फणीश्वर नाथ रेणु

जैव

 

“रेणु मानवता के लेखक थे। मानवीय संवेदना इनकी रचना के केंद्र में है। मानवीय संवेदना की लेखकीय पकड़ रचनात्मक उदात्तता का निकष होता है। रेणु ने अपने को सचमुच जनपथ का रेणु बना लिया था और हरक्षण वे अपने वक्षस्थल पर लोगों के पदचापों को महसूस करते थे। ”

हिन्दी कथा-वीथिका में निर्द्वंद्व विचरण के दौरान विविध रंगों से सजे एक ऐसे रमणीय सौंदर्य-वितान के दर्शन होते हैं, जहाँ रुककर कोई भी दर्शनार्थी आत्मतोष पा लेता है। फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियाँ हिन्दी कथा-साहित्य के लिए वरदानस्वरूप हैं। इनकी कहानियों के कथ्य-शिल्प मानवीय मूल्यों को गहराई से परखने को बाध्य करते हैं।

हम सबके प्रिय कथाकार रेणु की प्रतिष्ठा हिन्दी साहित्य में आँचलिक कथाकार के रूप में हुई और तब अन्य आँचलिक कृतियों की खोज हुई तथा इससे संबंधित कुछ प्रतिनिधि रचनाएँ सामने आईं। किन्तु आँचलिक कहने से तत्काल जो बिम्ब बनता है वह रेणु की रचनाओं का ही होता है।

सर्वप्रथम मुझे ‘ठेस’ कहानी पढ़ने का अवसर मिला और बाद में मैंने प्रतिष्ठा के पाठ्यक्रम में निर्धारित ‘मैला आँचल’। फिर तो रेणु की रचनाएँ पढ़ने की धुन-सी सवार हो गयी। ‘मैला आँचल’ पढ़ने के दौरान मैंने महसूस किया कि रेणु की ग्राम अंचलीय समझ एवं उसका सूक्ष्म निरीक्षण अद्भुत है। आँचलिकता की स्थानीय रंगत को हू-ब-हू कथा में उतारने के लिए रेणुजी ने जिस कमेंट्री शैली का प्रयोग किया है, वह अंचल की समग्रता को सहेजने-समेटने में सफल साबित हुआ है। समालोचकों ने जिन आँचलिक कृतियों का उल्लेख किया है, मेरे विचार में उनमें रेणु जैसी त्वरा, गतिमयता एवं अभिव्यंजना का साधारणीकरण नहीं मिलता। इसलिए मैं मानता हूँ कि रेणु की आँचलिकता उनकी अपनी विशिष्ट पहचान है।

रेणु ने अपनी रचना का विषय मानवता को बनाया है। उन्होंने एक- एक पात्र के चरित्र के अंतरतम में प्रवेश किया है और उसे उदात्त रूप देकर अपनी रचनाओं में पिरोया है। इसलिए उनकी रचनाएँ देश-काल की सीमाएँ तोड़कर सर्वदेशीय एवं सर्वकालीय हो जाती हैं। जनमानस का रेणु अपने-आप में परिपूर्ण है, उसे किसी से तुलित करना बौद्धिक व्यायाम के अलावा कुछ नहीं।

बहुमुखी प्रतिभा एवं वैचारिक उन्मेष के चितेरे रेणु के उपन्यासों एवं कहानियों में मानवीय संवेदना की विराट उपलब्धियाँ हम आसानी से समझ सकते हैं। वे समय के साथ न्याय करनेवाले कथाकार थे। इसलिए उन्होंने मानवीय आचार-विचार के हर उस नब्ज को पकड़ने का प्रयास किया है जिससे राष्ट्र और समाज को उद्वेलित किया जा सके , वैचारिक धरातल पर मजबूती से स्थापित किया जा सके।

इसी कडी़ में रेणु के तीसरे कथा-संग्रह की एक कहानी ‘जैव’ है। ‘जैव’ कहानी पढ़ने के बाद बहुतों को महसूस होता है कि यह वह रेणु नहीं हो सकता जो ‘तीसरी कसम’, ‘पंचलाइट’, ‘लालपान की बेगम’, ‘रसप्रिया’, ‘पहलवान की ढोलक’ जैसी कहानियों का रचयिता है। इससे साफ लक्षित किया जा सकता है कि रेणु ने समय एवं स्थान की अहमियत और उसके राष्ट्रीय-सामाजिक दूरगामी अनिवार्यता को समझा था, नजदीक से देखा था, स्वयं को उसमें महसूस किया था। वो मानते थे कि वर्तमान की विविधता सांस्कृतिक मूल्यों को प्रभावित करती है। इसलिए ‘जैव’ कहानी का सृजन हुआ।

