लेख

सूफी साहित्य में स्त्री छवि

 

स्त्री को लेकर मध्यकालीन भक्ति साहित्य में भारी द्वंद्व रहा है। भक्त कवियों ने स्त्री के सतीत्व की महिमा का बखान तो किया है किन्तु सामान्य स्त्री जाति (माया महा ठागिनी हम जानी) के प्रति उनके विचार पितृसत्तात्मक समाज के पोषक रहें हैं। कबीर, तुलसी,जायसी, चैतन्य आदि को भी इन आरोपों से बरी नहीं किया जा सकता है।  समाज हो या साहित्य दोनों ही क्षेत्र में स्त्री की उपस्थिति को उपेक्षित किया गया और उसे कभी सामने आने ही नहीं दिया गया। स्त्री भक्त आंडाल से लेकर अक्क महादेवी, ललदद्द और मीरां आदि की अभिव्यक्तियों में स्त्री-वेदना के स्वर इसके साक्ष्य हैं।

मध्यकालीन भक्ति परम्परा में सगुण भक्ति के साथ निर्गुण भक्ति की शाखा के अंतर्गत सूफी काव्य परम्परा का विकास हुआ। इनके साहित्य में स्त्री संवेदना के विभिन्न पक्ष देखने को मिलते हैं। सूफी साधकों ने स्त्री को ईश्वर का प्रतिनिधि मानकर स्त्री को विशेष सम्मान दिया गया और पारलौकिक अर्थ में स्त्री से प्रेम को ईश्वर प्रेम का दर्जा दिया। इनके साहित्य में दो प्रकार की स्त्रियाँ चित्रित की गईं हैं। एक पत्नी और दूसरी प्रेमिका के रूप में।

पत्नी के रहते हुए नायक पहली स्त्री को छोड़ कर दूसरी को पाने के लिए जाता है और जैसे ही नायक ईश्वर रूपी स्त्री को पा लेता है और विवाह कर लेता है तो वह स्त्री भी साधारण स्त्री बन जाती है। सूफियों ने पतिव्रता स्त्री की खूब प्रशंसा की किन्तु पुरूष के बहुविवाह पर मौन साधे रहे। यह मौन उस युग की विवशता हो सकती है। क्योंकि मध्यकालीन स्त्री पीड़ा का अहसास उनके भीतर कही न कही था तभी तो उन्होंने ने नागमती की स्त्री वेदना को चित्रित करने की आवश्यकता समझी। पत्नी प्रेम के आगे परस्त्री प्रेम को स्वीकार करते हुए परस्त्री प्रेम में रत पति से उपेक्षित स्त्री की पीड़ा की मार्मिक चित्रण का सशक्त उदाहरण पद्मावत है। इसमें रानी नागमती (पद्मावत) के वियोग वर्णन में पति द्वारा उपेक्षित पत्नी की पीड़ा का मार्मिक एवं मनोवैज्ञानिक वर्णन किया गया है।

सूफियों के प्रेमाख्यान काव्यों में चित्रित नायक-नायिका भारतीय पारिवारिक संरचना का समर्थन करते हैं। इसलिए वहां प्रेम की परिणति विवाह में स्वीकार की गयी है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में डॉ. नगेंद्र लिखते हैं- प्रेमाख्यान-रचयिताओं ने, चाहे वे हिन्दू हों या मुस्लमान, भारतीय वातावरण एवं हिन्दू समाज की मर्यादाओं के अनुरूप ही नायक-नायिका का चित्रण किया है। मध्यकालीन भारतीय समाज में पुरुष के लिए बहु-विवाह की अनुमति थी, अत: इनके नायक भी प्राय: एक से अधिक विवाह करते हैं जबकि नायिकायें, भारतीय परम्परा के अनुसार पातिव्रत्य का पालन करती हुई अंत में सती हो जाती है।

