जीवन की पाठशाला से जन्मी कहानी
दसगज्जा के इस पार और उस पार
फणीश्वर नाथ रेणु भारतीय साहित्य के बहुपठित और प्रतिष्ठित कथाकार हैं। हिन्दी साहित्य के तो हैं ही। रेणु के कथा साहित्य को अधिकांश भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों एवं पाठकों ने अत्यन्त आदर और सम्मान की दृष्टि से अपनाया है। यह इसलिए नहीं है कि उन्होंने छ: उपन्यास और पाँच कहानी संग्रह सहित रिपोर्ताज, नाटक, संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ट, कविता, निबन्ध, फ़िल्म-स्क्रिप्ट, अनुवाद, गद्य गीत, पत्र, सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं पर टिप्पणी अथवा लेख आदि विभिन्न विधाओं में उत्कृष्ट लेखन किया है बल्कि भारतीय साहित्य में रेणु की प्रसिद्धि का मूलाधार उनका कथा साहित्य यानी कहानी और उपन्यास लेखन है। इस कथा साहित्य के सृजन में उनके व्यापक जीवनानुभव की भूमिका असन्दिग्ध है।
यह सर्वविदित है कि रेणु का कथा साहित्य में आगमन के पूर्व उन्होंने तमाम सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में प्रत्यक्ष भागीदारी की थी। आचार्य नरेन्द्रदेव और बांग्ला के प्रसिद्ध रचनाकार सतीनाथ भादुड़ी का सान्निध्य, 1942के आन्दोलन में शामिल होकर भागलपुर सेन्ट्रल जेल में सजा, 1947में विराटनगर जूट मिल के मज़दूर आन्दोलन में गिरफ़्तार, 1948में डालमिया नगर की हड़ताल में भागीदारी, 1948में नेपाल के राणाशाही के ख़िलाफ़ नेपाली सशस्त्र क्रान्ति में भागीदारी जैसी घटनाएँ स्मरण की जा सकती हैं। लेखन संसार में प्रवेश करने के पहले रेणु ने विविधवर्णी और बहुरंगी जीवनानुभूति अर्जित की थी। ऐसा अनुभव बहुत कम रचनाकारों के पास होता है। अनुभव हो भी तो उसकी सार्थक अभिव्यक्ति नहीं कर पाते हैं। रेणु उन विरले कथाकारों में हैं जो भोगे हुए यथार्थ को सार्थक अभिव्यक्ति में बदलने का पूरा सामर्थ्य रखते हैं। भारतीय रचनाकारों और साहित्यप्रेमियों को रेणु का कथा सृजन लुभाने और आकर्षित करने का एक बड़ा कारण यह है कि इसमें जीवन की रागात्मकता और कोमलता एवं यथार्थ चेतना का अपूर्व समन्वय साधित हुआ है। कथाकार ने इस समन्वय को अपनी ‘गँवारू और ग़लीज़ भाषा’ में बड़ी शिद्दत के साथ अभिव्यक्त किया है।
सच है कि कहानीकार के रूप में रेणु को ‘तीसरी क़सम अर्थात् मारे गये गुलफाम’ (अपरम्परा-1, 1957) ने सर्वाधिक ख्याति प्रदान की। लेकिन, भला उनकी पहली कहानी‘बटबाबा’( विश्वमित्र, साप्ताहिक, 1945) को कैसे भुलाया जा सकता है। अब तक उपलब्ध तथ्यों के आधार पर रेणु की अन्तिम तीन कहानियाँ ‘दसगज्जा के इस पार और उस पार’ ‘अगिनखोर’ तथा ‘भित्तिचित्र की मयूरी’ एक ही वर्ष यानी1972में प्रकाशित होती हैं। प्रसंगवश उल्लेख किया जा सकता है कि एक ही वर्ष में प्रकाशित तीनों कहानियों का स्वर भिन्न-भिन्न है। तीनों रचनाओं का स्वाद अलग-अलग है। ऐसे भी रेणु की कहानियों में पुनरावृत्ति नहीं है। उन्होंने प्रायः अपने को रिपीट होने नहीं होने दिया है। स्पष्ट कहा जा सकता है कि रेणु का कहानी लेखन 27-28 वर्ष अर्थात् लगभग तीन दशकों तक व्याप्त है।
