लेख

असहमति का विवेक

  • अच्युतानंद मिश्र
प्रेमचन्द ने हिंदी कहानी की भावभूमि को बदला। न सिर्फ उन्होंने आदर्शवाद से होते हुए यथार्थवाद की जमीन तलाशी ,बल्कि तीस के दशक के मध्यवे यथार्थवाद से आलोचनात्मक यथार्थवाद की ओर भी बढ़े। इस तरह प्रेमचन्द ने हिंदी कहानी को आधुनिकता की भावभूमि पर ला दिया। यहाँ तक कि वे लेखक जो आज़ादी के पश्चात्प्रेमचन्द से अलग राह तलाश रहे थे और समाज में व्यक्ति की भूमिका को कहानी के विषय के तौर पर विकसित कर रहे थे- प्रेमचन्द के इस आलोचनात्मक यथार्थ से दूर नहीं जा सकते थे। इसका कारण यह था कि कहानी में आधुनिकता की चेतना को किसी भी कीमत पर छोड़ा नहीं जा सकता था।
‘60 के दशक में हिंदी कहानी में कुंठा ,निराशा असंतोष की बाढ़ आ गयी।  इस लिहाज़ से सत्तर के दशक में नये कहानीकारों पर एक नई जिम्मेदारी आ गयी। उन्हें नये संदर्भ में परम्परा को कहानी के माध्यम से व्याख्यायित करना था। कहानी को एक बार पुनः उस आलोचनात्मक यथार्थ की भावभूमि पर ला खड़ा करना था। हालाँकि ऐसा करना कठिन था, क्योंकि समाज के भीतर और बाहर उसे अमूर्त बनाने में जो नये तरह की प्रवृत्तियांसाठ के दशक में विकसित हुयी थी ,उनसे  सीधे पीछा छुड़ाना कठिन था। कहने का तात्पर्य यह कि आलोचनात्मक यथार्थ के रास्ते में समकालीन समाज की नयीं जटिलताएं थी।
इस समस्या को हिंदी कहानी के माध्यम से जिन लेखकों ने चुनौती के रूप में सत्तर के दशक में स्वीकार किया उसमे असग़र वजाहत का नाम लिया जा सकता है। उनकी कहानियों में परम्परा का न तो सीधे -सीधे आरोपण है और न ही उसका अंध विरोध हर नई पीढ़ी को परम्परा को नये अर्थ में व्याख्यायित करना होता है इस प्रक्रिया में नई पीढ़ी का परम्परा से सार्थक सम्बन्ध तभी विकसित होता है जब परम्परा को देखने की दृष्टि द्वद्वात्मक होअसग़र वजाहत प्रेमचंद से लेकर भीष्म साहनी तक की कथा परम्परा के साथ इसी तरह का सम्बन्ध विकसित करते हैं। उनकी कहानियों में सामजिक यथार्थ की आलोचनात्मक भावभूमि का नये संदर्भों में विकास देखा जा सकता है।
असग़र वजाहत तकरीबन 50 साल से कहानी लिख रहे हैं।  कहानी के साथ-साथ उन्होंने उपन्यास ,यात्रा संस्मरण, आलोचना एवं निबन्ध भी लिखा है। किसी लेखक के इतने विस्तृत रचना संसार में इस बात का विशेष महत्व नहीं रह जाता कि उसने किन -किन विषयों पर लिखा हैअधिक महत्वपूर्ण यह है कि लेखक की यह यात्रा कितनी विकासमान रही। इस क्रम में असग़र वजाहत बेहद सम्पन्न नज़र आते हैं। उन्होंने कहानी की कोई एक लिक नहीं पकड़ी।  विधा के बने बनाये रास्ते के बीच से असग़र वजाहत ने एक अलग रास्ता बनाया। वे प्रचलित रास्ते के कहानीकार साबित नहीं होते और न ही लोकप्रियता के रास्ते किसी किस्म के सरलीकरण की तरफ जाते हैं।