 भक्तिकालीन साहित्य पितृसत्तात्मक समाज को मजबूत करता है। जायसी के समय को देखे तो यह काल स्त्री विवश्ता को समझकर भी पराधीनता का धोर समर्थन करता है। सूफी कवियों ने तत्कालीन समाज की स्त्रियों के यथार्थ चित्रों को अपने साहित्य में उतराने की कोशिश भी की है। भारतीय समाज में नारी के विभिन्न रुप मिलते हैं जैसे बेटी, पत्नी, माँ, बहन, प्रेमिका आदि। नारी के ये विभिन्न रुप पितृसत्ता की देन हैं। पितृसत्तात्मक समाज स्त्री को इन सम्बंधों में कैद कर उसकी स्वतन्त्रता पर नियंत्रण रखता है। उसे आदर्श पत्नी, माँ, बहन, बेटी बनने पर मजबूर किया जाता है। स्त्री को बालपन से ही स्त्रियोंचित व्यवहार समझाये जाते हैं और उसे वैसा ही व्यवहार करने को बाध्य किया जाता है।

“ए रानी! मनु देखु बिचारी एहि नैहर रहना दिन चारि”

यह सारा प्रपंच स्त्री पर नियंत्रण रखने के लिए किया जाता है क्योंकि पुरूष जानता है कि स्वतन्त्र स्त्री अपने हक़ की मांग कर सकती है। स्त्री पीड़ा की मार्मिक अभिव्यक्ति सूफ़ी कवि अमीर खुसरो की रचनाओं में भी देखी जा सकती है। खुसरो की पंक्तियां ‘सुन बाबुल मेरे’ में मध्यकालीन स्त्री दासता जीवंत चित्रण देखा जा सकता है। बेटी को पराया धन मानने वाले भारतीय समाज में स्त्री की शाश्वत पीड़ा की अभिव्यक्ति खुसरों के इस गीत द्वारा महसूस की जा सकती है।

हम तो बाबुल तेरे खेतों की चिड़िया,/चुग्गा चुगत उड़ि जाऊं।

सूफी कवि अपने युग अनुरूप स्त्री का चित्रण कर रहे थे। पुरूष वर्चस्व को स्थापित करने के लिए कृष्णकाव्य ने स्त्री को प्रेम करने की स्वतन्त्रता दी पर भक्ति की आड़ लेकर। मीरा का काव्य इसका उदाहरण है। भक्ति की आड़ में सबकुछ जायज मान लिया जाता है। भक्ति के पीछे पुरुषवादी सोच रखने वाले सामान्य जन कृष्ण की इस बात की प्रशंसा करते हैं कि वह एक ही समय में रासलीला व अन्य क्रियाएं करते हैं। कृष्ण भक्ति के संदर्भ में आलोचकों को परकीया प्रेम उचित लगता है, जबकि रीतिकाल में परकीया प्रेम की निंदा की जाती हैं। मध्यकाल के इस दोहरी सोच को भक्ति और दरबारी संस्कृति के संदर्भ में तर्कसंगत ठहराने की दलीलें दी जातीं हैं। सूरदास के काव्य में ज्ञान पर प्रेम की जीत दिखाई गयी है। कृष्ण की बांसुरी बजते ही गोपियाँ सब-कुछ छोड़ कृष्ण के पास चली आती हैं। भ्रमरगीत की गोपियाँ इसलिए जानी जाती हैं क्योंकि वे अपने कृष्ण प्रेम के लिए ज्ञान को तर्क सहित त्याग दिया था।  सूफी काव्य में तो पतिव्रता का महत्व इतना बढ़ जाता है की पति से एकनिष्ठ प्रेम के अतिरिक्त स्त्री जीवन का दूसरा कोई लक्ष्य ही नही है। जायसी और पद्माकर की नायिकाओं के व्यक्तित्व के सामाजिक पक्ष का तुलनात्मक अध्ययन | स्त्रीकाल