इस कालावधि में रेणु की कुल63कहानियाँ मिलती हैंयद्यपि रेणु रचनावली के संपादक भारत यायावर रेणु की कहानियों की संख्या अस्सी बताते हैं तथापि गिनती के आधार पर यह संख्या 63ही है। हो सकता है कि रेणु ने और भी कहानियाँ लिखी हों जो उनके किसी संग्रह अथवा रचनावली में शामिल न हो। उल्लेख करना अनुचित न होगा कि अधिसंख्य में कहानी रचना उनका कभी उद्देश्य न था। किसी भी श्रेष्ठ रचनाकार के लिए रचना की संख्या का कोई आधार नहीं होता। बहरहाल, ‘दसगज्जा के इस पार और उस पार’ कहानी के आधार पर कथाकार की चिन्ता और चेतना को कहानी के सन्दर्भों और परिप्रेक्ष्य में उद्घाटित करने का प्रयास किया जा रहा है। साथ ही, आज के सन्दर्भ में इस तरह की कहानियों के पठन की आवश्यकता एवं प्रासंगिकता का अध्ययन भी करना इस आलेख का उद्देश्य है।
‘दसगज्जा के इस पार और उस पार’ कहानी ‘ज्योत्स्ना’ के नवम्बर, 1972में पहली बार प्रकाशित हुई। इसे रेणु के चौथे कहानी संग्रह ‘एक श्रावणी दोपहरी की धूप’ (1984) में संकलित किया गया जो उनके मरणोपरान्त प्रकाशित हुआ था। सबसे पहले ‘दसगज्जा’ शब्द पाठकों का ध्यान आकर्षित करता है। रचनाकार ने इसे ‘नो मेन्स लैंड’ के लिए प्रयोग किया है। ‘नो मेन्स लैंड’ का शब्दकोशीय अर्थ से गुजरने के बाद ही ‘दसगज्जा’ शब्द में निहित सौन्दर्य का उद्घाटन हो सकता है। शब्दकोशों में उक्त अंग्रेज़ी पद का अर्थ है—लावारिस भूमि, लावारिस प्रदेश, राज्यरहित भूमि, शासनहीन भूमि, मानवरहित भूमि, अस्वामिक भूमि, स्वामीहीन भूमि, अवान्तर भूमि, मध्यवर्ती भूमि, असैन्य क्षेत्र, सीमावर्ती मानवरहित क्षेत्र आदि। इन पर्यायवाची शब्दों में यान्त्रिकता और कृत्रिमता है जबकि ‘दसगज्जा’ में नैसर्गिकता और रागात्मकता जीवन्त हो उठती हैं। इससे जो सामर्थ्य और सौन्दर्य द्योतित होता है वह शब्दकोशीय अर्थों में क़हाँ? भारत और नेपाल की सीमारेखा को अलगाने वाला पूर्णिया ज़िले का उत्तर-पश्चिम हिस्से में जोगबनी थाने के अन्तर्गत चक्करघट्टी मौजा से सटा हुआ है ‘दसग़ज्जा’। इसके बीच की दूरी दस गज की है। संभवत: रेणु ने ‘नो मेन्स लैंड’ के लिए पहली मर्तबा इस प्यारा शब्द ‘दसगज्जा’ का प्रयोग किया है।
अपने समकालीन रचनाकारों से रेणु का रचना वैशिष्ट्य इस अर्थ में है कि उन्होंने अपने लोक से गहरे रूप से जुड़कर रचना की है। उन्होंने जीवन की पाठशाला से रचना संसार का सृजन किया है। ऐसा भी परिलक्षित होता है कि उनके पात्र उनके इर्द-गिर्द रहनेवाले जीवन्त मनुष्य ही हैं। अपनी रचना प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा भी है— ‘’बचपन से ही मुझे कथा-कहानी सुनाने और गुनने का शौक़ रहा है। बुनने का शौक़ तो बहुत बाद में चलकर पैदा हुआ, और वह भी शायद इसलिए कि बचपन से ही इतने तरह के लोगों को नज़दीक से देखने-समझने का मौक़ा मिला कि बाद में चलकर मैंने महसूस किया– मेरा प्रत्येक परिचित अपने-आप में अनगिनत कहानियों की खान है। बस, फिर क्या था, कलम उठाई और कथा बुनने के धंधे में लग गया।