फणीश्वर नाथ रेणु

यथार्थ और मनोविज्ञान का प्रतिक्रियात्‍मक रूपक (अतिथि सत्‍कार)

 

एक बीहड़ समय में बिखरे समय को कथावस्‍तु के रूप में स्‍वीकृति देना/ दिलाना लेखक के लिए सबसे कठिन काम है। जाहिर है कि लेखक यदि ऐसे समाज का स्‍थायी और सक्रिय सदस्‍य होगा और उसकी जड़ें इस समाज में गहरे धँसी होंगी तो उस समाज का रहन-सहन ही नहीं उसके लोक विश्‍वास भी उसके अपने होते प्रतीत होंगे। यही लोक विश्‍वास उस आँचलिक संवेदना का विस्‍तार करता है जिसकी निर्मिति लोक चेतना से स्‍वत: सम्‍बद्ध होती है। महज ग्रामीण बोली या चरित्र निर्माण से ही रचना आँचलिक नहीं हो जाती है। वह लोक संवेदना ही है जो कहानी में कथा की निरन्‍तरता में बनी रहती है जो कथा को, कहानी को अंचल के आन्तरिक हिस्‍से, उसके सरोकार प्रकट करने के लिए सहज तत्पर कर देती है। यह बात अब स्‍पष्‍ट करने का कोई बहुत अर्थ नहीं रह गया है कि विकास और आधुनिकता के विस्‍तार के तमाम दावों के उपरान्त आज भी गाँव और शहर में बड़ी विभाजन रेखा है।

यह विभाजन रेखा महज भौतिक ही नहीं, बाजार, मॉल और लम्‍बी-चौड़ी सड़कों की ही नहीं है बल्कि ग्रामीण राजनीतिक चेतना को अपवाद में स्‍थगित करके गहरे रूप में सामाजिक स्‍तर और सोच में भी है। फणीश्‍वरनाथ रेणु ने इसी विभाजन रेखा को स्‍पष्‍ट किया है। उनकी कथा योजना को नवीन महज इसलिए नहीं कह सकते हैं कि उसकी आधारभूमि ग्रामीण है। बल्कि उसकी भावभूमि भी गहरे तक आँचलिक है। रेणु के यहाँ विचार लोक संवेदना की आन्तरिकता में प्रकट होता है। वे विषयगत दृष्टि को इस हद तक केन्‍द्र में नहीं रखते कि कहानी का आन्तरिक रचाव और अभिप्रेत नष्‍ट होने लगे और वस्‍तुगत दृष्टि कहीं पीछे छूट जाए। रेणु 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में जेल गये थे। इतनी सक्रिय राजनीतिक चेतना के उपरान्त उनकी कहानियों में कहीं  भी वह आवेशित राजनीतिक विचार के लिए जगह नहीं बन पायी।

नयी कहानी के दौर में रेणु की कहानियाँ  अपनी आँचलिक जिद और सरोकारप्रियता के कारण उस तरह की राह पर नहीं गयी जिधर नयी कहानी की त्रयी गयी थी। उनकी कहानियों में हिन्दी कहानी की लोकोन्‍मुखी परम्‍परा का आशययुक्‍त विस्‍तार निरन्‍तर होता रहा। रेणु की कहानियाँ अपनी पठनीयता में एक ऐसा कथा-संसार आभासित करती हैं जिसमें भारतीय लोक का आदिम विश्‍वास और उसका संगीत प्रवाहित है। यही कारण है कि उनकी कहानियाँ छोटी हो या बड़ी एक भिन्‍न जीवनदृष्टि के साथ नवीन संरचना में प्रकट होती हैं। रेणु की आँचलिक कहानियों को यथास्थितिवादी भी कहा गया कि दुनिया के विकास की अपेक्षा वे अभी भी अंचल की दुरुहता में एक सीमित दृष्टि को प्रस्‍तुत कर रहे हैं लेकिन ऐसे कथनों के बीच यह विस्‍मृत नहीं किया गया कि एक अबूझ समय में लगभग निरन्तर ग्रामीण समाज का यथार्थ क्‍यों कर प्रकट होता? कैसे समाज को बदलना है, बताने के लिए रेणु की कहानियों के ग्रामीण समाज का सच सामने आना भी जरूरी था। समकालीन समाज के यथार्थ को विकास के नारों से चुंधियाई आँखों के बीच लाने के लिए ऐसी कहानियों की जरूरत थी।

अधिकांश आलोचकों से अदेखी रह गयी रेणु की एक कहानी ‘अतिथि सत्‍कार’ है। ग्रामीण पृष्‍ठभूमि में अवस्थित इस दिलचस्‍प कहानी में व्‍यक्ति के बदलते ही गाँव में मेजबान के तेवर ही बदल जाते हैं। मुख्‍य अतिथि के रूप में बुलाए गये सज्‍जन की जगह पहले ही कोई मुख्‍य अतिथि पहुँचकर ‘पुजा’ रहा था। अच्‍छा खासा खानपान और अतिथि सत्‍कार का जमकर लाभ उठा रहा बनावटी मुख्‍य अतिथि मूल अतिथि को फर्जी प्रमाणित करा देता है बल्कि उसे अपनी जान छुड़ाने के लिए, आयोजकों की नाराजगी दूर करने के लिए जेब से लगभग सारी राशि देनी पड़ती है। कहानी कोई ज्‍यादा बड़ी नहीं है। लेकिन अपने रचाव में रेणु की यह कहानी मानवीय स्थितियों में उस मनोविज्ञान को असरदार रूप में प्रकट करती है जहाँ मानवीयता का यथार्थ सन्देह से दरक जाता है और न सिर्फ अपनी परम्‍परा से विछिन्‍न होता है बल्कि उसका अतिक्रमण करके अतिथि सत्‍कार की व्‍यंजना प्रकट करता है।