उस युग की मानसिकता में ही नहीं था कि स्त्री का अस्तित्व पुरूष के बिना भी हो सकता है इसलिए पितृसत्ता के फ्रेम से बाहर की स्त्री को ताड़ना का अधिकारी बना दिया जाता था। समाज में वही स्त्री नैतिक रूप से उच्च मानी गयी है जो अपने पति की ही होकर रहे। स्त्री को एक पुरुष की होकर रहना सीखाया जाता था किन्तु पुरुष अपने सम्बन्धों के लिए स्वतन्त्र था। रत्नसेन अपनी विवाहिता स्त्री (पत्नी) को त्याग कर ईश्वर की प्रतिमूर्ति पद्मावती को पाना चाहता है। भारतीय साहित्य में पुरुष या नायक-भेद में स्वकीया जैसी कोई अवधारणा नहीं मिलती। मतलब एकनिष्ठता का कोई मानदण्ड़ पुरुष के लिए नहीं था। उनके अनुसार जिस स्त्री में ईश्वर की झलक दिखाई दे उसे पाने के लिए संसार के तमाम बन्धनों से मुक्त होना पड़ता है। इनके काव्यों में दो प्रकार की स्त्रियाँ है एक जो पत्नी है जिसे माया कहा गया है दूसरी स्त्री ईश्वर का रूप है जिसको पुरुष पाने के लिए संघर्षरत रहता है। इसी स्त्री में ईश्वर की झलक देखी जाती है। सूफी कवियों ने समासोक्ति के माध्यम से अपनी बात कही है किन्तु इसके अलौकिक अर्थ को छोड़कर लौकिक अर्थ की बात की जाए तो यही समझा जा सकता है कि पुरूष स्त्री के सौंन्दर्य के आगे नतमस्तक है। और नित नवीन का खोजी उसके रूप सौंदर्य के आगे आकर्षित होने के लिए विवश।

भारतीय समाज में विवाह संस्था को बनाए रखने के लिए स्त्री का सब कुछ पीछे छूट जाता है। अपने माता पिता को छोड़ अंजान पुरूष के परिवार को अपना मान नये सम्बन्ध को निभाना होता है। विवाह के बाद स्त्री की स्वतन्त्रता रातों रात छिन जाती है और बेटी से बहु बनकर परिवार की कुल मर्यादा बनाए रखने के दबाब में जीवन भर जीती रहती है। ससुराल में उसे संयम और मर्यादा के साथ रहने की सीख दी जाती है। सूफी साहित्य में विवाह के अवसर किए जाने वाले लोकव्यवहार का विस्तार से वर्णन किया गया है। विवाह संस्कार के बाद स्त्री जीवन पूरी तरह से बदल जाता है। स्त्री जीवन में आए भारी बदलाव के दंश को खुसरो ने अपने इस गीत के माध्यम से अभिव्यक्त किया है।

काहे को ब्याहे बिदेस, अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस
भैया को दियो बाबुल महले दो-महले
हमको दियो परदेस
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

 वास्तव में स्त्री हर जगह परतन्त्र है। स्त्री जिस जगह होती है उसकी परतन्त्रता उसके अनुरूप तय की जाती है। पितृसत्ता के दबाव में पिता के घर उसे कभी भाई के अधिकार के लिए समझौता करना पड़ता है तो ससुराल में पति के सम्मान के लिए चुप रहना पड़ता है। जीवनभर तमाम नैतिकताओं को झेलती हुई स्त्री अकेले पड़ती जाती है। खुसरों स्त्री जीवन के यथार्थ को इन शब्दों में अभिव्यक्त करते हैं।

 हम तो बाबुल तोरे खूँटे की गैयाँ
जित हाँके हँक जैहें
अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस

हिन्दी प्रेमाख्यान सूफी काव्य में स्त्री को ही परमात्मा मान लिया गया है देखने में यह स्त्री-सम्मान का सूचक है। लेकिन इस स्त्री रूपी परमात्मा को पुरुष रूपी जीवात्मा के लिए आकुल-व्याकुल ही नहीं दिखाया गया है बल्कि उस जीवात्मा के लिए सती होते हुए भी दिखलाया गया है। ‘पद्मावत’ में ‘सती माहात्म्’ को स्त्री विरोधी माना जा सकता है। यह एक ऐतिहासिक सच्चाई हो सकती है, किन्तु उसके ‘गरिमापूर्ण’ वर्णन का औचित्य मानवीय नही लगता। उनके काव्य में प्रेम की एकनिष्ठता की शर्त पर स्त्री को ही परखा गया है। क्योकि एकनिष्ठता का अभ्यास पुरूषों के लिए नही था। इसलिए उनकी अभिव्यक्तियां स्त्री के मनोभावों से जुड़कर अभिव्यक्त हुई हैं

खुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूं पी के संग जीत गयी तो पिया मोरे हारी पी के संग।

खुसरो और जायसी को स्त्री ह्रदय की अत्यंत गहरी समझ थी इसलिए उनके साहित्य में स्त्री सहानुभूति के साथ समानुभूति के चित्र देखे जा सकते हैं। जायसी ने नागमती वियोग वर्णन में स्त्री वेदना के मार्मिक दृश्य चित्रित किए हैं। किसी स्त्री के लिए इससे बड़ा दुःख नहीं हो सकता कि उसका पति किसी दूसरी स्त्री की चाहने लगे। नागमती दुनिया की सबसे दुखियारी स्त्री है। पद्मावती से विवाह के बाद रत्नसेन नागमती को देखकर हंसता है उस समय नागमणी की मन:स्थिति का वर्णन जायसी ने बहुत सुन्दर शब्दों में किया है –

काह हँससि तूँ मोसौं कियेउ जो और सौ नेहु।
 तोहि मुख चमकै बीजुरी मोहि मुख बरसै मेहु।।

नागमती रत्नसेन को हंसता हुआ देख उससे पूछती है प्रेम तुम्हें और किसी से है, देखकर मुझे हँस रहे हो, मेरे चेहरे पर मेघ बरसते हैं, क्या इसके ही प्रत्युत्तर में तुम्हारी यह हँसी बिजली-सी दमक रही है? पत्नी नागमती के सौतिया डाह का मनोवैज्ञानिक चित्रण जिस संवेदनशीलता और संजीदगी के साथ जायसी ने किया है वह उनका स्त्री के प्रति अथाह करुणा का परिचायक है। नागमती की असीम वेदना उन हजारों-हजार भारतीय स्त्रियों की स संवेदना है जो पति की उपेक्षा का शिकार बनती हैं। पितृसत्तात्मक संरचना में वह अंतहीन प्रतीक्षा के अलावा कुछ कर भी नहीं सकती। मध्यकालीन हो या आधुनिक समाज आज भी ऐसी स्त्रियाँ मिल जाती हैं जो पति की अनंत प्रतीक्षा करती हुई प्राण त्याग देती है। स्त्रियों द्वारा पति को सर्वस्व मानकर उसके प्रेम के एवज में कुछ भी कर गुजरने की इस स्वीकारोक्ति को देखा जा सकता है कि एक पत्नी पति के लिए लाजशर्म जो एक स्त्री का गहना है, को छोड़ने के लिए भी तैयार रहतीं हैं शर्त केवल इतनी है कि पति केवल उसका होकर रहे। खुसरो कहते है –

जो मैं जानती बिसरत हैं सैय्या, घुँघटा में आग लगा देती,
मैं लाज के बन्धन तोड़ सखी पिया प्यार को अपने मान लेती।
इन चूरियों की लाज पिया रखना, ये तो पहन लई अब उतरत न।
मोरा भाग सुहाग तुमई से है मैं तो तुम ही पर जुबना लुटा बैठी।
मोरे हार सिंगार की रात गयी, पियू संग उमंग की बात गयी