“ हालाँकि यह भी सच है कि अपने इर्द-गिर्द के पात्रों की जीवन गाथा की प्रस्तुति भर से कहानी भले बन जाए लेकिन उत्कृष्ट और बेमिसाल कहानी सृजित नहीं हो सकती है। इसके लिए ज़रूरी है रचनाकार की जीवन-दृष्टि जिसे रचनाकार ने अपने जीवन के व्यापक अनुभव संसार से प्राप्त किया था। वे स्वाधीनता आन्दोलन के रचनाकार तो हैं ही, स्वातंत्र्योत्तर भारत के युग-स्पंदन को उकेरने वाले महत्वपूर्ण कथाकार भी हैं। पराधीन भारत के सपनों के चूर-चूर होते समय को अंकित करने वाले कहानीकार हैं। साहूकार, महाजन, अमीरों तक सीमित आज़ादी से उत्पन्न विसंगतियों और विडंबनाओं को चित्रित करने वाले साहित्यकार हैं।
भारत की आज़ादी के सिल्वर जुबिली वर्ष में ‘दसगज्जा के इस पार और उस पार’ कहानी का प्रकाशन हुआ है। इन पचीस वर्षों में हमारी सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्थितियों में आनेवाले बदलावों अथवा उसके यथास्थितिवाद के संकेत इस कहानी के मार्फ़त से प्राप्त कर सकते हैं। साथ ही, आज आज़ादी के तिहत्तर वर्षों पश्चात हमारे जीवनमूल्य किस हद तक प्रभावित हुए हैं, इसका भी आकलन आलोच्य कहानी के माध्यम से किया जा सकता है।
‘दसगज्जा के इस पार और उस पार’ कहानी रेणु की अन्य कालजयी अथवा सर्वाधिक चर्चित कहानियों से भिन्न है। कथा कहने का ढंग और ट्रीटमेंट दोनों ही दृष्टि से यह भिन्नता परिलक्षित होती है। यूँ देखा जाए तो इसमें कथा नहीं के बराबर है। कहानी की शुरुआत में ही रेणु ने उल्लेख किया है कि पश्चिम में कुछ ऐसे लेखकभी हुए हैं जिन्होंने अपने-अपने जीवन के अपराधों और कुकर्मों को जेल की काल-कोठरियों में लिखकर रातोंरात प्रसिद्धि प्राप्त कर ली है। यद्यपि रेणु ने कई बार जेल की सजा काटी थी, तथापि ख़ूँख़ार और भयानक असामाजिक अपराधों का अनुभव न तो उनके पास था और न ही वे रातोंरात प्रसिद्धि पाने की उनकी कोई मंशा थी जैसे कि जैक हेनरी एब्बोट, एडवर्ड बंकर, एलन सिल्लिटो, विलवारत रिडो आदि ने जेल में रहकर अपने अपराध जगत की कथा लिख कर पर्याप्त ख्याति हासिल की थी। वे तो कहानी को केवल कहानी मानने के पक्षपाती थे। कहानी सिर्फ़ कहानी होती है। सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक, मनोविश्लेषणपरक, आदि का विभाजन बेमानी है। परवर्ती समय में मराठी के प्रसिद्ध नाटककार विजय तेंदुलकर ने भी नाटक के बारे में कहा है-‘’नाटक नाटक होता है। सिर्फ़ नाटक।“ दरअसल, किसी विधा की रचना को किसी खाँचे में ही सीमित कर देने से उसकी आलोचना प्रस्तुत करने में भले सहूलियत हो जाए, लेकिन इससे रचना के परिप्रेक्ष्य भी परिमित हो जाते हैं।
उल्लेख किया जा चुका है कि रेणु अपने अंचल, देश-काल, लोग और लोक से गहरे रूप से जुड़े हुए थे। उन्होंने स्वतन्त्र भारत की व्यवस्था को केवल देखा नहीं था बल्कि उसे अपने अंगों से निभाया था। पराधीन भारत में वे बुरी तरह पुलिस के जूतों से कुचले गए थे तो आज़ाद भारत में मासूम बेगुनाहों को फ़ॉल्स एंकाउंटर में मारकर उन्हें ख़ूँख़ार आतंकवादी करार दिए जाने की घटना से भलीभाँति वाक़िफ़ थे। उन्हें राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में सक्रिय, राष्ट्रद्रोही, दुश्मन राष्ट्रों के लिए काम करने वाले भेदिए सिद्ध करने के लिए साक्ष्य भी जुटा लिए जाते हैं। इससे सम्बन्धित अधिकारियों को पदोन्नति, मेडल प्राप्ति आदि आसानी से हो जाती है। 