तोतापुर गाँव जब प्रधान अतिथि को फर्जी समझकर आक्रामक हो जाता है तो कहानी किंचित व्‍यंग्‍य की ओर पलट जाती है, कहानी का यह मुड़ना ही कहानी की संवेदना को बचाना है। यह एक नाटकीय हरकत है लेकिन वह पाठक के मन को स्‍पर्श करती है। गाँव का जीवन और परिवेश की नाटकीयता कथ्‍य के अभीष्‍ट को बचाते हुए संवेदना के अन्तराल में परिस्थिति की विडम्‍बना को प्रकट करता है। कहानी में सारी घटनायें जैसे एक क्रम में घटित होती हैं। अवाक, स्‍तब्‍ध और चकित मन को एक एक घटना अपने घटित में उन विसंगतियों के आशय स्‍पष्‍ट करती है जो ग्राम्‍य जीवन की सहज हरकतें हैं। कहानी में अगर व्‍यंग्‍य निर्मित करने के लिए नाटकीयता होती तो कहानी जल्‍दी बोझिल हो जाती लेकिन यहाँ पात्रों से अधिक वातावरण की नाटकीयता ज्‍यादा प्रभावी है। व्‍यंग्‍य कहानियों की भाँति इसमें भाषा का चमत्‍कार नहीं है और न ही व्‍यंग्‍य भाषा की निरन्तरता में कहानी को चमकीला और चटखारेदार बनाया गया है।

गाँव के लोगों की नासमझी और खुद की सरलता और लोभ के कारण प्रधान अतिथि के लिए पहुँचे कथा नायक को जिन नाटकीय और कठिनाई की स्थितियों से गुजरना पड़ता है वह कथा रस का ऐसा हिस्‍सा है जो भाषा में नहीं, शिल्‍प में भी चकित करता है। बगैर किसी पूछताछ और गहन पड़ताल या दोनों को सामने बैठाकर कोई संवाद की स्थिति निर्मित किए बगैर जिस तरह तत्‍काल न्‍याय—निर्णय परपहुँचा जाता है, रेणु बताना चाहते थे कि यह सिर्फ तोतापुर में ही सम्भव है। यह तोतापुर भारतीय ग्रामीण समाज का प्रतिनिधि गाँव नहीं है बल्कि उन्‍हीं में से एक बिल्‍कुल साधारण और सामान्‍य गाँव है। पृथक से उसकी कोई विशेषता नहीं है। गाँव वालों की दबंगई, बदमाशी और आक्रमक रवैये के पीछे उसका सुदूर स्थित होना भी है। एक निहायत ही उजाड़ सा गँवई रेल्‍वे स्‍टेशन –सेमलबन “जहाँ गाड़ी मानो बहुत अनिच्‍छा से ठहरती है’’ और वहाँ से फिर बीस मील दूर पाँच नदियों को पार करके जाने पर तोतापुर आता है। ऐसी दूरस्‍थ जगह पर स्थित तोतापुर जहाँ के किसी आयोजन में प्रधान अतिथि बनने के इस लोभ में क्‍योंकि ‘आँखों के आगे देहाती दूध पर पड़ी हुई मोटी मलाई, रबड़ी-दही और घी की नदी उमड़ने लगी’ थी, नायक का पहुँचना अँधेर नगरी में पहुँचना था।

रेणु की कहानियों के कथ्‍य प्राय: ग्रामीण जनजीवन से उठाए गये हैं। लेकिन ऐसे कथ्‍य भी जिस आधुनिक दृष्टि और भिन्‍न शिल्‍प के साथ वे कथा यात्रा में शामिल करते हैं उसका जातीय स्‍वरूप बहुत विशिष्‍ट हो जाता है। इन अर्थों में वे ग्रामीण कथानक को आधुनिक सन्दर्भों में देखते हैं। यह आधुनिकता का सन्दर्भ शहरी जीवन या भाषा के सन्दर्भ में नहीं, प्रस्‍तुतिकरण में उसकी उस दृष्टि में निहित है जो विडम्‍बनाओं को प्रकट करती है। ‘अतिथि सत्‍कार’ का नायक ग्रामीणजन के बीच अकेला पड़ जाता है लेकिन यह अकेलापन न तो परसाई के नायक की भाँति छल में अकेला है और न निर्मल वर्मा के नायकों की भाँति अकेलेपन की निजी त्रासदी है। रेणु का यह नायक विडम्‍बनाओं में अकेला है। यह भिन्‍नता रेणु की रचनात्‍मकता की भिन्‍न पहचान है। पात्र और परिवेश का संवेदन युग्‍म बहुत सहजता से प्रकट होता है इसलिए नाटकीयता और एक किस्‍म के व्‍यंग्‍य के टोन के उपरान्त रेणु की कहानियाँ मानवीय मनोविज्ञान को बहुत आसानी से और सहजता से खोलती है। रेणु की कहानियों के पात्रों का अकेलापन किसी मोहभंग या वैराग्‍य की तरफ नहीं जाता है। साथ ही किसी गहरी उदासी की पीड़ा में पनाह पाता है। इस निजता के खण्‍डहर से बाहर आने का साहस ही रेणु के नायकों को विशिष्‍ट बनाता है। इस निजी उदासी में जीने को ये नायक विशिष्‍ट मानने से इंकार करते हैं। यही कारण है कि ‘अतिथि सत्‍कार’ जैसी कहानियों के साधारण पात्रों को भी मनोविज्ञान के शीशे में निर्दोष छवि सौंपी है। उदासी का उच्‍चताबोध उनके पास नहीं है।