भारतीय सूफी प्रेमाख्यान परम्परा में मुल्ला दाउद, जायसी, मंझन और कुतुबन आदि ने परमात्मा की परिकल्पना स्त्री रूप में की है। प्रेम का मूल है शृंगार रस और शृंगार रस की अभिव्यंजना के लिए स्त्री जैसा सशक्त माध्यम और कोई नहीं हो सकता। आध्यात्मिककता के साथ मध्यकालीन साहित्य में तत्कालीन समाज की स्त्रियों के अनकहे सच को शब्द देने की पहल सूफी कवियों ने की है।  प्रेम में तन और मन के एकाकार होने का सुंदर रूपक सूफी कवि खुसरों का साहित्य इसका सशक्त उदाहरण है –

खुसरो रैन सुहाग की जागी पी के संग, तन मेरो मन पियो को, दो भय एक रंग।

प्रेम की पवित्रता और अलौकिकता को ईश्वरीय प्रेम का रूप देते हुए सभी सूफी संतों ने स्त्री को सम्मानित स्थान दिया है। प्रेम की प्रगाढ़ता को दिखाने के लिए वियोग अथवा विप्रलम्भ शृंगार का वर्णन आवश्यक माना है। वियोगावस्था में भावों का विशेष महत्व होता है इसमें जीवात्मा परमात्मा के वियोग में व्याकुल होती है यह विरहावस्था सामान्य होकर विशिष्ट व सूफीयाना होती है। जब भक्त को ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती तो वह व्याकुल होकर गाता है सूफियों की खानकाहों में मुखरित होने वाला संगीत में भी यही व्याकुलता झलकती है ऐसे अनेको उदाहरण है जिनमें नायिका (भक्त) नायक (ईश्वर) से मिलने के लिए तत्पर व व्याकुल है। प्रेम एक कठोर साधना है सूफी संतो ने प्रेम को विशेष महत्त्व दिया।  लौकिक प्रेम के माध्यम से निर्गुण निराकार ईश्वर को प्राप्त कर लेने की अभिलाषा या कहें इश्क मजाजी से इश्क हकीकी तक पहुचने का सन्देश सूफी संतों ने दिया है। डॉक्टर रामकुमार वर्मा के अनुसार – ” सूफी मत में ईश्वर की भावना स्त्री रूप में की गयी है।  वहां पुरुष बनकर उस स्त्री की प्रसन्नता के लिए सौ जन्म से निसार होता है, उसके द्वार पर जाकर प्रेम की भीख मांगता है।  ईश्वर एक दैवी स्त्री के रूप में उसके सामने उपस्थित होता है – इस तरह सूफी मत में ईश्वर स्त्री और भक्त पुरुष है।  पुरुष ही ईश्वर से मिलने की चेष्टा करता है, जिस प्रकार रतनसेन सिंघलद्वीप जाकर पद्मावती से मिलने की चेष्टा करता है।  जायसी की मान्यता है कि लौकिक प्रेम के द्वारा ईश्वरीय प्रेम को पाया जा सकता है।  प्रेमी के ह्रदय में प्रिय के प्रति प्रेम उत्पन्न करने के लिए चित्र दर्शन, स्वप्न दर्शन या सौंदर्य प्रशंसा का आश्रय लिया जाता है तथा प्रेमी प्रिय को पाने के लिए सर्वस्व त्यागकर विघ्न बाधाओं को पार करता हुआ अंत में उसे प्राप्त कर लेता है। जायसी जी कहते है प्रेम के इस क्षीर सागर को जो पार करते हैं वे जीव संज्ञा को त्यागकर शुद्ध आत्मा स्वरूप हो जाते है –

जो एही खीर समुद माह परे।
जीव गवाइ हंस होई तरे।”