1972 में लिखी गयी यह कहानी मानो आज के दास्ताँ बयान कर रही है। साथ ही, मौजूदा हालात पर सोचने विचारने के लिए बाध्य करती है। व्यवस्था से सवाल पूछ लिए जाएँ तो आपको देशद्रोही, ग़द्दार, दुश्मन देश का एजेंट और भी जाने क्या-क्या सिद्ध करने में सत्ता जुट जाती है। मनगढ़ंत अपराधों की लंबी फहरिश्त और तदनुसार भारतीय दण्ड संहिता की तमाम धाराएँ लगा दी जाती हैं। असहमत होने का मतलब देशद्रोही होना बन गया है। हत्यारा सत्ता से अभिनंदित हो रहा है और निरपराध जेल की काल-कोठरियों में सड़ रहा है। फासीवादी प्रवृत्ति की चरम अवस्था है आज का हमारा समय।
दसगज्जा के पास बैठे लेखक अपने आप से सवाल पूछता है कि यह सब कयों लिख रहा है? इस सवाल का जवाब उसकी कथा दृष्टि और जीवन दृष्टि का परिचय प्रदान करता है—“असल में मैं इस ‘दसगज्जा’ के बारे में- इसके ‘इस पार’ और ‘उस पार’ के गाँवों, लोगों और जानवरों के सम्बन्ध में कुछ लिखे बग़ैर नहीं रह सकता।– मैं आज जो कुछ भी हूँ, वह नहीं होता। मैं ही क्यों, मेरे इलाक़े के बहुत सारे नामी लोगों की प्रसिद्धि के पीछे—दो देशों की सीमा-रेखा इस दसगज्जा का लंबे हाथ हैं।‘’ दसगज्जा के इस पार भारत और उस पार नेपाल। लेखक सोलह-सत्रह साल की उम्र में नेपाल के विराटनगर में साहित्यिक- राजनीतिक चेतना संपन्न कोईराला परिवार के साथ रहने चला गया था। अतः उसका दोनों देशों से गहरा लगाव रहा है।
कहानी में एक छोटा वाक्य पढ़ा जा सकता है—‘’दसगज्जा के पास आते ही मेरे अंदर एक तूफ़ान-सा घुमड़ने लगता है।“ भले ही सत्ता और व्यवस्था की दृष्टि में दो भिन्न राष्ट्र हैं। लेकिन लेखक के लिए दोनों में अन्तर क़हाँ? न तो सत्ता की सोच में और न ही गाँवों, लोगों और जानवरों की स्थितियों में। हाँ, यह अलग मुद्दा अवश्य है कि अपनी बाल्यावस्था में दसगज्जा में पड़ी दोनों देशों की लावारिस अपराधियों की लाशों को खाने वाले गिद्धों, सियारों, कौवों, कुत्तों आदि की संख्या गिनने के क्रम में कथावाचक अपने भारत के पशुओं की संख्या नेपाल की तुलना में कम पड़ जाती थी तो मन मसोस कर रह जाता था। खेल में हार जाने से जैसी अनुभूति होती है। राष्ट्रीयता का यह पाठ बाल्यावस्था में संस्कार के रूप में प्राप्त होता था। कहानी का यह वाक्य दृष्टव्य है—‘’ लोगों की राष्ट्रीयता ने हमारे मन में कभी कोई भाव नहीं जगाया। ‘देसवाली’ लाश को देखकर न हमें दुःख हुआ और न नेपाली लाश को देखकर सुख।“ लेकिन, आज राष्ट्रवाद का स्वरूप संकुचित हो चुका है। विवेक और बुद्धि की हत्या करके सत्ता द्वारा कही गयी बातों का अंधानुसरण करना ही राष्ट्रवाद बन गया है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद तो भयानक रूप धारण कर चुका है।