कथा-साहित्य में शुद्ध साहित्यिक संस्कृति पिरोनेवाले रेणु ने बिना किसी लाग-लपेट के अपनी कलात्मकता को एक ठोस वैचारिक आधार दिया है एवं वर्तमान की अनिवार्यता को समझकर उसे अपनी रचनाओं में जीवन्त किया है। ‘जैव’ कहानी में उन्होंने शहरी जीवन प्रवाह में पति-पत्नी के सम्बन्धों के माध्यम से पारिवारिक मर्यादा एवं तज्जन्य जिम्मेदारी को कर्त्तव्य-बोध के रूप में प्रतिष्ठित किया है।

रेणु ने ‘जैव’ कहानी में कथानक तथा उससे संबंधित घटनाओं को गतिमयता प्रदान करने के लिए वर्णनात्मक, संवादात्मक, मनोविश्लेषणात्मक एवं प्रत्यवलोकनात्मक (फ्लैश बैक) के अलावा भावात्मक शैली का सुष्ठु प्रयोग किया है। कथा की शुरुआत ही संवाद-शैली में होती है और कथोचित विस्तार स्वभावतः होता जाता है। पाठक कहानी कथ्य की गहराइयों में पैठता चला जाता है-” निर्मल ने मंद-मंद मुस्कुराती, कमरे में प्रवेश करती हुई विभावती से पूछा, “क्यों क्या बात है? ” विभावती हँसती हुई बोली, ” बात क्या होगी? जो होनी थी सो हो गयी। ” रोचकता बनाए रखने के लिए मीठी चुटकियों का भी सहारा लिया गया है जो प्रसंगानुकूल एवं पात्रानुकूल है-” मैं जानती थी। चाहे पचास रुपये की किताब दीजिए प्रेमोपहार या सौ रुपये की– जो बात होनी थी सो हो गयी। “××××” होनेवाले मामू साहेब ! एक टोकरी ऊन चाहिए- जाडे़ में जन्म लेनेवाले शिशु को गर्म रखने के लिए- पशमीना ऊन। ”

‘जैव’ कहानी की पात्र-योजना कथावस्तु के सर्वथा अनुकूल है और उसकी मनोदशा आदि का मार्मिक चित्रण करके कथाकार ने उसे स्वाभाविक, सप्राण एवं जीवन के अनुकूल बनाया है। रेणु ने निर्मल, विभावती, शारदा, प्रोफेसर सुकुमार राय के अलावा पडो़स की बूढी़ मौसी जैसे जीवन्त पात्रों की सृष्टि कर कथानक को बखूबी सँवारा है। निर्मल के अंतर्द्वंद्व का प्रत्यवलोकन पद्धति द्वारा यह मनोवैज्ञानिक विश्लेषण उसके दुलारी बहन के प्रति अपार स्नेह को रूपायित करने में कितना सक्षम है ! ” निर्मल के सिर पर मानो वज्र गिर पडा़ है। उसका माथा चकरा रहा है। कान के पास झिंगुर बोलने लगे हैं। शारदा गर्भवती माने प्रेगनेंट हो गयी?  उसकी एकमात्र छोटी बहन, सोलह साल की शारदा- बिना माँ-बाप की कोर पच्छू लड़की। निर्मल से ग्यारह साल छोटी शारदा!” निर्मल के ऐसे ही अंतर्द्वंद्व के माध्यम से रेणु ने इस कहानी में दायित्व-बोध के साथ-साथ शारीरिक दृष्टि से अपरिपक्व नारी के गर्भधारण की सामाजिक चिन्ता भी निरूपित की है जो स्वस्थ समाज के निर्माण में बाधक सिद्ध हो रही है।

