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जनपक्षीय सरोकारों के कवि: रेवतीरमण शर्मा

 

1940 के अप्रैल को राजस्थान के अलवर जिले के मालाखेड़ा ग्राम में जन्मे कवि रेवतीरमण शर्मा जनपक्षीय सरोकारों के कवि हैं। एम.कॉम, एल.एल.बी. और डी.एल.एल. की शिक्षा ग्रहण करने वाले रेवतीरमण जी का मन काव्य-सृजन में गहराई से रमता है – ‘जमीन से जुड़ते हुए’, ‘कदाचित् नहीं हूँ मैं’, ‘उस जन के नाम’, ‘पत्ते का घर’, ‘एक दुनिया यह भी’, ‘जिन्दा हूँ मरने के बाद’, ‘विरल है जीवन की डोर’ जैसे काव्य-संग्रह इसका प्रमाण हैं। कवि के लिए कविता उनकी जिजीविषा है, कवि को “अवसाद की स्थिति में कविता मरने नहीं देती। जीने की सलाह देती है। समर्पण नहीं, मूल्यों के विघटन से संघर्ष के लिए धकेलती दिखाई देती है।” प्रस्तुत आलेख में कवि रेवतीरमण शर्मा के नव्य-प्रकाशित काव्य-संग्रहों – ‘जिन्दा हूँ मरने के बाद’ और ‘विरल है जीवन की डोर’ में संकलित कविताओं पर प्रकाश डालने का प्रयास किया जा रहा है।

इन दोनों संकलनों की कविताएँ बहुत शिद्दत से यह बात प्रमाणित करती हैं कि कवि रेवतीरमण जी का अपनी जमीन और इस जमीन पर रहने वाले आम बाशिंदों से गहरा नाता है। रामकुमार कृषक रेवतीरमण जी की कविताओं की इसी विशेषता को इंगित करते हुए कहते हैं “कि उनकी कविता धरती की हरितिमा और काठ-कठौती से बार-बार अपना सम्बन्ध बनाती है, और इसलिए भी कि मध्यवर्गीय जीवन जीते हुए वे स्वयं में ही नहीं रह जाते, बल्कि समाज की सतह पर मौजूद जीवन-यथार्थ को भी पहचानते हैं। उसे अपनी काव्य-संवेदना में शामिल करते हैं और कलाविहीन कहे जाने का खतरा उठाते हुए भी उसके वस्तुगत सरोकार से सरोकार रखते हैं।” (पृष्ठ-11, कविताएँ, जरूरी कविताएँ: रामकुमार कृषक, विरल है जीवन की डोर)

कवि के सरोकार बहुत गहरे हैं। अपने आस-पास का राग-विराग, हास-विलास, चिंता-दुश्चिंता, प्रश्नों और समस्याओं से वे घिरे दिखते हैं लेकिन बावजूद इसके निराशा का भाव उन्हें छू तक नहीं गया है। प्रख्यात कवि एवं चित्रकार विजेंद्र जी इन कविताओं के सरोकारों पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं – “वह आज के इस संवेदनहीन दौर में न तो कहीं पस्तहिम्मत है और न ही अवसादग्रस्त। न उसे जीवन से कोई अनास्था है। कविता में कहीं भी बड़बोलापन नहीं है। न कोई उपदेशात्मकता। सभी बातें सहज संकेत से कही गई हैं।” (पुरोवाक्, जिन्दा हूँ मरने के बाद) आम इंसान की जिन्दगी के रेशों को आम भाषा में कहना कवि को खूब आता है, इसलिए कवि रेवतीरमण जी की कविताएँ सीधे अपने पाठक के मन की भीतरी तहों तक पहुँचती हैं। इसका एक बड़ा कारण, इन कविताओं का लघु आकार भी है। उक्त दोनों काव्य-संग्रहों में एक भी लम्बी कविता नहीं है।

