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शैलेन्द्र के गीतों में मानवीय संवेदना

शैलेन्द्र की जन्म शताब्दी वर्ष पर

 

शैलेन्द्र की रचना प्रक्रिया पर सहसा ही कोई बयान देना दरअसल जोखिम का काम है। एक कवि के रूप में शैलेन्द्र के गीत इतनी विस्तृत भाव भूमि पर हैं कि उन गीतों के अनुशीलन के लिये अतिरिक्त और विहंगम दृष्टि की ज़रूरत होगी।

किसी भी कवि के रचना कर्म के परीक्षण के अनेक पक्ष हो सकते हैं। कंटेंट से लेकर भाषा शैली तक, पर इन सब में सबसे महत्वपूर्ण तो रचना में निहित मानवीय संवेदना ही होगी। गीतकार शैलेन्द्र के इसी पक्ष को केंद्र में रख कर विश्लेषण करते हैं। इस मत को मैं पूरे विश्वास के साथ प्रेषित करना चाहूंगा कि सिनेमा के सौ बरस से अधिक के इतिहास में समूचे धर्मग्रंथों का सार मानवीय सम्वेदना के रूप में शैलेन्द्र के इस गीत में मिल जाता है –

‘किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार

किसी का दर्द मिल सके तो लें उधार

किसी के वासते हो तेरे दिल में प्यार

जीना इसी का नाम हैं…

इसी अप्रतिम गीत के अंतरे के पूर्व नायक (राजकपूर) के पैरों तले एक कीड़ा दिखता है नायक तुरंत पीछे हट जाता है और एक पत्ते में कीड़े को रख कर पास की हरी झाड़ियों के पास रख देता है।

नैपथ्य में गीत –

‘रिश्ता दिल से दिल के एतवार का

ज़िंदा है हमी से नाम प्यार का

कि मर के भी किसी को याद आयेंगे

किसी के आंसुओं में मुसकुरायेंगे.’

यह संवेदना भीतर तक भिगो देती है। शैलेन्द्र जैसे कवि पूरी सदी से गुजरते हैं। कभी तो सदी के पार भी रचनाओं में अद्भुत भविष्य दृष्टि भी मिलती है। मसलन तीसरी कसम के इस गीत में हर तरफ झूठे दिलासे, झूठे वादे और छल-कपट चेतावनी सहित मिलता है –

सजन रे झूठ मत बोलो

ख़ुदा के पास जाना है

न हाथी है न घोड़ा है

वहां पैदल ही जाना है.

भला कीजे भला होगा

बुरा कीजे बुरा होगा

यही लिख -लिख के क्या होगा

यहीं सब कुछ चुकाना है.

तुम्हारे महल चौबारे

यहीं रह जाएंगे सारे

अकड़ किस बात की प्यारे

ये सर फिर भी झुकाना है..

प्यार में विश्वास की कमी औऱ शक घुन की तरह होता है, जो सम्बन्ध की दरार को बढ़ाता है। संगम फिल्म के इस गीत में शैलेन्द्र ने नायक-नायिका के बीच संवाद के द्वारा प्रभावी अभिव्यक्ति दी है –

‘सुनते हैं प्यार की दुनिया में

दो दिल मुश्किल से समाते हैं

क्या गैर वहाँ अपनों

तक के साये भी न आने पाते हैं’

संवेदना युक्त जवाब –

‘मेरे-अपने अपना ये मिलन

संगम है ये गंगा-जमना का

जो सच है सामने आया है

जो बीत गया इक सपना था

ये धरती है इंसानों की

कुछ और नहीं इंसान है हम’

अंतिम दो पंक्तियों

विराट सत्य है.

शैलेन्द्र के काव्य में जनपक्षधारता बेहद प्रभावी रूप में व्यक्त हुई है. उनके गीतों का उद्देश्य शोषित और पीड़ित जन ही हैं। प्रस्तुत गीत में मानवीय संवेदना बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति प्रेषित करती है-

‘सुन लो मगर ये

किसी से न कहना

तिनके का ले के सहारा न बहना

बिन मौसम मल्हार न गाना

आधी रात को मत चिल्लाना

वरना पकड़ लेगा पुलिसवाला.’

शैलेन्द्र अपने गीतों में जनमानस से दिल की बात करते हैं। बिना किसी लाग-लपेटे के और गहन संवेदना समेत –

‘दिल का हाल सुने दिलवाला

सीधी सी बात न मिर्च-मसाला

कह के रहेगा कहने वाला’

सिनेमा के स्वर्णिम और सौ बरस के आदि से अनंत तक के इतिहास की सर्वोत्कृष्ट फिल्म आवारा है। अब्बास साहब ने जब शैलेन्द्र का थीम साँग ‘आवारा हूं’ सुना तो पूरा कथानक स्पष्ट हो गया-

‘गर्दिश का मारा’

‘आवाद नहीं बर्बाद सही गाता हूं ख़ुशी के गीत’

”दुनिया में तेरे तीर का या तकदीर का मारा हूं,’

‘ज़ख्मो से भरा सीना है मेरा’

आवारा और शैलेन्द्र की रचनात्मकता का चरम उत्कर्ष यहाँ है-

ये नहीं ये नहीं है ज़िंदगी

ज़िंदगी ये नहीं ज़िंदगी

ज़िंदगी की ये चिता

मैं ज़िंदा जल रहा हूँ हाय

सांस के ये आग के

ये तीर चीरते है आर पार

मुझ को ये नरक ना चाहिए

मुझ को फूल मुझ को प्रीत

मुझ को प्रीत चाहिए

मुझ को चाहिए बहार (2)

और अंत में मन में हूक -सी उठती है और यह निर्मम विचार आता है कि काश! शैलेन्द्र ने ‘तीसरी कसम पर फिल्म बनाने की कसम न खाई होती तो आगे भी उनके बेशकीमती गीत सुनते रहते। सिनेमा इतिहास की बेहतरीन फिल्म की असफलता ने उन्हें बहुत गहरा आघात पहुंचाया। उन्हें फिल्म बनाते हुए ही इल्हाम हो गया था-

‘काहे को दुनिया बनाई.’

शैलेन्द्र अपने गीतों से श्रोताओं के दिलों में हमेशा ज़िंदा रहेंगे साथ ही गीतकार को बेहतर सम्मान दिलाने में उनका महत्वपूर्ण योगदान सदैव स्मरणीय रहेगा।

डॉ गोपाल किशोर सक्सेना

गोपाल किशोर सक्सेना

लेखक सेवानिवृत प्राध्यापक हैं एवं जनभागीदारी लेखक संघ, ग्वालियर के अध्यक्ष हैें साथ ही कई राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित हैं। सम्पर्क drgksaxena@gmail.com
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Ankit
Ankit
1 year ago

Bahut achha

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