‘जैव’ कहानी में प्रगतिशील वैचारिक चेतना समाहित है। कथाकार वर्तमान शिक्षा व्यवस्था के आदर्शात्मक नैतिक मूल्यों के अभावों को भी व्यंजित करता है। गोल्डमेडलिस्ट प्रोफेसर के प्रति निर्मल के क्षुब्ध व्यंग्यात्मक कथन से यह ध्वनित होता है कि वनस्पति शास्त्र के विशेषज्ञ और जीवविज्ञान की यथेष्ट जानकारी होने के बावजूद सुकुमार जैव प्रक्रिया के तथ्य को विस्मृत कर देता है अथवा काम-वासना-आवेग की बलि चढा़ देता है। यह आधुनिक युवक के उतावलेपन और जीवन-प्रवाह की कृत्रिमता की विडंबना को चिह्नित करता है-” प्रोफेसर सुकुमार राय फर्स्ट क्लास फर्स्ट– गोल्डमेडलिस्ट है। कुपात्र कहीं का ! आजकल के नौजवानों में यही ऐब— डिग्री से लदे हुए गधे। ”

रेणु ने अपने देश की तत्कालीन विभिन्न समस्याओं को बडे़ करीब से देखा-परखा था। वे जानते थे कि हमारे समाज में कम उम्र की लड़कियों का विवाह हो जाता है। शारीरिक दृष्टि से सक्षम हो पाने की नैसर्गिक प्रक्रिया के पूर्व ही उसे माँ बनने पर विवश होना पड़ता है जिसके कारण बहुतों को जान से हाथ धोना पड़ता है। यही सामाजिक चिन्ता रेणुजी ने निर्मल के कथन से व्यक्त की है। अर्थात शारदा जैसी कमसिन लड़कियाँ गर्भधारण योग्य नहीं होतीं-” शर्म की बात है। इस कच्ची उम्र में— मुश्किल है—शारदा मर जायेगी, जरूर मर जाएगी। ”  बावजूद इसके यदि ऐसा होता है तो उसे उपयुक्त चिकित्सीय सुविधाएँ मिलनी चाहिए। ‘जैव’ कहानी से हम परिवार-नियोजन संबंधी सामाजिक आवश्यकता को भी रेखांकित कर सकते हैं। प्रगतिशील विचारधारा के कारण रेणु जनसंख्या-नियंत्रण संबंधी राष्ट्रीय जरूरत को भली-भाँति समझते थे। साथ ही नारी-स्वास्थ्य की चिन्ता उनकी गहरी मानवीय संवेदना को उजागर करती है।

‘जैव’ कहानी में रेणु ने वैज्ञानिक प्रगति के मानवीय हितों पर भी हमारा ध्यान आकृष्ट किया है। शहर के अस्पतालों में इससे संबंधित सुविधाएँ हैं उनका लाभ लोग उठाते हैं। जिद करके निर्मल अपनी प्यारी बहन शारदा को अपने पास पटना ले आता है क्योंकि उसे आशंका है कि कम उम्र में गर्भधारण का भयावह दुष्परिणाम भी हो सकता है। यही कारण है कि वह अस्पताल में कमरे आरक्षित करवाता है। पहले हर महीने और बाद में पाक्षिक तौर पर विशेषज्ञ चिकित्सकों से उसका आवश्यक परीक्षण करवाता है और तदनुकूल उसकी देख-रेख की जाती है। किन्तु इतने एहतियात के बावजूद सामान्य रूप से बच्चे का जन्म नहीं हो पाता है तो शल्य-क्रिया द्वारा बच्चे को दुनिया में लाया जाता है। यहाँ रेणु ने मर्मांतक पीडा़ के लिए जिस कथन का प्रयोग किया है वह कितना हृदयविदारक और मार्मिक है !  “नवम्बर के दूसरे सप्ताह में शारदा बारह घंटे तक अस्पताल में सिरकटी हुई चिडि़या की तरह दर्द से तड़पती-छटपटाती रही। ” इस कथन का उल्लेख इसलिए जरूरी है क्योंकि आम मुहावरा ‘पर कटे पक्षी/चिडि़या’ है, लेकिन रेणु ने ‘सिर कटी चिडि़या’ लिखकर पीडा़ के आतिशय्य को घनीभूत कर दिया है, साथ ही शल्य-क्रिया से भयभीत होनेवाली महिलाओं को यह संदेश भी दिया है कि विशेष जटिल परिस्थिति में शल्य-क्रिया से डरना नहीं चाहिए।