जब लेखक गाँव की कहानियाँ लिखते हुए उस अंचल के प्रभाव से दृष्टि के स्‍तर पर बाहर आ जाता है तो उसके एकदेशीय तत्त्व की रूपरेखा खत्‍म हो जाती है। यह दृष्टि ही उसकी स्‍थानीयता के तार तोड़ती है। रेणु बिहार के अंचल की कहानियाँ लिखते हुए भी हमें भारतीय ग्रामीणजन के कथाकार इसीलिए लगते हैं। इन्‍हीं कारणों से वे प्रेमचन्द की परम्‍परा के लेखक लगते हैं। रेणु ने बिहार के गाँवों के सामाजिक यथार्थ को परिवेश की सीमाओं के अनुशासन के पार अपनी रचनात्‍मकता में शामिल करते हैं। रेणु की इस कहानी में व्‍यंग्‍य की मुद्रा है। प्रकटन की ऐसी वक्रता है कि वह रचनात्‍मकता का नवीन रूप रचती है। रेणु की कहानियों में खासकर ‘अतिथि सत्‍कार’ में प्रकट में कोई राजनीतिक जगह की गुंजाइश नहीं छोड़ी गयी है लेकिन उसके दूसरे पक्षों की ओर वे ध्‍यान खींचते हैं। ‘मैंने उन्‍हें सच्‍ची बात बता दी, बजने वाली चीज पीछे ही रह गयी है आये गी तो बाजा बजेगा। लेकिन यह सतयुग तो नहीं। बच्‍चों ने विश्‍वास ही नहीं किया’।(रेणु रचनावली भाग 1 – पृ 258)

यथार्थ यह है कि समाज और मनुष्‍यता के सन्दर्भ में रेणु जीवन के कठिन क्षणों में भी सुन्दरतम और सहज परिहास के भीतर विडम्‍बना की स्थिति के दृश्‍यों पर दृष्टि ले जाते हैं। सामान्‍य से विषय को शिल्‍प की नवीनता और चुस्‍त संवादों से विशिष्‍ट बनाते हैं। इसी कहानी को लें तो यथार्थ और मनोविज्ञान के प्रतिक्रियात्‍मक रूपक में कहानी के अभिप्रेत प्रकट होते हैं। रेणु जो भी रचते थे उसमें प्राय: ग्रामीण समाज या मध्‍यवर्ग की उपस्थिति बनी रहती है। इस कहानी में भी ग्रामीणजन के बीच शहर के व्‍यक्ति का दुरूह स्थिति में फँस जाना,गाँव का शहर के प्रति अविश्‍वास भी है। यह कहानी रेणु की तमाम चर्चित कहानियों से भिन्‍न है। इसमें राजनीतिक परिवेश नहीं है। लेकिन फिर भी इस कहानी को मानवीय विशेषताओं और कमियों के साथ जिस तरह से प्रस्‍तुत किया है वह कहानी के यथार्थ की उस आन्तरिक गाँठ को भी खोलती है जहाँ सिर्फ नाटकीयता का लेबल बरामद किए जाने की सुविधा उपलब्‍ध थी।

रेणु ने ग्रामीण जीवन को बहुत आत्‍मीयता से महसूस किया और उसी ग्रामीण चुटीलेपन के साथ प्रस्‍तुत भी किया है। असली प्रधान अतिथि के गाँव में पहुँचने पर आयोजन के सरगना का यह सवाल कि ‘तो वहाँ जो कल से ही प्रधान अतिथि बनकर पुजा जा रहा है, वह कौन है?’(रेणु रचनावली भाग 1 – पृ 290)