‘दसगज्जा के इस पार और उस पार’ शीर्षक कहानी में दो प्रसंगों का उल्लेख है। ज़ाहिद अली और तस्करी। ऐसे इन दोनों प्रसंगों को एक सूत्र में भी गुँथा जा सकता है। इसे ज़ाहिद अली का प्रसंग कहा जा सकता है। क्योंकि ज़ाहिद अली ही तमाम क्रियाकलापों के केंद्र में है। पूरे टापू इलाक़े में उसीका राज था। नेपाल का करनल जनरल हो अथवा भारत का कमिश्नर-कलक्टर-पुलिस-दरोग़ा सभी उसके अखण्ड प्रताप के समक्ष बौने थे। यूँ कहा जा सकता है कि ज़ाहिद अली के हाथों में ही दोनों क्षेत्रों के शासन की बागडोर थी। लगभग ढाई सौ गाँवों का नियंता था ज़ाहिद अली। दोनों देशों के सभी फ़रार, ख़ूँख़ार, खूनी, डकैत, हत्यारे बस उसके सामने अपने ईमान से सबकुछ खुलासा कर लें। ज़ाहिद अली दोनों देशों का नियंता था। इसलिए सरकारी अफ़सर उसकी कदर करते थे। वह अमन सभा का मान्य सदस्य था। उसे खाँ बहादुरी उपाधि प्राप्त थी। हर दीपावली में कर्नल उसके यहाँ पाँच दिनों तक मस्त रहते थे। राजकनैली के राजा साहब शिकार पर आने के पंद्रह दिन पहले संदेश भिजवाते थे। कलकत्ता की टिम्बरलैंड कम्पनी के बड़े सेठ ठेका लेने के पहले ज़ाहिद अली से मसविरा अवश्य कर लेते थे। सेठ-साहूकार, ठेकेदार उसकी मंत्रणा के बिना न पूँजी लगाते थे और न ही काम हाथ लेते थे। ज़ाहिद अली के बारे में ये सूचनाएँ पाकर अरुण कमल की दो पंक्तियाँ याद आती हैं—
‘’देखो हत्यारे को मिलता राज-पाट सम्मान
जिनके मुँह में कौर मांस के उनको मगही पान’’
लेकिन ज़ाहिद अली को अपराधी या हत्यारा नहीं कहा जा सकता। जैसे आज के भारत में लोकतन्त्र के मंदिर यानी भारतीय संसद के 43 प्रतिशत मान्य सांसदों को आप अपराधों के आरोपी नहीं कह सकते। वे महान देशभक्त हैं, अनमोल जनसेवक हैं। ‘भारतमाता के सपूत’ तो हैं ही।
‘दसगज्जा के इस पार और उस पार’ कहानी में आबकारी विभाग की गतिविधियों और क्रियाकलाप का चित्रण हुआ है। बहाली में होनेवाली धांधली से लेकर विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार तक के संकेत का कहानी में उल्लेख मिलता है। घूस देकर ट्रान्सफ़र हो अथवा विभागीय प्रमोशन में किए गए भेदभाव, सबका खुलासा किया गया है। सत्य, न्याय, निष्ठा और ईमानदारी का ढोंग रचने वाले शासन के तमाम विभागों में व्याप्त बेईमानी, चोरी, धांधली, अन्याय, भ्रष्टाचार और व्यभिचार से गांधी और रेणु के अर्थात् आमजन के सपनों के हश्र का अनुमान लगाया जा सकता है। और भ्रष्टाचार के मामले में आज के भारत का स्थान कम महत्वपूर्ण नहीं है। एक सौ अस्सी देशों में से अस्सीवें पायदान पर विश्वगुरू बनने वाला मेरा महान भारत चमक रहा है।
इस कहानी में नेपाली गाँजा, चरस, शराब आदि की तस्करी और इस कारोबार से जुड़े लोगों का उल्लेख मिलता है। चोरबाज़ारी करने वाले सेठों के कारनामे भी बताए गये हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि रेणु का अन्तर्मन इस समस्या से बहुत अधिक पीड़ित था। वे आजीवन इस समस्या से परेशान रहे क्योंकि इससे भारतीय समाज पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों से उद्विग्न थे। आलोच्य कहानी में काठमांडू से असम तक की तस्करी करने वालों के धंधे में शामिल लोगों का चित्रण हुआ है। उनके द्वारा पेश किए गए ‘नज़राने’ के बहाने सत्ता पक्ष के शामिल लोगों की भी पोल खोल हुई है। सच तो यह है कि सत्ता की सहमति से ही यह धंधा फल-फूल रहा है। उन्होंने ‘मैला आँचल’ (1954), ‘ जुलूस’(1965) जैसे उपन्यासों के अलावा ‘हरी तराइयों के पीले चेहरे’( 28मार्च, 1965), ‘चिनियाँ देश के समनवाँ’(18अप्रैल, 1965) रिपोर्ट में तस्करी पर विचार किया है। ‘जुलूस’ के सातवें और नौवें परिच्छेदों में पंडित रामचंद्र चौधरी और डेढ़ साल जेल की सजा काटकर लौटा हुआ उनका बेटा कामदेव मिलकर गाँजा की तस्करी करते हैं। बिना पूँजी वाले इस व्यापार को शुरू करने की इजाज़त माँगने के लिए कामदेव पंडित रामचंद्र चौधरी से यूँ कन्विन्स करता है—“ न पूँजी लगाने की ज़रूरत और न कोई बखेड़ा – – – बाबूजी, इसमें डर की कोई बात नहीं।
सीमा पर (भारत-नेपाल सीमा) जाने की ज़रूरत नहीं, न सीमा के उस पार।“ पहली और दूसरी खेप में साढ़े तीन सौ तो तीसरी खेप में तीन सौ नब्बे रुपए का मुनाफ़ा होता है। दसगज्जा इलाक़े में तस्करी के मूल कारण पर विचार करते हुए रेणु अपनी रिपोर्ट ‘हरी तराइयों के पीले चेहरे’ के अन्त में बताते हैं—‘’गत चीनी आक्रमण के समय बिहार की कई सांस्कतिक संस्थाओं और बड़े कलाकारों ने मोर्चे पर जाने की उत्सुकता दिलाई थी। उन्हें दसगज्जा के आसपास बसे इन गाँवों में—जहां पचास प्रतिशत ऐसे लोग बसते हैं जो राष्ट्रीयता का अर्थ नहीं समझते अथवा देश से बढ़कर रुपए को प्यार करते हैं—जाना चाहिए। ‘चिनियाँ देश के समनवाँ’ में भी ‘‘दसगजा के किनारे दिन-रात चलने वाले व्यापारों में एक ‘विशेष व्यापार’ को देखकर ‘दिनमान’ विशेष रूप से आशंकित हुआ।‘’ इसमें चीनी सामान के वहिष्कार पर भी आलोकपात किया गया है। इसमें स्पष्ट कहा गया है—“ सच्ची बात यह है कि इन्हीं इलाक़ों की ‘आर्थिक सिंचाई’ के कारण बहुत से दलों का अस्तित्व बचा हुआ है। प्रायः सभी राजनीतिक दलों की अनेक पताकाएँ हवा में यहाँ भी उड़ती रहती हैं।“
उपर्युक्त उद्धरण से गुजरने के पश्चात ‘दसगज्जा के इस पार औरउस पार’ कहानी के निम्नलिखित महत्वपूर्ण अवतरण का सही आशय समझने में सहूलियत होगी जहां केंद्रीय चिन्ता समाहित है। साथ ही असली ‘क्रिमिनल’ को पहचानने में भी—“मुझे ख़तरा है, दोनों देशों के ऐसे ‘क्रिमिनल’ से, जिसके मुखौटे में कभी भी उलटकर उन्हें बेनक़ाब कर दे सकता हूँ। उनकी राष्ट्रीयता, देश-प्रेम और मानवता की बड़ी-बड़ी बातों की सारी कलई मैं एक ही लमहे में खोल दे सकता हूँ। वे अब जान गए हैं मैं उनके काम का आदमी नहीं रहा, बल्कि मैं उनकी राह का एक रोड़ा-मात्र हूँ। उन्हें मुझसे ख़तरा है। इसलिए मैं सदा सतर्क रहता हूँ।“ वास्तव में देखा जाए तो गाँजा, चरस, शराब, विदेशी वस्तु का व्यापार करने वाले उतने ख़तरनाक नहीं हैं जितने कि मुखौटेधारी। क्योंकि ये व्यापारी न तो अपने धंधे छिपाते हैं और न ही अपने चेहरे। ज़ाहिद अली की इन मुखौटेधारियों के सामने भला क्या औक़ात है? मुखौटेधारी कई कई मुखौटे धारण करते हैं। इनकी कथनी और करनी में पीर घाट और मीर घाट की दूरी होती है।