‘जैव’ कहानी में उपरोक्त वैज्ञानिक चेतना के अलावा हमें भारतीय नगर की ‘आधे-अधूरे’ कृत्रिम जीवन-शैली की अनपेक्षित विडंबना की संकेत-व्यंजना भी मिलती है। आर्थिक दृष्टि से संपन्न शहरी विवाहादि जैसे अवसरों पर दिल खोलकर खर्च करते हैं। महँगे-महँगे होटलों से कार्यक्रम संपन्न करते हैं। पैसे के बल पर तथाकथित ‘सुपात्र’ वर खोजे जाते हैं-” मरते समय निर्मल से माँ ने कहा था-“बेटा! शारदा को सुपात्र के हाथ में देना। “—इतना खर्च-वर्च सब बेकार–  इसी कुपात्र के फेर में पड़कर उसने अपनी दुलारी बहन की शादी कच्ची उम्र में ही कर दी—– शारदा की शादी हुए तीन ही  महीने हुए हैं। अभी प्रिंस होटल का बिल भुगतान देना बाकी ही है। ”

‘जैव’ कहानी के संदर्भ में मैंने शुरू में ही निवेदन किया था कि पति-पत्नी के सम्बन्धों के माध्यम से कथाकार ने विविध समस्याओं के अलावा वैज्ञानिक प्रगति के उपयोग पर अपनी मुहर लगाई है। यह पति-पत्नी संबंध आपसी समझ के आदर्श रूप में प्रकट हुआ है। शारदा को लेकर चिंतित अपने पति को सांत्वना देती हुई विभावती अपने कर्त्तव्य के प्रति सचेत है वह अपनी ननद की हरसंभव मदद की जिम्मेवारी निभाने को तत्पर है। इस तरह रेणु ने कथावस्तु को उपयुक्त घटना-क्रम से विन्यस्त कर अपने कला-कर्म के आदर्श को निखारने एवं उसे एक खास उद्देश्य की ओर अग्रसर करने की सफलतापूर्वक कोशिश की है।

अब हम कहानी के शीर्षक पर विचार करें। जैव जीव से निर्मित शब्द है जिसका मतलब जीव से संबंधित होता है। रेणु ने इस कहानी का नाम जैव ही क्यों रखा? रेणु बहुपठित थे। उन्होंने निश्चय ही जीव विज्ञान का भी सामान्य अध्ययन किया होगा। हम यह भी जानते हैं कि अस्पताल से उनका गहरा नाता रहा है। वे अस्पताल की व्यवस्था से संतुष्ट नहीं जान पड़ते, जिसका किंचित आभास हमें जैव कहानी में भी मिलता है जब निर्मल अस्पताल से फोन द्वारा संपर्क करता है। रेणु चिकित्सकीय क्षेत्र की नव्यतम जानकारियाँ रखते मालूम पड़ते हैं कयोंकि ‘मैला आँचल’ में भी उन्होंने उल्लेख किया है कि मैलेगनेंट मलेरिया से पीडि़त नील के हौज में अपने खूबसूरत लंबी केशराशि को डुबोकर पूरैनिया के सिविल सर्जन के पहुँचने से पहले जब मेरी परलोक सिधार गयी तब मार्टिन साहब को अहसास हुआ कि मेरीगंज में डाकखाना खुलवाने से पहले एक अस्पताल खुलवाना चाहिए था और उसी के अथक परिश्रम से मेरीगंज में अस्पताल खुला। यहाँ यह कहना विषयांतर अथवा अनावश्यक विस्तार न होगा कि डाॅ प्रशांत गाँव में रहकर भी अपना शोध जारी रखता है और उसके अद्यतन शोध गजेटियर में छपते हैं और प्रशंसित भी होते हैं। यहाँ थोडा़ विस्तार इसलिए दिया गया है कि रेणु जीव विज्ञान एवं चिकित्सा विज्ञान के व्यापक महत्त्व को समझते थे और खासकर देश के ग्रामीण क्षेत्र में उसकी उपयोगिता अभी भी है। यही कारण है कि विभावती के गर्भधारण के लिए उन्होंने जैविक प्रक्रिया की चिकित्सीय आवश्यकता को स्वीकारा है और कहानी को ‘जैव’ शीर्षक दिया है।