प्रकृति से कवि का गहरा नाता है। ‘और जीवन पा गया’ कविता में प्रकृति के समस्त उपादानों के साथ स्वयं के अस्तित्व को एकमेक करते हुए कवि कहते हैं –

मैंने पानी से कहा/ आओ मेरे ऊपर चढ़ जाओ/ और वह चढ़ गया।
मैंने बर्फीली हवाओं से कहा/  मुझ पर चढ़े पानी को जमा दो/  और वह जम गया।
मैंने पृथ्वी के आतंरिक/ ताप से कहा/ मुझ पर जमा पानी को / पिघला दो/ और वह पिघल गया।
मेरे जिस्म से/ चौतरफा नदी, नाले और सोते फूट निकले।
मैंने फिर कहा/ बहो दूर-दूर तक बहो/ पहाड़ की छोटी से रेगिस्तान तक/ और वह बह निकला।
मैंने देखा मेरा मेरा सारा शरीर/ हरेपन में बदल गया/  लहलहा उठी थी सूखी धरती चौतरफा
और मैं जीवन पा गया था।”

बहुत ख़ूबसूरती और उतनी ही आत्मीयता से कवि का अपने ‘मैं’ में पानी, हवा, ताप, पृथ्वी, नदी, नाले, सोते, पहाड़, रेगिस्तान और अंततः ‘हरेपन’ को धारण कर लेना कहीं-न-कहीं इंसान और प्रकृति के सम्बन्ध के प्रति आशा के गहरे भाव जगाता है।और भी कई कविताओं में बारिश में पहाड़ की हरियाली, डूंगर पर बैठे काले बादल, फुदकती चिड़िया,महकती बगिया,दाना चुगता कबूतर, गिलहरी, गुनगुनी धूप, पहाड़ से फूटते झरने, विलुप्त होते गिद्ध– सब कवि के मीत बनकर आते हैं। May be an image of 1 person and text that says "पुस्तके काव्य संग्रह- जुड़ते हुए कदाचित नाम एक दनिया मरने के बाद रेवतीरमण शर्मा अन्य- ख्याल अलीबछर भारतीय अध्यक्ष नाट्य संघ (इप्टा) जिला अलवर पूर्व नाट्यकर्मी। राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर हारा सुधीन्द्र पुरस्कार| सम्पर्क मधुबन कॉलोनी, अलवर-301001 (राजस्थान) मो. +91-94611 92529 shama.revatiraman@gmail.com विरल है जीवन की डोर रेवतीरमण शर्मा ोधि"

‘विरल है जीवन की डोर’ कविता-संग्रह में ‘अपनी ओर से’ में कवि रेवतीरमण शर्मा ने अत्यंत संवेदनशील ढंग से अपनी रिहायश के आसपास के पहाड़ी प्रदेश की प्रकृति की निरंतर क्षरित होती स्थिति को रेखांकित किया है। बहुत स्वाभाविकता से कवि की यहीप्रकृतिगत चिंता उनकी कविताओं में भी प्रकट हुई है। प्रकृति के प्रति गहरा राग, इंसानों द्वारा अपनी सुख-सुविधा के लिए उसका दोहन-क्षरण करने के प्रतिसचेत करते रहने की जिम्मेदारी भी कवि बखूबीनिभाते हैं।वर्तमान कोरोना-संकट के दौर में प्राणवायु ऑक्सीजन की किल्लत बनी – जिसकी कमी के चलते अनेक लोग असमयअपना जीवन खो बैठे – इस परिप्रेक्ष्य में कवि रेवतीरमण जी की कविता ‘हवा’ अनायास जुड़ जाती है –