सूफीवाद तो प्रेम की भट्टी है। प्रेमी की एक ही आकांक्षा रहती है कि प्रेम पथ पर अग्रसर होने के पश्चात उसकी दृढ़ता में न्यूनता न आ जाये। प्रेम को चिरंतन तत्व मानते है हुए कहते हैं वह प्रेम ही कैसा जो देह के साथ विदा हो जाये? सच्चा प्रेम वह है जो प्राण के साथ जाता है। प्रेम मार्ग दुर्गम और दुखदायी होते हुए भी सूफियों की मान्यता है कि जो इसे पार कर लेता है उसके दोनों लोक सुधर जाते है।  इस मार्ग में दुःख तब तक है जब तक कि प्रियतम से भेंट नहीं होती। प्रियतम में ईश्वर का वास होने के कारण प्रियतम से प्रेम का अर्थ है ईश्वर के प्रति प्रेम। ईश्वर स्वयं प्रेम है।  सृष्टि की रचना का कारण भी प्रेम ही है।  प्रेम के सहारे सृष्टि की इकाइयाँ प्रेम के महास्रोत में, जो पूर्ण सौन्दर्य और सर्वोत्तम भी है, निमग्न होने के लिए पूर्णतः जुडी हुई है। प्रेम ही सूफियों का धर्म है।

खुसरो दरिया प्रेम का शो उल्टी वा की धार जो उबरा सो डूब गया जो डूबा वह पार।

प्रेम की प्रगाढ़ता और सच्चाई का निर्वाह पुरूष करता है लेकिन प्रेम के परिणामस्वरूप होने वाली पीड़ा जब स्त्री के हिस्से आती है तो उसे अपनी एकनिष्ठता और शुचिता को क्यूं सिद्ध करना पड़ता है? यह शर्त पुरूष के लिए क्यूं नहीं इसका उत्तर सूफी कवियों के पास नहीं।  शायद यह उस युग की सीमा थी जिससे सूफी कवि भी बंधे हुए थे। इस कारण सतीत्व वाली मध्यकालीन सीमा को लांधने की बात सोच नही पाए। इस संदर्भ में अनामिका का कथन उल्लेखनीय है -पढ़ाया-लिखाया पुरुषों को गया, तो लेखक भी वही हुए। पर मध्ययुग के कुछ महान लेखकों: विद्यापति, जायसी, सूरदास और बिहारी अपने साहित्य में लोकजीवन का जो अंतरंग वर्णन करते हैं – उसमें कांतासम्मित उपदेश के बहाने या ‘भ्रमरगीत’ आदि में उत्कीर्ण बौद्धिक वादविवाद के सहारे स्त्रियों के आपसी बहनापे, हंसमुख बौद्धिकता और बचाव वृत्ति (सर्वाइवल तकनीक) के कुछ उदाहरण उनकी प्रमुख कृतियों में मिल ही जाते हैं, जिससे यह सिद्ध होता है कि स्त्रियां (दूतिकाएं हों या नायिकाएं) बुद्धिमती, प्रज्ञावान, परोपकारी हंसमुख जीव होती हैं, सिर्फ एक सुंदर शरीर, ‘एक लदा हुआ गर्भ’ या रोंदू-सा भीरू जन्तु नहीं।

जायसी के पद्मावत में स्त्री चरित्रांकन पर अपने विचार रखते हुए अनामिका लिखतीं है -“आधुनिक पाठक का रस-भंग होता है, उसको हँसी आती है उस प्रसंग पर जहाँ पद्मावती और नागमती – जैसी श्रेष्ठ स्त्रियों को दो पहलवानों की तरह जायसी ने आपस में भिड़ा दिया है! दोनों अपनी श्रेष्ठता का उद्घोष करती हुई बड़े-बड़े बोल बोलती हैं, साधारण सौतों की तरह आपसी मारपीट पर उतारू हो जाती हैं और तब आता है रत्नसेन श्रेष्ठतर बनकर उन्हें अलगाने! जायसी इतने महान कवि हैं कि उनकी शान के खिलाफ बोलने की इच्छा नहीं होती, इसलिए सारा दोष मध्यकाल पर ही डालती हुई कहती हूँ कि यह मध्यकालीन दृष्टि की ही सीमा है कि वह स्त्रियों के आपसी टकराव के क्षण का शब्दांकन हास्यास्पद स्वर में ठीक वैसे ही करता है जैसे लोटन कबूतरों को लड़ाकर नवाब ताली बजाते थे। मैं क्या कहने की कोशिश कर रही हूँ, साफ हो जाएगा जब इस पूरे प्रसंग को हल्के से लिंग-विपर्यय के साथ पढ़ें – कल्पना करें कि पद्मावती विवाहिता स्त्री है और रत्नसेन अविवाहित कुमार! लाख कष्ट सह कर, पचपन आध्यात्मिक उठा-पटक के बाद पद्मावती रत्नसेन को ब्याह लाती है, जहाँ उसका सामना उसके पहले पति से होता है, दोनों में भिड़ंत भी होती है; अब प्रश्न यह है कि उस भिड़ंत में क्या पद्मावती की स्थिति ऐसी होगी कि वह दोनों को समझा-बुझाकर, पुचकार कर अलग कर दे और दोनों का मन रखने को दो तरह की बातें कहे। “