इसके बाद कोई विशेष पूछ-गछ नहीं है। बात सीधे मारपीट पर आ जाती है। ‘’तोतापुरी गाड़ीवान ने ऊँची आवाज में कहा,‘अरे नाम धाम पूछकर क्‍या होगा! जब यही आदमी है तो लगाइए न हाथ। देरी क्‍यों ?’’ (रेणु रचनावली भाग 1 – पृ 289) अतिथि सत्‍कार की जो कल्‍पना करके नायक आया था, उसके सारे आशय ही बदल जाते हैं। इस तरह की नौबत कि अतिथि सत्‍कार में मार खाने की स्थिति निर्मित हो जाती है। रेणु ने जो ये अतिथि सत्‍कार का रूपक तैयार किया है वह विस्‍तार और अनावश्‍यक ब्यौरों से बचकर एक स्‍पष्‍ट रचना-विवेक के साथ है। वे गाँव की उदण्डता और अविवेकी आक्रामकता को व्‍यंग्‍य में रिड्यूज करते हैं ऐसा न करते तो ग्रामीणजन की सहज और भोले व्‍यक्ति की छवि धूमिल हो जाती। वे उस अविवेक को भी बताना चाहते थे लेकिन अभद्र या गुण्डे होने के आरोप से बचाकर। इस संवेदनशीलता और कलात्‍मक चतुराई के कारण गंवई पात्र लगभग दोषमुक्‍त हो जाते हैं। यहाँ बात उनकी अनपढ़ होने की नहीं, बल्कि उस सरलता की भी है जिसके चलते वे किसी दूसरे प्रधान अतिथि के स्‍वागत सत्‍कार में लग जाते हैं।

इसी भाषा-संयम और कला दक्षता के कारण यथार्थ की भी रक्षा होती है। सहज ही किसी को सिर पर बैठा लेना और सहज ही किसी के साथ मारपीट पर उद्यत हो जाना, ग्रामीण जीवन शैली का सहज हिस्‍सा है। इसी को मनोविज्ञान के सहारे रेणु नायक पर आयी विपदा और गाँव की उलझन के संयुक्‍त रूप में प्रस्‍तुत करते हैं। इन्‍हीं सब के बीच वे गाँव की जहालत, अविश्‍वास की आक्रमकता, ग्रामीण संशय के मनोविज्ञान को व्‍यंग्‍य के अन्‍डरटोन के सहारे प्रकट करते हैं। ऐसा अन्‍डरटोन जो भाषा में नहीं है, स्थितियों में निर्मित है। रेणु का रचनाकार एक व्‍यंग्‍य दृष्टि के साथ यथार्थ को बहुत आत्‍मीयता के साथ लक्ष्‍य करता है। व्‍यंग्‍य से आगे जाकर यथार्थ की यह आत्‍मीयता उनकी उस यथार्थ दृष्टि का विस्‍तार है जो प्रेमचन्द की दृष्टि में हासिल था। ग्रामीणजन के बीच गहरे तक धँसकर रहे बगैर उनकी गरीबी, उनकी अशिक्षा को अंकित करना मुश्किल है। इसके बगैर ग्रामीण जीवन का वह मुहावरा भी पकड़ में नहीं आये गा जो ग्रामीण जीवन के यथार्थ को गहरी संश्लिष्‍टता में प्रकट करता है।

रेणु इस कहानी में भी इतना भर नहीं बताना चाहते थे कि खाने-पीने के लालच में आकर मुख्‍य अतिथि बनने की चाह में किन-किन परिस्थितियों से गुजरने की नौबत आ सकती है। ग्रामीणजन जो अपनी सहजता और सरलता में आपके पैर पड़ता है, आपको विशिष्‍ट अतिथि सत्‍कार का वादा करता है, सन्देह और गफलत में पड़ जाने पर किस तरह अभद्र और आक्रामक हो सकता है। रेणु इन सबसे आगे जाकर ग्रामीण जीवन के उस संश्लिष्‍ट यथार्थ को ग्रामीण मनोविज्ञान की उस छाया में पकड़ते हैं जहाँ कथा घड़ी भर ठिठकती है। अभाव, अज्ञानता, और शहर के प्रति एक स्‍थायी संशय को लेकर जीने वाले ग्रामीणजन के मनोविज्ञान के वर्णन के लिए जिस कथा संश्लिष्‍ट दृष्टि की जरूरत पड़ती है, रेणु उसी दृष्टि के साथ कथा प्रवाह को आगे ले जाते हैं।

कथा निरन्तरता में रेणु प्राय: परम्‍परावादी यथार्थ दृष्टि को छोड़कर उस सामाजिक यथार्थवाद के हामीदार हो जाते हैं जो उसके कारक तत्त्वों को उसकी सम्‍पूर्णता में प्रकट करता है, बल्कि उनके अन्तर्सम्बन्‍धों को भी स्‍पष्‍ट करता है। वे जीवन को उसकी सम्‍पूर्णता में देखते हैं। उनकी दृष्टि ग्रामीण जनजीवन की दृष्टि जरूर बन जाती है लेकिन वह इकहरी नहीं होती है। यदि दृष्टिकोण की बात को पृथक न किया जाए और रचना पद्धति की भिन्‍नता को प्रमुख दर्जा नभी दिया जाए तो रेणु की कहानियों में यथार्थ इकहरा नहीं हैं, वह पूरी सम्‍पूर्णता में समस्‍त आशयों के साथ नजर आता है। उनकी कहानियाँ यथार्थ की दुनिया में आसानी से दाखिल होती हैं। दाखिले का कोई जटिल प्रपंच नहीं रचती है। सामाजिक यथार्थ उनकी प्रकट-अप्रकट मन:स्थितियों के भीतर ही एक आकार ग्रहण करता है। इसमें अपने समय की जटिलता और विसंगतियों को तोड़ने की एक प्रबल इच्‍छाशक्ति भी नजर आती है।