“जो दौड़ा करती है/ यहाँ से वहाँ तक/ धरती से आसमान/ छोटे पौधों से बड़े पेड़ तक
कहीं नहीं है हवा/ नहीं है जहाँ, वहाँ नहीं है जीव और/ जन-जीवन
वह टकराती रहती है/ पेड़। पौधे और पहुँच जाती/ पहाड़ के शीर्ष तक/ हर प्राणी को देती
श्वास और प्राणवायु/ जब तक समाई रहेगी/ फेफड़ों में प्राणवायु/ जिएगा वह तब तक।
वह नहीं मानती प्रभु को/ रचा है जिसे उस/ करुनानिधान ने उसे भी/ जिन्दा रखती है हवा।”

कवि रेवतीरमण शर्मा का संवेदनात्मक संसार स्त्री-संवेदना के बिना अधूरा कहा जाएगा। कवि ने स्त्री-जीवन के विभिन्न आयामों, स्थितियों-परिस्थितियों-मनःस्थितियों को अपनी कविता में साकार किया है।“नारी-जीवन के अनेक रूप इन कविताओं में मौजूद हैं, खासकर उसके श्रम-संवलित वर्गीय आधार के अनुरूप। अनायास नहीं कि यहाँ इरोम शर्मिला हैं तो कवि के गाँव की मेवणी का जीवट भी। वास्तव में कवि ने कविताओं में शामिल हर स्त्री को अपनी मध्यवर्गीय संवेदना दी है। वह उसकी दिनचर्या को देखता है, और शब्दों से दृश्यों को बदल देता है। फिर उसे और कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। परिदृश्य स्वयं बोलने लगता है।” (पृष्ठ-14, कविताएँ, जरूरी कविताएँ: रामकुमार कृषक, विरल है जीवन की डोर) ‘मेवणी मेरे गाँव की’ कविता अपने भाषाऔर क्रिया-कलापों की सम्पूर्ण स्थानीयता में अंततःकर्मठमेवाती स्त्री-महिमा का सुन्दर-सशक्त चित्र उकेरती है, जिसके असर में पाठक बहुत देर तक रहता है। यह कवि की महत्वपूर्ण कविताओं में से एक है-

मटके पर/ मटका रख/ दूर गाँव से/ पानी लाती/ मेवणी मेरे गाँव की
कुट्टी करती/ पहिया घुमाती/ घूम रही पहिया सी
दिनभर खटती/ खेत पर/ बाँध भरोता/ सांझ घर आती
उसे देख रंभाती गाएँ/ हाथ फेर दुलराती/ चारा डालती/ माँ जैसी
अच्छी फसल के सपने बोती/ सुबह छोटे को/ लिए गोद में/ बेटी को स्कूल छोड़ती/ मेवणी मेरे गाँव की।”

‘बीड़ी पीती औरत’ कामगार स्त्री का एक निहायत नया काव्यात्मक रेखाचित्र लेकर उपस्थित होती है।‘औरतें सब जानती हैं’ शीर्षक कविता में कवि ने स्त्रियों की आँखों के विभिन्न भाव-संवेदनों, उनकी कही-अनकही भाषा के निहितार्थ, चुपचाप दुःख सह जाने, सुख का विस्तार करने – जैसी खूबियों को बहुत मर्मस्पर्शी शब्दों में व्यक्त किया है –

“औरतें/ सब जानती हैं/ पलक झुका लेने/ और आँखें खोले/ रखने का अर्थ
वे जानती हैं/ मुँह खोलने और/ चुप रहने का मकसद
वे बोलती हैं/ और बिना बोले भी/ बोल लेती हैं/ ज्यादा बेहतरीन तरीके से।
वे आँखों से सुन लेती हैं/ और चुपके से/ समझ लेती हैं आँखों से/ आंसू चुआने का अर्थ
वे ढांपे रखती हैं/ पूरा सच/ पूरा झूठ/ वे खोल देती हैं भेद/ नहीं खुलना था जिसे
वे विश्वास और अविश्वास/ के पलड़ों को बदल सकती हैं/ जितनी बार चाहें/ वे छुपा लेती हैं/ अविश्वास के खोल में विश्वास/ वे चुन लेती हैं/ दुःख के दरिया से/ सुख के कण।”