एक बार और ध्यान देनें की है भारतीय प्रेमाख्यान परम्परा में कोई महत्वपूर्ण सूफी कवयित्री नहीं हुईं होती तो शायद सूफी कविता का पूरा पाठ बदल जाता। अभी तक सूफ़ी धारा में (714-801)राबिया को प्रथम स्त्री सूफी संत का दर्जा दिया गया है। उनके काव्य में स्त्री तत्कालीन समाज में स्त्री दंश की झलक देखी जा सकती है। राबिया अत्यंत गरीब परिवार से थीं और बचपन में ही उनके माता-पिता का आश्रय छिन जाने के बाद तपस्वी बन गयी। उस युग में अविवाहित रहने का निर्णय एक बड़ा क्रांतिकारी कदम था। इस्लाम में शादी न करना सबसे बड़ा कुफ़्र माना जाता है। इस लिहाज से सूफी संत राबिया के विचारों में स्त्री-मुक्ति के आरम्भिक स्वर को देखा जा सकता है।  उसे अपनी मुक्ति के लिए अल्लाह से प्रश्न करने में जरा भी संकोच नहीं हैं –

क्यों अल्लाह को छेड़े न?/ क्यों न उनके साथ शरारत करें?
क्यों न समझें उस आजादी को
जिस आजादी में ‘वो’ है और जिस आज़ादी में ‘वो’ हमें
देखना चाहता है। …
चलो ऐसे सज़दा करें कि/ सब दीवारें गुम हो जाए
जहाँ मस्ती अपने आप में ऐसे ढले / कि खुदी गुम हो जाए।

राबिया के गीतों में स्त्री मुक्ति की आकांक्षा के साथ सम्पूर्ण सूफ़ी साहित्य में स्त्री-प्रश्न और जड़ सामाजिक कुरीतियां के खिलाफ जाने का दुस्साहस देखा जा सकता है। हो सकता है कि उस युग में इनके जैसी अनेक स्त्री सूफी संतो की आवाज को उभरने ही नहीं दिया हो। मध्यकालीन इतिहास के गर्त में दबी स्त्री सूफी संतों की तलाश के साथ सूफी साहित्य में बिखरे तत्कालीन स्त्री जीवन के यथार्थ को गहराई से पढ़ने की जरूरत है।

संदर्भ ग्रंथ

 पद्मावत -संपादक डॉक्टर माता प्रसाद गुप्त, हिंदुस्तान एकेडमी इलाहाबाद, संस्करण- 1965

जायसी -विजयदेव नारायण साही, हिंदुस्तान एकेडमी इलाहाबाद, संस्करण-1993

सूफी मत और हिन्दी सूफी काव्य – डॉ नरेश, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण- 2007

स्त्री विमर्श का लोक पक्ष -अनामिका,वाणी प्रकाशन,संस्करण -2016

अमीर खुसरो और उनका हिन्दी साहित्य भोलानाथ तिवारी प्रभात प्रकाशन, संस्करण-2004

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विभा ठाकुर

लेखिका कालिंदी कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) के हिन्दी विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं। सम्पर्क +919868545886, vibha.india1@gmail.com
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