सुप्रसिद्ध आलोचक मधुरेश ने रेणु की कहानियों के बारे में एक महत्त्वपूर्ण बात कही है कि,‘प्रतिरोध की कोई कोशिश रेणु की कहानियों में दिखाई नहीं देती है, इसका कारण यह है कि विकल्‍प की शक्तियों पर रेणु की कोई आस्‍था नहीं है। इसके विकल्‍प की सम्भावनाएँ उनकी कहानियों में न हों, ऐसा नहीं है लेकिन वे उनका कोई उपयोग करते नहीं दिखाई देते हैं’। (फणीश्‍वरनाथ रेणु और मार्क्‍सवादी आलोचना- पृष्‍ठ 125) लेकिन मधुरेशजी की धारणा के उलट यह भी एक यथार्थ है कि रेणु की कहानियों की दुनिया ऐसे लोगों की बसाहट से भरी-पूरी है जो गाँव, गरीबी, अभाव और शोषण से विचलित हैं। यह विचलन ही एक प्रकार का प्रतिकार है। साथ ही गाँव का सांस्‍कृतिक और लोकतात्त्विक वैभव बहुत गहराई से इसलिए छूता है कि वह उनके जीवन का अमिट और अटूट हिस्‍सा है। घोर गरीबी के साथ भी व्‍यक्ति अपनी धार्मिक और सांस्‍कृतिक आस्‍था नहीं छोड़ता है।

तीसरी कसम के नायक को अन्त तक यह समझने में कठिनाई जाती है कि हीराबाई के जीवन का यथार्थउसकी धारणा से बहुत भिन्‍न है। हीराबाई के चरित्र को हीरामन के चरित्र की तुलना में हिन्दी आलोचना में अपेक्षाकृत कम स्‍थान मिला है। अन्‍यथा यह स्‍पष्‍ट हो जाता कि समय, जीवन और समाज में आ रहे बदलावों और जीवन के अन्तरविरोध अपने पूरे संश्लिष्‍ट यथार्थ के साथ उस कहानी के हीराबाई के चरित्र में मौजूद हैं। अलबत्‍ता यह जरूर कह सकते हैं कि जीवन यथार्थ को उतनी ही जगह कथा में मिली जितना जीवन यथार्थ बदल रहा था। लोक संस्‍कृति के मोह को दरअसल उनकी इस आस्‍था के सन्दर्भ में देखा जा सकता है कि मानवीय मार्मिकता से भरी एक दुनिया के निर्माण में लोक तात्त्विक आस्‍थाओं की भी उतनी ही जरूरत है जितनी दूसरे जीवन-व्‍यापार और व्‍यावहारिकता की।

दरअसल रेणु की कहानियाँ महज बिहार के ग्रामांचलों की कहानियाँ नहीं हैं। स्‍थानीयता से बाहर होकर वह सम्‍पूर्ण भारतीय जीवन की कहानियाँ हैं। ग्रामीण जनजीवन में आकण्ठ डूबी लोक संस्‍कृति की मोहक छवि और मानवीय मार्मिकता का बोध कराती कहानियाँ जातीय जीवन और लोक संस्‍कृति के परहेज के अपराध से बचाती हैं। रेणु महज लोकजीवन या किसान जीवन के यथार्थ के कहानीकार नहीं है। वे जनजीवन में फैले अन्धविश्वासों को भी दृष्टि के घेरे में रखते हैं। वे उस देहाती दृष्टि को भी परखते हैं जो शहरी जीवन को, शहरी सभ्‍यता को सन्देह से देखती है। स्वतन्त्रता के बाद शहर और गाँव के बीच एक फाँक-सी पड़ गयी है। एक विभाजन रेखा ज्‍यादा गहरी हुई है। शहर के प्रति अविश्वास का आवास-घेरा ज्‍यादा बड़ा हुआ है। ग्रामीण जनजीवन में शहर के द्वारा ग्रामीण लोगों के शोषण, अनादर और उपहास की भावना है। दुर्भाग्‍य और दुख की बात तो यह है कि समय के साथ यह विभाजन रेखा बढ़ती गयी और शहर को कभी यह सूझा ही नहीं कि उसे अपना खोया विश्‍वास वापस पाना है।

रेणु की सफल कहानियाँ या कहें सार्थक कहानियाँ वही हैं जिनमें ग्रामीण जीवन के दृश्‍य पूरी मानवीय मार्मिकता के साथ मौजूद हैं। इन कहानियों का ध्‍येय उस संवेदना उपस्थिति से है जो अनाचार और अमानवीयता का प्रतिरोध रचती हैं। वे सिर्फ कारक शक्तियों की पहचान ही स्‍पष्‍ट नहीं करते हैं बल्कि मनुष्‍यता के पक्ष में रचित उस भावभूमि तक भी जाते हैं जहाँ लेखकीय निर्णय नहीं बल्कि पाठकीय निराकरण की गुंजाइश है। अनाचार की परिस्थितियों में मनुष्‍यता की उपस्थिति की अनिवार्यता को प्रमाणित करते हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि रेणु मनुष्‍यता के विस्‍तार के लिए ग्रामीण जनजीवन की सामान्‍यता तक पहुँचते हैं और शोषण और दमन के रूप में जमींदारवर्ग की अधिकार भावना और सामाजिक धारणाओं को स्‍पष्‍ट करते हैं।