‘जैव’ की विभावती शादी के कई वर्ष बाद भी गर्भधारण नहीं करती तो चिकित्सीय परामर्श लिया जाता है और एक छोटा ऑपरेशन भी कराया जाता है, किन्तु उस ऑपरेशन का तुरंत कोई असर नहीं होता तो निर्मल दंपति अपनी जैव नियति को स्वीकार करके सामान्य जीवन जीने लगते हैं। किन्तु, शारदा के बच्चे जनने के कुछ समय बाद उसका परीक्षण होता है तो डॉक्टर उसे गर्भवती घोषित करता है और घर में खुशी की लहर छा जाती है।

इस खुशी को सुकुमार निर्मल को बताना चाहता है किन्तु अत्यधिक लिहाज के कारण वह सीधे तौर पर कहने में संकोच करता है। इसी बीच शारदा अपने प्रिय अग्रज को यह समाचार सुनाना चाहती है, लेकिन लज्जावश विभा उसका मुँह बंद कर देती है और तब प्रोफेसर सुकुमार कहते हैं- ” अच्छी बात है भाभी !—- भाईजी बात यह है कि भाभी—- भाभी को डाॅ जोजेफ ने जाँचकर पक्की रिपोर्ट दे दी है– मतलब भाभी ने कंसीव — अर्थात वही जो मैं कह रहा था न — पोलिनेशन। ”

यहाँ एक और बात की ओर ध्यान जाना स्वाभाविक है। रेणुजी धार्मिक कर्मकांड एवं लोक विश्वास (मिथ) aको भी मानते थे। वे स्वयं मुर्गे और बकरे की बलि देकर माँ काली को प्रसन्न करते थे। ‘जैव’ की शारदा का उल्लास से शंख फूँकना इसी विश्वास की अभिव्यक्ति है और इसलिए यहाँ यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि हमारे मिथ के अनुसार जब किसी निपूती औरत के पास कोई दूसरा बच्चा रहने लगता है, हँसता-खेलता है तो उसमें भी आंतरिक ममत्व की अजस्र धारा फूट पड़ती है और वह भी माँ बनने लायक हो जाती है। हमारे भारतीय समाज में ऐसे कई उदाहरण भरे पडे़ हैं। रेणु ऐसे मिथ को स्वीकारते हैं, किन्तु प्रगतिशील विचार-चेतना के कारण उन्होंने इसे वैज्ञानिक तथ्य की कसौटी पर कसकर प्रमाणित करना चाहा है। जबकि, विभा को ऑपरेशन के बाद भी गर्भधारण के संकेत नहीं मिलते हैं। और स्मरण रहे कि ‘मैला आँचल’ का प्रशांत टेस्ट ट्युब बेबी की बात करता है। कुछ इसी तरह की बातें जैव कहानी के वनस्पति शास्त्री कहते हैं-” भाईजी ! वनस्पति जगत में भी ऐसा होता है। इस प्राकृतिक प्रक्रिया को हमारे शास्त्र में पोलिनेशन कहते हैं—– अर्थात फर्टिलाइजिंग ए फ्लावर बाई कनवेइंग— नारियल या पपीता अथवा सुपारी का कोई पेड़ नहीं फलता है तो पास में एक दूसरा पेड़ लगाया जाता है और जब दूसरा पेड़ फलने-फूलने लगता है तो पहला निष्फल पेड़ भी —-।

अंततः हम कह सकते हैं कि जैविक प्रक्रिया को समझाकर रेणु ने ‘जैव’ कहानी के माध्यम से पति-पत्नी संबंध, शिक्षा-व्यवस्था, अपरिपक्व विवाह, नारी स्वास्थ्य, जनसंख्या नियंत्रण के लिए परिवार नियोजन के अलावा शहरी जीवन-शैली की कृत्रिमता को ईमानदार कथाकार के रूप में पाठकों के समक्ष प्रसतुत किया है।

रत्नेश सिन्हा

एम. ए.,हिन्दी, पी-एच.डी.,बी.एड।

पहली से आठवीं कक्षा तक के लिए सरल और रोचक व्याकरण पुस्तक का लेखन।

दिल्ली पब्लिक स्कूल, निगाही, सिंगरौली (मध्य-प्रदेश) में वरीय पीजीटी,हिन्दी।

सम्पर्क +918770651147, ratnesh.sinhadps@gmail.com

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samved

साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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