अन्नपूर्णा कही जाने वाली स्त्री की विडंबना कवि ने अत्यंत मार्मिकता से उजागर कर दी है-

“हरदिन पकाती/ कुकर में इच्छाएँ सबकी
पर नहीं पकती किसी कुकर में/ इच्छाएँ उसकी।” (सुबह)

कथ्य की दृष्टि से आलोच्य दोनों संग्रहों में संकलित कविताओं का दायरा काफ़ी विस्तृत है। कहीं कवि अन्धकार के टापुओं में रोशनी के द्वार खोलने वाले पुस्तकालय के प्रति आभारी है तो कहीं सरकारी जमीन पर खुले शहरी अस्पतालों की दुर्व्यवस्था – जो गरीब को और अधिक लाचार बना देती है, के प्रति क्षुब्ध है। देश और समाज की चिन्ताएं भी यहाँ मौजूद हैं। कवि केवल नेताओं को उनके झूठे वादों के लिए नहीं दुत्कारते, अपितु लोकतंत्र जनता की जिम्मेदारी पर भी सवाल उठाते हैं, ‘उनके लिए’ कविता देखिए-

“हम गूंथते रहे/ फूल मालाएं/ उनके लिए,बिछाते रहे फर्श/ करते रहे भीड़ इकट्ठी/ कराते रहे हम/ उनका भाषण
निकालते रहे/ जूलूस/ पहनाते रहे/ उन्हें साफे/ डालते रहे गले में उनके/ नए नोटों की मालाएं
गाते रहे हम/ गीत मनोहर/ उनके सम्मान में/ बात गाँव को/ मुख्य सड़क से जोड़ने की आई/ बोले लोग
कुएं में पानी नहीं/ नया बने तो/ प्यास बुझे गाँव की/ वे बोले/ होने दो चुनाव
पाँच साल बाद आज फिर/ चुनाव हैं/ इन्हीं सवालों के साथ।”

कवि के अनुभूत संसार में आये- चाय बनाने वाला, कुम्हार, पहाड़ के लोग, घरेलू आया, कामवालियां, नौकर, मजदूर, भिखारी, बूढ़े हो चुके फ़ौजी,ट्रांसजेंडर, उपेक्षित वृद्ध जैसे नामालूम से दिखने वाले चरित्र काव्यगत संवेदना पाकर अपने इंसानी ‘बड़प्पन’ के साथ उपस्थित हुए हैं।“उनकी कविता जीवन के किसी भी छोर से शुरू हो सकती है, किन्तु वह उसके किसी ऐसे बिंदु को पकड़ती है जहाँ कोई न कोई मर्म छिपा होता है। इन कविताओं से गुजरते हुए मालूम होगा कि शर्मा जी दुर्बल, त्रसित और पीड़ित लोगों के जीवन पर पैनी नज़र रखते हैं।” (पृष्ठ-16, पूर्वकथन: जीवन सिंह, विरल है जीवन की डोर)

अत्यंत संक्षिप्त से अनुभव-खंडों से कवि गहरी बात कहने की क्षमता रखते हैं-
“एक पत्ता/ मेरी गोद में/ आ गिरा-/ बोला जानते हो/ आप भी/ मेरी तरह/ एक पत्ता हो।”

जीवन की क्षणभंगुरता और शाश्वत सत्य का सार इस लघु कविता में बड़ी सहजता से कह दिया गया है। इसी प्रकार सड़क पर पड़े एक जूते से कवि-कल्पना और उसकी संवेदनाओं का विस्तार कितना गहरा जाता है, ‘एक पैर का जूता’ कविता बहुत चिंता के साथ पाठकों से रू-ब-रू होती है-