रेणु की कहानियों में ग्रामीण समाज की इकतरफा भावनाओं का वर्णन नहीं है। बल्कि सामाजिक सम्बन्धों और वैचारिक मतभेदों के उपरान्त मनुष्‍यता के संकेत स्‍पष्‍ट है। एक क्रमिक विकास है। इसके लिए रचनादृष्टि गहरी मानवीय करूणा से भरी है। यह मानवीय मार्मिकता ग्रामीण जनजीवन के यथार्थ की स्‍पष्‍ट  समझ और मनुष्‍यता के दमन में उत्‍साहित शक्तियों की पहचान और पक्षधरता से उपजी है। वे इसके लिए लोकगीतों का इस्‍तेमाल करते हैं क्‍योंकि मानवीयता का एक विशेष हासिल उद्गम लोक संस्‍कृति भी है। लोक संस्‍कृति आरम्‍भ से ही मनुष्‍यता की पक्षधर रही है। इसलिए वे ग्रामीण समाज को मनुष्‍यता का हितैषी और व्‍यक्ति को सामाजिकता के सन्दर्भ में उस जगह देखना चाहते थे,जहाँ शोषण और दमन खत्‍म हो जाए। वे घोर गरीबी, अभाव और अनादर के बीच जी रहे ग्रामीणजनों को जीवन की सुन्दरतम लोक संस्‍कृति के निर्माण और निरन्तरता में देखना चाहते हैं। और उनकी रचनाओं में यह सम्भव हुआ है। लोक संस्‍कृति में गहरा भरोसा करने वाला ग्रामीण समाज का अर्थ है जीवन यथार्थ की उपेक्षा न करके उसकी इच्‍छाओं के साथ, उसकी सफलता और विकास की महत्त्वाकाँक्षा  के साथ चलने वाला समाज जिसमें मानवीय करूणा के लिए पर्याप्‍त जगह हो।

‘अतिथि सत्‍कार’ का सरगना घोषित रूप से उद्दण्‍ड या अराजक नहीं है। लेकिन शहरी चालाकियाँ और बदमाशियों के देखे-भोगे और सुने अनुभव उसे मामूली से सन्देह पर अपनी ग्रामीण समझ का अनादर लगता है। इस सन्देह को पुख्ता करनेमें शहरी समाज के प्रति उसका टूटा विश्‍वासभी मदद करता है। ‘‘नहीं तो और क्या ?  देहाती समझकर ठगने चले थे!’’ (रेणु रचनावली – पृ. 290) क्यों इतना कमजोर है ग्रामीणजनों का भरोसा क्योंकि वे अपनी गरीबी, लूट और शोषण के लिए शहर को भी जिम्मेदार मानते आये  हैं। वर्ना जो लोग ‘‘हम तोतापुरी अपने प्रधान अतिथि का सम्मान करना जानते हैं!’’ की घोषणा से सादर न्यौता दे गये थे वही सन्देह होने पर ‘‘वाह! वाह! जिस गाँव में चोर पकड़ा गया, वहाँ के लोगों को कुछ नहीं! नहीं छोड़ेंगे आसामी को …. पकड़ रे!’’ (रेणु रचनावली – पृ. 290) दिलचस्प यह है कि मूल गाँव तोतापुर से पहले असली-नकली के झमेले में पड़े कथित प्रधान अतिथि को दूसरे गाँव के लोग इस बिना पर लूटने लगते हैं कि ‘चोर पकड़ा तो हमारे यहाँ गया है!’ असली प्रधान अतिथि के जूते छीन लिए जाते हैं!  मारपीट से बचने के लिए बीस रुपए पर सौदा तय होता है यानी कुल मिलाकर, ‘बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले!’ साधारण सी गलती या गलतफहमी, सन्देह और महज ‘पहले जो पहुँचा वह सच्चा’ को आधार मानकर गाँव वाले नायक की खासी दुर्गति करते हैं।

सुप्रसिद्ध आलोचक सुरेन्द्र चौधरी ने नयी कहानी आन्दोलन के भटकाव के बारे में एक दिलचस्प बात कही है। ‘‘नयी कहानी कुछ लेखकों की गिरफ्त में आयी और उनके ही विश्‍वासोंधारणाओं को उदाहृत करने की मोहताज हुई। भारतीय जनजीवन से उसका लगाव कम होता चला गया और उसकी मूल संवेदना अपने ही जीवित इतिहास से कट गयी।’’ (हिन्दी कहानी: रचना और परिस्थिति, पृ. 194) दरअस्ल नयी कहानी आन्दोलन में रेणु भी एक महत्त्वपूर्ण कहानीकार थे। आन्दोलन का दुर्भाग्य यह रहा कि यह कुछ लेखकों की निजी महत्वाकांक्षाओं का शिकार हुआ। वर्ना जिस धारणाओं, मान्यताओं और समर्पण भाव से आन्दोलन शुरू हुआ या आगे चलकर उसकी आँच धीमी पड़ गयी। आधुनिकता, नवीनता और विशिष्टता के दबाव से वह दृष्टिकोण ही मिटता चला गया। अन्यथा हिन्दी कहानी और भी बेहतर स्थिति में होती। इन महात्वाकांक्षाओं के कारण नयी कहानी कुछ लेखकों के इर्द-गिर्द घूमने पर विवशकी गयी।