असग़र वजाहत की कहानियों का मूल स्वभाव हैं समकालीनता की चेतना के भीतर आलोचनात्मक विवेक। यह बात असग़र वजाहत की लगभग सभी कहानियों के विषय में कही जा सकती है। इस चीज़ को असग़र वजाहत ने उत्तरोतर विकसित किया है। इसके लिए जो सबसे जरुरी चीज़ उनकी कहानियों को उनके समकालीन से किंचित अलगाती है,वह है तटस्थता। इस बात को उनकी कहानी जख्म के माध्यम से व्याख्यायित किया जा सकता है।
“बदलते हुए मौसमों की तरह राजधानी में साम्प्रदायिक दंगों का भी मौसम आता है। फर्क इतना है कि दूसरे मौसमों के आने जाने के बारे में जैसे स्पष्ट अनुमान लगाये जा सकते हैं वैसे अनुमान साप्रदायिक दंगों के मामले में नहीं लगते। फिर भी पूरा शहर यह मानने लगा है कि सांप्रदायिक दंगा भी मौसमों की तरह निश्चित रूप से आता है। बात इतनी सहज –साधारण बना दी गयी है कि सामप्रदायिक दंगों की ख़बरें लोग इसी तरह सुनते हैं जैसे ‘गर्मी बहुत बढ़ गयी है’ या ‘अबकी पानी बहुत बरसा’ जैसी ख़बरें सुनी जाति हैं । दंगों की ख़बर सुनकर बस इतना ही  होता है किशहर का हिस्सा ‘कर्फ्यूग्रस्त’ हो जाता है। लोग रास्ते बदल लेते हैं।  इस थोड़ी सी असुविधा पर मन ही मन कभी कभी खीज जाते हैं, उसी तरह जैसे बेतरह गर्मी पर या लगातार पानी बरसने पर कोफ़्त होती है”।
जख्म कहानी का आरम्भयहीं से होता है। इस अंश को कहानी से बाहर लाकर भी पढ़ा जा सकता है।  यह एक अतिरिक्त जोखिम है। अमूमन कहानी के आरम्भ में आप या तो पात्रों का परिचय देते हैं या किसी घटना की परिधि का निर्माण करते हैं। यहाँ असग़र वजाहत ऐसा नहीं करते।  यह उद्धरण बताता है कि असग़र वजाहत कहानी के प्रचलित दायरे को तोड़ते हैं। आखिर इसके पीछे उद्देश्य क्या है?असग़र इस बात को जानते हैं कि दंगो को लेकर जब भी कहानियां लिखी जाति है उसमें विवेक को भावुकता से बदल दिया जाता है। गलत ध्रुवीकरण की समझ के विरुद्ध सही ध्रुवीकरण की समझ पैदा करने की कोशिशकी जाति है। लेकिन इस प्रक्रिया में धुरुविकरण से निजात नहीं मिलती।  कई बार ऐसा भी लगता है कि साम्प्रदायिकता को केंद्र में लेकर लिखा गया भावुक साहित्य महज़ उन्माद के बदले उन्माद कीकोशिश बनकर रह जाति है। उसमें जो बात अक्सर छूट जाति है वह है दंगे के बाद क्या ? असग़र कहानी की शुरुआत इस बात से करते हैं कि दंगों को धीरे धीरे लोगों की ज़िन्दगी से इस तरह बाहर किया जाता है कि वह स्वाभाविक लगने लगे। रोजमर्रा की घटना प्रतीत हो, यानि जख्मोंको महसूस करने की संवेदना को अगर एक स्वाभाविक अनुकूलन में बदल दिया जाए तो यह क्रम अटूट रहेगा। असग़र की मूल चिंता दंगों को लेकर समज के बहुलांश का स्वाभाविक होना है ।  इसलिए वे कहानी की शुरुआत कहानी के प्रचलित मानकों से भिन्न रूप में करते हैं।  असग़र जब दंगों के अनुकूलित हो रहे सहरी मनोविज्ञान की व्याख्या करते हैं, तो इस बात की कोशिश भी करते हैं कि वह हिन्दू या मुस्लमान के पक्ष की तरह न  लगे।  