कहने को वे अधिकार के रक्षक लेकिन होते हैं अधिकार के भक्षक। बहुरूपिये हैं। ये हैं ‘क्रिमिनल’। इनके मुखौटे बदलते ही विचार बदल जाते हैं। देशप्रेम और देशभक्ति की परिभाषाएँ भी बदल जाती हैं। अपने अनुरूप ये देश को बदलना चाहते हैं। इनकी नियत है पूरे देश को धोखे में रखना और पूरे देश को बेच डालना। उन्हें किसी भी प्रकार का कोई सवाल पसंद नहीं है। उनकी आलोचना करने वालों के लिए कारागार खुले हुए हैं। ट्रोल वाहिनी है। उनकी राह में रोड़ा डालने वाले ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’, ‘खान मार्केट गैंग’, ‘ग़द्दार’ या ‘देशद्रोही’ जैसे पदवियों से नवाज़े जाते हैं अथवा मार दिए जाते हैं। सवाल करने वाले आम आदमी तक को ‘मशहूर क्रिमिनल’ बनाने में सत्ता के बाएँ हाथ का खेल है।
कहानी का अन्त जितना नाटकीय है उतना ही रोचक। दसगज्जा की भूमि पर एक लाश गोलियों की छलनी होकर पाई जाती है। दोनों देशों के अधिकारियों की संयुक्त कार्यवाही से भारत-नेपाल की सीमा के ‘मशहूर क्रिमिनल’ रामरतन राय उर्फ़ थ्री आर को मार डालने का दावा किया गया था। लेकिन दस दिन बाद बड़े हाकिम की ओर से पहले के दावा का खण्डन किया जाता है कि वह लाश रामरतन राय की नहीं थी। उसकी झोली में एक अधूरी कहानी पाई गयी। लेकिन वह रामरतन राय की लिखी हुई नहीं थी। इस सन्दर्भ में ध्यातव्य है, रेणु का एक अधूरा उपन्यास है जिसे भारत यायावर ने ‘रामरतन राय’ शीर्षक प्रदान किया है।
पराधीन भारत में चोरी, तस्करी, कालाबाज़ारी, आदि को रोकने एवं अन्याय और भ्रष्टाचार को मिटाने का दावा ज़ोर-शोर से किया गया था। कहा यह गया था कि स्वतन्त्र भारत में तस्करी, कालाबाज़ारी करने वालों को मृत्युदण्ड दिया जाएगा। मृत्युदण्ड के बदले फूलों की माला से उनका स्वागत किया गया। जॉन की जगह गोविंद सत्ता पर तो क़ाबिज़ हो गए, लेकिन उपनिवेशवादी तमाम अपकर्म यथावत ही नहीं अधिक विकट रूप में प्रचलित हुए। समाज के एक जाग्रत प्रहरी के रूप में रेणु ने अपने रचना संसार में उन्हें चित्रित किया है। आलोच्य कहानी की चर्चा से यह सिद्ध होता है कि रेणु की रचनाओं से जितना उनका समकाल जीवन्त हुआ है उससे कहीं अधिक आज का जीवन यथार्थ अंकित हुआ हैं। रेणु अपने सृजन जगत में ‘आदमी बनाने की चिन्ता’ को सर्वोपरि मानते हैं। रेणु ने इस सम्बन्ध में लिखा भी है—‘’ ‘मैला आँचल’ में मैंने कहा भी था कि आदमी बनाना है, आदमी अभी बना नहीं है। आज़ादी के बीस साल हो गाए लेकिन आदमी अभी तक आदमी नहीं बना। बिगड़ा ही है और भी ज़्यादा।‘’ कहना न होगा कि रेणु के भारत का आदमी जितना बिगड़ा हुआ था, उससे भी कहीं अधिक आदमी का बिगड़ैल रूप आज हमारे सामने है। ऐसी स्थिति में रेणु के रचना जगत में हमें बार-बार लौटना होगा। आज उनकी चिन्ताओं और सपनों का मंथन करना हमारे लिए बहुत अधिक आवश्यक है।
अरुण होता
जन्म:10 जून 1965, ‘भूमण्डलीकरण, बाजार और समकालीन कहानी’, ‘कविता का समकालीन प्रमेय’और‘आधुनिक हिन्दी कविता: युगीन सन्दर्भ’ समेत आलोचना की दस तथा अनुवाद की तीन पुस्तकें प्रकाशित। तमाम प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेखन। साहित्य अकादेमी मध्यप्रदेश से आलोचना के लिए आचार्य रामचंद्र शुक्ल पुरस्कार, लमही सम्मान, प्रथम गोपाल राय समीक्षा स्मृति सम्मान।
सम्पर्क: +919434884339, ahota5@gmail.com
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