”सड़क पर/ औंधे मुँह पड़ा है/ किसी बालक का/ गहरे नीले-लाल रंग का जूता
कई मौसम गुजर जाने/ के बाद/ पिता ने बमुश्किल/ दिलाए हैं जूते/ बढ़ता पैर है,यही सोच पिता ने
थोड़े बड़े दिलाए हैं जूते/ बड़े उत्साह से/ पिता के साथ साइकिलपर/ घर लौट रहा है बालक
रास्ते में कहाँ गिरा/ एक पैर का जूता/ नहीं जानता बालक/ पिता के कहे/ सड़क पर ढूंढ रहा है जूता
सड़क तो नहीं निगल सकती/ न पहन कर चल सकती/ वह भी एक पैर का जूता
उठा कर भी कोई क्या करेगा उसका/ हुए बिना दूसरे पैर का जूता/ मन ही मन सोचता है बालक।
मिला नहीं यदि/ खोया हुआ जूता/ उसे/ चलना पड़ सकता है/ कुछ दिन,महीने,साल नंगे-पाँव।”

कवि अंततः कलाकार होता है। एक कलाकार दूसरे महान कलाकार से कैसे प्रेरित और प्रभावित होता है, इसका नमूना भी रेवतीरमण जी के यहाँ मिलता है, जब घर में लगा उस्ताद बिस्मिल्ला खान का चित्र कवि को अकेलेपन और अवसाद के क्षणों में शहनाई सुनाता है।

कवि रेवतीरमण शर्मा की कविताई सहज जन की भाषा को लेकर चली है। काव्यगत प्रचलित उपमान यहाँ बहुत कम है। हाँ, बिम्बों का निर्माण करने में कवि माहिर है।“असल में रेवतीरमण शर्मा अपने काव्य-शिल्प से चमत्कृत या मुग्ध करने वाले कवि नहीं हैं, बल्कि सामान्य जीवन से असामान्य काव्यबोध को उद्घाटित करने वाले रचनाकार हैं। दूसरे शब्दों में कहूं तो उनकी कविता आकाशविहीन भले हो, धरती विहीन नहीं है।” (पृष्ठ-15, कविताएँ, जरूरी कविताएँ: रामकुमार कृषक, विरल है जीवन की डोर) धरती का ‘भदेसपना’ यहाँ भाव से लेकर भाषा तक अपनी सम्पूर्णता में महसूस होता है।

वस्तुतः रेवतीरमण शर्मा जी के लिए कविता महज एक ‘रचना’ न होकर ‘जीना’ है। बिना किसी के प्रचलित नारे के या दिखावटी शोर-शराबे के कवि अत्यंत शालीन और सहज ढंग से ‘जीने’ को ही कविता में उतारते चले हैं।इसीलिए कवि को‘वह कविता अच्छी लगती है’

हमें वह कविता/ अच्छी लगती है/ जिसमें तुम नहीं/ हम सुनाई देते हैं।
जिसमें हमारी जाति-धर्म/ और प्रेम को बुरा-भला न कहा गया हो।
वह कविता अच्छी लगती है हमें/ जिसमें गुंथी हो हमारी बोली भाषा
की लड़ियाँ/ हमें समझ आ जाए/ कविता की वह जुबान अच्छी लगती है
जो सहज उतरती है/ हमारे मन-मंदिर में/ वह रैदास और कबीर की जैसी
तुम्हारी कविता अच्छी लगती है/ जिसमें रात के जागरण में गा सकें/ गुनगुना सकें अपने दुःख में
हमें वह कविता अच्छी लगती है/ जिसे हम गा सकें सब मिलकर/ गाँव-गवाड़ों के बीच/ बजा सकें मटका
गीत गाते मजदूरों के बीच/ भर सकें जोश खिलाफ उनके/ जो दे नहीं रहे पगार टैम पर।
बजा सके अलगोझा खड़ा हो/ खेत की मुंडेर पर/ गाकर गीत मीठे/ हमें अच्छे लगते/ ऐसे गीत तुम्हारे।”

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आशा

लेखिका अदिति महाविद्यालय, दिल्ली विश्विद्यालय में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। सम्पर्क +919871086838, drasha.aditi@gmail.com
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