक नहीं हो सकता। उन्हें मालूम है कि घड़ी तो ठीक हो जाएगी पर समय नहीं। शहर की काया पलट जाएगी, आज़ाद मुल्क विकास के पायदान चढ़ेगा पर लोग पीछे छूट जाएंगे। अपनी हूनर के माहिर रसूल मिस्त्री को तबीयत से मरम्मत करना आता है। इसलिए जहाँ गड़बड़ी दिखती है, ‘सही समय’ का इंतज़ार किए बिना तत्काल उसकी मरम्मत के लिए निकल पड़ते हैं। रहीम को पक्के मिस्त्री का गुर सिखाते हुए कहते हैं ‘अरे उलूवा बैलेंस कैसे ठीक होगा बैलेंस’।(वही,पृष्ठ-138) यानी सिर्फ इल्म होने या कायदा आने से नहीं होगा, लगाव भी होना चाहिए। रसूल मिस्त्री ताज़िन्दगी इसी बैलेंस की तलाश और उसे दुरुस्त रखने की कोशिश डूबकर करते हैं, डूबकर कमला झरिया को सुनते हैं, ‘अदा से आया करो पनघट पर /जब तक रहे जिगर में दम’।

राजीव कुमार

जन्म: 24 अप्रैल, 1986 ; दुमका (झारखण्ड)। वागर्थ, हँस, सदानीरा, चौपाल,समकालीन जनमत आदि में लेख, कविताएं एवं अनुवाद प्रकाशित। सम्प्रति: आर. डी. एण्ड डी.जे. कॉलेज, मुंगेर में अध्यापन।
सम्पर्क  +917093196127, rajeevrjnu@gmail.com 

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साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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