इसके लिए आरम्भ से ही वे एक ऐसी पृष्ठभूमि निर्मित करते हैं जिसमे सही गलत के सरलीकृत मानकों से मुक्त हुआ जा सके। दंगों को लेकर जो सही गलत कीकोशिशें होती हैं, वह दरअसल दंगों को बाह्य परिघटना के साथ साथ आन्तरिक बनाने लगती हैं। ऐसे में दंगे में प्रकट क्रूरता का हम शिकार होते जाते हैं।  यह बात दंगों को केंद्र में लेकर लिखी गयी बहुत सारी कविताओं के संदर्भ में भी कही जा सकती है, जहाँ लेखक दंगे के क्रूर मनोविज्ञान का अन्यास ही हिस्सा बनाने लगता है।  वह सही गलत की सरलीकृत व्याख्याओं से इतर देखने की कोशिश भी नहीं करता।  असग़र कहानियों में सामाजिक मनोविज्ञान की गति के प्रश्न को बेहद बारीकी से बुनते हैं।
उनका डर ऐसी ही एक कहानी है। यह कहानी अमेरिका में जीविकोपार्जन के लिये गये मुस्लिमों को लेकर है। यह कहानी एक विडंबना को हमारे समक्ष रखती है। यह कहानी यह सवाल भी उठाती है कि महज़ देश काल बदलने से मनुष्य और समाज भी बदल जायेगा यह जरुरी नहीं। आधुनिक परिस्थितियों में रहने भर से कोई आधुनिक नहीं हो जाता। आधुनिकता की चेतना को अर्जित करना होता है। अमेरिका में रह रहे तीन मित्र एक कार में सफ़र कर रहे हैं। वे तीनों मुस्लिम हैं। उनके परिवारजन भारत के छोटे गांवों और कस्बों में रह रहे हैं। कहनी के मूल में यही बिडम्बना है ।उनमें से एक लेखक के मित्र का मित्र है और इसी पहचान की  वजह से उसे भी उनके साथ जाने का अवसर मिलता है। इस पूरे प्रसंग के बाद असगर तीनों की बातचीत के तौर पर उनकी समस्या को रखते हैं ।
विस्थापन की प्रक्रिया का सामाजिक विकास से किस तरह का सम्बन्ध है? जब कोई सभ्यता अपनी जड़ों से विस्थापित होती है, तो वह अपने पीछे कुछ मौलिक प्रश्नों को छोड़ देती है।  सभ्यता की चेतना कई बार वहीँ ठहर जाति है। ठहरी हुयी सभ्यता आत्मरक्षात्मक होने लगती है। और फिर उसमे कुछ जड़ताएं विकसित होने लगती हैं। उनका डर कहानी के माध्यम से असग़र इस बात को बहुत आसानी से रखते हैं कि मुस्लिम संप्रदाय की जड़ता के मूल में विभिन्न कारणों के साथ -साथ विस्थापन की भी भूमिका महत्वपूर्ण है। आखिर इस जड़ता से निकलने का रास्ता क्या है ? इसका एक रास्ता भारतीय समाज ने आज़ादी के दौरान ढूंढा था, वह रास्ता था सामाजिक एवं संस्कृतिक जागरण का, लेकिन जागरण की चेतना के मूल में जो बड़ा सवाल है वह है इसके लिए एक सामूहिक चेतना के निर्माण का। दिल्ली चलोजैसी कहानी दिल्ली के रूपक को इस अर्थ में विखंडित भी करती है और यह भी बताती है कि सामूहिक पहचान के बगैर सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव संभव नहीं।