यह तो निर्मल वर्मा, रेणु और अमरकांत जैसे लेखकों की रचनात्‍मकजिद थी जो खामोशी से निरन्तर रचनारत रहे। यह निरन्तरता और आस्था की सक्रियता, लेखन को लेकर समर्पण एक सकारात्मक प्रतिपक्ष बन गया। रेणु के लिए यह निजी संघर्ष नहीं था। यह रचनात्मकता का आग्रह और दबाव था। निजी इच्छाओं और बाह्य यथार्थ का हताशा पैदा करने की उद्दण्ड अभिलाषा, तमाम अन्तरविरोधों और अन्तरद्वन्द्व के भीतर लेखक की रचनात्मकता की निरन्तरता का चुनाव असाधारण था। रेणु ने यही किया। उन्होंने खुद को नारों और घोषणाओं से बाहर रखा। लेकिन यह बाहर रहना रचनात्मकता की परिधि से बाहर होना नहीं था। वे लेखन की आस्था से बाहर नहीं थे। एक दृढ़ निश्‍चय को जी रहे थे जो उनकी रचनात्मकता के लिए जरूरी था। वे अपने समय के सच, जीवन अनुभवों और इनके साथ सम्पूर्ण कहानी का रचाव जो पूरी मानवीय मार्मिकता के साथ अपनी पहुँच बनाए, करते थे उनके इस निज की पहचान ही उनकी रचनात्मकता की पहचान है जो उन्हें भिन्न बनाती है।phanishwar nath renu

रेणु की कहानियों में कला और शिल्प के साथ जीवन के प्रति गहरा अनुराग मिलता है। नयी कहानी दौर के अनेक लेखक हताशा, और निजी कुंठा के सायेविस्तारित कर रहे थे और जीवन के निजी अवसाद को रचना में कला की जरूरत की भाँति प्रस्तुत कर रहे थे तब रेणु का लोकजीवन एक गहरे उल्लास से भरा हमें एक ऐसी दुनिया से परिचित कराता है जिसे हम पहचानते तो थे लेकिन इतना खुलकर जिया नहीं था, जानते नहीं थे। अपनी कहानियों में गाँव के लोगों की अज्ञानता को जिस विट और कला कौशल से प्रस्तुत करते हैं वहाँ वह पात्र अनपढ़-गँवार नहीं मासूम और अबोध लगते हैं। जैसे ‘अतिथि सत्कार’ के पात्र। सांस्कृतिक पतन की शुरूआत के उस दौर में वे लोक संस्कृति को फिर से कला और संवेदना के केन्द्र में लाने की कोशिशमें सफल होते हैं। यह लोक संस्कृति के प्रति गहरा अनुराग महज एक रूमानी आकर्षण नहीं है। यह उनकी कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता है। लोक जीवन या लोक संस्कृति और जीवन यथार्थ का रचना में इतनी सहजता से प्रवेशएक नवीन एतिहासिक घटना की भाँति था। हालाँकि यह प्रवेशप्रेमचन्द परम्परा से थोड़ा भिन्न है। पृथकता का कारण वैचारिकी थी। उनकी कहानियों में यथार्थ की संश्लिष्टता और प्रस्तुति की नवीनता महज लोक संस्कृति के लिए बनायीगयी जगह में नहीं है बल्कि उस जरूरत में है जो उपेक्षित पड़ी लोक संस्कृति को रचना का महज हिस्सा बनने के लिए जरूरी था।

रेणु की कहानियों की सार्थकता इस बात में है कि वे यथार्थ को उसकी माकूल जगह पर छोड़ देने की छटपटाहट से भरी-भरी हैं। एक कहानीकार की भाँति हमारा ध्यान खींचते हैं कि एक जीवित इतिहास के नष्ट हो जाने की परिस्थितियों से उबरने की जगहें, राहें किस प्रकार अभिन्न थीं। एक बात जरूर है कि वे लोक संस्कृति को कथा का हिस्सा बनाते हुए उसे जीने लगते हैं और उसे ही भाषा का जरूरी हिस्सा मानते हैं। ऐसे समय में जो भाषा में जीते हुए एक लेखक की आकाँक्षा भाषा पर सवार होने की होती है, वे बचते हैं। उस नियति से बचते हैं। ऐसे समय में लेखकीय आकाँक्षा के हमले के चलते नितान्त रचनात्मक क्षणों को बचाते हुए आकाँक्षा से रक्तरंजित भाषा से भी बचते हैं। रेणु की कहानियाँ इसलिए मार्मिक और पठनीय हैं कि जिनका होना ही आकाँक्षा के प्रदूषण से एक सार्थक संघर्ष है। ‘अतिथि सत्कार’ जैसी सामान्य कहानी को वे इसलिए विशिष्ट बनाने में सफल होते हैं।