दंगो को लेकर मंटो ने कई कहानियाँ लिखी । उनकी कहानियों में जो बड़ा सवाल उभरकर सामने आता था वह ये कि हिन्दू और मुस्लिम पहचान को पुख्ता बनाने में मनुष्यता की पहचान को लोग खो रहे हैं। टोबा टेक सिंह जैसी कहानियां वास्तव में पागलपन का एक रूपक गढ़ती हैं, और यह सवाल सामने रखती हैं कि वास्तव में पागल कौन है? वे जो दंगा नहीं चाहते या वे जो मनुष्य से पहले हिन्दू या मुसलमान होना चाहते हैं।  टोबा टेक सिंह कहानी की अगली कड़ी के रूप में और सामाजिक क्रूरता के नये विस्तार के तौर पर असग़र वजाहत की कहानी मैं हिन्दू हूँ को पढ़ा जा सकता है । यह कहानी इस बात को हमारे सामने रखती है कि धर्म का बाज़ार इस हद तक समाज का स्थायी भाव होता जा रहा है कि धार्मिक पहचान ही दंगाई होने का सबुत है।  यानि मनुष्य होने के विपरीत है हिन्दू या मुस्लमान होना।
असग़र वजाहत की कहानियों में यह बात गौर करने लायक है कि वे दंगो से संबंद्धित कहानियों में दंगों के मार्मिक वर्णन को विस्तार नहीं देते। वे दंगों के पश्चात उठ रहे धुएं और सर से रिस रहे खून को सवाल के रूप में रखते हैं। आक्रामक पूंजी ने धर्म के साथ मिलकर क्रूरता का नया समाजशास्त्र रचा है । प्रकट रूप से  देखने पर यह लग सकता है कि दंगो से लोगों की धार्मिक पहचान पुख्ता होती है उनका आत्मगौरवतुष्ट होता है। एक हद तक यह सही भी है लेकिन आज़ादी केबाद जो समय समय पर देश में दंगे होते रहे हैं उसके पीछे एक अप्रकट उद्देश्य भी रहा है । वह है सामाजिक एवं आर्थिक असुरक्षा के बोध को समाज के निम्न तबके की चेतना में पूर्णतया स्थापित कर देना। यहीं से वर्चस्व की राजनीति की जमीन विकसित होती है। असग़र वजाहत की कहानियां दंगो केइस समाजशास्त्र को हमारे सामने प्रस्तुत करती  हैं ।
असग़र वजाहत की कहानियों में विषय और शिल्प का वैविध्य उन्हें एक अलहदा रचनाकार बनाता है । उनकी कहानी होज़ वाज पापा को देखा जा सकता है । यह कहानी कई स्तरों पर हमे विचलित करती है।  देश -काल से परे, भाषा से परे ,पहचान और जाति से परे वह क्या है जो हमे एक दूसरे से जोड़े रखता है । वह क्या है कि हम अर्थ काम की भाषा के बाहर प्रेम की भाषा तलाशने लगते हैं। एक मनुष्य का दूसरे के प्रति जो प्रेम विकसित होता है वह बहुत मामूली सी बातहो सकती हैलेकिन वह उस प्रेम की प्रक्रिया के दौरान जो नई मानवीयता अर्जित करता है, वह उसे बड़ा बनाती है। असग़र वजाहत की यह कहानी भी आरम्भ में भाषा ,रंग, पहचान देश -काल के रास्ते मनुष्य-मनुष्य के बीच संवाद स्थापित करने की कोशिश करती है।  लेकिन उत्तरोत्तर ये चीज़ें अर्थहीन साबित होने लगाती है।  दरअसल मनुष्य के जीवन जीने की प्रक्रिया हर अर्थ में सामूहिक प्रक्रिया ही है।  भाषा इसके लिए एक सुविधा हो सकती है लेकिन वह अंतिम नहीं है।
असग़र वजाहत इस बात को रखते हैं कि सभ्यता के विकास ने ,सूचनाओं के नये दौर ने कहीं हमारे बीच अजनबियत की नई परिपाटी विकसित कर दी है। हम अपनी पहचान के तिलिस्म में इसकदर कैद हो जाते हैं कि हम उस दुनिया से दूर होने लगते हैं जिसके नागरिक होकर हमने भाषा ,रंग और राष्ट्र की चेतना विकसित की है ।