इस कहानी को पढ़ते हुए लगता है कि कहानी का सम्पूर्ण रूप, उसकी संरचना भाषा पर आकाँक्षा के होने वाले आक्रमण का रचनात्मक जवाब है। वर्ना क्या नयी कहानी के दौर में यह आसान रहा होगा कि तत्कालीन प्रचलित निजी अवसाद या हताषा या सम्बन्धों की कहानियों के बीच भाषा की ऐसी नवीनता और लोक संस्कृति के प्रति गहरा सम्मान लेकर आकाँक्षा के प्रदूषण के खिलाफ या उसके समान्तर निरन्तर लिखते रहें। यथार्थवाद को लेकर नयीसम्भावनाएँ बन रही थीं। इस सम्भावना को रचना की जरूरत की संश्लिष्टता के साथ प्रस्तुत किया जा सकता था लेकिन इसके बगैर भी सम्भावना बनी हुई थी और इन तमाम अन्तरविरोधों को जीवित इतिहास से बाहर देखने की जिद और भरोसे ने रेणु की कहानियों में सार्थक होकर जगह बनायी। आजादी के बाद समाज तेजी से बदला था। इन अन्तरविरोधों के सन्दर्भ में तत्कालीन समाज के यथार्थ को समझने में मदद मिल सकती थी, जो रेणु की कहानियों में दिखाई देता है। ग्रामीण विकास के लिए बनी योजनाएँ, और सम्भावनाएँ अभी आधी-अधूरी थीं। बदलाव जो इच्छा में था, परिणति में नहीं था। रेणु इसे महसूस कर रहे थे। वर्ना ‘अतिथि सत्कार’ का तोतापुर पाँच नदियों के पार क्यों होता ? जिसे बैलगाड़ी या भैंसागाड़ी पर बैठकर पार करना पड़ता था।

रेणु की कहानियों की भाषा इतनी सहज और स्वाभाविक है कि वह लोक संस्कृति की प्राचीन भाषा नहींबल्कि आधुनिक भारत की ग्रामीण बोली लगती है। उसमें जो सहज लय है वह लोक भाषा को उसके मूल अर्थ सहित पुकार लाती है यह मानवीयता का वह संगीत है जिसे समझने के लिए महज उत्सुक मासूम कान यानी करुणा से धड़कता हृदय चाहिए। इस तरह सारे अर्थ खुलते जाते हैं और एक नया सुख हासिल होता है। लगता है कि एक लोक चेतना को जीवन के सहज संगीत से दूर नहीं किया जा सकता है। कहानी को पढ़ लेने के बाद भी हम उस लय में बंधे रहते हैं क्योंकि वह हमारी संवेदना को स्पर्शकरते हुए चलती है। कथा यथार्थ पूरे समय कहानी में संवेदना की बाँह पकड़कर साथ चलता है।

‘अतिथि सत्कार’ एक भिन्न मिजाज की कहानी है लेकिन पूरी कहानी पर रेणु की स्पष्ट छाप है। रेणु अपनी कहानियों में इस छाप की हमेशारक्षा करने में जुटे रहते हैं। अनेक वर्गों से आये  अनेक पात्र हैं जो अपनी कथा-यात्रा में गहरे तक प्रभावित करते हैं। सभी का अपना एक स्वतन्त्र हिस्सा है। ‘अतिथि सत्कार’ के छोटे से छोटे पात्र का भी एक स्वतन्त्र अस्तित्व है। उसके व्यक्तित्व का जादू है। वे सामान्य जन है लेकिन भीड़ में गुम नहीं होते हैं। इसका एक कारण यह भी है कि कहानी में परिवेश का योग है। तनावपूर्ण स्थिति में भी कहानी की स्थिति को परिहास में बदलने में वे सक्षम है। ‘अतिथि सत्कार’ इसका बड़ा उदाहरण है।

 भालचन्‍द्र जोशी

आठवें दशक के उत्तरार्ध में लेखन की शुरूआत। पेशे से इंजीनियर हैं और अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. किया है। दो कहानी संग्रह ‘नींद से बहार` और ‘चरसा` प्रकाशित। आदिवासी जीवन पद्धति तथा कला का विशेष अध्ययन। निमाड़ की लोक कलाओं और लोक कथाओं पर काम। चित्रकला में सक्रिय रूचि। कुछ समय तक लघु पत्रिका ‘यथार्थ` का संपादन। इसके अतिरिक्त ‘कथादेश` के नवलेखन अंक का संपादन। टेलीविजन के लिए क्लासिक सीरीज में फिल्म लेखन। मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन का ‘वागीश्वरी पुरस्कार`।

13, एच.आयी.जी. ओल्‍ड हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी,

जेतापुर, खरगोन 451 001 मध्‍यप्रदेश

सम्पर्क- +918989432087, joshibhalchandra@yahoo.com

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साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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