इस कहानी में लेखक दो स्तरों पर प्रेम को तलाशता है। अस्पताल में उसके बिस्तर के एक तरफ वृद्ध मरीज है, जो 84 की उम्र का है और ऑपरेशन के लिए दाखिल हुआ है। लेखक को लगता है कि यह वृद्ध मरीज ऑपरेशन के बाद बच नहीं सकेगा। दूसरी तरफ एक नर्स है जो उसे अच्छी लगती है।  दोनों की भाषा हंगेरियन है। वह उस भाषा को नहीं जानता, लेकिन वह उनके भीतर की जिजीविषा को पहचानता है। इसी जिजीविषा के रास्ते अस्पताल में वह देश काल और भाषा से परे नये मानवीय सम्बन्ध बनाता है।  ऑपरेशन के बाद वृद्ध धीरे धीरे ठीक होने लगता है। और एक दिन लेखक देखता है कि वे लाटरी के अंकों को ठीक ठीक खोजने की कोशिश कर रहे हैं  जिसे जीतने के पश्चात् उन्हें सौ मिलियन मिल सकता है।  लेखक मन ही मन पूछता है ‘ये बताओ कि यह इच्छामतलब लाटरी निकल आने की इच्छा कब से है तुम्हारे मन में? क्या मंदी के दिनों से है जब तुम जवान और बेरोजगार थे? या उस समय से हैं जब जर्मन और रूसी गोलियों से बचने तुम किसी अंधेरे तहखाने में छिपे हुए थे? क्या यह इच्छा उस समय भी भी तुम्हारे मन में जब तुम विजयी लाल सेना का स्वागत कर रहे थे? बाद के दिनों में क्रांति के बीत गाते हुए या सहकारी आंदोलन में रातदिन भिड़े रहने के बाद भी तुम यह सपना देखने के लिए थोड़ासा समय निकाल लेते थे? माफ करना पापा, मैं ये सब इसलिए पूछ रहा हूं कि ऐसे सपने देखना कोई बुढ़ापे में शुरू नहीं करता। है न?
विश्वयुद्धों की मार ने यूरोप को तोड़ दिया। ऐसे में वहां के लोगों के बीच खासकर पुरानी पीढ़ी के लोगों के बीच जो गहन नैराश्य का बोध विकसित हुआ, उसने उस समाज के भीतर नये तरह की अजनबियत और चुप्पी को विकसित होने दिया, लेकिन क्या इन स्थितियों ने उनके भीतर की मनुष्यता, उनकी जिजीविषा को भी नष्ट कर दिया ? एक स्तर पर यह कहानी उसी संवेदना की तलाश करती है ।
असग़र वजाहत की कहानियों का एक विशेष गुण हैं, उनका विट। उपरोक्त कहानी में भी अस्पताल की शांति का जिक्र करते हुए वे लिखते हैं ‘जितनी यहां शांति है उतनी शायद शांतिनिकेतन में भी न होगीयह स्वतः स्फूर्त विट उनकी कहानियों का अनिवार्य गुण है। यह एक हद तक उनकी भाषा और दृष्टि की बुनावट में मौजूद है। शायद यही वजह है कि असग़र एकदम निजी से लगते प्रसंगों को भी बेहद निर्ममता से कह देते हैं। इसी क्रम में उनकी एक अद्वितीय कहानी,अपनी अपनी पत्नियों का सांस्कृतिक विकास को देखा जाना चाहिए। यह कहानी संभवतः नब्बे के दशक की कहानी है। यह वह दौर है जब विमर्शों के तौर पर बहुत सारा साहित्य हिंदी में आ रहा था। उस समय और एक हद तक आज भी उसे देखने की दो अतिवादी दृष्टियाँ नज़र आती है। एक तरफ वे लोग थे ,जिन्हें लगता था कि इस तरह के साहित्य से साहित्य की क्लासिक चेतना नष्ट हो जायेगी। आज भी ऐसी समझ रखने वाले लोग साहित्य में मौजूद हैं ।दूसरे वे जिनका मानना यह था कि वास्तविक साहित्य की शुरुआत अब हुयी है और अब तक का सबकुछ एक वर्चस्वादी नज़रिए से लिखा गया है। अतः उसे पढने की नहीं  नकारने की जरुरत है। असग़र वजाहत इसन दोनों अतिवादी दृष्टिकोणों से खुद को अलगाते हैं। आरम्भ में असग़र वजाहत की जिस आलोचनात्मक यथार्थवाद की बात हमने की थी उसका एक बेहद निखरा हुआ रूप इस कहानी में नज़र आता है। यह कहानी उस प्रश्न को भी एक हद तक बदल देती है जिसमे विमर्श्वादियों का मानना है कि निजी अनुभवों के द्वारा ही लेखक उस पीड़ा को लिख सकता है।
असग़र यह सवाल उठाते हैं कि जिस स्त्री विमर्श को परिवर्तन के तौर पर पहचाने की कोशिश कर रहे हैं ,वह वास्तव में हमारे सामाजिक बोध का हिस्सा किस हद तक बन सका है। कहीं ऐसा तो नहीं कि स्त्री विमर्श एक मानसिक अनुकूलन के स्तर पर मौजूद हो, जो एक बेहद बारीक़ और संतुलित पुरुष वर्चस्व का ही एक नया रूप हो । असग़र वजाहत इन प्रश्नों के बीच से होते हुए इस काहानी को लिखते हैं।यह कहानी अनुभव और संवेदना का एक नया रूप हमारे समक्ष प्रस्तुत करती है। इस कहानी को इस अर्थ में भी पढ़ा जाना चाहिए कि समकालीनता की वास्तविक चेतना हर तरह के अनुकूलन का क्रिटीक रचती है।
हिंदी कहानी के वर्तमान में कहानी की संरचना को लेकर एक अजीब तरह अविश्वास नज़र आता है। संभव है ऐसा इसलिए भी हो कि बहुत सारे युवा लेखक संक्रमण काल से गुजर रहे हों । इस सबके विपरीतअसग़र वजाहत की कहानियां पढ़ते हुए हमेशा कहानी की संरचना अधिक पुख्ता नज़र आती है।लम्बी कहानियों के इस युग में असग़र वजाहत ने कुछ लघु कहानियां भी लिखी हैं। ये लघु कहानियां कहानी की संरचना को आलोचनात्मक विवेक के बेहद करीब ले आती हैं।उनमें प्रयुक्त स्थान ,व्यक्ति और घटनाएँ हमारे बेहद निकट की दुनिया से सम्बद्ध है ।कई लघु कथाएं मिलकर हमारे समय के एक विशाल लैंडस्केप को रचती हैं ।

असग़र वजाहत को पढ़ना परम्परा से एक सार्थक जिरह जैसा प्रतीत होता। आप असग़र वजाहत की कहानियों से असहमत भी हो सकते हैं। आप उनके पात्रों से बहस कर सकते हैं। आप उन्हें गलत साबित कर सकते हैं। और ऐसा करते हुए आप पाएंगे कि वह असहमति का विवेक ही तो कहानी और कहानीकार का मुख्य लक्ष्य है।
जुलाई 2017 में प्रकाशित 

अच्युतानंद मिश्र : जन्म 27 फरवरी , बोकारो, झारखण्ड । शुरुआती शिक्षा बोकारो में , उच्च शिक्षा दिल्ली विश्व्विद्यालय से । कई पत्रपत्रिकाओं में कविताएं , समीक्षाएं, आलोचनाएं प्रकाशित । सम्प्रति स्वतन्त्र लेखन । सम्पर्क मो. +919213166256, an.mishra27@gmail.com

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साहित्य, विचार और संस्कृति की पत्रिका संवेद (ISSN 2231 3885)
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